"केरल की विशिष्ट नाट्य शैली कथकली": अवतरणों में अंतर

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कथकली [[केरल]] के नट्यकर्म की उच्चतर विशिष्ट शैली है। [[संगीत]],साहित्य,नृत्य,नाट्य,वाद्य आदि ललित कालओं का सम्मिश्रण इसमें पाया जाता है।तत्कालीन ग्रामिण कलाओं तथा [[संस्कृत]] नाट्य परंपराओं का संपूर्ण सम्मिलन ही कथकली की विशेषता है।
इस नाट्य शैली पर कुटियाट्टम ,कूतु,अष्टपदियाट्टम,मोहिनीअट्टम,पटयणी,कोलमतुल्ल,शास्त्रकली, तैयम,तिरा,आदि कलाओं का प्रभाव है।
[[कथकली]] की उत्पत्ति से जुडी एक किंवदंती प्रचलित है कि कोषिक्कोटु के सामूतिरि की रियासत में कृष्णनाट्टम नामक नृत्य रुपरूप प्रचलित था। कोट्टारक्कार के तंपुरान ने यह चाहा कि कृष्णनाट्टम की प्रस्तुति उनके अपने महल में हो। आज प्रचलित कथकली कृष्णनाट्टम और रामनाट्ट्म की सुधरी हुई शैली है। इस प्रकार के सुधर अनेक महान व्यक्तियों द्वारा किए गए,जिनमें वेट्टत्तु राजा,[[कोट्टयम राजा]],कल्लटिक्कोट्टु चात्तु पणिक्कर कप्लिंगाट्ट न्ंपूतिरि आदि प्रमुख हैं। रामनाट्टम के कलाकार [[श्रृंगार]] के लिए अपने [[चेहरे]] पर हल्दि चूर्ण और काला रंग लगाने लगे। वाद्य के रुपरूप में चेण्डा का इस्तेमाल कियाजाने लगा। वेट्टत्तु राजा के निर्देशानुसार मंच पर पात्रों का संवाद बंद कर दिया गया। श्रृंगार तथा वेश-भूषा आदि में कप्लिंगाट्ट नंपूतिरि द्वारा हरा,छुरी,काला, नाजुक, और दाढी आदि में परिवर्तन किए गए। चात्तुप्पणिक्कर द्वारा पात्रों के अभिनय में बदलाव लाए गए। कोट्टयम के राजा ने कथकली पद्म में [[स्ंगीतात्मकता]],वेश-भूषा की विभिन्नता आदि के लिए प्रयत्न किया।
 
यह नृत्य नाट्य कला उन्नीसवीं सदी तक [[चरमोत्कर्ष]] पर पहुँच गई थी,लेकिन बीसवीं सदी के प्रारंभ से कथकली का पतन शुरू हो गया। अंग्रेजी शिक्षा-दीक्षा,सिनेमा,नाटक आदि का प्रचार-प्रसार इसके मुख्य कारण थे। महाकवि वल्लतोल नारायण मेनन ने कथकली को उच्च स्थान देने के लिए प्रयत्न किया। उनके परिश्रम के [[फलस्वरुप]] कथकली का स्थान महत्वपूर्ण बन गया था। महाकवि और राजा मुकुंद के फलस्वरूप केरल [[कलामंडलम]] की स्थापना की गई। वल्लतोल के प्रयत्न और सुधारात्मक चिंतन प्रवृत्तियों के परिणामस्वरूप आज कथकली [[देश-विदेश]] में अपनी पहचान बना चुका है। कथकली के शीर्षस्थ गुरूजन, कलाकार तथा अन्य संघों ने इस विकास यात्रा में बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया।