"श्रावस्ती": अवतरणों में अंतर
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== परिचय ==
माना गया है कि
इन भग्नावशेषों की जाँच सन् 1862-63 में जेनरल कनिंघम ने की और सन् 1884-85 में इसकी पूर्ण खुदाई डॉ॰ डब्लू॰ हुई (Dr. W. Hoey) ने की। इन भग्नावशेषों में दो स्तूप हैं जिनमें से बड़ा महेत तथा छोटा सहेत नाम से विख्यात है। इन स्तूपों के अतिरिक्त अनेक मंदिरों और भवनों के भग्नावशेष भी मिले हैं। खुर्दा के दौरान अनेक उत्कीर्ण मूर्त्तियाँ और पक्की मिट्टी की मूर्त्तियाँ प्राप्त हुई हैं, जो नमूने के रूप में प्रदेशीय संग्रहालय (लखनऊ) में रखी गयी हैं। यहाँ संवत् 1176 या 1276 (1119 या 1219 ई॰) का शिलालेख मिला है, जिससे पता चलता है कि [[बौद्ध धर्म]] इस काल में प्रचलित था। बौद्ध काल के साहित्य में श्रावस्ति का वर्णन अनेकानेक बार आया है और भगवान बुद्ध ने यहाँ के जेतवन में अनेक चातुर्मास व्यतीत किये थे। [[जैन धर्म]] के प्रवर्तक महावीर ने भी श्रावस्ति में विहार किया था। चीनी यात्री [[फाहियान]] 5वीं सदी ई॰ में भारत आया था। उस समय श्रावस्ति में लगभग 200 परिवार रहते थे और 7वीं सदी में जब हुएन सियांग भारत आये, उस समय तक यह नगर नष्ट-भ्रष्ट हो चुका था। सहेत महेत पर अंकित लेख से यह निष्कर्ष निकाला गया कि 'बल' नामक भिक्षु ने इस मूर्त्ति को श्रावस्ति के विहार में स्थापित किया था। इस मूर्त्ति के लेख के आधार पर सहेत को जेतवन माना गया। कनिंघम का अनुमान था कि जिस स्थान से उपर्युक्त मूर्त्ति प्राप्त हुई वहाँ 'कोसंबकुटी विहार' था। इस कुटी के उत्तर में प्राप्त कुटी को कनिंघम ने 'गंधकुटी' माना, जिसमें भगवान् बुद्ध वर्षावास करते थे। महेत की अनेक बार खुदाई की गयी और वहाँ से महत्त्वपूर्ण सामग्री प्राप्त हुई, जो उसे श्रावस्ति नगर सिद्ध करती है। श्रावस्ति नामांकित कई लेख सहेत महेत के भग्नावशेषों से मिले हैं।
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