"जय सिंह द्वितीय": अवतरणों में अंतर

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=== दूसरा जाट युद्ध ===
सितम्बर १७२२ ई० में जयसिंह को [[आगरा]] का सूबेदार बना कर जाटों को दबाने को भेजा गया। इनके साथ ५० हजार सैनिकों की बड़ी फौज थी तथा अनेक मनसबदार भी इनके साथ थे। शाही तोपखाना भी इनके साथ था। [[चूड़ामन]] [[जाट]] का पुत्र [[मोहकमसिंह]] इस समय जाटों का नेता था। परन्तु चूड़ामन का भतीजा [[बदनसिंह]] जो उससे नाराज था, जयसिंह से आ कर मिला। इन्होंने उसका बड़ा स्वागत-सत्कार किया। एक बार फिर इन्होंने [[थूण]] के किले पर घेरा डाला। अतसिंह जोघपुर ने एक सेना मोहकमसिंह की मदद के लिए भेजी, परन्तु वह [[जोबनेर]] से 6आगे नहीं बढ़ी। विभीषण की तरह बदनसिंह की सलाह से थूण के किले का विजय होना निश्चित दिख रहा था। तब मोहकमसिंह निराश होकर गुप्त मार्ग से किला छोड़ कर अतर सिंह के पास [[जोधपुर]] पहुँचा। किन्तु जाटों के थून स्थित किले पर सवाई जयसिंह का अधिकार हो गया। इन्होंने [[सूरजमल]] के पिता बदनसिंह को भरतपुर की जागीर दी तथा राजा के रूप में उनके पगड़ी बाँधी। जून १९, १७२३ ई० को ठाकुर बदनसिंह जाट ने 'जयपुर दरबार की सेवा करने' व ८३ हजार रुपये बतौर सालाना पेशकश देना स्वीकार करके इस आशय की लिखावट पर दस्तखत किये। बदनसिंह जयपुर के दशहरा दरबार में हर साल आया करते थे। जयपुर में जहाँ जाट सेना सहित डीग के राजा का पड़ाव लगता था, वह स्थान अब भी ''बास बदनपुरा'' कहलाता है।<ref name="ignca.nic.in"/>
 
महाराजा सवाई जयसिंह के कार्यकाल का संभवतः सबसे बड़ा और कीर्तिवान कार्य था - सन १७२७ में जयपुर नगर बसाना। इसकी नींव पौष वदी १ वि. सं. १७८४, ई० को रखी गई। राजगुरु सम्राट जगन्नाथ ने नए नगर की नींव रखने का मुहूर्त निकाला तथा भूमि पूजा करवाई थी। महाराजा की आज्ञा के अनुसार नए नगर का नक्शा दीवान [[विद्याधर]] ने बनाया जो बहुत प्रतिभाशाली बंगाली ब्राह्मण था और इनके लेखा-विभाग की सेवा में नायब-अंकेक्षक था। सन १७३३ ई० में यह नगर, जिसका नाम सवाई जयसिंह ने ' सवाई जयनगर' रखा बन कर तैयार हुआ।<ref name="ignca.nic.in"/>
 
=== मालवा की दूसरी बार सूबेदारी ===k
 
जयसिंह को मुग़ल बादशाह द्वारा मालवा का दुबारा सूबेदार बनाया गया। वे २३ अक्टूबर १७२९ ई० को [[उज्जैन]] के लिए रवाना हुए। जयसिंह अपने राज्य की सुरक्षा के लिए विद्रोही मरहठों से समझौता करना चाहते थे। इनके इस समझौता-प्रस्ताव को बादशाह ने भी स्वीकार कर लिया था। इनकी इस विजय पर साहू से लिखा पढ़ी हुई। साहू इसके लिए तैयार हो गया था, किन्तु पेशवा लोग इस समझौते के ज्यादा पक्ष में नहीं था। इन्होंने दीपसिंह कुम्भाणी को साहू के पास [[सतारा]] भेजा। लौटते समय दीपसिंह निजाम से भी मिला, परन्तु सितम्बर १७३० ई० में इनके मालवा की सूबेदारी से हट जाने से वह समझौता नहीं हो सका।<ref name="ignca.nic.in"/>