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कितने ही व्यभिचारी पुरुषों के संयोग से उनके अनेकों प्रकार के दोषों को अपने सूक्ष्म शरीर में संचित कर लेने से स्त्री की निर्बल अन्तः चेतना बहुत ही विकृत हो जाती है। एक म्यान में अनेकों तलवार ठूँसने से भयंकर स्थिति उत्पन्न होती है। वैसे ही एक स्त्री के शरीर में नाना प्रकार के गुण, कर्म, स्वभाव एवं प्रभाव प्रवेश कर जाते हैं तो वे आपस में टकराते हैं। उसका प्रभाव मनोभूमि को विकृत कर देता है। व्यभिचारिणी स्त्रियाँ सीधे स्वभाव की नहीं रहती, उनमें चिड़चिड़ापन झुँझलाहट, घबराहट, आवेश, अस्थिरता, रूठना, असत्य, छल, अतृप्ति आदि दुर्गुणों की मात्रा बढ़ जाती है, सिर दर्द, कब्ज, दर्द, खुश्की, प्यास, अनिद्रा, थकावट, दुःस्वप्न, दुर्गन्धि आदि शारीरिक विकार भी बढ़ने लगते हैं एक शरीर में अनेकों पुरुषों के प्राण का स्थापित होना, इस प्रकार के अनेकों दुखदायी परिणाम उपस्थित करता है। वेश्यावृत्ति करने वाली स्त्रियों का सान्निध्य ऐसा अनिष्टकर होता है कि पुरुष को बड़े तीव्र झटके के साथ नारकीय यातनाओं के कुण्ड में धकेल देता है।
 
कई प्रकार के वीर्यों के एक स्थान पर एकत्रित होने से विषैले रासायनिक पदार्थों का निर्माण होता है। जैसे घी और शहद अमुक मात्रा में मिला देने से हानिकारक रसायन बन जाती है वैसे ही अनेक व्यक्तियों के शुक्र कीट, योनि मार्ग में एकत्रित होकर विष बन जाते हैं, यह विष सुजाक, अतिशक, जैसे योनि रोग उत्पन्न करता है। वे रोग जब बढ़ते हैं तो उस स्त्री के संपर्क में आने वाले पुरुषों को लगते हैं पुरुषों की छूत अन्य स्त्रियों को लगती है, इस प्रकार व्यभिचार के कारण ये सत्यानाशी रोग उत्पन्न होते और फैलते हैं। जिसके पीछे यह रोग लग जाते हैं उसका पीछा मुश्किल से छूटता है। यह रोग सड़ा-सड़ा कर और रुला-रुला कर रोगी को मारते हैं। व्याभिचारिणी स्त्रियों का गर्भाशय दूषित हो जाने के कारण या तो उनके संतान होती ही नहीं, होती भी है तो पैतृक रोगों को लेकर होती है। माता-पिता की पापमयी मनोवृत्तियों का प्रभाव संतान पर निश्चित रूप से होता है। उस संतान में अनेक आसुरी दुर्गुण पाये जाते हैं, व्यभिचार से उत्पन्न हुई संतान को ‘वर्ण शंकर’संकर’ के अपमानजनक घृणास्पद नाम से शास्त्रकारों ने पुकारा है। कारण यह है कि उस संतान में माता-पिता की प्रवृत्तियाँ सन्निहित रहती ही हैं। ऐसे बालकों की अभिवृद्धि होना संसार के लिए अभिशाप रूप है। इसलिए व्यभिचार सर्वथा निन्दनीय है। धर्म की दृष्टि से तो स्त्री और पुरुष दोनों के लिए ही वह एक समान पाप है परन्तु शारीरिक दृष्टि से स्त्रियों के लिए वह और भी बुरा है क्योंकि स्त्रियों के गुह्य अंग में पुरुष के वीर्य की स्थापना होती है, इससे उनके ऊपर अनेक प्रकार के शारीरिक और मानसिक प्रभाव विशेष रूप से होते हैं। पुरुष स्त्री के वीर्य को धारण नहीं करता इसलिए किन्हीं अंशों में उसे शारीरिक हानि कुछ कम होती है।
 
यदि पति-पत्नी में एकनिष्ठा न हो, वे व्यभिचार में प्रवृत्त हों तो घर की आर्थिक दशा ठीक नहीं रह सकती। दोनों का ध्यान अपने तुच्छ स्वार्थ में केन्द्रित रहेगा। यदि पति व्यभिचारी हो तो दूसरी स्त्री को धन देकर अपने आश्रितों को अर्थ हीन बनावेगा। यदि स्त्री व्यभिचारिणी हो तो कभी जार पति की आवश्यकता होने पर घर का धन गुप्त रूप से उसे दे देगी। यदि जार पति से लेगी तो उसे गुप्त रूप से रखेगी, या फैशन आदि में अपव्यय करेगी। व्यभिचार से प्राप्त हुआ धन मुफ्त का सा लगता है वह बुरी तरह फिजूल खर्ची में जाता है। वेश्याएं इतना धन कमाती हैं पर यौवन ढलने पर दूसरों की मुहताज होकर रोटी खाती हैं। उनके पास जमा कुछ नहीं हो पाता। फिजूल खर्ची की आदत यदि स्त्री या पुरुष एक को भी हो तो घर की आर्थिक व्यवस्था ठीक नहीं रह सकती। वहाँ दरिद्रता और अभाव का ही सदा बोलबाला रहेगा, पति-पत्नी की एकनिष्ठा और आत्मीयता होने पर थोड़ी आमदनी में भी किफायत शारी और सावधानी बरतने से आर्थिक कठिनाई नहीं आती, परन्तु दोनों के बीच कपट या शिथिलता होने पर अच्छी आमदनी होते हुए भी अर्थ संकट बना रहता है।