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=== प्राचीन भारत ===
[[वेद|वेदों]] के दीर्घतमा [[ऋषि]], [[पुराण|पुराणों]] की [[अप्सरा|अप्सराएँ]], आर्ष काव्यों, [[रामायण]] एवं [[महाभारत]] की शताधिक [[उपकथा|उपकथाएँ]] [[मनु]], [[याज्ञवल्क्य]], [[नारद]] आदि स्मृतियों का आदिष्ट कथन, [[तंत्र|तंत्रों]] एवं गुह्य साधनाओं की शक्तिस्थानीया रूपसी कामिनियाँ, उत्सवविशेष की शोभायात्रा में आगे-आगे अपना प्रदर्शन करती हुई नर्तकियाँ किसी न किसी रूप में प्राचीन भारतीय समाज में सदैव अपना सम्मानित स्थान प्राप्त करती रही है। [[दशकुमारचरित]], [[कालिदास]] की रचनाएँ, [[समयमातृका]], [[दामोदर गुप्त]] का [[कुट्टनीमतम्]] आदि ग्रंथों में वारांगनाओंवीरांगनाओं का अतिरंजित वर्णन मिलता है। [[कौटिल्य]] [[अर्थशास्त्र]] ने इन्हें [[राजतंत्र]] का अविच्छिन्न अंग माना है तथा एक सहस्र पण वार्षिक शुल्क पर प्रधान गणिका की नियुक्ति का आदेश दिया है। महानिर्वाणतंत्र में तो तीर्थस्थानों में भी देवचक्र के समारंभ में शक्तिस्वरूपा वेश्याओं को सिद्धि के लिए आवश्यक माना है। वे राजवेश्या, नागरी, [[गुप्तवेश्या]], [[ब्रह्मवेश्या]] तथा [[देववेश्या]] के रूप में पंचवेश्या हैं। स्पष्ट है कि समाज का कोई अंग एवं इतिहास का कोई काल इनसे विहीन नहीं था। इनके विकास का इतिहास समाजविकास का इतिहास है। त्रिवर्ग ([[धर्म]], [[अर्थ]], [[काम]]) की सिद्धि में ये सदैव उपस्थित रही हैं। वैदिक काल की अप्सराएँ और गणिकाएँ [[मध्ययुग]] में [[देवदासी|देवदासियाँ]] और नगरवधुएँ तथा मुसलिम काल में वारांगनाएँ और वेश्याएँ बन गर्इं। प्रारंभ में ये धर्म से संबद्ध थीं और [[चौसठ कलाएँ|चौसठों कलाओं]] में निपुण मानी जाती थीं। मध्युग में सामंतवाद की प्रगति के साथ इनका पृथक् वर्ग बनता गया और कलाप्रियता के साथ कामवासना संबद्ध हो गर्इं, पर यौनसंबंध सीमित और संयत था। कालांतर में [[नृत्यकला]], [[संगीतकला]] एवं सीमित यौनसंबंध द्वारा जीविकोपार्जन में असमर्थ वेश्याओं को बाध्य होकर अपनी जीविका हेतु लज्जा तथा संकोच को त्याग कर अश्लीलता के उस पर उतरना पड़ा जहाँ पशुता प्रबल है।
 
== वेश्यावृति के कारण ==