"कण्व": अवतरणों में अंतर

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{{स्रोतहीन|date=अप्रैल 2020}}
वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भरद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक- ये हैं वे सात ऋषि जिन्होंने इस देश को इतना कुछ दे डाला कि कृतज्ञ देश ने इन्हें आकाश के तारामण्डल में बिठाकर एक ऐसा अमरत्व दे दिया कि सप्तर्षि शब्द सुनते ही हमारी कल्पना आकाश के तारामण्डलतारामण्डलों पर टिक जाती है।
 
इसके अलावा मान्यता हैं कि ''' अगस्त्य ''', ''' कष्यप ''', ''' अष्टावक्र ''', ''' याज्ञवल्क्य ''', ''' कात्यायन ''', ''' ऐतरेय ''', ''' कपिल ''', ''' जेमिनी ''', आदि सभी ऋषि उक्त सात ऋषियों के कुल के होने के कारण इन्हें भी वही दर्जा प्राप्त है।
 
 
वेदों का अध्ययन करने पर जिन सात ऋषियों या ऋषि कुल के नामों का पता चलता है वे नाम क्रमश: इस प्रकार है:- '''1.वशिष्ठ, 2.विश्वामित्र, 3.कण्व, 4.भारद्वाज, 5.अत्रि, 6.वामदेव 7.शौनक'''
 
वेदों का अध्ययन करने पर जिन सात ऋषियों या ऋषि कुल के नामों का पता चलता है वे नाम क्रमश: इस प्रकार है:- '''1.वशिष्ठ, 2.विश्वामित्र, 3.कण्व, 4.भारद्वाज, 5.अत्रि, 6.वामदेव और 7.शौनक'''शौनक।
पुराणों में सप्तऋषि के नाम पर भिन्न-भिन्न नामावली मिलती है। विष्णु पुराण:-
 
पुराणों में सप्त ऋषि के नाम पर भिन्न-भिन्न नामावली मिलती है। विष्णु पुराण अनुसार इस मन्वन्तर के सप्तऋषि इस प्रकार है :- वशिष्ठकाश्यपो यात्रिर्जमदग्निस्सगौत। विश्वामित्रभारद्वजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्।। अर्थात् सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं:- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज।इसके अलावा पुराणों की अन्य नामावली इस प्रकार है:- ये क्रमशः केतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ट तथा मारीचि है।महाभारत में सप्तर्षियों की दो नामावलियां मिलती हैं। एक नामावली में '''कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि''' और '''वशिष्ठ''' के नाम आते हैं तो दूसरी नामावली में पाँच नाम बदल जाते हैं। '''कश्यप''' और '''वशिष्ठ''' वहीं रहते हैं पर बाकी के बदले '''मरीचि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु''' नाम आ जाते हैं। भारद्वाज।
 
इसके अलावा पुराणों की अन्य नामावली इस प्रकार है:- ये क्रमशः केतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ट तथा मारीचि है।
ऋग्वेद में लगभग एक हजार सूक्त हैं, याने लगभग दस हजार मन्त्र हैं। चारों वेदों में करीब बीस हजार से ज्यादा मन्त्र हैं और ऋग्वेद के मन्त्रों की रचना में भी अनेकानेक ऋषियों का योगदान रहा है। पर इनमें भी सात ऋषि ऐसे हैं जिनके कुलों में मन्त्र रचयिता ऋषियों की एक लम्बी परम्परा रही। ये कुल परम्परा ऋग्वेद के सूक्त दस मण्डलों में संग्रहित हैं और इनमें दो से सात यानी छह मण्डल ऐसे हैं जिन्हें हम परम्परा से वंशमण्डल कहते हैं क्योंकि इनमें छह ऋषिकुलों के ऋषियों के मन्त्र इकट्ठा कर दिए गए हैं।
 
महाभारत में सप्तर्षियों की दो नामावलियां मिलती हैं। एक नामावली में कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वशिष्ठ के नाम आते हैं तो दूसरी नामावली में पाँच नाम बदल जाते हैं। कश्यप और वशिष्ठ वहीं रहते हैं पर बाकी के बदले मरीचि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु नाम आ जाते हैं। कुछ पुराणों में कश्यप और मरीचि को एक माना गया है तो कहीं कश्यप और कण्व को पर्यायवाची माना गया है।
'''कण्व, महर्षि घोर''' के पुत्र थे जिन्होंने ऋग्वेद में अनेक मन्त्रों की रचना की है। '''घोर ऋषि''' ब्रह्माजी के पौत्र व अंगिरा जी के पुत्र थे । वेदों और पुराणों में इनका वंश विवरण मिलता है । घोर ऋषि जी के पुत्र कण्व ऋषि थे । कण्वऋषि से भी एक पुत्र हुए जिनका नाम ब्रह्मऋषि सौभरि जी, जिनकी वंशावली ” आदिगौड़ सौभरेय ब्राह्मण” कहलाती है जो कि यमुना नदी के किनारे '''गांव सुनरख''' वृन्दावन ,मथुरा व आसपास के क्षेत्रों में इनका निवास है । गोकुल के पास बसी कृष्ण के बडे भाई की “'''दाऊजी की नगरी'''” में इनके वंशज ही “'''दाऊमठ'''” के पुजारी ('''पंडा जी''') हैं । इसके अलावा राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में भी ये '''सौभरेय ब्राह्मण''' अच्छी संख्या में हैं । '''विष्णु पुराण''' व '''भागवद पुराण''' में इनके उल्लेख मिलता है । द्वापर युग में जन्मे '''भगवान श्रीकृष्ण''' के गुरु सांदीपनि की तरह '''महर्षि''' '''घोर''' भी '''विद्याधर''' गुरु रहे हैं । इनमें भी अंगिरा ऋषि की तरह अग्नि जैसा तेज था । इनको इनके पिता के नाम की वजह से “'''घोर आंगिरस'''” की संज्ञा दी गयी ।
 
ऋग्वेद में लगभग एक हजार सूक्त हैं, याने लगभग दस हजार मन्त्र हैं। चारों वेदों में करीब बीस हजार से ज्यादा मन्त्र हैं और इन मन्त्रों के रचयिता कवियों को हम ऋषि कहते हैं। बाकी तीन वेदों के मन्त्रों की तरह ऋग्वेद के मन्त्रों की रचना में भी अनेकानेक ऋषियों का योगदान रहा है। पर इनमें भी सात ऋषि ऐसे हैं जिनके कुलों में मन्त्र रचयिता ऋषियों की एक लम्बी परम्परा रही। ये कुल परम्परा ऋग्वेद के सूक्त दस मण्डलों में संग्रहित हैं और इनमें दो से सात यानी छह मण्डल ऐसे हैं जिन्हें हम परम्परा से वंशमण्डल कहते हैं क्योंकि इनमें छह ऋषिकुलों के ऋषियों के मन्त्र इकट्ठा कर दिए गए हैं।
'''छांदोग्य उपनिषद''' के एक अवतरण में ऋषि घोर '''महर्षि अंगिरस''' व '''भगवान कृष्ण''' का वर्णन मिलता है ।
 
आकाश में सात तारों का एक मण्डल नजर आता है उन्हें सप्तर्षियों का मण्डल कहा जाता है। उक्त मण्डल के तारों के नाम भारत के महान सात सन्तों के नाम पर ही रखे गए हैं। वेदों में उक्त मण्डल की स्थिति, गति, दूरी और विस्तार की विस्तृत चर्चा मिलती है। प्रत्येक मनवन्तर में अलग-अलग सप्त‍ऋषि हुए हैं। यहाँ प्रस्तुत है वैवस्वत मनु के काल के सप्तऋषियों का परिचय।
महर्षि घोर ने उनको दान, अहिंसा, पवित्रता, सत्य आदि गुणों की शिक्षा दी । '''घोर अंगिरस''' ने देवकी पुत्र कृष्ण को जो उपदेश दिया था वही उपदेश कृष्ण गीता में अर्जुन को देते हैं।
 
भगवान श्रीकृष्ण 70 साल की उम्र में घोर अंगिरस ऋषि के आश्रम में एकान्त में वैराग्यपूर्ण जीवन जीने के लिए ठहरे थे। उपनिषदों के गहन अध्ययन एवं विरक्तता से सामर्थ्य एवं तेजस्विता बढ़ती है। श्रीकृष्ण ने 13 वर्ष विरक्तता में बिताये थे ऐसी कथा छांदोग्य उपनिषद में आती है।
 
'''स्रोत:-''' महाभारत, ऋग्वेद, रामायण, विष्णुपुराण स्कंद पुराण
 
 
'''इनके अतिरिक्त छह सात और कण्व हुए हैं जो इतने प्रसिद्ध नहीं हैं ।'''2 '''कण्वऋषि ''': माना जाता है इस देश के सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ सोमयज्ञ को कण्वों ने व्यवस्थित किया। कण्व वैदिक काल के ऋषि थे। इन्हीं के आश्रम में हस्तिनापुर के राजा दुष्यन्त की पत्नी शकुंतला एवं उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था।
1. '''वशिष्ठ''' : राजा दशरथ के कुलगुरु ऋषि वशिष्ठ को कौन नहीं जानता। ये दशरथ के चारों पुत्रों के गुरु थे। वशिष्ठ के कहने पर दशरथ ने अपने चारों पुत्रों को ऋषि विश्वामित्र के साथ आश्रम में राक्षसों का वध करने के लिए भेज दिया था।
 
कामधेनु गाय के लिए वशिष्ठ और विश्वामित्र में युद्ध भी हुआ था। वशिष्ठ ने राजसत्ता पर अंकुश का विचार दिया तो उन्हीं के कुल के मैत्रावरूण वशिष्ठ ने सरस्वती नदी के किनारे सौ सूक्त एक साथ रचकर नया इतिहास बनाया।
 
 
 
2.''' विश्वामित्र ''' : ऋषि होने के पूर्व विश्वामित्र राजा थे और ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को हड़पने के लिए उन्होंने युद्ध किया था, लेकिन वे हार गए। इस हार ने ही उन्हें घोर तपस्या के लिए प्रेरित किया। विश्वामित्र की तपस्या और मेनका द्वारा उनकी तपस्या भंग करने की कथा जगत प्रसिद्ध है। विश्वामित्र ने अपनी तपस्या के बल पर त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया था। लेकिन स्वर्ग में उन्हें जगह नहीं मिली तो विश्वामित्र ने एक नए स्वर्ग की रचना कर डाली थी। इस तरह ऋषि विश्वामित्र के असंख्य किस्से हैं।
 
माना जाता है कि हरिद्वार में आज जहाँ शान्तिकुंज हैं उसी स्थान पर विश्वामित्र ने घोर तपस्या करके इन्द्र से रुष्ठ होकर एक अलग ही स्वर्ग लोक की रचना कर दी थी। विश्वामित्र ने इस देश को ऋचा बनाने की विद्या दी और गायत्री मन्त्र की रचना की जो भारत के हृदय में और जिह्ना पर हजारों सालों से आज तक अनवरत निवास कर रहा है।
 
 
 
3. '''इनके अतिरिक्त छह सात और कण्व हुए हैं जो इतने प्रसिद्ध नहीं हैं ।'''2 '''कण्वऋषि ''': माना जाता है इस देश के सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ सोमयज्ञ को कण्वों ने व्यवस्थित किया। कण्व वैदिक काल के ऋषि थे। इन्हीं के आश्रम में हस्तिनापुर के राजा दुष्यन्त की पत्नी शकुंतला एवं उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था।
 
103 सूक्तवाले ऋग्वेद के आठवें मण्डल के अधिकांश मन्त्र महर्षि कण्व तथा उनके वंशजों तथा गोत्रजों द्वारा दृष्ट हैं। कुछ सूक्तों के अन्य भी द्रष्ट ऋषि हैं, किन्तु 'प्राधान्येन व्यपदेशा भवन्ति' के अनुसार महर्षि कण्व अष्टम मण्डल के द्रष्टा ऋषि कहे गए हैं। इनमें लौकिक ज्ञान-विज्ञान तथा अनिष्ट-निवारण सम्बन्धी उपयोगी मन्त्र हैं।
 
सोनभद्र में जिला मुख्यालय से आठ किलो मीटर की दूरी पर कैमूर शृंखला के शीर्ष स्थल पर स्थित कण्व ऋषि की तपस्थली है जो कण्डाकोट नाम से जानी जाती है।
 
'''तीसरे कण्व ऋषि''' कण्डु के पिता थे जो अयोध्या के पूर्व स्थित अपने आश्रम में रहते थे। रामायण के अनुसार वे राम के लंका विजय करके अयोध्या लौटने पर वहाँ आए और उन्हें आशीर्वाद दिया।
 
 
'''चौथे कण्व''' पुरुवंशी राज प्रतिरथ के पुत्र थे जिनसे काण्वायन गोत्रीय ब्रह्मणों की उत्पत्ति बतलाई जाती है ।
4.''' भारद्वाज ''' : वैदिक ऋषियों में भारद्वाज-ऋषि का उच्च स्थान है। भारद्वाज के पिता बृहस्पति और माता ममता थीं। भारद्वाज ऋषि राम के पूर्व हुए थे, लेकिन एक उल्लेख अनुसार उनकी लम्बी आयु का पता चलता है कि वनवास के समय श्रीराम इनके आश्रम में गए थे, जो ऐतिहासिक दृष्टि से त्रेता-द्वापर का सन्धिकाल था। माना जाता है कि भरद्वाजों में से एक भारद्वाज विदथ ने दुष्यन्त पुत्र भरत का उत्तराधिकारी बन राजकाज करते हुए मन्त्र रचना जारी रखी।
 
ऋषि भारद्वाज के पुत्रों में 10 ऋषि ऋग्वेद के मन्त्रदृष्टा हैं और एक पुत्री जिसका नाम 'रात्रि' था, वह भी रात्रि सूक्त की मन्त्रदृष्टा मानी गई हैं। ॠग्वेद के छठे मण्डल के द्रष्टा भारद्वाज ऋषि हैं। इस मण्डल में भारद्वाज के 765 मन्त्र हैं। अथर्ववेद में भी भारद्वाज के 23 मन्त्र मिलते हैं। 'भारद्वाज-स्मृति' एवं 'भारद्वाज-संहिता' के रचनाकार भी ऋषि भारद्वाज ही थे।
 
ऋषि भारद्वाज ने 'यन्त्र-सर्वस्व' नामक बृहद् ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ का कुछ भाग स्वामी ब्रह्ममुनि ने 'विमान-शास्त्र' के नाम से प्रकाशित कराया है। इस ग्रन्थ में उच्च और निम्न स्तर पर विचरने वाले विमानों के लिए विविध धातुओं के निर्माण का वर्णन मिलता है।
 
 
 
 
5. ''' अत्रि ''' : ऋग्वेद के पंचम मण्डल के द्रष्टा महर्षि अत्रि ब्रह्मा के पुत्र, सोम के पिता और कर्दम प्रजापति व देवहूति की पुत्री अनुसूया के पति थे। अत्रि जब बाहर गए थे तब त्रिदेव अनसूया के घर ब्राह्मण के भेष में भिक्षा माँगने लगे और अनुसूया से कहा कि जब आप अपने सम्पूर्ण वस्त्र उतार देंगी तभी हम भिक्षा स्वीकार करेंगे, तब अनुसूया ने अपने सतित्व के बल पर उक्त तीनों देवों को अबोध बालक बनाकर उन्हें भिक्षा दी। माता अनुसूया ने देवी सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया था।
 
अत्रि ऋषि ने इस देश में कृषि के विकास में पृथु और ऋषभ की तरह योगदान दिया था। अत्रि लोग ही सिन्धु पार करके पारस (आज का ईरान) चले गए थे, जहाँ उन्होंने यज्ञ का प्रचार किया। अत्रियों के कारण ही अग्निपूजकों के धर्म पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ।
 
अत्रि ऋषि का आश्रम चित्रकूट में था। मान्यता है कि अत्रि-दम्पति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा तथा शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में जन्मे। ऋषि अत्रि पर अश्विनीकुमारों की भी कृपा थी।
 
 
 
 
6.''' वामदेव ''' : वामदेव ने इस देश को सामगान (अर्थात् संगीत) दिया। वामदेव ऋग्वेद के चतुर्थ मण्डल के सूत्तद्रष्टा, गौतम ऋषि के पुत्र तथा जन्मत्रयी के तत्ववेत्ता माने जाते हैं। भरत मुनि द्वारा रचित भरत नाट्य शास्त्र सामवेद से ही प्रेरित है। हजारों वर्ष पूर्व लिखे गए सामवेद में संगीत और वाद्य यन्त्रों की सम्पूर्ण जानकारी मिलती है।
 
वामदेव जब माँ के गर्भ में थे तभी से उन्हें अपने पूर्वजन्म आदि का ज्ञान हो गया था। उन्होंने सोचा, माँ की योनि से तो सभी जन्म लेते हैं और यह कष्टकर है, अत: माँ का पेट फाड़ कर बाहर निकलना चाहिए। वामदेव की मां को इसका आभास हो गया। अत: उसने अपने जीवन को संकट में पड़ा जानकर देवी अदिति से रक्षा की कामना की। तब वामदेव ने इन्द्र को अपने समस्त ज्ञान का परिचय देकर योग से श्येन पक्षी का रूप धारण किया तथा अपनी माता के उदर से बिना कष्ट दिए बाहर निकल आए।
 
 
 
 
7.''' शौनक ''' : शौनक ने दस हजार विद्यार्थियों के गुरुकुल को चलाकर कुलपति का विलक्षण सम्मान हासिल किया और किसी भी ऋषि ने ऐसा सम्मान पहली बार हासिल किया। वैदिक आचार्य और ऋषि जो शुनक ऋषि के पुत्र थे।
 
प्राचीन भारत में 'कण्व' नाम के अनेक व्यक्ति हुए हैं, जिनमें सबसे प्रसिद्ध 'महर्षि कण्व' थे जिन्होंने मेनका के गर्भ से उत्पन्न विश्वामित्र की कन्या शकुन्तला को पाला था।
शकुंतला के पुत्र भरत का जातकर्म इन्होंने ही सम्पादित किया था।
 
'''तीसरेदुसरे कण्व ऋषि''' कण्डु के पिता थे जो अयोध्या के पूर्व स्थित अपने आश्रम में रहते थे। रामायण के अनुसार वे राम के लंका विजय करके अयोध्या लौटने पर वहाँ आए और उन्हें आशीर्वाद दिया।
 
'''चौथेतीसरे कण्व''' पुरुवंशी राज प्रतिरथ के पुत्र थे जिनसे काण्वायन गोत्रीय ब्रह्मणों की उत्पत्ति बतलाई जाती है ।
इनके पुत्र मेधातिथि हुए और कन्या इंलिनी।
(यह जानकारी कण्व गोत्रीय ब्राह्मणों के लिए लाभकारी हो सकती है)
 
'''पांचवाचौथे कण्व''' ऐतिहासिक काल में मगध के शुंगवंशीय राज देवमूर्ति के मन्त्री थे जिनके पुत्र वसुदेव हुए।
इन्होंने राजा की हत्या करके सिंहासन छीन लिया और इनके वंशज काण्वायन नाम से डेढ़ सौ वर्ष तक राज करते रहे।
 
'''छठेपाँचवें कण्व''' पुरुवंशीय राज अजामील के पुत्र थे
 
'''सातवे कण्व'''छठे महर्षि कश्यप के पुत्र।
 
सातवें '''कण्व, महर्षि घोर''' के पुत्र थे जिन्होंने ऋग्वेद मेंके अनेक मन्त्रों की रचना की है। '''घोर ऋषि''' ब्रह्माजी के पौत्र व अंगिरा जी के पुत्र थे । वेदों और पुराणों में इनका वंश विवरण मिलता है । घोर ऋषि जी के पुत्र कण्व ऋषि थे जिन्होंने चक्रवर्ती सम्राट भरत को अपने आश्रम में पाला था । कण्वऋषि से भी एक पुत्र हुए जिनका नाम ब्रह्मऋषि सौभरि जी, हैं जिनकी वंशावली ” आदिगौड़ सौभरेय ब्राह्मण” कहलाती है जो कि यमुना नदी के किनारे '''गांव सुनरख''' वृन्दावन ,मथुरा व आसपास के क्षेत्रों में इनका निवास है । गोकुल के पास बसी कृष्ण के बडे भाई की “'''दाऊजी“दाऊजी की नगरी'''”नगरी” में इनके वंशज ही “'''दाऊमठ'''”“दाऊमठ” के पुजारी ('''हैं जिन्हें पंडा जी''')कहा हैंजाता है । इसके अलावा राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में भी ये '''सौभरेय ब्राह्मण''' अच्छी संख्या में हैं । '''विष्णु पुराण''' व '''भागवद पुराण''' में इनके उल्लेख मिलता है । द्वापर युग में जन्मे '''भगवान श्रीकृष्ण''' के गुरु थे गुरु सांदीपनि। सांदीपनि कीने तरहही श्रीकृष्ण '''महर्षि'''और उनके भाई बड़े भाई बलराम को शिक्षा-दीक्षा दी थी। '''घोर''' ऋषि भी '''विद्याधर'''संदीपनि मुनि की तरह श्रीकृष्ण के गुरु रहे हैं । इनमें भी अंगिरा ऋषि की तरह अग्नि जैसा तेज था । इनको इनके पिता के नाम की वजह से “'''घोर आंगिरस'''” की संज्ञा दी गयी ।
 
'''छांदोग्य उपनिषद''' के एक अवतरण में ऋषि घोर '''महर्षि अंगिरस''' व '''भगवान कृष्ण''' का वर्णन मिलता है ।
 
महर्षि घोर ने उनको दान, अहिंसा, पवित्रता, सत्य आदि गुणों की शिक्षा दी । '''घोर अंगिरस''' ने देवकी पुत्र कृष्ण को जो उपदेश दिया था वही उपदेश कृष्ण गीता में अर्जुन को देते हैं।
 
भगवान श्रीकृष्ण 70 साल की उम्र में घोर अंगिरस ऋषि के आश्रम में एकान्त में वैराग्यपूर्ण जीवन जीने के लिए ठहरे थे। उपनिषदों के गहन अध्ययन एवं विरक्तता से सामर्थ्य एवं तेजस्विता बढ़ती है। श्रीकृष्ण ने 13 वर्ष विरक्तता में बिताये थे ऐसी कथा छांदोग्य उपनिषद में आती है।
 
इनके अतिरिक्त छह सात और कण्व हुए हैं जो इतने प्रसिद्ध नहीं हैं ।
 
'''स्रोत:-''' महाभारत, ऋग्वेद, रामायण, विष्णुपुराण स्कंद पुराण
'''सातवे कण्व''' महर्षि कश्यप के पुत्र।
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