"विक्रमादित्य": अवतरणों में अंतर

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===कथासरित्सागर===
सोमदेव भट्ट कृत कथासरित्सागर भलेही विक्रमी बारहवीं शताब्दी के आरंभ में लिखी गई है लेकिन कई कारणों से उसका ऐतिहासिक महत्व बहुत अधिक है। यह कथा गुणाढ्य-रचित पैशाची प्राकृत में लिखी गई बृहत्कथा को आधार मानकर रची गई है। स्वयं सोमदेव ने लिखा है कि '''बृहत्कथाया सारस्य संग्रह रचयाम्यहम्।''' बृहत्कथा का लेखक गुणाढ्य [[सातवाहन हाल]] का समकालिन था। अतः कथासरित्सागर विक्रमादित्य के प्रायः एक शताब्दी पश्चात (ईसा की प्रथम शताब्दी) ही लिखें गये ग्रंथ के आधार पर होने के कारण उसका (विक्रमादित्य संबंधित) उल्लेख ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। कथासरित्सागर में विक्रमादित्य का नाम चार स्थान पर आया है। पहले तो छटे लम्बक के पहले तरंग में उज्जैन के राजा विक्रमसिंह प्रमर का उल्लेख किया है। इस प्रकार से यह बात सिध्द हो जाती है कि विक्रम संवत् के प्रवर्तक विक्रमादित्य प्रमार ही थे, जो ईसा के पूर्व पहली शताब्दी में हो गये। <ref>विक्रमादित्य(संवत् प्रवर्तक).डाॅ. राजबली पांडेय.एम.ए.,डी.लिट्.GOVERNMENT OF INDIA. Department of Archaeological Library.Acc. No.17913</ref>क्योंकि बृहत्कथा और नेपाल की राजवंशावली में भी विक्रमादित्य का उल्लेख है, जो [[चंद्रगुप्त विक्रमादित्य]] से भी सदियों पहले के साक्ष्य हैं। नेपाल के राजा अंशुवर्मन और विक्रमादित्य पँवार दोनों समकालिन व्यक्ति थे।<ref>Chronology of Nepal History Reconstructed: (Nepalaraja Vamsavali).https://www.google.co.in/search?tbo=p&tbm=bks&q=inauthor:%22Kota+Venkatachelam%22</ref>
==गदाफेरिज और विक्रमादित्य==
१०३ संवत् का एक महत्त्वपूर्ण लेख प्राप्त है । इसका संबन्ध खिस्त धर्म के प्रचार से है । खिस्तियो के बारह प्रचारक बारह ओर गये । इनमें से टामस भारत में आया । वह किस राजा की सभा में किस समय आया इन सब बातों का विवरण इस समय ई० सन् ३ रीं शताब्दी के एक '''''ज्यू - ग्रन्थ''''' से ज्ञात हुआ है । इस ग्रन्थ के अनुसार पंजाब के पार्थेयन् घराने के "गदाफेरिज" राजा के दरबार में वह अाया । इसी राजा का पूर्वोक्त लेख भी है । उस पर १०३ अंक के साथ २१वां राज्यारोहण वर्ष भी है । १०३ को शक - अब्द अगर माना जाय तो ई० स० १८१ वर्ष से २६ कम कर देने पर ई० स० १५५ शक वर्ष उसके राज्यारोहण का वर्ष श्राता है - जो इतिहास से मेल नहीं खाता । अत : डॉ० फ्लीट का कथन है कि इस १०३ को संवत् - वर्ष मान लिया जाय और यह संशोधन सिद्धान्तरूप में सर्वसम्मत है । १०३ में से ५७ कम कर देने से ई० स० २५ वें वर्ष में गदाफेरिज का सिंहासनारूढ़ होना निश्चित होता है । इस प्रकार इन अंकों का भ्रम सर्वथा ठीक बैठ जाता है तथा इससे दो बातें सूचित होती है ; प्रथम यह कि विक्रम संवत् का प्रचार चतुर्थ शताब्दी के पश्चात् हुआ - यह निरर्थक अपवाद घोर प्रमाद - पूर्ण है तथा द्वितीय यह कि एक सम्राट के लेख पर विक्रम संवत् का उट्टंकन होने से विक्रमादित्य की "चक्रवर्तिता" प्रमाणित होती है ।<ref>सम्राट विक्रमादित्य और उनके नवरत्न.ईशदत्त शास्त्री श्रीश. फरवरी १९४४ ई.पृ. ४१-४२.मातृभाषा मंदिर दारागंज प्रयाग.पं. हर्षवर्धन शुक्ल</ref>
 
== सन्दर्भ ==