"द्वंद्वात्मक भौतिकवाद": अवतरणों में अंतर

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[[श्रेणी:मार्क्सवाद]] जो भी समस्त पदार्थ है वह विश्व का ही नियंत्रण है।
समस्त विश्व को इकाई माना हैं
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद (Dialectical Materialism) द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का
 
सिद्धांत मार्क्सवाद का दार्शनिक आधार प्रस्तुत करता है। सिद्धांत भौतिकवाद (Materialism) की मान्यताओं को द्वंद्वात्मक पद्धति (Dialectical Means) के साथ मिला कर सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या देने का प्रयत्न करता है।
 
ahle for the Students seeking BA Hons.) Political Science Cor in the academic Session year 2011
 
প্রशनिशास्त्र (Philosophy) की एक शाखा तत्वमीमांसा (Metaphysics) है, और उसकी एक अपगাজা सना मीमांसा (ontology) है । इसके अंतर्गत इस प्रश्न पर विचार किया जाता है कि सृष्टि। (EAsence) क्या है? भौतिकवाद या जड़वाद (Materialism) और चेतनवाद (1dealium) इस प्रश्न के दो परस्पर-विरोधी उत्तर प्रस्तुत करते हैं चेतनवाद या आदर्शवाद के अनुसार सुष्टि का सार-तस्व आत्मा (Spirit), चेतना (Consciousness), विचार-तत्व या प्रत्यग (1des) है और समाज का कोई स्वतंत्र भौतिक अस्तित्व नहीं है, बल्कि ये सब चेतना या विचार-तत्त्व अत: ओ अभिव्यक्ति हैं। चेतना स्वयं गतिशील तत्त्व है; भौतिक जगत् और सामाजिक जीवन के सारे अरमान चेतन-तत्त्व की विभिन्न अवस्थाओं की अभिव्यक्ति हैं। इसके विपरीत, भौतिकवाद या जड़वाद के अनुसार, सृष्टि का सार-तत्व जड़े पदार्थ (Matter) है; सामाजिक जीवन की कोई भी। अस्था जड़-तत्त्व की किसी विशेष व्यवस्था को व्यक्त करती है। जी. डজल्यू. एफ़. हेगेल (770-183।) के चिंतन में चेतनवाद या आदर्शवाद को अपनाया गया है जबकि कार्ल মक््स (1818-83) ने भौतिकवाद में अपना विश्वास व्यक्त किया है। वस्तुृत: माक््स ने हेंगेल। की द्वंद्वात्मक पद्धति अपनाते हुए उसे अपने भौतिकवाद के साथ जोड़कर सामाजिक परिवर्तन की नई । अण्डा देने का प्रयत्न किया है।
 
খিনभी चिंतन-परंपरा के अंतर्गत भौतिकवाद के आरंभिक संकेत दो प्राचीन यूनानी दार्शनिकों-डेमोक्रिटस और एपीक्यूरस के चिंतन में मिलते हैं । उन्होंने यह विचार रखा था कि प्राकृतिक प्रक्रिया और मानवीय अनुभव रिक्त स्थान ( Empty Space ) में निर्विकार परमाणुओं या। अविभाज्य पदार्थ-कणों की व्यवस्था और पुनर्व्यवस्था की अभिव्यक्ति मात्र हैं। आधुनिक युग में आविचार वैज्ञानिक भौतिकवाद (Scientific Materialism) के रूप में व्यक्त हुआ। इसके र भौतिक पर्यावरण (Physical Environment) की घटनाएँ ही विचारों (Ideas) का सही है। अत: ज्ञानेंद्रियों (Sense Organs) (आंख, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा) से प्राप्त भव (Experience) को ही ज्ञान (Knowledge) के रूप में मान्यता जा सकती है, थित अलौकिक (Supernatural), अनुभवातीत (Transcendental) या आध्यात्मिक (Spiritual) वाओं को ज्ञान का स्रोत नहीं माना जा सकता। सत्रहवीं शताब्दी में जब गैलीलियो (1564
 
p) ने नई भौतिकी (Physics) की नींव रखी, और बाद में न्यूटन (1642-1727) ने इसे आगे बनाया तब भौतिकवाद एक नए रूप में सामने आया। सत्रहवीं शताब्दी में ही टॉमस हॉब्स (1588-1679) ने इस भौतिकवाद का बहुत प्रभावशाली विवरण प्रस्तुत किया, और इसके आधार पर ऐसी विश्वदृष्टि (Worldview.) स्थापित करने की आशा बधाई जिससे संपूर्ण प्रकृति और समाज को रचना एवं क्रिया की व्याख्या दी जा सकती है। लेवियाथन' (तिमिंगिल) (1651) की भूमिका के अंतर्गत हॉब्स ने तर्क दिया कि सारी सजीव वस्तुएं प्राकृतिक यंत्र (Natural Machines) हैं, और सामाजिक संस्थाएं कृत्रिम प्राणियों (Arificial Dreams) के तुल्य हैं। इसी तर्क के अनुसार हॉब्स ने राज्य को एक कृत्रिम प्राणी मानते हुए राज्य के नए विज्ञान की नींव रखने का दावा किया। उसने तर्क दिया-चूंकि मनुष्य ने राज्य को स्वयं बनाया है, इसलिए इसकी प्रकृति का विवरण देना संभव भी है, और सुगम भी है। कुछ भी हो, हॉब्स का भौतिकवाद वस्तुत: यांत्रिक भौतिकवाद (Mechanical Materialism) तथा। इसके आधार पर सृष्टि के संतुलन की व्याख्या तो दी जा सकती थी, परंतु इससे परिवर्तन और विकास की व्याख्या नहीं दी जा सकती थी। मार्क्स ने सृष्टि और समाज में होने वाले परिवर्तन की व्याख्या के लिए उचलित भौतिकवाद की संकल्पना को हेगेल की द्वंद्वात्मक पद्धति के साथ मिलाकर द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का रूप दे दिया। यांत्रिक भौतिकवाद के विपरीत, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद जड़-तत्त्व को ऐसी स्थिर वस्तु के रूप में नहीं देखता जिसमें कोई परिवर्तन लाने के लिয আहर से पकित लगानी पड़ती हो। इस संकल्पना के अनुसार जड़-तत्त्व की प्रकृति में ही ऐसे तनावwons) और अंतर्विरोध (Contradictions) निहित है जो परिवर्तन की प्रेरक-शक्ति का चत हैं। इ्ंद्वात्मक पद्धति (Dialoctical Methud) के प्रयोग के आरंभिक संकत भी प्रची ता के चितन में मिलते हैं। हँदवात्मक विद्या (Dialectic) का मूल अर्थ या-बातचीत वातलाप जिसका सर्वोत्तम प्रयोग सुकरात के संवादों में देखने को मिलता है। वितर्क या वाद-विवाद की कला सुकरात का ध्येय सत्य के ज्ञान की तलाश करना था। अपने शिष्यों के साथ वार्तालाप करते समद । वह तरह-तरह के प्रश्न उठाया था, और उनके उत्तर मांगता था। इस तरह द्वेद्वात्मक पदति का धेन। था-परस्पर-विरोधी विचारों और तकों का टकराव ताकि जो तर्क एक-दूसरे को काट हैं उनहे अस्वीकार कर दिया जाए और जो तर्क एक-दूसरे के साथ जुड़ जाए उन्हें स्वीकार कर लिया जाओ। जी.डब्ल्यू.एफ. हेगेल 17701831 ने उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में इंद्वतमक यद्धति का निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए प्रयोग यह संकेत देने के लिए किया कि चिंतन की प्रक्रिया में उपयुक्त तक किस तार्किक प्रतिमान (Logical Pattern) का प्रयोग करना चाहिए? हेगेल के अनुसार, चितन की । प्रक्रिया में सबसे पहले दो परस्पर-विरोधी विचार सामने आते हैं। इनके टकराव से इनके कुछ । असत्य अंश नष्ट हो जाते हैं, और बचे हुए अंश आपस में जुड़ जाते हैं। इस तरह जी नदा विचार अस्तित्व में आता है, वह सत्य के निकट होता है हालांकि वह पूर्ण सत्य नहीं होता। इसन को फिर अपने विरोधी विचार से टकराना होता है, और यह प्रक्रिया तब तक दोहराई ना्ी तक वह परम सत्य (Absolute Truth) के लक्ष्य तक नहीं पहुँच जाती। परस्पर विरोधी विना उत्तरोत्तर टकराव की प्रक्रिया को 'निषेध का निषेध' (Negation of Negntion) कहा जाता है। हेगेल के अनुसार, चिंतन की प्रक्रिया क्रमशः तीन-तीन चरणों में आगे बढ़ती है : (1) बा (Thesis); (2) प्रतिवाद (Antithesis); और (3) संवाद (Synthesis) | इसका तात्पर्य यह है कि चेतना के विकास की प्रक्रिया में जो विचार सत्य से पिछड़ा हुआ हो, उसे अपने विरोधी विचार को चुनौती का सामना अवश्य करना पड़ता है, और यह टकराव तब तक जारी रहता है जब तक चलन की यात्रा अपने लक्ष्य तक-अर्थात् परम सत्य (Absolute Truth) की स्थिति में नहीं पहुंच जातो शुरू-शुरू में वाद का अस्तित्व होता है जो पूरी तरह सत्य नहीं होता। अत: वह स्थिर नहीं रह सकता। तब उसका विपरीत रूप-अर्थात् प्रतिवाद अपने-आप अस्तित्व में आ जाता है। यह भी पर तरह सत्य नहीं होता, अत: यह भी स्थिर नहीं रह सकता। वाद और प्रतिवाद में टकराव पैदा होता है जिससे इन दोनों के कुछ असत्य अंश नष्ट हो जाते हैं, और बचे हुए अंश आपस में जुड़ जाते है। जिससे संवाद का आविर्भाव होता है। परंतु इस संवाद में भी कुछ असत्य अंशों की मिलावट बचौ रहती है, अत: वह नए सिरे से वाद की स्थिति में आ जाता है। इससे फिर क्रमश: नए प्रतिवाद और संवाद का उदय होता है, और यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक पूर्ण सत्य के लक्ष्य तक नहीं पहुंच जाती। हेगेल ने चेतन-तत्त्व या विचार-तत्त्व को सृष्टि का सार-तत्त्व मानते हुए यह तर्क दिया है कि विकास की संपूर्ण प्रक्रिया शुरू से अंत तक विचारों के उत्थान-पतन की कहानी है। इनका मूर्त रूप सामाजिक संस्थाओं के उदय और विलय के रूप में देखने को मिलता है। हेगेल ने राष्ट्र-राज्य (Nation- State) के उदय को चेतना की यात्रा की चरम परिणति मानते हुए गौरवान्वित किया है हालांकि ऐसा मानने का कोई तर्कसंगत कारण नहीं था। हेगेल की द्वंद्वात्मक पद्धति को रेखाचित्र के रूप में इस तरह दिखा सकते हैं :
ने हेगेल की द्वंद्वात्मक पद्धति को भौतिकवाद के साथ मिला कर यह मान्यता रखी भौतिक तत्त्व या जड़-तत्त्व के भीतर विकास की क्षमता पाई जाती है। यही कारण जड़-तत्त्व द्वंद्वात्मक पद्धति के है कि जड़-तत्व द्वंद्वात्मक पर अनुसार नए नए रूपों में तलता चला जाता है। भिन्न-भिन्न जिक संस्थाएं जड़-तत्त्व के बदलते हुए रूप को व्यक्त करती हैं। हेगेल के दवंद्वात्मक चेतनवाद न करते हुए मार्क्स ने यह तर्क दिया है कि जड़-तत्त्व की उत्पत्ति चेतन तत्व से नहीं बल्कि चेतना स्वयं जड़-तत्त्व के विकास की एक अवस्था है। मार्क्स ने लिखा है कि ों का सामाजिक अस्तित्व चेतना पर आश्रित नहीं है बल्कि उनकी चेतना स्वयं उनके सामाजिक तत्व पर आश्रित है। हेगेल के अनुसार, सामाजिक विकास का लक्ष्य 'राष्ट्र राज्य' (Nation-State) की स्थापना है, परंतु मास के अनुसार, इसका लक्ष्य 'वर्गहीन और राज्यहीन समाज' (Classless and Stateless. Society) की स्थापना है। हेगेल और मार्क्स दोनों यह स्वीकार करते हैं कि जब तक सामाजिक विकास अपने चरम लक्ष्य तक नहीं पहुंच जाता, तब तक प्रत्येक सामाजिक अवस्था अस्थिर होती है। हेगेल के विचार से यह इसलिए अस्थिर होती है क्योंकि वह चेतन-तत्त्व को प्रेरणा की अधूरी अभिव्यक्ति है; मार्क्स के विचार से वह इसलिए अस्थिर होती है क्योंकि जड़-तत्व के विकास के कारण उत्पादन की शक्तियां (Forces of Production ) नए-नए रूप धारण करती चलतो हैं| अत: जब तक तर्कसंगत उत्पादन प्रणाली ( Rational Mode of Production ) अस्तित्व में नहीं आ जाती, तब तक सामाजिक परिवर्तन अनिवार्य है अत: इतिहास की प्रत्येक अवस्था में अपने विनाश के बीज निहित होते हैं। एंगेल्स ने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का विस्तृत विवेचन करते हुए यह तर्क दिया है कि प्राकृतिक घटनाओं (Natural Phenomena) की सही-सही व्याख्या केवल द्वंद्वात्मक ढारे (Dialectical Framework) के अंतर्गत ही दी जा सकती है। इस प्रक्रिया के तीन बुनि नियम हैं:
 
(क परिणाम से गुण की ओर परिवर्तन (1 ram femilon । ।।५ अति जिन वस्तुओं में केवल गारा (DeEee) का अंतर था, वे भन भिन कार में बहल जाती हैं। उदाहरण के लिए, जय पानी को गर टा । क्या आता है तो उसका तापमान ( Temperate) कम होता जाता है। फिर, क अवाथा में आकर वह पानी नहीं रह जाता बल्कि-ब्फ बन जाता है Oppones)- अपान् । () परस्पर- विरोधी तत्त्वों की अंतळ्यांप्ति (Interpeneton परस्पर-विरोधी गुण या तत्त्व एक-दूसरे के साथ जुड़े रहते हैं। उदाहरण के लिए, कोत । वस्तु (जैसे कि पुष्प) में भी एक तरह की कठोरता पाई जाती है जिससे वह अपने । आकार में स्थिर रह पाती है, और कठोर वस्तु ( जैसे कि लोहे या स्वर्ण) में भी एक तरह । की कोमलता पाई जाती है जिसके कारण उसे मनचाहा आकार में दाल क्ते हैं; और (ग) निषेध का निषेध (Negation of Negation): इस प्रक्रिया में कोई तत्व पने चिगोधी तत्व से टकरा कर अपनो अर्भक अवस्था (Starting Point) में में वापस नहीं गहुँब नमः तत्त्। जाता, बल्कि वाद (Thesis) और प्रतिवाद (Athetosis) टकराव मे एक अर्थात् संवाद ।Symthesis) का आविर्भाव होता है। वाद की तुलना में संवाद उनत अवस्था का संकेत देता है। प्राकृतिक जगत् में इस प्रक्रिया का उदाहरण देते हुए नम। ने लिखा है कि जब गेहूं का बीज बोया जाता है तो उसे वाद मान सकते हैं। उपयुक्त जलवायु मिलने पर वह अंकुरित होकर पौधा बन जाता है। इसे प्रतिवाद मान सको हैं। क्योंकि वह बीज के 'निषेध' से अस्तित्व में आता है। इस पौधे में जब रोई जाता इसे संबाद आती है, गेहूं का दाना पक जाता है और पौधा सूखकर नष्ट हो जाता है तो उसे मान सकते हैं क्योंकि यह निषेध के निषेध से पैदा होता है। वस्तुत: पुराने बीज ना पैदा होने प्रक्रिया वाद', 'प्रतिवाद और 'संवाद' के अनेक चक्रों गुन्रक परी होती है। फिर, गेहूं की नई पैदावार उसके बीज की तुलना में उन्नत अवस्था का संकेत देती है।
 
म तरह भैस का आत्मक भौतिकवाद सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या देते हुए इस को अपना लेता है कि उत्पादन प्रणालियों का विकास जड़-तत्व के विकास का भक्ति है; यहां तक कि वर्गों का संघर्ष (Class Struggle) भी जड़-तत्व के अंतर्विरोधों की अभिव्यक्ति है। इन मान्यताओं का तार्किक आधार बहुत कमजोर है। स्वयं माक्स ने यह सीकार किया है कि उत्पादन के साधनों (Means of Production) का विकास प्रौद्योगिकी (Technology) और मानवीय निपुणताओं (।umun skils) के विकास पर आश्रित है। ये दोनों तत्व ज्ञान (Knowledge) के विकास पर निर्भर है। ज्ञान चेतन-तत्त्व है; ठसे जड़-तत्त्व का विकसित रूप मानना युक्तिसंगत नहीं है यह बात ध्यान देने की है कि द्वद्वात्मक पद्धति के प्रयोग का उपयुक्त विषय विचारों का क्षेत्र है। जड़-तत्व के संदर्भ में द्वंद्वात्मक पद्धति का प्रयोग केवल रूपक (Metaphor) या दृष्टांत ( Analogy) के रूप में उपयुक्त होगा जड़-तत्व को सृष्टि का सार तत्त्व मानकर सामाजिक विकास की व्याख्या नहीं दी जा सकती। वस्तुतः
 
सामाजिक विकास के संदर्भ में मास के भौतिकवाद का विवेच्य विषय जड़-तत्त्व नहीं बल्कि मनुष्य के सामाजिक जीवन की भौतिक परिस्थितियां (Material Conditions) हैं। मनुष्य की भौतिक परिस्थितियों में कैसे कैसे तनाव या अंतर्विरोध पैदा हो जाते हैं, और परस्पर विरोधी स्थितियों के टकराव से समाज किस तरह विकास की दिशा में आगे बढ़ता है-इसका उपयुक्त विवरण मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद (Historical Materialism) के अंतर्गत मिलता है।