"पंचायतीराज में महिला सहभागिता": अवतरणों में अंतर

छो अनिरुद्ध कुमार ने पंचायती राज में महिला सहभागिता पृष्ठ पंचायतीराज में महिला सहभागिता पर स्थानांतरित किया: संक्षिप्त नाम
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''' पंचायती राज में महिला भागीदारी ''' भारतीय शासन व्यवस्था में महिला प्रतिनिधित्व संबंदी चिंतन एवं कार्यवाहियों से संबंधित प्कीरमुख धारणा है।
पंचायतों का इतिहास काफी पुराना है जिसका उल्लेख हमारे धार्मिक साहित्यों में भी मिलता है। वैसे पंचायत शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द ’पंचायतन’ से मानी गई है जिसका अर्थ है, पांच व्यक्तियों का समूह। वैदिक काल के साहित्य में भी सभा व समितियों का उल्लेख हुआ है। अथर्ववेद में इस आशय का एक श्लोक भी मिलता है।
 
ये ग्रामा यदरण्यं या सभा अथिभूभ्याम।
 
ये संग्राम! समितियस्तेषु चारु वेदम ते।।
 
अर्थात् पृथ्वी, ग्रामों, वनों व सभाओं में हम सुन्दर वेदयुक्त वाणी का प्रयोग करें।
 
’’हम लोकतान्त्रिक शासन से पूरा लाभ उस समय तक नहीं उठा सकते, जब तक हम यह न मान लें कि सभी समस्याएँ केन्द्रीय समस्याएं नहीं, और उन समस्याओं को उन्हीं स्थानों पर उन्हीं लोगो द्वारा हल किया जाना चाहिए जो उन समस्याओं से सर्वाधिक प्रभावित होते है।’’ हेराल्ड लास्की का उक्त कथन लोकतन्त्र के उन्नयन में विकेन्द्रीकरण की सार्थकता को प्रतिपादित करता है। लोकतान्त्रिक व्यवस्था में पंचायती राज ही वह माध्यम है जो शासन को सामान्य जन के दरवाजे तक लाता है। वैदिक युग से लेकर आधुनिक युग तक ग्राम पंचायते भारतीय सभ्यता का आधार और भारतीय शासन व्यवस्था की धुरी बनी रहीं। प्राचीनकाल से ही भारतीय ग्रामों ने स्थानीय स्वशासन और स्वायतता का उपभोग किया। कुषाण, मुगल, मंगोलों के बर्बर विदेशी आक्रमण हुए, पर सामाजिक संगग्राम अटूट बना रहा।
 
हड़प्पा सभ्यता के अवशेषों में प्राप्त नगरों, गृहों, सार्वजनिक भवनों, स्नानागरों तथा योजनाबद्ध मार्गों के आधार निर्धारण विकेन्द्रीकरण के सिद्धान्ते पर किया गया था। वैदिककाल में ग्रामसभा, सभा और समिति के रुप में उद्भूत हुई। सभा में सर्वसम्मति से निर्णय होता, सर्वसम्मति न होने पर बहुमत का आश्रय लिया था। महान मौर्य सम्राटों के प्रशासन की भी मुख्य विशेषता स्थानीय स्वशासन थी। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से चन्द्रगुप्तकालीन नगर व ग्राम प्रशासन के विषय में पर्याप्त विवरण मिलता है। गुप्तकाल में भी नगर व ग्राम स्वशासन के श्रेष्ठ उदाहरण मिलते हैं। विकेन्द्रीकरण शासन व्यवस्था का सर्वथा परिष्कृत व स्वर्णिक स्वरुप हमें दक्षिण भारत में विशेषतया चोल शासन में दिखाई देता है। स्थानीय स्वशासन की उच्चतर प्रणाली का विकास करके उसको सफलतापूर्वक व्यवहार में लाना चोलो के स्वशासन देन हैं। चोल अभिलेखों में स्थानीय स्वशासन की इस मौलिक व्यवस्था का विस्तृत विरण मिलता है। चोलो द्वारा स्थानीय स्वशासन के विषय में इस उच्चतर प्रणाली का विकास सम्पूर्ण भारत के लिए गौरव की बात थी। स्पष्ट है कि यहाँ स्थानीय स्वशासन की व्यवस्था समाज की संरचना में उपस्थित थी व समाज का आत्मतत्व थी।
 
विश्व की वृहत्तम लोकता़िन्त्रक शासन व्यवस्था भारत की प्रमुख विशेषता है। लोकतन्त्र मूलतः विकेन्द्रीकरण पर आधारित शासन व्यवस्था होती है। शासन के ऊपर स्तरों (केन्द्र एवं राज्य) पर कोई भी लोकतन्त्र तब तक सफल नहीं हो सकता । जब तक कि निचले स्तर पर लोकतान्त्रिक मान्यताएं एवं मूल्य शक्तिशाली न हों। यदि लोकतन्त्र का अर्थ जनता की समस्याएँ एवं उनके समाधान की प्रक्रिया में जनता की पूर्ण तथा प्रत्यक्ष भागीदारी है, तो प्रत्यक्ष, स्पष्ट एवं विशिष्ट लोकतन्त्र का प्रमाण उतना सटीक अन्यत्र देखने को नहीं मिलेगा जितना स्थानीय स्तर पर। इसका मुख्य कारण यह है कि वहॉ जनता और उसके प्रतिनिधियों, शासन एवं शासितों के बीच सम्पर्क अपेक्षाकृत निरन्तर, सतर्कतापूर्ण एवं अधिक नियन्त्रण पूर्ण होते हैं।
 
लोकतन्त्र की सर्वश्रेष्ठ पाठशाला उसकी सफलता की सबसे अधिक गारण्टी स्थानीय स्वायत्त शासन का संचालन है। विशाल आबादी व क्षेत्रीय विभिन्नता वाले देश में लोकतन्त्र को सार्थक एवं कल्याणोन्मुखी बनाने के लिए विकेन्द्रीकरण अन्तर्निहित अनिवार्यता है। ऊपर से नीचे की ओर शक्ति का अन्तरण होना लोकतान्त्रिक राज्य व्यवस्था में आवश्यक एवं वांछित प्रक्रिया है। लोकतन्त्र में सम्प्रभुता का प्रवाह ऊपर से नीचे की ओर होना चाहिए।
 
भारत में वैदिककाल से लेकर आज तक पंचायतों का अस्तित्व किसी न किसी रुप में सदैव बना रहा है। यदि स्विट्जरलैण्ड को प्रत्यक्ष लोकतन्त्र का घर माना जाता है तो ठीक उसी प्रकार भारतीय राज व्यवस्था में राजस्थान को लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण का सर्वप्रथम ’मॉडल प्रदेश’ कहा जाना चाहिए, जहां से 2 अक्टूबर, 1959 को पंचायती राज व्यवस्था का श्रीगणेश हुआ। राजस्थान में पहली बार 1959 में प्रशासनिक स्तर पर जनता की सहभागिता को सुनिश्चित करने की दृष्टि से सामुदायिक विकास कार्यक्रमों को स्वीकारा गया हैं। राजस्थान में 1959-1977 के काल में दो बार पंचायतों के चुनाव सम्पन्न हुए थे, लेकिन ग्रामीण महिलाओं का प्रतिनिधित्व नगण्य था। सत्तर के दशक का विश्व प्रसिद्ध ’चिपको आन्दोलन’ जो कि महिलाओं की देन है व महिला जाग्रति व पर्यावरण जागरुकता का प्रमुख संकेत है। आल्तेकर के शब्दों में ’’अत्यन्त प्राचीनकाल से ही भारत के गांव प्रशासन की धुरी रहे हैं।’’लार्ड ब्राईस ने तो स्थानीय शासन को प्रजातन्त्र का सर्वश्रेष्ठ शिक्षणालय और प्रजातन्त्र की सफलता की प्रतिभूति माना है। लिओनार्ड डी हाईट के अनुसार ’’विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया से शासन के उच्चतर स्तर से निम्नतर की ओर व्यवस्थापकीय, न्यायिक अथवा प्रशासनिक सत्ता के हस्तान्तरण का बोध होता है।’’
 
पंचायतीराज व्यवस्था महिलाओं के लिए एक वरदान के रूप में उभरी है इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत में पंचायतीराज आने से महिलाओं की स्थिति में काफी सुधार हुआ है। पंचायतीराज का प्रयत्न सही दिषा में महिलाओं में सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन लाने तथा उनका समुचित विकास करने में सफल हुआ है। महिलाओं की समाज में एक विषेष स्थिति बन सके इसके लिए महिलाआंे को ग्रामीण विकास में सहायक बनाने हेतु अनेक प्रयास किए गए। हमारे देष की प्रारम्भिक सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि रही है जैसा कि प्राचीन संस्कृतियों से स्पष्ट होता है।
 
20 वीं शताब्दी राष्ट्रीय जाग्रति एवं उद्बोधन के साथ-साथ नारी जाग्रति की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। स्वतन्त्रता आंदोलन में भारतीय महिलाओं ने पुरुषों के साथ मिलकर अद्भुत योगदान दिया जो कि अविस्मरणीय है। 1996 के चुनाव में लगभग सभी दलों ने अपने-अपने घोषणा-पत्र में हाशिये पर विद्यमान महिलाओं को प्रमुखता व जुलाई, 1996 को मानव संसाधन विकास मंत्रालय के महिला एवं विकास विभाग ने महिलाओं के लिए राष्ट्रीय नीति बनाई। शक्ति, सम्पन्नता, विकास और समानता के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए महिलाओं की निर्णय प्रक्रिया में सहभागिता को सुनिश्चित किया गया।
 
महिलाएं समाज के लगभग आधे भाग का प्रतिनिधित्व करती हैं, लेकिन अभी तक उनकी राजनीतिक सहभागिता नगण्य हैं। वर्तमान पंचायत राज सामाजिक समानता, समता और न्याय, आर्थिक विकास और व्यक्ति की प्रतिष्ठा पर आधारित ग्रमीण जीवन को नया रुप देने के लिए हो रहे प्रयासों का प्रमुख घटक है। इस दिशा में सन् 1957 से ही प्रयास आरम्भ हो गये थे। बलवन्त राय मेहता समिति ने महिलाओं तथा बच्चों से सम्बन्धित कार्यक्रमों के क्रियान्वयन को देखने के लिए जिला परिषद में महिलाओं की भागीदारी की अनुशंसा की थी।
 
भारत में महिलाओं का स्थान विषय पर गठित समिति ने 1974 में अनुशंसा की थी कि ऐसी पंचायतें बनाई जाऐं जिनमें केवल महिलाएं ही हों। नेशनल पर्सपेक्टिव प्लान फॉर द विमेन, 1988 ने ग्राम पंचायत से लेकर जिला परिषद तक 30 प्रतिशत सीटों के आरक्षण की अनुशंसा की थी। महिलाओं को प्रदत्त आरक्षण को पंचायतीराज संस्थानों में राव समिति द्वारा प्रस्तुत संतुतियों की सबसे महत्पूर्ण विशेषता यह थी कि इसमें पहली बार महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था रखी गई। तत्पश्चात पंचायती राज अधिनियम से महिलाओं में एक नई स्फूर्ति आई तथा संजीवनी के रुप में इनकी उपेक्षित स्थिति में सुधारात्मक कदम उठाने एवं विकास की धारा में स्वयं को जोड़ने का सुनहरा अवसर मिला।
 
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सामाजिक-सांस्कृतिक जागरूकता भी इस संबंध में अपना एक अलग महत्व रखती है। यह एक तरफ राजनीति में समावेषीकरण को बढ़ावा देती है, वहीं वर्ग और वर्ण की विभेदकारी व्यवस्था का निषेध भी करती है। अतः महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी और सषक्तिकरण के मुद्दे को मात्र राजनीतिक अधिकारांे तक सीमित नहीं किया जा सकता है। विगत वर्षों में, महिला सषक्तिकरण की प्रक्रिया से पंचायतों में महिलाएं प्रभावी भूमिका निभा रही है। वर्तमान सृजनषील समाज में नारीवादियों द्वारा आत्मनिर्णय एवं स्वाषासन के लिए सामाजिक रूपांतरण की मांग प्रबल हुई है। इसकी अभिव्यक्ति भारतीय संसद में 110वें व 112वें संविधान संषोधन विधेयक, 2009 के रूप मंे हुई, जिनका संबंध क्रमषः पंचायतीराज और शहरी निकायों के सभी स्तरों में महिलाओं के लिए निर्धारित 33 प्रतिषत सीटों को बढ़ाकर 50 प्रतिषत करने से था। बिहार, हिमाचल प्रदेष, उŸाराखण्ड, राजस्थान और केरल जैसे राज्यों ने स्थानीय स्वषासन की संस्थाआंे में महिलाओं के 50 प्रतिषत प्रतिनिधित्व को सुनिष्चित किया है जो महिला सषक्तिकरण की दिषा में अनुकरणीय पहल है।
 
अतः महिलाओं को जागरुक बनाने तथा सामाजिक आर्थिक स्थिति में सुधार लाने के लिए संविधान का 73 वां संशोधन इस क्षेत्र में उठाया गया एक ठोस कदम है इसके अतिरिक्त अभी महिलाओं के और हितों की बात की करनी होगी। जिससे हमारा राष्ट्र नित नए विकास के पायदानों पर निरन्तर अग्रसर हो। गांधीजी ने स्वयं कहां था कि ’’ सच्चा लोकतंत्र इसमें नही है कि शिखर पर बैठे कुछ लोग उसका संचालन करें, बल्कि इसे प्रत्येक गांव के लोग महिलाएं की सहभागिता सुनिचिश्चत हो के द्वारा निचले स्तर से नीति प्रदान की जानी चाहिए। विकेन्द्रीकरण की यह अवधारण निश्चित रुप से भारतीय जीवन पद्धति में ’’प्रजा सुखे सुखम राज्ञः प्रजानाम्   हिते हित’’ की उक्ति को साकार रुप प्रदान करती है।
 
पंचायत व्यवस्था मूलतः स्वशासन तथा सामाजिक न्याय की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है। जिसमें कि व्यवस्था में संरचनात्मक तथा प्रकार्यात्मक दोनों दृष्टियों से जो परिवर्तन किए गए वे निश्चित रुप से न केवल विकेन्द्रीकरण की दिशा में वरन् महिलाओं की स्थिति को मजबूत बनाने में सहायक सिद्ध होंगे।