"सियारामशरण गुप्त": अवतरणों में अंतर
Content deleted Content added
संजीव कुमार (वार्ता | योगदान) छो 2401:4900:3B38:B010:C080:819:AC0D:2591 (Talk) के संपादनों को हटाकर रोहित साव27 के आखिरी अवतरण को पूर्ववत किया टैग: वापस लिया |
Unki spelling was wrong टैग: यथादृश्य संपादिका मोबाइल संपादन मोबाइल वेब संपादन |
||
पंक्ति 6:
== साहित्य सेवा ==
चिरगाँव (झाँसी) में बाल्यावस्था बीतने के कारण बुन्देलखण्ड की वीरता और प्रकृति सुषमा के प्रति
उनकी भाषा शैली सहज, सरल साहित्यिक खड़ीबोली हिन्दी है। आपने व्यावहारिक शब्दावली का प्रयोग अपनी रचनाओं में किया है। आपकी रचनाओं की शैली यथार्थ परक, सरस, वर्णनात्मक, विचारात्मक, चित्रात्मक एवं भावात्मक है।
पंक्ति 13:
काव्य रूपों की दृष्टि से उन्मुक्त नृत्य नाट्य के अतिरिक्त उन्होंने पुण्य पर्व नाटक (1932), झूठा सच निबंध संग्रह (1937), गोद, आकांक्षा और नारी उपन्यास तथा लघुकथाओं (मानुषी) की भी रचना की थी। उनके गद्य साहित्य में भी उनका मानव प्रेम ही व्यक्त हुआ है। कथा साहित्य की शिल्प विधि में नवीनता न होने पर भी नारी और दलित वर्ग के प्रति उनका दयाभाव देखते ही बनता है। समाज की समस्त असंगतियों के प्रति इस वैष्णव कवि ने कहीं समझौता नहीं किया किंतु उनका समाधान सर्वत्र गांधी जी की तरह उन्होंने वर्ग संघर्ष के आधार पर न करके हृदय परिवर्तन द्वारा ही किया है, अत: "गोद' में शोभाराम मिथ्या कलंक की चिंता न कर उपेक्षित किशोरी को अपना लेता है; "अंतिम आकांक्षा' में रामलाल अपने मालिक के लिए सर्वस्व त्याग करता है और "नारी' के जमुना अकेले ही विपत्तिपथ पर अडिग भाव से चलती रहती है। गुप्त जी की मानुषी, कष्ट का प्रतिदान, चुक्खू प्रेत का पलायन, रामलीला आदि कथाओं में पीड़ित के प्रति संवेदना जगाने का प्रयत्न ही अधिक मिलता है। जाति वर्ण, दल वर्ग से परे शुद्ध मानवतावाद ही उनका कथ्य है। वस्तुत: अनेक काव्य भी पद्यबद्ध कथाएँ ही हैं और गद्य और पद्य में एक ही उक्त मंतव्य व्यक्त हुआ है। गुप्त जी के पद्य में नाटकीयता तथा कौशल का अभाव होने पर भी संतों जैसी निश्छलता और संकुलता का अप्रयोग उनके साहित्य को आधुनिक साहित्य के तुमुल कोलाहल में शांत, स्थिर, सात्विक घृतपीद का गौरव देता है जो हृदय की पशुता के अंधकार को दूर करने के लिए अपनी ज्योति में आत्म मग्न एवं निष्कंप भाव से स्थित है।
== प्रमुख रचनाएँ ==
|