"पंडिता रमाबाई": अवतरणों में अंतर

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[[चित्र:Pandita Ramabai Sarasvati 1858-1922 front-page-portrait.jpg|right|thumb|250px|पंडिता रमाबाई]]
'''पंडिता रमाबाई''' (२३ अप्रैल १८५८, महाराष्ट्र - ५ अप्रैल १९२२) एक प्रतिष्ठित भारतीय ईसाई समाज सुधारिका एवं सामाजिक कार्यकर्ता।<ref>{{cite book |last1=Sarasvati |first1=Pandita Ramabai |title=Returning the American Gaze: Pandita Ramabai's : the Peoples of the United States (1889) |date=2003 |publisher=Permanent Black |isbn=9788178240619 |url=https://books.google.co.in/books?id=hk55zRHC-5wC&printsec=frontcover&dq=pandit+ramabai&hl=en&sa=X&ved=0ahUKEwivgf3C5cbdAhUIs48KHSTMBeYQ6AEIKDAA#v=onepage&q&f=false |accessdate=19 सितम्बर 2018 |language=en}}</ref>
 
वह एक कवि थींकवयित्री, एक अध्येता थीं और भारतीय महिलाओं के उत्थान की प्रबल समर्थक थीं। ब्राह्म्ण होकर भी एक गैर ब्राह्मण से विवाह किया था। महिलाओं के उत्थान के लिये उन्होंने न सिर्फ संपूर्ण भारत बल्कि [[इंग्लैंड]] की भी यात्रा की। १८८१ में उन्होंने 'आर्य महिला सभा' की स्थापना की।
 
==जीवन==
महिलाओं के उत्थान के लिये उन्होंने न सिर्फ संपूर्ण भारत बल्कि [[इंग्लैंड]] की भी यात्रा की। १८८१ में उन्होंने 'आर्य महिला सभा' की स्थापना की थी
रमाबाई का जन्म 23 अप्रैल 1858 को संस्कृत विद्वान अनंत शास्त्री डोंगरे के घर हुआ। शास्त्री की दूसरी पत्नी लक्ष्मीबाई डोंगरे थीं और उन्होंने अपनी दूसरी पत्नी और बेटी रमाबाई को संस्कृत ग्रंथों की शिक्षा दी, भले ही संस्कृत और औपचारिक शिक्षा के सीखने की महिलाओं और निचली जातियों के लोगों के लिए मना किया था।
 
उनके माता पिता को 1877 में अकाल मृत्यु हो गई, रमाबाई और उसके भाई को अपने पिता के काम को जारी रखने का फैसला किया। भाई बहन पूरे भारत में यात्रा की। प्राध्यापक के रूप में रमाबाई की प्रसिद्धि कलकत्ता पहुँची जहां पंडितों उन्हें भाषण देने के लिए आमंत्रित किया। 1878 में [[कलकत्ता विश्वविद्यालय]] में इन्हें संस्कृत के क्षेत्र में इनके ज्ञान और कार्य को देखते हुये ''सरस्वती'' की सर्वोच्च उपाधि से सम्मानित किया।
रमाबाई पर 23 का जन्म अप्रैल 1858 वह संस्कृत विद्वान अनंत शास्त्री डोंगरे की बेटी, और उनकी दूसरी पत्नी लक्ष्मीबाई डोंगरे था। अनंत शास्त्री डोंगरे दोनों अपनी दूसरी पत्नी और उनकी बेटी संस्कृत ग्रंथों में पढ़ाया जाता है, भले ही संस्कृत और औपचारिक शिक्षा के सीखने की महिलाओं और निचली जातियों के लोगों के लिए मना किया था। उनके माता पिता को 1877 में अकाल मृत्यु हो गई, रमाबाई और उसके भाई को अपने पिता के काम को जारी रखने का फैसला किया। भाई बहन पूरे भारत में यात्रा की। प्राध्यापक के रूप में रमाबाई की प्रसिद्धि कलकत्ता, जहां पंडितों उसे आमंत्रित बात करने के लिए पहुंच गया। 1878 में, कलकत्ता विश्वविद्यालय , उस पर पंडिता का शीर्षक है, साथ ही विभिन्न संस्कृत काम करता है की उसकी व्याख्याओं की मान्यता में सरस्वती की सर्वोच्च उपाधि से सम्मानित। आस्तिक सुधारक केशवचन्द्र सेन उसकी वेद, सभी हिंदू साहित्य के सबसे पवित्र की एक कॉपी दी, और उसे उन लोगों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। 1880 में उसके भाई की मौत के बाद, रमाबाई बंगाली वकील, बिपिन बिहारी Medhvi शादी कर ली। दूल्हे के एक बंगाली कायस्थ था, और इसलिए शादी अंतर्जातीय, और अंतर-क्षेत्रीय और इसलिए है कि उम्र के लिए अनुपयुक्त माना था। वे पर 13 एक नागरिक समारोह में शादी कर रहे थे नवम्बर 1880 जोड़े को एक बेटी है जिसे वे मनोरमा नाम पर रखा गया था। रमाबाई भारत में महिलाओं की स्थिति को बेहतर करने के प्रयास में उसके जीवन बिताने का संकल्प लिया। वह अध्ययन किया और मुद्दे हैं जो भारतीय महिलाओं, विशेष रूप से हिंदू परंपराओं के चारों ओर चर्चा की। उन्होंने बाल विवाह की प्रथा और बाल विधवाओं के जीवन पर जिसके परिणामस्वरूप बाधाओं के खिलाफ बात की थी। पति और पत्नी के बाल विधवाओं के लिए एक स्कूल शुरू करने की योजना बनाई थी, जब Medhvi 1882 में मृत्यु हो गई
 
1880 में भाई की मौत के बाद रमाबाई ने बंगाली वकील, बिपिन बिहारी दास से शादी कर ली। इनके पति एक बंगाली कायस्थ थे, और इसलिए शादी अंतर्जातीय, और अंतर-क्षेत्रीय थी। दोनों की एक पुत्री हुई जिसका नाम मनोरमा रखा। पति और पत्नी ने बाल विधवाओं के लिए एक स्कूल शुरू करने की योजना बनाई थी, 1882 में इनके पति की मृत्यु हो गई।
पंडिता रमाबाई (1858-1922) अपने समय की एक असाधारण महिला थी। वह एक शिक्षक, विद्वान ,नारीवादी एवं समाज सुधारक थीं, जिनका जीवन एक उदाहरण था कि कैसे नारीत्व व धार्मिक पहचान के बीच व ब्राह्मण संस्कृति,ईसाई धर्म और उपनिवेशवाद की पृष्ठभूमि के विरुद्ध समझौता किया जा सकता है। हिंदूयों व ईसाईयों के लिए, विरोधाभासी और भ्रामक संदेश के संकेत लग रहे थे शामिल है। अपने ही परंपरा की प्रबुद्ध विद्वान होते हुए, उन्होंने हिंदू धर्म में महिलाओं की स्थिति पर प्रश्न उठाए थे। बाद में, जब उन्होंने इसाई धर्म को अपना लिया था, तब उन्होंने संस्थागत ईसाई धर्म को उनके धर्म के साथ चुनौती दी, जैसा कि उन्होंने अनुभव किया कि इससे सुसमाचार की शक्ति को दबाया गया है, और बाद में उन्होंने बाइबल के मराठी संस्करण में वेदांत के प्रसंगों के बेखबर उपयोग करने के कारण बाइबल के साथ झगड़ा भी किया था। ऐसा लगता है कि उन्होंने परंपराओं के हाशिए पर अपने जीवन में कार्य किया है, और अपनी स्वयं की स्वतंत्र संस्था का निर्माण किया है।
 
1878 में रमाबाई की कोलकाता यात्रा ने घटनाओं को एक नाटकीय मोड़ दे दिया। संस्कृत भाषा और साहित्य और धार्मिक ग्रंथों में उनके ज्ञान को व्यापक रूप से जाना और सराहा जाने लगा और उनकी संस्कृत सीखने की मान्यता हो जाने के कारण बाद में आगे चलकर उन्हें पंडिता यानी ज्ञानी की उपाधि से सम्मानित किया गया था। उन्होंने पारंपरिक जातीय मानदंडों को चुनौती देते हुए एक गैर-ब्राह्मण ब्रह्मा का बंगाली वकील विपिन बिहारी दास से विवाह के प्रस्ताव को स्वीकार किया था, लेकिन 2 वर्ष के भीतर ही उनकी मृत्यु हो गई और वह अपने पीछे एक छोटी बच्ची, मनोरमा को छोड़ गए।
०पितृसत्ता (patriarchy)
पितृ सत्ता सामाजिक संगठन का एक ऐसा स्वरुप है जिसमें एक पुरुष,परिवार और वंश का मुखिया होता है और वंश,सगोत्रता और शीर्षक का पता पुरुष वंशक्रम से लगाया जाता है। यह एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था है जिसमें पिता परिवार का मुखिया होता है, और पुरुषों का महिलाओं और बच्चों पर अधिकार होता है।
पितृसत्ता पर पंडिता रमाबाई के विचारों को समझने के लिए निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत उनके विचारों का अध्ययन आवश्यक है :-
 
1. पितृसत्ता का प्रतिवाद
2. विधवाओं की दुर्दशा: पितृसत्ता का दुष्परिणाम
3. मुक्ति मिशन
4. शिक्षा
5. रमाबाई द्वारा सुधार के अपने रास्ते
 
==सन्दर्भ==