"अहिंसा": अवतरणों में अंतर

टैग: मोबाइल संपादन मोबाइल वेब संपादन
छो Siddhant shastri (Talk) के संपादनों को हटाकर संजीव कुमार के आखिरी अवतरण को पूर्ववत किया
टैग: वापस लिया
पंक्ति 17:
 
आत्मा की अशुद्ध परिणति मात्र हिंसा है; इसका समर्थन करते हुए आचार्य अमृतचंद्र ने लिखा है : असत्य आदि सभी विकार आत्मपरिणति को बिगाड़नेवाले हैं, इसलिए वे सब भी हिंसा हैं। असत्य आदि जो दोष बतलाए गए हैं वे केवल "शिष्याबोधाय" हैं। संक्षेप में रागद्वेष का अप्रादुर्भाव अहिंसा और उनका प्रादुर्भाव हिंसा है। रागद्वेषरहित प्रवृत्ति से अशक्य कोटि का प्राणवध हो जाए तो भी नैश्चयिक हिंसा नहीं होती, रागद्वेषरहित प्रवृत्ति से, प्राणवध न होने पर भी, वह होती है। जो रागद्वेष की प्रवृत्ति करता है वह अपनी आत्मा का ही घात करता है, फिर चाहे दूसरे जीवों का घात करे या न करे। हिंसा से विरत न होना भी हिंसा है और हिंसा में परिणत होना भी हिंसा है। इसलिए जहाँ रागद्वेष की प्रवृत्ति है वहाँ निरंतर प्राणवध होता है।
"अप्रादुरभावः खलु रागादिनां भविष्य हिंसेति।
तेषामेवोत्पत्ति हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपा:।।"
 
जैसे - दीपावली के अवसर पर पटाखा आदि नही फोड़ना चाहिए क्योंकि इससे बहुत स्थावर-त्रस जीवो की मृत्यु हो जाती है जिससे हिंसा का पाप लगता है पटाखो आदि को जलाने से हिंसा,धन,समय,ज़िन्दगी आदि सभी तरह की हानि होती है स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है अतः पटाखो से दूर रहे
सिद्धांत शास्त्री कोटा (सुरखी)
 
== अहिंसा की भूमिकाएँ ==