"अलंकार (साहित्य)": अवतरणों में अंतर

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'''अलंकार''' अलंकृति ; अलंकार : अलम् अर्थात् भूषण। जो भूषित करे वह अलंकार है। अलंकार, [[कविता]]-कामिनी के सौन्दर्य को बढ़ाने वाले तत्व होते हैं। जिस प्रकार आभूषण से नारी का लावण्य बढ़ जाता है, उसी प्रकार अलंकार से कविता की शोभा बढ़ जाती है। कहा गया है - ''''अलंकरोति इति अलंकारः'''' (जो अलंकृत करता है, वही अलंकार है।) [[भारतीय साहित्य]] में [[अनुप्रास]], उपमा, रूपक, अनन्वय, [[यमक]], श्लेष, उत्प्रेक्षा, संदेह, अतिशयोक्ति, वक्रोक्ति आदि प्रमुख अलंकार हैं।
 
इस कारण व्युत्पत्ति से उपमा आदि अलंकार कहलाते हैं। उपमा आदि के लिए अलंकार शब्द का संकुचित अर्थ में प्रयोग किया गया है। व्यापक रूप में सौंदर्य मात्र को अलंकार कहते हैं और उसी से काव्य ग्रहण किया जाता है। (''काव्यं ग्राह्ममलंकारात्। सौंदर्यमलंकार: - [[वामन]]'')। चारुत्व को भी अलंकार कहते हैं। (टीका, व्यक्तिविवेक)। [[भामह]] के विचार से वक्रार्थविजा एक शब्दोक्ति अथवा शब्दार्थवैचित्र्य का नाम अलंकार है। (''वक्राभिधेतशब्दोक्तिरिष्टा वाचामलं-कृति:।'') [[रुद्रट]] अभिधानप्रकारविशेष को ही अलंकार कहते हैं। (''अभिधानप्रकाशविशेषा एव चालंकारा:'')। [[दंडी]] के लिए अलंकार काव्य के शोभाकर धर्म हैं (''काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते'')। सौंदर्य, चारुत्व, काव्यशोभाकर धर्म इन तीन रूपों में अलंकार शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में हुआ है और शेष में शब्द तथा अर्थ के अनुप्रासोपमादि अलंकारों के संकुचित अर्थ में। एक में अलंकार काव्य के प्राणभूत तत्व के रूप में ग्रहीत हैं और दूसरे में सुसज्जितकर्ता के रूप में।
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इन मतों के विरोध में 13वीं शती में [[जयदेव]] ने अलंकारों को काव्यधर्म के रूप में प्रतिष्ठित करते हुए उन्हें अनिवार्य स्थान दिया है। जो व्यक्ति अग्नि में उष्णता न मानता हो, उसी की बुद्धिवाला व्यक्ति वह होगा जो काव्य में अलंकार न मानता हो। अलंकार काव्य के नित्यधर्म हैं (''अंगीकरोति य: काव्यं शब्दार्थावनलंकृती। असौ न मन्यते कस्मादनुष्णमनलं कृती''।- [[चंद्रालोक]])।
 
इस विवाद के रहते हुए भी [[आनंदवर्धन]] जैसे समन्वयवादियों ने अलंकारों का महत्व प्रतिपादित करते हुए उन्हें आंतर मानने में हिचक नहीं दिखाई है। रसों को अभिव्यंजना वाच्यविशेष से ही होती है और वाच्यविशेष के प्रतिपादक शब्दों से रसादि के प्रकाशक अलंकार, रूपक आदि भी वाच्यविशेष ही हैं, अतएव उन्हें अंतरंग रसादि ही मानना चाहिए। बहिरंगता केवल प्रयत्नसाध्य यमक आदि के संबंध में मानी जाएगी (''यतो रसा वाच्यविशेषैरेवाक्षेप्तव्या:। तस्मान्न तेषां बहिरंगत्वं रसाभिव्यक्तौ। यमकदुष्करमार्गेषु'' - ''तु तत् स्थितमेव।'' - ध्वन्यालोक)। [[अभिनवगुप्त]] के विचार से भी यद्यपि रसहीन काव्य में अलंकारों की योजना करना शव को सजाने के समान है (''तथाहि अचेतनं शवशरीरं कुंडलाद्युपेतमपि न भाति, अलंकार्यस्याभावात्''-लोचन), तथापि यदि उनका प्रयोग अलंकार्य सहायक के रूप में किया जाएगा तो वे कटकवत् न रहकर कुंकुम के समान शरीर को सुख और सौंदर्य प्रदान करते हुए अद्भुत सौंदर्य से मंडित करेंगे; यहाँ तक कि वे काव्यात्मा ही बन जाएँगे। जैसे खेलता हुआ बालक राजा का रूप बनाकर अपने को सचमुच राजा ही समझता है और उसके साथी भी उसे वैसा ही समझते हैं, वैसे ही रस के पोषक अलंकार भी प्रधान हो सकते हैं (''सुकवि: विदग्धपुरंध्रीवत् भूषणं यद्यपि श्लिष्टं योजयति, तथापि शरीरतापत्तिरेवास्य कष्टसंपाद्या, कुंकुमपीतिकाया इव। बालक्रीडायामपि राजत्वमिवेत्थममुमर्थं मनसि कृत्वाह।''-लोचन)।
 
 
''तु तत् स्थितमेव।'' - ध्वन्यालोक)। [[अभिनवगुप्त]] के विचार से भी यद्यपि रसहीन काव्य में अलंकारों की योजना करना शव को सजाने के समान है (''तथाहि अचेतनं शवशरीरं कुंडलाद्युपेतमपि न भाति, अलंकार्यस्याभावात्''-लोचन), तथापि यदि उनका प्रयोग अलंकार्य सहायक के रूप में किया जाएगा तो वे कटकवत् न रहकर कुंकुम के समान शरीर को सुख और सौंदर्य प्रदान करते हुए अद्भुत सौंदर्य से मंडित करेंगे; यहाँ तक कि वे काव्यात्मा ही बन जाएँगे। जैसे खेलता हुआ बालक राजा का रूप बनाकर अपने को सचमुच राजा ही समझता है और उसके साथी भी उसे वैसा ही समझते हैं, वैसे ही रस के पोषक अलंकार भी प्रधान हो सकते हैं (''सुकवि: विदग्धपुरंध्रीवत् भूषणं यद्यपि श्लिष्टं योजयति, तथापि शरीरतापत्तिरेवास्य कष्टसंपाद्या, कुंकुमपीतिकाया इव। बालक्रीडायामपि राजत्वमिवेत्थममुमर्थं मनसि कृत्वाह।''-लोचन)।
 
वामन से पहले के आचार्यों ने अलंकार तथा गुणों में भेद नहीं माना है। [[भामह]] "भाविक" अलंकार के लिए 'गुण' शब्द का प्रयोग करते हैं। [[दंडी]] दोनों के लिए "मार्ग" शब्द का प्रयोग करते हैं और यदि [[अग्निपुराण]]कार काव्य में अनुपम शोभा के आजाएक को गुण मानते हैं (''य: काव्ये महतीं छायामनुगृह्णात्यसौ गुण:'') तो दंडी भी काव्य के शोभाकर धर्म को अलंकार की संज्ञा देते हैं। वामन ने ही गुणों की उपमा युवती के सहज सौंदर्य से और शालीनता आदि उसके सहज गुणों से देकर गुणरहित किंतु अलंकारमयी रचना काव्य नहीं माना है। इसी के पश्चात् इस प्रकार के विवेचन की परंपरा प्रचलित हुई।
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जैसे;-
1)# चारु-चंद्र की चंचल किरणे
 
1) चारु-चंद्र की चंचल किरणे
इसमे च वर्ण बार बार आया है
2)# तरनि तनुजा तट तमाल तरुवर बहु छाय
 
3)# रघुपति राघव राजा राम
2) तरनि तनुजा तट तमाल तरुवर बहु छाय
 
 
3) रघुपति राघव राजा राम
 
== २. [[यमक अलंकार]] ==
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उदाहरण :-
 
1)# तो पर बारों उरबसी,सुन राधिके सुजान।<br/>तू मोहन के उरबसी, छबै उरबसी समान।
2)# कनक कनक ते सौ गुनी,मादकता अधिकाये।<br/>या खाये बौराये जग, बा खाये बौराये।
तू मोहन के उरबसी, छबै उरबसी समान।
3) #काली घटा का घमंड घटा
 
2) कनक कनक ते सौ गुनी,मादकता अधिकाये।
या खाये बौराये जग, बा खाये बौराये।
 
3) काली घटा का घमंड घटा
 
== ३. [[श्लेष अलंकार]]<ref>{{Cite book}}</ref>==
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यहाँ पानी का प्रयोग तीन बार किया गया है, किन्तु दूसरी पंक्ति में प्रयुक्त '''पानी''' शब्द के तीन अर्थ हैं - मोती के सन्दर्भ में पानी का अर्थ '''चमक''' या कान्ति मनुष्य के सन्दर्भ में पानी का अर्थ '''इज्जत''' (सम्मान) चूने के सन्दर्भ में पानी का अर्थ '''साधारण पानी'''(जल) है।
 
==[[वक्रोक्ति अलंकार]]== इसका अर्थ टेडा कथन ।
प्रत्यक्ष अर्थ के अतिरिक्त भिन्न अर्थ समझ लेना वक्रोक्ति अलंकार कहलाता है। या किसी एक बात केे अनेक अर्थ होने केे कारण सुनने वाले द्वारा अलग अर्थ ले लिया जाए वहा वक्‍रोक्‍ति अलन्‍कार होता हैं
 
या किसी एक बात केे अनेक अर्थ होने केे कारण सुनने वाले द्वारा अलग अर्थ ले लिया जाए वहा वक्‍रोक्‍ति अलन्‍कार होता हैं
उदाहरण - श्री कृष्णा जब राधे जी से मिलने आते हे तो राधा जी कहती कौन तुम तो क्रष्‍णा कहते हैं मै घनश्याम तो राधा जी कहती हैं जाए कही और बरशो ।
उदाहरण - श्री कृष्णा जब राधे जी से मिलने आते हे तो राधा जी कहती कौन तुम तो क्रष्‍णा कहते हैं मै घनश्याम तो राधा जी कहती हैं जाए कही और बरशो ।
 
== ५. [[प्रतीप अलंकार]] ==
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'''किसी और पर प्रेम नारियाँ,'''
 
'''पति का क्या सह सकती है।kabeer ki teenaहै।'''