श्रावस्ती

प्राचीन भारत के कौशल राज्य की राजधानी

श्रावस्ती (Shravasti) प्राचीन भारत के कौशल राज्य की दूसरी राजधानी थी। यहाँ महात्मा बुद्ध ने कई वर्ष तक वास करा। यह आधुनिक उत्तर प्रदेश राज्य के श्रावस्ती ज़िले में राप्ती नदी के किनारे है, और नेपाल की सीमा के समीप है। यह बौद्ध धर्म के सबसे पवित्र तीर्थस्थलों में से एक है।[1][2]

श्रावस्ती
Shravasti

मूलगंधकुटी, जो महात्मा बुद्ध की जेतवन मठ में कुटिया का अवशेष है
श्रावस्ती is located in उत्तर प्रदेश
श्रावस्ती
Shown within Uttar Pradesh#India
श्रावस्ती is located in भारत
श्रावस्ती
श्रावस्ती (भारत)
स्थान उत्तर प्रदेश, भारत
निर्देशांक 27°31′1.5″N 82°3′2.2″E / 27.517083°N 82.050611°E / 27.517083; 82.050611निर्देशांक: 27°31′1.5″N 82°3′2.2″E / 27.517083°N 82.050611°E / 27.517083; 82.050611
क्षेत्रफल श्रावस्ती ज़िला
 
श्रावस्ती व अन्य बौद्ध धार्मिक स्थलों का मानचित्र

गोंडा-बलरामपुर से १२ मील पश्चिम में आज का "सहेत-महेत" गाँव ही "श्रावस्ती" है। सहेत महेत ग्राम एक दूसरे से लगभग डेढ़ फर्लांग के अंतर पर स्थित हैं। प्राचीन काल में यह कौशल देश की दूसरी राजधानी थी। भगवान राम के पुत्र लव ने इसे अपनी राजधानी बनाया था। यहाँ अवधी भाषा बोली जाती है। श्रावस्ती बौद्धजैन दोनों का तीर्थ स्थान है। तथागत दीर्घ काल तक श्रावस्ती में रहे थे। यहाँ के श्रेष्ठी अनाथपिण्डिक असंख्य स्वर्ण मुद्राएँ व्यय करके भगवान बुद्ध के लिए जेतवन बिहार बनवाया था। अब यहाँ बौद्ध धर्मशाला, मठ और मन्दिर हैं। यह बुद्धकालीन नगर था, जिसके भग्नावशेष राप्ती नदी के दक्षिणी किनारे पर फैले हुए हैं।

इन भग्नावशेषों की जाँच सन्‌ 1862-63 में जेनरल कनिंघम ने की और सन्‌ 1884-85 में इसकी पूर्ण खुदाई डॉ॰ डब्लू॰ हुई (Dr. W. Hoey) ने की। इन भग्नावशेषों में दो स्तूप हैं जिनमें से बड़ा महेत तथा छोटा सहेत नाम से विख्यात है। इन स्तूपों के अतिरिक्त अनेक मंदिरों और भवनों के भग्नावशेष भी मिले हैं। खुर्दा के दौरान अनेक उत्कीर्ण मूर्त्तियाँ और पक्की मिट्टी की मूर्त्तियाँ प्राप्त हुई हैं, जो नमूने के रूप में प्रदेशीय संग्रहालय (लखनऊ) में रखी गयी हैं। यहाँ संवत्‌ 1176 या 1276 (1119 या 1219 ई॰) का शिलालेख मिला है, जिससे पता चलता है कि बौद्ध धर्म इस काल में प्रचलित था। बौद्ध काल के साहित्य में श्रावस्ति का वर्णन अनेकानेक बार आया है और भगवान बुद्ध ने यहाँ के जेतवन में अनेक चातुर्मास व्यतीत किये थे। जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर ने भी श्रावस्ति में विहार किया था। चीनी यात्री फाहियान 5वीं सदी ई॰ में भारत आया था। उस समय श्रावस्ति में लगभग 200 परिवार रहते थे और 7वीं सदी में जब हुएन सियांग भारत आये, उस समय तक यह नगर नष्ट-भ्रष्ट हो चुका था। सहेत महेत पर अंकित लेख से यह निष्कर्ष निकाला गया कि 'बल' नामक भिक्षु ने इस मूर्त्ति को श्रावस्ति के विहार में स्थापित किया था। इस मूर्त्ति के लेख के आधार पर सहेत को जेतवन माना गया। कनिंघम का अनुमान था कि जिस स्थान से उपर्युक्त मूर्त्ति प्राप्त हुई वहाँ 'कोसंबकुटी विहार' था। इस कुटी के उत्तर में प्राप्त कुटी को कनिंघम ने 'गंधकुटी' माना, जिसमें भगवान्‌ बुद्ध वर्षावास करते थे। महेत की अनेक बार खुदाई की गयी और वहाँ से महत्त्वपूर्ण सामग्री प्राप्त हुई, जो उसे श्रावस्ति नगर सिद्ध करती है। श्रावस्ति नामांकित कई लेख सहेत महेत के भग्नावशेषों से मिले हैं।

प्राचीन नगर

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यह कोसल-जनपद का एक प्रमुख नगर था। यहाँ का दूसरा प्रसिद्ध नगर अयोध्या था। श्रावस्ती नगर अचिरावती नदी के तट पर बसा था, जिसकी पहचान आधुनिक राप्ती नदी से की जाती है। इस सरिता के तट पर स्थित आज का सहेत-महेत प्राचीन श्रावस्ती का प्रतिनिधि है। इस नगर का यह नाम क्यों पड़ा, इस सम्बन्ध में कई तरह के वर्णन मिलते हैं। बौद्ध धर्म-ग्रन्थों के अनुसार इस समृद्ध नगर में दैनिक जीवन में काम आने वाली सभी छोटी-बड़ी चीज़ें बहुतायत में बड़ी सुविधा से मिल जाती थीं। यहाँ मनुष्यों के उपभोग-परिभोग की सभी वस्तुएँ सुलभ थीं; अत: इसे सावत्थी (सब्ब अत्थि) कहा जाता था।

प्राचीन श्रावस्ती के अवशेष आधुनिक ‘सहेत’-‘महेत’ नामक स्थानों पर प्राप्त हुए हैं। यह नगर 27°51’ उत्तरी अक्षांश और 82°05’ पूर्वी देशांतर पर स्थिर था। ‘सहेत’ का समीकरण ‘जेतवन’ से तथा ‘महेत’ का प्राचीन 'श्रावस्ती नगर' से किया गया है। प्राचीन टीला एवं भग्नावशेष गोंडा एवं बहराइच ज़िलों की सीमा पर बिखरे पड़े हैं, जहाँ बलरामपुर स्टेशन से पहुँचा जा सकता है। बहराइच एवं बलरामपुर से इसकी दूरी क्रमश: 26 एवं 10 मील है। आजकल ‘सहेत’ का भाग बहराइच ज़िले में और ‘महेत’ गोंडा ज़िले में पड़ता है। बलरामपुर - बहराइच मार्ग पर सड़क से 800 फुट की दूरी पर ‘सहेत’ स्थित है, जबकि ‘महेत’ 1/3 मील की दूरी पर स्थित है। विंसेंट स्मिथ ने सर्वप्रथम श्रावस्ती का समीकरण चरदा से किया था, जो ‘सहेत-महेत’ से 40 मील उत्तर-पश्चिम में स्थित है। लेकिन जेतवन के उत्खनन से गोविंद चंद गहड़वाल के 1128 ई. के एक अभिलेख की प्राप्ति से इसका समीकरण ‘सहेत-महेत’ से निश्चित हो गया है। प्राचीन श्रावस्ती नगर अचिरावती नदी, जिसका आधुनिक नाम राप्ती है, के तट पर स्थित था। यह नदी नगर के समीप ही बहती थी। बौद्ध युग में यह नदी नगर को घेर कर बहती थी। बौद्ध साहित्य में श्रावस्ती का वर्णन कौशल जनपद की राजधानी और राजगृह से दक्षिण-पश्चिम में कालक और अस्सक तक जाने वाले राजमार्ग पर सावत्थी नामक दो महत्त्वपूर्ण पड़ावों के रूप में मिलता है।

नामोत्पत्ति

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  • श्रावस्ती कौशल का एक प्रमुख नगर था। भगवान बुद्ध के जीवन काल में यह कौशल देश की राजधानी थी। इसे बुद्धकालीन भारत के 6 महानगरों, चम्पा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत, कोशाम्बी और वाराणसी में से एक माना जाता था। इसके नाम की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में कई मत प्रतिपादित है।
  • सावत्थी, संस्कृत श्रावस्ती का पालि और अर्द्धमागधी रूप है। बौद्ध ग्रन्थों में इस नगर के नाम की उत्पत्ति के विषय में एक अन्य उल्लेख भी मिलता है। इनके अनुसार सवत्थ (श्रावस्त) नामक एक ऋषि यहाँ पर रहते थे, जिनकी बड़ी ऊँची प्रतिष्ठा थी। इन्हीं के नाम के आधार पर इस नगर का नाम श्रावस्ती पड़ गया था।
  • पाणिनि (लगभग 500 ई.पूर्व) ने अपने प्रसिद्ध व्याकरण-ग्रन्थ 'अष्टाध्यायी' में साफ़ लिखा है कि स्थानों के नाम वहाँ रहने वाले किसी विशेष व्यक्ति के नाम के आधार पर पड़ जाते थे।
  • महाभारत के अनुसार श्रावस्ती के नाम की उत्पत्ति का कारण कुछ दूसरा ही था। श्रावस्त नामक एक राजा हुए जो कि पृथु की छठी पीढ़ी में उत्पन्न हुए थे। वही इस नगर के जन्मदाता थे और उन्हीं के नाम के आधार पर इसका नाम श्रावस्ती पड़ गया था। पुराणों में श्रावस्तक नाम के स्थान पर श्रावस्त नाम मिलता है। महाभारत में उल्लिखित यह परम्परा उपर्युक्त अन्य परम्पराओं से कहीं अधिक प्राचीन है। अतएव उसी को प्रामाणिक मानना उचित बात होगी। बाद में चलकर कौशल की राजधानी, अयोध्या से हटाकर श्रावस्ती ला दी गयी थी और यही नगर कौशल का सबसे प्रमुख नगर बन गया।
  • ब्राह्मण साहित्य, महाकाव्यों एवं पुराणों के अनुसार श्रावस्ती का नामकरण श्रावस्त या श्रावस्तक के नाम के आधार पर हुआ था। श्रावस्तक युवनाश्व का पुत्र था और पृथु की छठी पीढ़ी में उत्पन्न हुआ था। वही इस नगर के जन्मदाता थे और उन्हीं के नाम के आधार पर इसका नाम श्रावस्ती पड़ गया था।
  • पुराणों में श्रावस्तक नाम के स्थान पर श्रावस्त नाम मिलता है।
  • महाभारत में उल्लिखित यह परम्परा उपर्युक्त अन्य परम्पराओं से कहीं अधिक प्राचीन है। अतएव उसी को प्रामणिक मानना उचित बात होगी।
  • मत्स्य एवं ब्रह्मपुराणों में इस नगर के संस्थापक का नाम श्रावस्तक के स्थान पर श्रावस्त मिलता है। बाद में चलकर कौशल की राजधानी, अयोध्या से हटाकर श्रावस्ती ला दी गयी थी और यही नगर कौशल का सबसे प्रमुख नगर बन गया।
  • एक बौद्ध ग्रन्थ के अनुसार वहाँ 57 हज़ार कुल रहते थे और कोशल-नरेशों की आमदनी सबसे ज़्यादा इसी नगर से हुआ करती थी। गौतम बुद्ध के समय में भारतवर्ष के 6 बड़े नगरों में श्रावस्ती की गणना हुआ करती थी। यह चौड़ी और गहरी खाई से घिरा हुआ था। इसके अतिरिक्त इसके इर्द-गिर्द एक सुरक्षा-दीवार भी थी, जिसमें हर दिशा में दरवाज़े बने हुए थे। हमारी प्राचीन कला में श्रावस्ती के दरवाज़ों का अंकन हुआ है। उससे ज्ञात होता है कि वे काफ़ी चौड़े थे और उनसे कई बड़ी सवारियाँ एक ही साथ बाहर निकल सकती थीं। कौशल के नरेश बहुत सज-धज कर बड़े हाथियों की पीठ पर कसे हुए चाँदी या सोने के हौदों में बैठ कर बड़े ही शान के साथ बाहर निकला करते थे।
  • चीनी यात्री फाहियान और हुयेनसांग ने भी श्रावस्ती के दरवाज़ों का उल्लेख किया है। श्रावस्ती एक समृद्ध, जनाकीर्ण और व्यापारिक महत्त्व वाली नगरी थी। यहाँ मनुष्यों के उपभोग-परिभोग की सभी वस्तुएँ सुलभ थीं, अत: इसे सावत्थी कहा जाता था।

पहले यह केवल एक धार्मिक स्थान था, किन्तु कालान्तर में इस नगर का समुत्कर्ष हुआ। जैन साहित्य में इसके लिए 'चंद्रपुरी' तथा 'चंद्रिकापुरी' नाम भी मिलते हैं।

  • महाकाव्यों एवं पुराणों में श्रावस्ती को राम के पुत्र लव की राजधानी बताया गया है।
  • कालिदास ने इसे ‘शरावती’ नाम से अभिहित किया है। उच्चारण सम्बन्धी समानता के आधार पर ‘श्रावस्ती’ और ‘शरावती’ दोनों एक ही प्रतीत होते हैं और एक निश्चित स्थान की तरफ इंगित भी करते हैं।
  • श्रावस्ती न केवल बौद्ध और जैन धर्मों का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र था, अपितु यह ब्राह्मण धर्म एवं वेद विद्या का भी एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। यहाँ वैदिक शिक्षा केन्द्र के कुलपति के रूप में 'जानुस्सोणि' का नामोल्लेख मिलता है। कालान्तर में बुद्ध के जीवन-काल से सम्बन्धित तथा प्रमुख व्यापारिक मार्गों से जुड़े होने के कारण श्रावस्ती की भौतिक समृद्धि में वृद्धि हुई।

नगर का विकास

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जेतवन स्तूप के अवशेष, श्रावस्ती

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हमारे कुछ प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार कौशल का यह प्रधान नगर सर्वदा रमणीक, दर्शनीय, मनोरम और धनधान्य से सम्पन्न था। इसमें सभी तरह के उपकरण मौजूद थे। इसको देखने से लगता था, मानो देवपुरी अलकनन्दा ही साक्षात् धरातल पर उतर आयी हों। नगर की सड़कें चौड़ी थीं और इन पर बड़ी सवारियाँ भली भाँति आ सकती थीं। नागरिक श्रृंगार-प्रेमी थे। वे हाथी, घोड़े और पालकी पर सवार होकर राजमार्गों पर निकला करते थे। इसमें राजकीय कोष्ठागार बने हुए थे, जिनमें घी, तेल और खाने-पीने की चीज़ें प्रभूत मात्रा में एकत्र कर ली गयी थीं।

बौद्ध धर्म अनुयायी

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वहाँ के नागरिक गौतम बुद्ध के बहुत बड़े भक्त थे। 'मिलिन्दप्रश्न' नामक ग्रन्थ में चढ़ाव-बढ़ाव के साथ कहा गया है कि इसमें भिक्षुओं की संख्या 5 करोड़ थी। इसके अलावा वहाँ के तीन लाख सत्तावन हज़ार गृहस्थ बौद्ध धर्म को मानते थे। इस नगर में 'जेतवन' नाम का एक उद्यान था, जिसे वहाँ के जेत नामक राजकुमार ने आरोपित किया था। इस नगर का अनाथपिण्डिक नामक सेठ जो बुद्ध का प्रिय शिष्य था, इस उद्यान के शान्तिमय वातावरण से बड़ा प्रभावित था। उसने इसे ख़रीद कर बौद्ध संघ को दान कर दिया था। बौद्ध ग्रन्थों में कथा आती है कि इस पूँजीपति ने जेतवन को उतनी मुद्राओं में ख़रीदा था जितनी कि बिछाने पर इसके पूरे फ़र्श को भली प्रकार ढक देती थीं। उसने इसके भीतर एक मठ भी बनवा दिया जो कि श्रावस्ती आने पर बुद्ध का विश्रामगृह हुआ करता था। इसे लोग 'कोशल मन्दिर' भी कहते थे। अनाथपिंडिक ने जेतवन के भीतर कुछ और भी मठ बनवा दिये, जिनमें भिक्षु लोग रहते थे। इनमें प्रत्येक के निर्माण में एक लाख मुद्राएँ ख़र्च हुई थीं। इसके अतिरिक्त उसने कुएँ, तालाब और चबूतरे आदि का भी वहाँ निर्माण करा दिया था। बौद्ध ग्रन्थों में वर्णन मिलता है कि जेतवन में रहने वाले भिक्षु सुबह और शाम राप्ती नदी में नहाने के लिए आते थे; लगता है कि यह उद्यान इसके तट के समीप ही कहीं स्थित था। अनाथपिंडिक ने अपने जीवन की सारी कमाई बौद्ध संघ के हित में लगा दी थी। उसके घर पर श्रमणों को बहुसंख्या में प्रति दिन यथेष्ट भोजन कराया जाता था। गौतम बुद्ध के प्रति श्रद्धा के कारण श्रावस्ती नरेशों ने इस नगर में दानगृह बनवा रखा था, जहाँ पर भिक्षुओं को भोजन मिलता था।

महाकाव्यों तथा पुराणों में वर्णित श्रावस्ती

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महाकाव्यों में श्रावस्ती का विशद वर्णन मिलता है। वायु पुराण और वाल्मीकि रामायण में वर्णन है कि रामचंद्र जी ने दक्षिण कौशल का अपने पुत्र कुश को और उत्तर कौशल का लव को राजा बनाया था। रामायण के अनुसार लव की राजधानी श्रावस्ती में थी, मधुपुरी में शत्रुघ्न को सूचना मिली कि लव के लिए श्रावस्ती नामक नगरी राम ने बसायी है और अयोध्या को जनहीन करके उन्होंने स्वर्ग जाने का विचार किया है। इस वर्णन से प्रतीत होता है कि श्रीराम के स्वर्गारोहण के पश्चात अयोध्या उजड़ गयी थी और कौशल की नई राजधानी श्रावस्ती में बनायी गयी थीं। रामायण में दो कौशल नगरों की चर्चा है:-

उत्तर कौशल जिसकी राजधानी श्रावस्ती थी,
दक्षिण कौशल जिसकी राजधानी कुशावती थी।

राम के शासन काल में इन दोनों राजधानियों का वर्णन मिलता है। राम ने अपने पुत्र लव को श्रावस्ती का और कुश को कुशावती का राजा बनाया था। वर्तमान समय में श्रावस्ती बलरामपुर से 10 मील, अयोध्या से 58 मील तथा राजगीर से 720 मील दूर स्थित है।

मत्स्य, लिंग और कूर्म पुराणों में श्रावस्ती को गोंडा में स्थित बतलाया गया है, जिसका समीकरण कनिंघम ने आधुनिक गोंडा से किया है। श्रावस्ती की संस्थापना श्रावस्तक ने की थी। वायु पुराण के अनुसार श्रावस्तक के पिता का नाम अंध था। मत्स्य और ब्रह्म पुराणों में श्रावस्त या श्रावस्तक को युवनाश्व का पुत्र और अद्र का पौत्र कहा गया है। महाभारत में इनसे अलग सूचना मिलती है। इसमें श्रावस्तक को श्राव का पुत्र तथा युवनाश्व का पौत्र कहा गया है। कुछ पुराणों में श्रवस्तक या श्रावस्तक को युवनाश्व का पुत्र और अद्र का पौत्र कहा गया है। कालिदास ने रघुवंश में लव को 'शरावती' नामक नगरी का राजा बनाया जाना लिखा है। इस उल्लेख में 'शरावती', निश्चय रूप से श्रावस्ती का ही उच्चारण भेद है। श्रावस्ती की स्थापना पुराणों के अनुसार, 'श्रवस्त' नाम के सूर्यवंशी राजा ने की थी। लव ने यहाँ कौशल की नई राजधानी बनायी और श्रावस्ती धीरे-धीरे उत्तर कौशल की वैभवशालिनी नगरी बन गयी।

इन्हें भी देखें

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  1. Law, B.C. (1935). Sravasti in Indian Literature. Memoirs of the Archaeological Survey of India: Number 50, ASI.
  2. Ling, T. (1973). The Buddha: Buddhist Civilization in India and Ceylon. Temple Smith. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-85117-034-3.