"वार्ता:रजनीश कुमार शुक्ल": अवतरणों में अंतर

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बड़ा पाठ

रजनीश कुमार शुक्ल
जन्म25 नवम्बर 1966
कुशीनगर, उत्तर प्रदेश, भारत
पेशाशिक्षाविद, प्रोफेसर, लेखक, कवि और वर्तमान महात्मा गाधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति
राष्ट्रीयताभारतीय
शिक्षापीएच.डी.

प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल (जन्म 25 नवंबर 1966, कुशीनगर, उत्तर प्रदेश) भारत के शिक्षाविद, प्रोफेसर, लेखक, कवि हैं, वर्तमान वे महात्मा गाधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति[1] के रूप में कार्यरत हैं। इसके पूर्व वे भारतीय अनुसंधान परिषद्, दिल्ली के सदस्य सचिव के रूप में सेवा दे चुके है। मूल रूप से वह वाराणसी के सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में तुलनात्मक दर्शन और धर्म के प्रोफेसर हैं।

विधाएं

सौंदर्यशास्त्र, आलोचना, ललित निबंध

मुख्य कृतियाँ

हिंदी लेखन

  • कांट का सौंदर्यशास्‍त्र
  • वाचस्‍पति मिश्र कृत तत्‍व बिंदु
  • अभिनवगुप्‍त : संस्‍कृति एवं दर्शन
  • गौरवशाली संस्कृ‍ति

अंग्रेजी लेखन

  • An Introduction to Western Philosophy
  • Abhinavagupta - Culture and Philosophy

स्कृतिक संदर्भ में मूल्य-सृजन एवं मूल्य-संकट[2] पर विचार प्रकट करते हुए प्रो शुक्ल ने व्यक्त किया है कि मनुष्‍य की मूल्‍य-चेतना का निर्माण सांस्‍कृतिक परिवेश में होता है। यद्यपि संस्‍कृति-तत्‍व भी मानवनिर्मित हैं और इनका भी निर्माण प्रयत्‍नपूर्वक होता है, किन्‍तु सांस्‍कृतिक चेतना जो समस्‍त तत्‍त्‍वों के सकल योग से निर्मित होती है, इन सभी तत्वों से विलक्षण होती है और अमूर्त रूप से अपने निर्माण के कारकों को भी प्रभावित करती है। इसके निर्माण हो जाएगी। किन्‍तु सामान्‍य रूप से इनको तीन आयामों में विभाजित या रेखांकित किया जा सकता है। ये तीन आयाम हैं- 1. मानव प्रकृति संबंध। 2. मानव तथा आध्‍यात्मिक दृष्टि। 3. मानव तथा अंतवैंयक्तिक संबंध। सामान्‍य रूप से मूल्‍यों का जगत भी इन्‍हीं तीन आयामों से संरचित होता है और इन्‍हीं को नियमित करता है। अत: विविध दृष्टियों को आधार में रखकर इन पर विचार किया जाना आवश्‍यक है। संस्‍कृति तत्‍त्‍व जिन्‍हें मनुष्‍य अपनी प्रारम्भिक स्थिति में जीवन व्‍यवहार के उपयोगी एवं आवश्‍यक अंग के रूप में विकसित करता है, उसमें सर्वप्रथम उसका साक्षात्‍कार प्रकृति या अचेतन जगत से होता है।...[3]

हिंदी के संबंध में उनका कहना है हिंदी स्‍वाभिमान की भाषा है[4] एक दो दिवसीय राष्ट्रीय परिसंवाद में उन्होंने व्यक्त किया हैं कि गांधी भविष्‍य के भारत का यथार्थ बने रहेंगे।[5]

प्रो. शुक्ल कहते है- सामान्‍यत: आधुनिक विचारक यह समझाते हैं कि बौद्धमत का रास्‍ता वेदानुयायी मत से नितांत अलग है क्‍योंकि आत्‍मवाद के स्थान पर अनात्‍मवाद, हिंसामूलक बलि के विरूद्ध अहिंसा, वर्ण-व्‍यवस्‍था के स्‍थान पर सर्वप्राणी समता, ईश्‍वरवाद के स्‍थान पर निरीश्‍वरवाद इत्‍यादि की नितांत विरोधी विचारसरणि को देखकर इस प्रकार के निष्‍कर्ष निकालना आश्‍चर्यजनक नहीं लगता किंतु स्‍वयं बौद्ध चिंतन में समता का उतना महत्त्व नहीं है जितना कि विषमताओं का निषेध कर विशेष व्‍यवहार एवं व्‍यवस्‍था के रूप में समरसता के भाव का प्रकटीकरण। समता का तात्तिक अस्तित्‍व बुद्ध को स्‍वीकार नहीं था क्‍योंकि ऐसी स्थिति में एक सामान्‍य प्रत्‍यय को स्‍वीकार ही करना पड़ता। इसके स्‍थान पर समता भावात्‍मक समरसता मैत्री, करूणा, मुद्रिता और उपेक्षा को चित्तवृत्ति के रूप में परिकल्पित किया गया है। समता से जोड़ने वाला तत्त्व मैत्री है।[6] बुद्ध के रास्ते पर होगी नई सभ्यता।[7] प्रो. शुक्ल का मानना हा कि हिन्दी कविता का सर्वोत्‍तम कालखंड है छायावाद[8]


संदर्भ

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