"परमार वंश": अवतरणों में अंतर

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{{भारतीय इतिहास}}
 
'''परमार''' या पँवार [[मध्यकालीन भारत]] का एक [[अग्निवंश|अग्निवंशी]] [[क्षत्रिय]] राजवंश था। इस राजवंश का अधिकार [[धार]]-[[मालवा]]-[[उज्जयिनी]]-[[आबू पर्वत]] और [[सिन्धु]] के निकट [[अमरकोट]] आदि राज्यों तक था। लगभग सम्पूर्ण पश्चमी भारत क्षेत्र में परमार वंश का साम्राज्य था। ये ८वीं शताब्दी से १४वीं शताब्दी तक शासन करते रहे। सम्राट [[विक्रमादित्य]] और [[शालिवाहन]], पँवार वंश परंपरा के राजा थे, जिनके वंश परंपरा में अंतिम शासक गंगासिंह परमार थे। गंगासिंह परमार ने 12 वीं शताब्दी के अंत तक कुरूक्षेत्र पर शासन किया था।<ref>The Historicity of Vikramaaditya and Saalivaahana. Kota Venkatachalam.p.11.1951.</ref>
 
== परिचय ==
परमार एक राजवंश का नाम है, जो मध्ययुग के प्रारम्भिक काल में महत्वपूर्ण हुआ। [[चारण]] कथाओं में इसका उल्लेख [[राजपूत]] जाति के एक [[गोत्र]] रूप में मिलता है। 1918 की किताब '''''"राजपूत'''''" जिसमे कहा गया है की परमार, पंँवार या पोवार यह मूल संस्कृत शब्द "प्रमार" के ही रूप है। इसमें लिखा है की एक समय में समस्त भारत में प्रमारो का साम्राज्य था , जिसके कारण कहावत प्रचलित हो गयी थी की ''"यह संसार प्रमारो का है।''" इस किताब में अन्य राजपूतो का भी उल्लेख है। <ref>RAJPUTS. Compiled in the Intelligence Branch of the Quarler Master General's Deparlment in India. BY CAPTAIN A. H. BINGLEY, 71 (DUKE or CONNAUGHT'S Owx) BENGAL INFANTRY CAT.CUTTA SUPERINTENDENT GOVERNMENT PRINTING, INDIA (Reprinted 1918)</ref><ref>RAJPUTS.https://books.google.com › about.Handbook on Rajputs - A. H. Bingley - Google Books</ref>
''पृथ्वी तणा पँवार'' की कहाँवतकहावत विक्रमादित्य और शालिवाहन जैसे विश्व विजयेता चक्रवर्ती सम्राटों के शौर्य के कारण भारतीय जनमानस में प्रचलित हुईं। परमारों को पोवार,पँवार,पवॉर,प्रमार आदि नामों से भी जाना जाता है। <ref>Hindu World. An encyclopaedia survey of Hinduism, Volume 2.p.136,671.https://books.google.com › about.The Hindu World - Google Books</ref> मरूस्थलीं राजस्थान में पोवार क्षत्रियों के नवकोट किल्ले होने का भी राजस्थान के इतिहास में उल्लेख मिलता है। <ref> The Annals and Antiquities of Rajasthan on the central and western Rajpoot states of India.James Tod. Vol.2.published by Brojendro Lall Doss.1884.</ref>
फ्रांस के पेरिस शहर से प्रकाशित सन 1854 के एक जर्नल में लिखा है कि -'पोवारों के विषय में भारत के इतिहास में वर्णित है कि विक्रमादित्य पौवार ने अपने युग में एक युग संवत् या संवत् की स्थापना की थीं । यह बात रीनाउड द्वारा उनके लिखे गए संस्मरण में भी व्यक्त की गई है। राजा भोज के विषय में वर्णित है कि मालवा साम्राज्य की राजधानी, शहर उज्जयिनी से उनके द्वारा धार शहर में स्थानांतरित किया गया। हिंदु राजा भोज का निवास स्थान धार में रहा। उनकी जाती पौवार थीं।'<ref>JOURNAL ASIATIQUE OF RECUEIL DE MÉMOIRES GINQUIEME SERIE.Vol.3.PARIS.Janvier 1854.</ref> <ref>JOURNAL ASIATIQUE vol 3.https://books.google.co.in/books?id=h39FAQAAMAAJ&source=gbs_slider_cls_metadata_9_mylibrary.</ref>
धारा नगरी बहुत समय तक पँवारों की राजधानी रही इसलिए कहाँवत पड़ गई की- ''जहाँ पँवार तहाँ धार, धार जहाँ पँवार।'पँवार'<ref>Raajasthaana ke Raajavamsom kaa itihaasa.p.46. Jagdish singh Gahlot. Rajasthan sahitya Mandira.1980.</ref>
राजस्थान के इतिहास में भी पँवारों पर ''पृथ्वी तणा पँवार'' एवं धारानगरी पर लोकप्रिय कहाँवते जनमानस में आज भी लोकप्रसिद्ध हैं -
 
राजस्थान के इतिहास में भी पँवारों पर ''पृथ्वी तणा पँवार'' एवं धारानगरी पर लोकप्रिय कहाँवते जनमानस में आज भी लोकप्रसिद्ध हैं -
 
'''पृथ्वी पुँवारा तणो अनै पृथ्वी तणे पँवार।'''
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Gupta.(India)1952.</ref>
 
परमार(पँवार) वंश कि उत्पत्ति राजस्थान के आबू पर्वत में स्थित अनल कूण्ड हुई थी तथा चन्द्रावती एव किराडू दो मुख्य राजधानीया भी राजस्थान में ही थी यही से परमार(पँवार) मालवा गये एवं उज्जैन(अवंतीकाअवतीका) एवं धार(धारा) को अपनी राजधानी बनाया भारत वर्ष में केवल परमार(पँवार)वंश ही एक मात्र ऐसा वंश हैं जिसमें चक्रवर्ती सम्राट हुई इसलिए यह कहा जाता है कि.
''पृथ्वी तणा परमार, पृथ्वी परमारो तणी'' यानी धरती की शोभा परमारो से है या इस धरती की रक्षा का दायित्व परमारो का है।है परमार राजा दानवीर, साहित्य व शौर्य के धनी थे। तथा वे कृपाण एवं कलम दोनों में दक्ष थे। उनका शासन भारत के बाहर, दूसरे देशों तक था। लेकिन राजा भोज के पश्चात परमार सम्राटों का पतन हो गया एवं परमारो के पतन होते ही भारत वर्ष मुसलमानों के अधिन हो गया अर्थात परमारो का इतिहास बहुत ही गौरव शाली रहा है। <ref>http://parmardiyodar.blogspot.com/</ref>
 
पंवारी के विषय में एक मत है कि यह जाति चन्द्रवंशी है । पँवार जाति में कई नाम परिवर्तित पाए जाते है - परमार,प्रमार,प्रमर,पंवार,पोंवार। प्राचीन परमार लोगों के आधीन जो नगर में आज भी विद्यमान है । महारगती ( महेश्वर ) पारा मण्डपदुर्ग ( माण्डू ) उज्जैयिनी,चन्द्रभाग,चित्तौड़, आबू , चन्द्रावती , मऊ मैदान पवारवती , अमरकोट , लोह , दूर्वा और पाटन इन नगरों को पंवारों ने अपनाया था या इन पर विजय प्राप्त की थी । पंवारों का राज्य नर्मदा नदी के पार दक्षिण भारत तक फैला था । कवि चन्द्र भट्ट ने लिखा है कि राम पंवार भारत वर्ष के चक्रवर्ती राजा थे । चन्दबरदाई के काल में भी पँवार वंश की प्रशस्ति लिखी गई है । सन् 888 ई० सम्वत् 945 विक्रमी में पंवारों की एक शाखा मालवे में हिमालय की और आयी । जिस शाखा का मूल राजा कनकपाल था। जो कि गढ़वाल के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है । कनकपाल के विषय में युरोपियन इतिहासकारों ने विभिन्न विचार व्यक्त किए है । हार्डविक साहब के विचार से उसका नाम कनकपाल नहीं था , बल्कि भोगदन्त था । वह पंवार क्षत्रिय था । अपने भाई सुंत्रदत्त के साथ अहमदाबाद गुजरात से सबसे पहले गढ़वाल में आया था । बह योग्य और साहसी था और चाँदपुर के राजा की जो सब राजाओं में बड़ा और बलिष्ट था , सेना में भर्ती हुआ था उस राजा की कृपासे भोगदन्त ने बड़ी उन्नति कर सेना में सबसे बड़ा पद । प्राप्त किया और सेनापति बना । राजा ने अपनी कन्या का विवाह उससे किया , बाद में उसने राजा की गद्दी से उतारा और अपने पौरुष के बल पर सब राजाओं को अपने आधीन कर लिया । . गढ़वाल में एक जाति राठियों की कही जाती हैं । अनुमान किया जाता है कि यह जाति कनकपाल के साथ सैनिकों के रूप में गहाँ आयौ थी और वही जम गयी , गोंकि राठ ' नाम से एक पदढी अभी तक मिलती है ।<ref>https://books.google.co.in/books?id=BwFjDwAAQBAJ&printsec=frontcover</ref>
राजा मुंज , मोज , अमोघवर्ष , आदि नरेश तो स्वयं बड़े विद्वान , [[लेखक]] और [[कवि]] थे तथा इन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना को , विशेषकर राजा भोज ने । यद्यपि इस युग में अनेक विषयों पर ग्रंथ रचे गये पर ये ग्रंथ निम्न कोटि के थे । उनमें सरसता , सरचि और मौलिकता का प्रभाव था ।<ref>Pārva madhyakālina Bhārata kā rūjannitika evani sāmskrtika itihāsa.Bhanwarlal Nathuram Luniya
1968.</ref>
[[निमाड़]] में परमारों का अधिकार तेरहवीं शताब्दी तक बना रहा , पश्चात् तोमरों और उसके पीछे चौहानों के हाथ चला गया था। <ref>मध्यप्रदेश का इतिहास.chapter.11.पृ. ७१-७५. स्व. डॉ.हिरालाल. बी. ए. प्रधानमंत्री,काशी नागरी प्रचारिणी सभा.१६६६.</ref>
=== कथा ===
[[परमार सिन्धुराज]] के दरबारी कवि [[पद्मगुप्त परिमल]] ने अपनी पुस्तक 'नवसाहसांकचरित' में एक कथा का वर्णन किया है। ऋषि [[वशिष्ठ]] ने ऋषि [[विश्वामित्र]] के विरुद्ध युद्ध में सहायता प्राप्त करने के लिये आबु पर्वत पर यज्ञ किया। उस यज्ञ के अग्निकुंड से एक पुरुष प्रकट हुआ । दरअसल ये पुरुष वे थे जिन्होंने ऋषि वशिष्ठ को साथ देने का प्रण लिया जिनके पूर्वज अग्निवंश के क्षत्रिय थे। इस पुरुष का नाम प्रमार रखा गया, जो इस वंश का संस्थापक हुआ और उसी के नाम पर वंश का नाम पड़ा। परमार के अभिलेखों में बाद को भी इस कहानी का पुनरुल्लेख हुआ है। इससे कुछ लोग यों समझने लगे कि परमारों का मूल निवासस्थान आबू पर्वत पर था, जहाँ से वे पड़ोस के देशों में जा जाकर बस गए। किंतु इस वंश के एक प्राचीन अभिलेख से यह पता चलता है कि परमार दक्षिण के राष्ट्रकूटों के उत्तराधिकारी थे।<ref>राजपुताने{{citation का इतिहास. जि. १. रायबहादुर गौरीशंकर हिराचंद ओझा. पृ.७५-७६,१६०. बाबु चांडमल चंडक प्रबंध. वैदिक यंत्रालय, अजमेर. विक्रम संवत् १६६३.</ref>needed}}
 
परमार परिवार की मुख्य शाखा आठवीं शताब्दी के प्रारंभिक काल से मालवा में धारा को राजधानी बनाकर राज्य करती थी और इसका प्राचीनतम ज्ञात सदस्य उपेन्द्र कृष्णराज था। इस वंश के प्रारंभिक शासक दक्षिण के राष्ट्रकूटों के सामन्त थे। राष्ट्रकूटों के पतन के बाद सिंपाक द्वितीय के नेतृत्व में यह परिवार स्वतंत्र हो गया। सिपाक द्वितीय का पुत्र वाक्पति मुंज, जो १०वीं शताब्दी के अंतिम चतुर्थांश में हुआ, अपने परिवार की महानता का संस्थापक था। उसने केवल अपनी स्थिति ही सुदृढ़ नहीं की वरन्‌ दक्षिण राजपूताना का भी एक भाग जीत लिया और वहाँ महत्वपूर्ण पदों पर अपने वंश के राजकुमारों को नियुक्त कर दिया। उसका भतीजा भोज, जिसने सन्‌ 1000 से 1055 तक राज्य किया और जो सर्वतोमुखी प्रतिभा का शासक था, मध्युगीन सर्वश्रेष्ठ शासकों में गिना जाता था। भोज ने अपने समय के चौलुभ्य, चंदेल, कालचूरी और चालुक्य इत्यादि सभी शक्तिशाली राज्यों से युद्ध किया। बहुत बड़ी संख्या में विद्वान्‌ इसके दरबार में दयापूर्ण आश्रय पाकर रहते थे। वह स्वयं भी महान्‌ लेखक था और इसने विभिन्न विषयों पर अनेक पुस्तकें लिखी थीं, ऐसा माना जाता है। उसने अपने राज्य के विभिन्न भागों में बड़ी संख्या में मंदिर बनवाए।
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राजा भोज की मृत्यु के पश्चात्‌ चोलुक्य कर्ण और कर्णाटों ने मालव को जीत लिया, किंतु भोज के एक संबंधी उदयादित्य ने शत्रुओं को बुरी तरह पराजित करके अपना प्रभुत्व पुन: स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। उदयादित्य ने मध्यप्रदेश के उदयपुर नामक स्थान में नीलकंठ शिव के विशाल मंदिर का निर्माण कराया था। उदयादित्य का पुत्र जगद्देव बहुत प्रतिष्ठित सम्राट् था। वह मृत्यु के बहुत काल बाद तक पश्चिमी भारत के लोगों में अपनी गौरवपूर्ण उपलब्धियों के लिय प्रसिद्ध रहा। मालव में परमार वंश के अंत अलाउद्दीन खिलजी द्वारा 1305 ई. में कर दिया गया।
 
परमार वंश की एक शाखा आबू पर्वत पर चंद्रावती को राजधानी बनाकर, 10वीं शताब्दी के अंत में 13वीं शताब्दी के अंत तक राज्य करती रही। इस वंश की दूसरी शाखा वगद (वर्तमान बाँसवाड़ा) और डूंगरपुर रियासतों में उट्ठतुक बाँसवाड़ा राज्य में वर्त्तमान अर्थुना की राजधानी पर 10वीं शताब्दी के मध्यकाल से 12वीं शताब्दी के मध्यकाल तक शासन करती रही। वंश की दो शाखाएँ और ज्ञात हैं। एक ने जालोर में, दूसरी ने बिनमाल में 10वीं शताब्दी के अंतिम भाग से 12वीं शताब्दी के अंतिम भाग तक राज्य किया। [[धारावर्ष परमार]] यह [[आबू]] के परमारों में बड़ा प्रसिद्ध और पराक्रमी शासक हुआ । गुजरात के राजा [[कुमारपाल]] ने जब कोंकण ( उत्तरी ) के राजा ( मल्लिकार्जुन ) पर दो चढ़ाइयां कर उसको मारा उस समय कुमारपाल की सेना के साथ वह भी था और उसने भी अपनी वीरता दिखाई थी । [[ताजुल मासिर]] नाम की फ़ारसी तवारीख से पाया जाता है कि हिजरी सन् ५६३के सफ़र ( वि० सं० १२५३ पौष या माघ - ई० स० ११६६ ) महीने मे [[कुतुब-उद-दीन ऐबक]] ने अणहिलवाड़े पर चढ़ाई की । उस समय आबू के नीचे ( कायद्रां गांव के पास ) बड़ी लड़ाई हुई , जिसमे धारावर्ष गुजरात की सेना के दो मुख्य सेनापतियों में से एक था । इस लड़ाई में गुजरात की सेना हारी , परंतु उसी जगह थोड़े ही समय पहले जो एक दूसरी लड़ाई हुई थी उसमें शहाबुद्दीन गोरी घायल होकर भागा था । उस लड़ाई में भी धारावर्ष का लढना पाया जाता है। <ref>राजपुताने का इतिहास. जि. १. रायबहादुर गौरीशंकर हिराचंद ओझा. पृ.१६७. बाबु चांडमल चंडक प्रबंध. वैदिक यंत्रालय, अजमेर. विक्रम संवत् १६६३.</ref>
 
=== वर्तमान ===
वर्तमान में परमार वंश की एक शाखा उज्जैन के गांव नंदवासला,खाताखेडी तथा नरसिंहगढ एवं इन्दौर के गांव बेंगन्दा में निवास करते हैं।धारविया परमार तलावली में भी निवास करते हैंकालिका माता के भक्त होने के कारण ये परमार कलौता के नाम से भी जाने जाते हैं।धारविया भोजवंश परमार की एक शाखा धार जिल्हे के सरदारपुर तहसील में रहती है। इनके ईष्टदेव श्री हनुमान जी तथा कुलदेवी माँ कालिका(धार)है|ये अपने यहाँ पैदा होने वाले हर लड़के का मुंडन राजस्थान के पाली जिला के बूसी में स्थित श्री हनुमान जी के मंदिर में करते हैं। इनकी तीन शाखा और है;एक बूसी गाँव में,एक मालपुरिया राजस्थान में तथा एक निमच में निवासरत् है।11वी से 17 वी शताब्दी तक पंवारो का प्रदेशान्तर सतपुड़ा और विदर्भ में हुआ । सतपुड़ा क्षेत्र में उन्हें भोयर पंवार कहा जाता है धारा नगर से 15 वी से 17 वी सदी स्थलांतरित हुए पंवारो की करीब 72 (कुल) शाखाए बैतूल छिंदवाडा वर्धा व् अन्य जिलों में निवास करती हैं। पूर्व विदर्भ, मध्यप्रदेश के बालाघाट सिवनी क्षेत्र में धारा नगर से सन 1700 में स्थलांतरित हुए पंवारो/पोवारो की करीब 36 (कुल) शाखाए निवास करती हैं जो कि राजा भोज को अपना पूर्वज मानते हैं । संस्कृत शब्द प्रमार से अपभ्रंषित होकर परमार तथा पंवार/पोवार/भोयर पंवार शब्द प्रचलित हुए ।
 
पंवार वंश की एक शाखा जिसका प्रधान कल्याण सिंह परमार थे। इनके तेरह भाई थे।
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* '''महान चक्रवर्ती सम्राट [[विक्रमादित्य]] परमार''' (ईसा. पूर्व. 700 से 800 साल पहले हुए होगे । यह सत्य हे कि विक्रम संवत के प्रवर्तक उज्जैनी के सम्राट विक्रमादित्य ही हे । किंतु राजा विक्रमादित्य के बाद कहि सारे राजाओने विक्रमादित्य कि उपाधी धारण की थी ,जैसे चंद्रगुप्त विक्रमादित्य, हेमचंद्र विक्रमादित्य एसे कइ राजाओने विक्रमादित्य कि उपाधि धारण कि थी इसिलिये इतिहास मे मतभेद हुआ होगा कि विक्रम संवत कब शुरु हुआ होगा। कइ इतिहासकारों का मानना हे कि चंद्रगुप्त मौर्य, और सम्राट अशोक ईसा. पूर्व. 350 साल पहले हुए यानी चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य चंद्रगुप्त मौर्य के बाद हुए । पर राजा विक्रम के समय चमत्कार था जब कि चंद्रगुप्त मौर्य के समय कोइ चमत्कार नही था। इसिलिये हय बात सिद्ध होती हे कि राजा विक्रम बहुत साल ‌पहले हो चुके हे। उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य माँ हरसिध्धि भवानी को गुजरात से उज्जैनी लाये थे और कुलदेवी माँ हरसिद्धि भवानीको ११ बार शीश काटकर अर्पण किया था। सिंहासन बत्तीसी पर बिराजमान होते थे।जो ३२ गुणो के दाता थे।जिन्होंने महान भुतनाथ बेत‍ाल को अपने वश में किया था।जो महापराक्रमी थे त्याग,न्याय और उदारशिलता के लिये जाने जाते थे।और उस समय केवल महाराजा विक्रमादित्य ही सह शरीर स्वर्ग में जा सकते थे| राजा गंधर्वसेन का पुत्र विक्रमादित्य हुए।
*विक्रमादित्य के बड़े भाई राजा [[भर्तृहरि]] थे।
*राजा [[शालिवाहनराजा शालिनीवाहन]] जो [[विक्रमादित्य]] का प्रपौत्र था। जो भविष्यपुराण मे वर्णित हे।
* [[उपेन्द्र]] (800 – 818)
* [[वैरीसिंह प्रथम]] (818 – 843)