'''तीनकठिया खेती(tinkathiya pratha)''' अंग्रेज मालिकों द्वारा [[बिहार]] के [[चंपारण]] जिले के रैयतों (किसानों) पर नील की खेती के लिए जबरन लागू तीन तरीकों मे एक था। खेती का अन्य दो तरीका 'कुरतौली' और 'कुश्की' कहलाता था। तीनकठिया खेती में प्रति बीघा (२० कट्ठा) तीन कट्ठा जोत पर नील की खेती करना अनिवार्य बनाया गया था। 1860 के आसपास नीलहे फैक्ट्री मालिक द्वारा नील की खेती के लिए ५ कट्ठा खेत तय किया गया था जो 1867 तक तीन कट्ठा या तीनकठिया तरीके में बदल गया। इस प्रकार फसल के पूर्व में दिए गए रकम के बदले फैक्ट्री मालिक रैयतों के जमीन के अनुपात में खेती कराने को बाध्य करते थे। अप्रैल १९१७ में [[राजकुमार शुक्ल]] के आमंत्रण पर [[महात्मा गाँधी]] के आगमन और अंग्रेज अधिकारियों के साथ लगातार बातचीत और विरोध के बाद यह तरीका खत्म हुआ। भारतीय स्वतंत्रता इतिहास में गाँधीजी के [[सत्याग्रह]] का यह पहला प्रयोग था।