"महाराणा कुम्भा": अवतरणों में अंतर
Content deleted Content added
No edit summary टैग: यथादृश्य संपादिका मोबाइल संपादन मोबाइल वेब संपादन |
टैग: मोबाइल संपादन मोबाइल वेब संपादन |
||
पंक्ति 41:
किंतु महाराणा कुंभकर्ण की महत्ता विजय से अधिक उनके सांस्कृतिक कार्यों के कारण है। उन्होंने अनेक दुर्ग, मंदिर और तालाब बनवाए तथा चित्तौड़ को अनेक प्रकार से सुसंस्कृत किया। [[कुम्भलगढ़ दुर्ग|कुंभलगढ़ का प्रसिद्ध किला]] उनकी कृति है। [[बंसतपुर]] को उन्होंने पुनः बसाया और श्री [[एकलिंग]] के मंदिर का जीर्णोंद्वार किया। [[चित्तौड़]] का [[कीर्ति स्तम्भ|कीर्तिस्तम्भ]] तो संसार की अद्वितीय कृतियों में एक है। इसके एक-एक पत्थर पर उनके शिल्पानुराग, वैदुष्य और व्यक्तित्व की छाप है। अपनी पुत्री [[रमाबाई]] ( वागीश्वरी ) के विवाह स्थल के लिए चित्तौड़ दुर्ग मेंं श्रृंगार चंवरी का निर्माण कराया तथा चित्तौड़ दुर्ग में ही विष्णु को समर्पित कुम्भश्याम जी मन्दिर का निर्माण कराया |
मेवाड़ के राणा कुुुम्भा का स्थापत्य युग स्वर्णकाल के नाम से जाना जाता है, क्योंकि कुुुम्भा ने अपने शासनकाल में अनेक दुर्गों, मन्दिरों एंव विशाल राजप्रसादों का निर्माण कराया, कुम्भा ने अपनी विजयों के लिए भी अनेक ऐतिहासिक इमारतों का निर्माण कराया, वीर-विनोद के लेखक श्यामलदस के अनुसार कुुुम्भा ने कुल 32 दुर्गों का निर्माण कराया था जिसमें [[कुम्भलगढ़ दुर्ग|कुभलगढ़]], अलचगढ़, मचान दुर्ग, भौसठ दुर्ग, बसन्तगढ़ आदि मुख्य माने जाते हैं | तथा कुम्भ के काल में धरणशाह नामक व्यापारी ने देपाक नामक शिल्पी के निर्देशन मे रणकपुर के जेन मदिंरो का निर्माण करवाया था ।
राणा कुम्भा बड़े विद्यानुरागी थे। [[संगीत]] के अनेक ग्रंथों की उन्होंने रचना की और [[चंडीशतक]] एवं [[गीतगोविन्द]] आदि ग्रंथों की व्याख्या की। वे [[नाट्यशास्त्र]] के ज्ञाता और [[वीणा]]वादन में भी कुशल थे। कीर्तिस्तंभों की रचना पर उन्होंने स्वयं एक ग्रंथ लिखा और [[मंडन सूत्रधार|मंडन आदि सूत्रधारों]] से [[शिल्पशास्त्र]] के ग्रंथ लिखवाए। इस महान राणा की मृत्यु अपने ही पुत्र [[उदयसिंह प्रथम|उदयसिंह]] के हाथों हुई।
|