★-"गायत्री की उत्पत्ति अहीर जाति में और अहीरों की उत्पत्ति की पौराणिक दास्तान प्रस्तुत है ।योगेश कुमार "रोहि"की मसिधर से ★
<small></small> पुराणों में यादवों का गोप और आभीर पर्याय वाची रूपों में वर्णन प्राय: मिलता है।
पद्म-पुराण के सृष्टि-खण्ड , अग्नि पुराण "लक्ष्मीनारायण संहिता" नान्दीपुराण और स्कन्दपुराण आदि आधा दर्जन ग्रन्थों में अहीरों का प्राचीन सांस्कृतिक वर्णन है।

गोपों अथवा अहीरों के साथ परवर्ती भारतीय ग्रन्थों में कुछ दोगले विधान भी बनाऐ गये ।
कहीं उन्हें क्षत्रिय तो कहीं वैश्य कहा तो कहीं कहीं शूद्र भी कहा गया है । यह सब परिवर्तन क्रमोत्तर रूप से होता हुआ आज तक विद्यमान है। यद्यपि ये सब बातें अस्तित्व हीन ही हैं और अस्तित्व हीन बातों को उद्धृत करना शास्त्रीय विद्वित्ता नहीं है।
क्योंकि अहीरों का वर्ण वैष्णव है ; जो ब्रह्मा की चातुर्य वर्ण-व्यवस्था से पृथक ही है।
_____________________________________
प्रास: नन्द जी को तो कथावाचक और भागवत आदि पुराण "गोप" कहते हैं। परन्तु कृष्ण और वसुदेव को भी प्राचीन पुराणों में "गोप" ही कहा गया है। ,
देवीभागवत पुराण तथा हरिवशं पुराण गर्गसंहिता आदि में वसुदेव और कृष्ण को गोप कहा गया है।
"हरिवंश पुराण में वसुदेव तथा उनके पुत्र कृष्ण को गोप कहा।
___________________
"'''गोपायनं य: कुरुते जगत: सर्वलौकिकम् । स कथं गां गतो देशे विष्णु:गोपत्वम् आगत।९। '''
(हरिवंश पुराण "संस्कृति-संस्थान " ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण अनुवादक पं० श्री राम शर्मा आचार्य)
अर्थात् :- <u>जो प्रभु विष्णु पृथ्वी के समस्त जीवों की रक्षा करने में समर्थ है ।वही गोप (आभीर) के घर (अयन)में गोप बनकर आता है ।९।</u>
हरिवंश पुराण १९ वाँ अध्याय ।
गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण पृष्ठ संख्या १८२
हरिवंशपुराणम्/पर्व १ (हरिवंशपर्व)/अध्यायः ४०
< हरिवंशपुराणम् | पर्व १ (हरिवंशपर्व)
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जनमेजयेन भगवतः वराह, नृसिंह, परशुराम, श्रीकृष्णादीनां अवताराणां रहस्यस्य पृच्छा
चत्वारिंशोऽध्यायः
_________________________________________स्कन्दपुराणम् | खण्डः ७ (प्रभासखण्डःअध्याय ९-) प्रभासक्षेत्र माहात्म्यम् ★
"गोपायनं यः कुरुते जगतः सार्वलौकिकम् ।
स कथं भगवान्विष्णुः प्रभासक्षेत्रमाश्रितः।२६।
26. (ऐसा कैसे है ?) भगवान विष्णु, गोपों के घर जन्म लेने वाले होकर जो पूरे विश्व में सार्वभौमिक सुरक्षा प्रदान करते हैं,वह कैसे भगवान् विष्णु हैं जिन्होंने प्रभासक्षेत्र का आसरा ले लिया ?
_________________________________
"तथा और भी देखें---यदु को गायों से सम्बद्ध होने के कारण ही यदुवंशी (यादवों) को गोप कहा गया है।
देखें--- महाभारत का खिल-भाग हरिवंश पुराण
"ब्रह्मोवाच"
नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं श्रुणु मे विभु ।
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति।।१८।
•– ब्रह्मा जी 'ने कहा – सर्वव्यापी नारायण आप मुझसे इस उपाय को सुनिए जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा । भूतल पर जो तुम्हारे पिता , जो माता होंगी ।१८।
"यत्र त्वं च महाबाहो जात: कुलकरो भुवि।यादवानां महद् वंशमखिलं धारयिष्यसि ।।१९।
•–और जहाँ जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के सम्पूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे ।
"तांश्चासुरान् समुत्पाट्यवंशं कृत्वाऽऽत्मनो महत्।स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय ।।२०।
़
•–तथा उन समस्त असुरों का संहार करके अपने वंश का महान विस्तार करते हुए जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे वह सब बताता हूँ सुनिए !
–२०
"पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मन:।
जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।।२१।
•– विष्णो ! पहले की बात है महर्षि कश्यप अपने महान यज्ञ के अवसर पर महात्मा वरुण के यहांँ से कुछ दुधारू गायें माँग लाए थे ।
जो अपने दूध आदि के द्वारा यज्ञ में बहुत ही उपयोगिनी थीं ।
"अदिति: सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु ।प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै ।।२२।
•– यज्ञ कार्य पूर्ण हो जाने पर भी कश्यप की उन दौनों पत्नियों अदिति और सुरभि 'ने वरुण को उनका गायें लौटा देने की इच्छा नहीं की अर्थात् उनकी नीयत खराब हो गयी।।२२।
"ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा तत: ।
उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति ।२३।
•–तब वरुण मेरे पास आये और मस्तक झुकाकर मुझे प्रणाम करके बोले – भगवन् ! पिता के द्वारा मेरी गायें हरण कर ली गयी हैं ।३२।
__________________________________
कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरु: ।अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितं सुरभिं तथा ।२४।
•–यद्यपि उन गोओं से जो कार्य लेना था वह पूरा हो गया है ; तो भी पिता जी मुझे उन गायों को वापस ले जाने की आज्ञा नहीं देते ; इस विषय में उन्होंने अपनी दौनों पत्नियों अदिति और सुरभि के मत का अनुसरण किया है ।२४।
"मम ता ह्यक्षया गावो दिव्या: कामदुह: प्रभो ।चरन्ति सागरान् सर्वान् रक्षिता: स्वेन तेजसा।।२५।
•– मेरी वे गायें अक्षया , दिव्य और कामधेनु हैं। तथा अपने ही तेज से रक्षिता वे स्वयं समुद्रों में भी विचरण और चरण करती हैं ।२५।
"कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गा: कश्यपादृते।अक्षयं वा क्षरन्त्ग्र्यं पयो देवामृतोपमम्।२६।
•–हे देव ! जो अमृत के समान उत्तम दूध को अविछिन्न रूप से देती रहती हैं मेरी उन गायों को पिता कश्यप के सिवा दूसरा अन्य कौन बलपूर्वक रोक सकता है ।२६।
"प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतर: ।त्वया नियम्या: सर्वै वै त्वं हि 'न: परमा गति ।२७।
•– ब्रह्मन्! कोई कितना ही शक्ति शाली हो , गुरु जन हो अथवा कोई और हो यदि वह मर्यादा का त्याग करता है तो आप ही ऐसे सब लोगों पर नियन्त्रण कर सकते हैं
क्योंकि आप हम सब लोगों के परम आश्रय हैं ।२७।
"यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम्।'न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतव:।।२८।
•–लोक गुरु ! यदि संसार में अपने कर्तव्य से अनिभिज्ञ रहने वाले शक्ति शाली पुरुषों के लिए दण्ड की व्यवस्था 'न हो तो जगत की सारी मर्यादाऐं नष्ट हो जायँगी ।२८।
"यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभु:।मम गाव: प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम्।२९।
•–इस कार्य का जैसा परिणाम होनेवाला वैसा ही कर्तव्य का पालन करने या कराने में आप ही हमारे प्रभु हैं। मुझे मेरी गायें दिलवा दीजिए तभी मैं समुद्र को जाऊँगा ।।२९।
_______________________________
या आत्मदेवता गावोया:गाव:सत्त्वमव्ययम्।लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणंस्मृतम्।३०।
•–इन गोऔं के देवता साक्षात् परब्रह्म( विष्णु) परमात्मा हैं तथा ये अविनाशी सत्व गुण का साकार रूप हैं
आपसे प्रकट हुए जो जो लोक हैं उन सबकी दृष्टि में दो और ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण एक समान माने गये हैं ।३०।
त्रातव्या:प्रथमं गावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान्।
गोब्राह्मण परित्राणे परित्रातं जगद् भवेत् ।३१।
•–पहले गोओं की रक्षा करव़नी चाहिए फिर सुरक्षित हुईं गोऐं ब्राह्मणों की रक्षा करती हैं
गोऔं और ब्राह्मणों( ब्रह्मज्ञानीयों) की रक्षा हो जाने पर सम्पूर्ण जगत की रक्षा हो जाती है ।३१।

⬇
★-इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत।
गावां कारणत्वज्ञ:सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति ।।३२।।
•– ब्रह्मा जी बोले ! हे विष्णो : ! जल के स्वामी वरुण के ऐसा कहने पर गोऔं के कारण तत्व को जानने वाले मैंने कश्यप को शाप देते हुए कहा ।३२।
"येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति ।।३३।
•–महर्षि कश्यप 'ने अपनेे जिस अंश से वरुण की गोऔं का अपहरण किया है ;उस अंश से वे पृथ्वी पर जाकर गोप होंगे ।३३।
"या च सासुरभिर्नाम् अदितिश्च सुरारिण: ।
तेऽप्युभे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।३४।।
•–वे जो सुरभि नाम वाली देवी हैं ;तथा देव रूपी अग्नि के प्रकट करने वाली अरणी के समान जो अदिति देवी हैं वे दौनों पत्नियाँ कश्यप के साथ ही भू-लोक पर जाऐंगी ।।३४।

★-"ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते।
स तस्य कश्पस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम:।३५।
•–गोप(अहीर) के रूप में जन्मे कश्यप पृथ्वी पर अपनी उन दौनों पत्नियों के साथ रहेंगे उस कश्यप का अंश जो कश्यप के समान ही तेजस्वी है।।३५।

"वसुदेव: इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरि गोवर्धनो नाम (मथुराया:)मधुपुरायास्त्वदूरत:।।३६।।
१-वसुदेव:-प्रथमा विभक्ति एक वचन) २-इति-इस प्रकार ३-ख्यात:-प्रसिद्ध ४-गोषु सप्तमीविभक्त वहुवचन -गायों के मध्य में।भूलोक में स्थित है। ५-गिरि गोवर्धन- नाम का पर्वत है। ६-मधुपुराया: ७-तु-तो। ८-अदूरत:-दूर नहीं है। अर्थात् मधुरा पुरी से दूर नहीं है।
•–वह भूतल पर वसुदेव नाम से विख्यात हो
गोऔं और गोपों के अधिपति रूप में निवास करेंगे जहांँ मथुरा से थोड़ी दूर पर गोवर्धन नाम का पर्वत है ।।३६।।
"तत्रासौ गोषु निरत: कंसस्य कर दायक:।
तस्य भार्या द्वयं जातमदिति: सुरभिश्च ते।३७।
•–जहांँ वे गायों की सेवा में लगे हुए और कंस को कर देने वाले होंगे ; अदिति और सुरभि नाम की उनकी दो पत्नीयाँ होंगी ।३७।
"देवकी रोहिणी च इमे वसुदेवस्य धीमत: ।
सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत्।३८।
•–बुद्धिमान वसुदेव की देवकी और रोहिणी
दो भार्याऐं होंगी । उनमें रोहिणी तो सुरभि होगी और देवकी अदिति होगी ।३८।
"तत्र त्वं शिशुरेवादौ गोपालकृत लक्षण:।
वर्धयस्व महाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा ।३९।
•– महाबाहो आप ! वहाँ पहले शिशु रूप में रहकर गोप बालक का चिन्ह धारण करके क्रमश: बड़े होइये । ठीक जैसे त्रिविक्रमावतार के समय आप वामन से बढ़कर विराट् हो गये थे ।३९।
"छादयित्वाऽऽत्मनाऽऽत्मनांमायया योगरूपया।
तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन।।४०।
•–मधुसूदन योग माया के द्वारा स्वयं ही अपनेे स्वरूप को आच्छादित करके आप लोक हित के लिए वहाँ अवतार लीजिए ।४०।
"जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्धयन्ति दिवौकस: ।
आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य्य महीतले ।।४१।
•–ये देवता 'लोग' विजयसूचक आशीर्वाद देकर आपके अभ्युदय की कामना करते हैं ।आप स्वयं को पृथ्वी पर उतारें ।४१।
"देवकीं रोहिणींं चैव गर्भाभ्यां परितोषय ।
गोप कन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम् ।।४२।
•–दो गर्भों के रूप में प्रकट हों माता देवकी और रोहिणी को सन्तुष्ट कीजिए ।
साथ ही यथासमय गोप कन्याओं को आनन्द प्रदान करते हुए व्रज भूमि में विचरण कीजिए।
"गाश्च ते रक्षतो विष्णो वनानि परिधावत: ।
वनमाला परिक्षिप्तं धन्या द्रक्ष्यन्ति के वपु :।।४३।।
•-विष्णो ! वहाँ गायों की रक्षा करते हुए जब आप वन वन में दोड़ते फिरेंगे उस समय आपके वनमाला भूषित शरीर का 'लोग' दर्शन करेंगे तो वे धन्य हो जाऐंगे ।।४३।
"विष्णौ पद्मपलाशाक्षे गोपालवसतिं गते ।
बाले त्वयि महाबाहो लोको बालकत्वं एष्यति ।।४४।
•–महाबाहो विकसित कमल दल के समान नेत्रों वाले आप सर्वव्यापी परमेश्वर गोप-(अहीर) बालक के रूप में व्रज में निवास करेंगे ; उस समय सब लोगो आपके बाल- रूप की झाँकी करके स्वयं भी बालक बन जाऐंगे और बाल लीला के रसास्वादन में लीन हो जाऐंगे।४४।
"त्वद्वक्ता: पुण्डरीकाक्ष तव चित्त वशानुगा:।
गोषु गोपा भविष्यन्ति सहाया: सततं तव।।४५।
•–कमल नयन ! आपके चित्त के अनुकूल चलने वाले भक्त गणों वहाँ गोऔं की सेवा करने के लिए गोप बनकर प्रकट होंगे ।४५।
"वने चारयतो गाश्च गोष्ठेषु परिधावत:।
मज्जतो यमुनायां च रतिं प्राप्स्यन्ति के त्वयि ।। ४६।
•–जब आप वन में गायें चराते होंगे और व्रज में इधर-उधर दोड़ते होंगे ,तथा यमुना जी के जल में गोते लगाते होंगे ; उन सभी अवसरों पर भक्तजन आपका दर्शन करके आप में उत्तरोत्तर अनुराग प्राप्त करेंगे ।४६।
"जीवितं वसुदेवस्य भविष्यति सुजीवितम् ।।
यस्त्वया तात इत्युक्त: स पुत्र इति वक्ष्यति।४७।।
•–वसुदेव का जीवन वास्तव में उत्तम जीवन होगा , जो आपके द्वारा "तात" कहकर पुकारे जाने पर आप से पुत्र कहकर बोलेगें ।४७।
"अथवा कस्य पुत्रत्वं गच्छेथा:
कश्यपादृते।
का च धारयितुंशक्ता
त्वां विष्णो अदितिं विना।।४८।
•–हे विष्णो ! अथवा आप कश्यप के सिवा किसके पुत्र होंगे ? देवी अदिति के अतिरिक्त दूसरी कौन सी स्त्री आपको गर्भ में धारण कर सकेगी ।४८।
"योगेनात्मसमुत्थेन गच्छ त्वं विजयाय वै ।
वयमप्यालयान् स्वान् स्वान् गच्छामो मधुसूदन।।४९।
•-मधुसूदन आप अपनेे स्वाभाविक योगबल से असुरों पर विजय पाने के लिए यहांँ से प्रस्थान कीजिए , हम लोगो भी अपने अपने स्थान को जा रहे हैं।।४९।
विष्णु के चरण चिन्ह"
( "वैश्म्पायन उवाच")
"स देवानभ्यनुज्ञाय विविक्ते त्रिदिवालये ।
जगाम विष्णु:स्वं देशं क्षीरोदस्योत्तरां दिशम् ।५०।
•-वैशम्पायन बोले –जनमेजय ! देव लोक के उस पुण्य प्रदेश में बैठे हुए भगवान् विष्णु देवताओं को जाने की आज्ञा देकर क्षीर सागर से (उत्तर दिशा )में स्थित अपने निवास-स्थान को चले गये ।५०।

"तत्र वै पार्वती नाम गुहा मेरो: सुदुर्गमा।
त्रिभिस्तस्यैव विक्रान्तैर्नित्यं पर्वसु पूजिता।।५१।
•–वहाँ मेरु-पर्वत की पार्वती नाम से प्रसिद्ध एक अत्यन्त दुर्गमा गुफा है , जो भगवान् विष्णु के तीन' –चरण चिन्हों से उपलक्षित होती है ; इसलिये पर्व के अवसरों पर सदा उसकी पूजा की जाती है।५१।

"पुराणं तत्र विन्यस्य देहं हरिरुदारधी:।
आत्मानं योजयामास वसुदेव गृहे प्रभु : ।५२।
•–उदार बुद्धि वाले भगवान श्री 'हरि 'ने अपने पुरातन विग्रह( शरीर) को वहीं स्थापित करके अपने आपको वसुदेव के घर में अवतीर्ण होने की क्रिया में लगा दिया।५२।।
"इति श्री महाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवशंपर्वणि "पितामहवाक्ये" पञ्चपञ्चाशत्तमो८ध्याय:।।५५।
(इस प्रकार श्री महाभारत के खिल-भाग हरिवशं पुराण के 'हरिवंश पर्व' में ब्रह्मा जी वचन विषयक पचपनवाँ अध्याय सम्पन्न हुआ।५५।

गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण
__________________________________
स्वयं कई बार कृष्ण ने अपने आप को गोप कहा-
इसी सन्दर्भ में हरिवशं पुराण में एक आख्यानक है ⬇
एक बार जब कृष्ण हिमालय पर्वत के कैलास शिखर पर तप करने तथा भूत और पिशाच जनजातियों के नायक शिव से मिलने गये ;
तब वहाँ पैशाची प्राकृत बोलने वाले दो पिशाच जन-जाति के लोगों से परिचय हुआ !
यद्यपि उन्होने भी कृष्ण की ख्याति सुन ली थी ।
वर्तमान में भूटान (भूतस्थान) ही भूत या भूटिया जन-जाति का निवास था ।
ये 'लोग' कच्चे माँस का भक्षण करते और गन्दे सन्दे रहते थे ।
क्योंकि जिनका आहार दूषित हो तो उनका व्यवहार भूषित कैसे हो सकता है ?
'परन्तु वहाँ भी दो पिशाच जो कृष्ण के वर्चस्व से प्रभावित कृष्ण के भक्त बन गये थे ।
★-उन्होंने जब साक्षात् रूप में उपस्थित कृष्ण का परिचय पूछा
तो उन्होंने (कृष्ण ने) अपना परिचय शत्रुओं का क्षरण या क्षति करके पीडित का त्राण करने वाला क्षत्रिय बताया ।
________________________
"ब्रूहि मर्त्य यथातत्त्वं ज्ञातुमिच्छामि मानद ।
एवं पृष्टः पिशाचाभ्यामाह विष्णुरुरुक्रमः ।।3/80/ 9 ।।
•– दूसरों को मान देने वाले आप मानव आप ठीक ठीक बताइए मैं पिशाच यथार्थ रूप से -आपका परिचय जानना चाहता हूँ ।
उन दौनों पिशाचों के इस प्रकार पूछने पर महान डग वाले भगवान विष्णु के रूप में कृष्ण बोले !
________
"क्षत्रियोऽस्मीतिमामाहुर्मानुष्याःप्रकृतिस्थिताः।
यदुवंशे समुत्पन्नः क्षात्रं वृत्तमनुष्ठितः ।। 3/80/10।।
•-मैं क्षात्रवृत्ति या अनुष्ठान करने से क्षत्रिय हूँ प्राकृत मनुष्य मुझे ऐसा ही कहते हैं ; और जानते हैं मैं यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूँ । इस लिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ। 10।।
लोकानामथ पातास्मि शास्ता दुष्टस्य सर्वदा ।कैलासं गन्तुकामोऽस्मि द्रष्टुं देवमुमापतिम्।।3/80/11।।
•-मैं तीनों लोगों का पालक
तथा सदा ही दुष्टों पर शासन करने वाला हूँ।
इस समय उमापति भगवान् शंकर का दर्शन करने कैलास पर्वत पर जाना चाहता हूँ 3/80/11
इसी पुराण में एक स्थान पर कृष्ण 'ने स्वयं उद्घोषणा की कि "मैं गोप हमेशा सब प्रकार से प्राणियों की रक्षा करने वाला हूँ।
______
"गोप- कृष्ण"
___________________________

" गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणद: सदा।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।४१।
•– राजन् ! मैं गोप हूँ , और प्राणियों का सब ओर से प्राण दान करने वाला हूँ।
सम्पूर्ण लोकों का रक्षक और सब ओर से दुष्टों का शासन करने वाला हूँ ।
हरिवशं पुराण "भविष्यपर्व" सौंवें अध्याय का इकतालीस वाँ श्लोक
(पृष्ठ संख्या 1298 गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)
_______
"अतएव गोप ही यादव' और यादव' ही अपनी वीरता प्रवृत्ति से आभीर कहलाते थे।
यद्यपि अहीर सबसे प्राचीन पौराणिक जाति है । जिसका साक्षात् सम्बन्ध भगवान् विष्णु से है। जातियों के सृजन के मूल में प्रवृत्तियों का समावेश है सभी जातियाँ अपनी प्रवृतियों को लेकर ही इस पृथ्वी पर जन्म लेती हैं।अहीर अपनी निडरता के लिए प्रसिद्ध जाति है। कोई भी क्षत्रिय होने से पहले "वीर ही हो सकता है ।
हरिवशं पुराण में ही 'भविष्य पर्व' के सौंवे अध्याय में पौंड्रक जब कृष्ण से युद्ध करता है तो कभी उन्हें गोपाल या गोप कह कर सम्बोधित करता है तो कभी यादव कह कर !
देखें उस सन्दर्भ को ⬇
____________
"
स तत: पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।
भो भो यादव' गोप' अलं इदनीं क्व गतो भवान्।। 26।
अर्थ:- उसके बाद वह पौण्ड्रक श्री कृष्ण से कहता है अलं ( बस करो' ठहरो !) ओ यादव ! ओ गोप ! अभी तुम कहाँ चले गये थे । 26।
हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवे अध्याय (पृष्ठ संख्या 1297)
____________
गोप+ अलं = गोप ठहरो बस ! बस ! यह अर्थ देने वाले गोप पद अलं अव्यय से युक्त है ।
और शब्द गोपालं के रूप में गोपाल का कर्म कारक द्वित्तीय विभक्ति रूप बनता है ।
यद्यपि कहीं गोप तो कहीं गोपाल शब्द है
अलम् - संस्कृत भाषा में एक अव्यय है
_______________________________
अलम्, व्य, भूषणं । पूर्णता । सामर्थ्यं ।
निषेधः । इत्यमरः ॥ निरर्थकं । इति भरतः नाट्य शास्त्र॥

पद्मपुराणम्/खण्डः १ (सृष्टिखण्डम्)/अध्यायः १
अध्यायः १५पद्मपुराणम् अध्यायः १६
वेदव्यासःअध्यायः १७ →
________________________________________
भीष्म उवाच
यदेतत्कथितं ब्रह्मंस्तीर्थमाहात्म्यमुत्तमम्
कमलस्याभिपातेन तीर्थं जातं धरातले।१।
तत्रस्थेन भगवता विष्णुना शंकरेण च
यत्कृतं मुनिशार्दूल तत्सर्वं परिकीर्त्तय।२।
कथं यज्ञो हि देवेन विभुना तत्र कारितः
के सदस्या ऋत्विजश्च ब्राह्मणाः के समागताः।३।
के भागास्तस्य यज्ञस्य किं द्रव्यं का चदक्षिणा
का वेदी किं प्रमाणं च कृतं तत्र विरंचिना।४।
यो याज्यः सर्वदेवानां वेदैः सर्वत्र पठ्यते
कं च काममभिध्यायन्वेधा यज्ञं चकार ह।५।
यथासौ देवदेवेशो ह्यजरश्चामरश्च ह
तथा चैवाक्षयः स्वर्गस्तस्य देवस्य दृश्यते।६।
अन्येषां चैव देवानां दत्तः स्वर्गो महात्मना
अग्निहोत्रार्थमुत्पन्ना वेदा ओषधयस्तथा।७।
ये चान्ये पशवो भूमौ सर्वे ते यज्ञकारणात्
सृष्टा भगवतानेन इत्येषा वैदिकी श्रुतिः।८।
तदत्र कौतुकं मह्यं श्रुत्वेदं तव भाषितम्
यं काममधिकृत्यैकं यत्फलं यां च भावनां।९।
कृतश्चानेन वै यज्ञः सर्वं शंसितुमर्हसि
शतरूपा च या नारी सावित्री सा त्विहोच्यते।१०।
भार्या सा ब्रह्मणः प्रोक्ताः ऋषीणां जननी च सा
पुलस्त्याद्यान्मुनीन्सप्त दक्षाद्यांस्तु प्रजापती।११।।
स्वायंभुवादींश्च मनून्सावित्री समजीजनत्
धर्मपत्नीं तु तां ब्रह्मा पुत्रिणीं ब्रह्मणः प्रियः।१२।
पतिव्रतां महाभागां सुव्रतां चारुहासिनीं
कथं सतीं परित्यज्य भार्यामन्यामविंदत ।१३।
किं नाम्नी किं समाचारा कस्य सा तनया विभोः
क्व सा दृष्टा हि देवेन केन चास्य प्रदर्शिता।१४।
किं रूपा सा तु देवेशी दृष्टा चित्तविमोहिनी
यां तु दृष्ट्वा स देवेशः कामस्य वशमेयिवान् ।१५।
वर्णतो रूपतश्चैव सावित्र्यास्त्वधिका मुने
या मोहितवती देवं सर्वलोकेश्वरं विभुम्।१६।
यथा गृहीतवान्देवो नारीं तां लोकसुंदरीं
यथा प्रवृत्तो यज्ञोसौ तथा सर्वं प्रकीर्तय।१७।
तां दृष्ट्वा ब्रह्मणः पार्श्वे सावित्री किं चकार ह
सावित्र्यां तु तदा ब्रह्मा कां तु वृत्तिमवर्त्तत।१८।
सन्निधौ कानि वाक्यानि सावित्री ब्रह्मणा तदा
उक्ताप्युक्तवती भूयः सर्वं शंसितुमर्हसि।१९।
किं कृतं तत्र युष्माभिः कोपो वाथ क्षमापि वा
यत्कृतं तत्र यद्दृष्टं यत्तवोक्तं मया त्विह।२०।
विस्तरेणेह सर्वाणि कर्माणि परमेष्ठिनः
श्रोतुमिच्छाम्यशेषेण विधेर्यज्ञविधिं पद ।२१।।
कर्मणामानुपूर्व्यं च प्रारंभो होत्रमेव च
होतुर्भक्षो यथाऽचापि प्रथमा कस्य कारिता।२२।
कथं च भगवान्विष्णुः साहाय्यं केन कीदृशं
अमरैर्वा कृतं यच्च तद्भवान्वक्तुमर्हति।२३।
देवलोकं परित्यज्य कथं मर्त्यमुपागतः
गार्हपत्यं च विधिना अन्वाहार्यं च दक्षिणम्।२४।
अग्निमाहवनीयं च वेदीं चैव तथा स्रुवम्
प्रोक्षणीयं स्रुचं चैव आवभृथ्यं तथैव च।२५।
अग्नींस्त्रींश्च यथा चक्रे हव्यभागवहान्हि वै
हव्यादांश्च सुरांश्चक्रे कव्यादांश्च पितॄनपि।२६।
भागार्थं यज्ञविधिना ये यज्ञा यज्ञकर्मणि
यूपान्समित्कुशं सोमं पवित्रं परिधीनपि।२७।
यज्ञियानि च द्रव्याणि यथा ब्रह्मा चकार ह
विबभ्राज पुरा यश्च पारमेष्ठ्येन कर्मणा।२८।
क्षणा निमेषाः काष्ठाश्च कलास्त्रैकाल्यमेव च
मुहूर्तास्तिथयो मासा दिनं संवत्सरस्तथा।२९।
ऋतवः कालयोगाश्च प्रमाणं त्रिविधं पुरा
आयुः क्षेत्राण्यपचयं लक्षणं रूपसौष्ठवम्।३०।
त्रयो वर्णास्त्रयो लोकास्त्रैविद्यं पावकास्त्रयः
त्रैकाल्यं त्रीणि कर्माणि त्रयो वर्णास्त्रयो गुणाः।३१।
सृष्टा लोकाः पराः स्रष्ट्रा ये चान्येनल्पचेतसा
या गतिर्धर्मयुक्तानां या गतिः पापकर्मणां।३२।
चातुर्वर्ण्यस्य प्रभवश्चातुर्वर्ण्यस्य रक्षिता
चतुर्विद्यस्य यो वेत्ता चतुराश्रमसंश्रयः।३३।
यः परं श्रूयते ज्योतिर्यः परं श्रूयते तपः
यः परं परतः प्राह परं यः परमात्मवान्।३४।
सेतुर्यो लोकसेतूनां मेध्यो यो मेध्यकर्मणाम्
वेद्यो यो वेदविदुषां यः प्रभुः प्रभवात्मनाम्।३५।
असुभूतश्च भूतानामग्निभूतोग्निवर्चसाम्
मनुष्याणां मनोभूतस्तपोभूतस्तपस्विनाम्।३६।
विनयो नयवृत्तीनां तेजस्तेजस्विनामपि
इत्येतत्सर्वमखिलान्सृजन्लोकपितामहः।३७।
यज्ञाद्गतिं कामन्वैच्छत्कथं यज्ञे मतिः कृता
एष मे संशयो ब्रह्मन्नेष मे संशयः परः।३८।
आश्चर्यः परमो ब्रह्मा देवैर्दैत्यैश्च पठ्यते
कर्मणाश्चर्यभूतोपि तत्त्वतः स इहोच्यते।३९।
★"पुलस्त्य उवाच"★
प्रश्नभारो महानेष त्वयोक्तो ब्रह्मणश्च यः
यथाशक्ति तु वक्ष्यामि श्रूयतां तत्परं यशः।४०।
सहस्रास्यं सहस्राक्षं सहस्रचरणं च यम्
सहस्रश्रवणं चैव सहस्रकरमव्ययम्।४१।
सहस्रजिह्वं साहस्रं सहस्रपरमं प्रभुं
सहस्रदं सहस्रादिं सहस्रभुजमव्ययम्।४२।
हवनं सवनं चैव हव्यं होतारमेव च
पात्राणि च पवित्राणि वेदीं दीक्षां चरुं स्रुवम्।४३
स्रुक्सोममवभृच्चैव प्रोक्षणीं दक्षिणा धनम्
अद्ध्वर्युं सामगं विप्रं सदस्यान्सदनं सदः।४४।
यूपं समित्कुशं दर्वी चमसोलूखलानि च
प्राग्वंशं यज्ञभूमिं च होतारं बन्धनं च यत्।४५।
ह्रस्वान्यतिप्रमाणानि प्रमाणस्थावराणि च
प्रायश्चित्तानि वाजाश्च स्थंडिलानि कुशास्तथा।४६।
मंत्रं यज्ञं च हवनं वह्निभागं भवं च यं
अग्रेभुजं होमभुजं शुभार्चिषमुदायुधं।४७।
आहुर्वेदविदो विप्रा यो यज्ञः शाश्वतः प्रभुः
यां पृच्छसि महाराज पुण्यां दिव्यामिमां कथां।४८।
यदर्थं भगवान्ब्रह्मा भूमौ यज्ञमथाकरोत्
हितार्थं सुरमर्त्यानां लोकानां प्रभवाय च।४९।

सप्तर्षियों का गायत्री के विवाह में "होता" "ऋत्विज" आदि पदों पर उपस्थित होना-

"ब्रह्माथ कपिलश्चैव परमेष्ठी तथैव च
देवाः सप्तर्षयश्चैव त्र्यंबकश्च महायशाः।५० ।
(1.16.50)खण्ड/अध्याय/श्लोक)
अत्रि : ऋग्वेद के पंचम मण्डल के द्रष्टा महर्षि अत्रि ब्रह्मा के पुत्र, सोम के पिता और कर्दम प्रजापति व देवहूति की पुत्री अनुसूया के पति थे। अत्रि जब बाहर गए थे तब त्रिदेव अनसूया के घर ब्राह्मण के भेष में भिक्षा माँगने लगे और अनुसूया से कहा कि जब आप अपने संपूर्ण वस्त्र उतार देंगी तभी हम भिक्षा स्वीकार करेंगे, तब अनुसूया ने अपने सतित्व के बल पर उक्त तीनों देवों को अबोध बालक बनाकर उन्हें भिक्षा दी। माता अनुसूया ने देवी सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया था।
अत्रि ऋषि का आश्रम चित्रकूट में था। अत्रि ऋषि ने इस देश में कृषि के विकास में पृथु और ऋषभ की तरह योगदान दिया था। अत्रि लोग ही सिन्धु पार करके पारस (आज का ईरान) चले गए थे, जहाँ उन्होंने यज्ञ का प्रचार किया। अत्रियों के कारण ही अग्निपूजकों के धर्म पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ।
मान्यता है कि अत्रि-दम्पति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा तथा शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में जन्मे। ऋषि अत्रि पर अश्विनीकुमारों की भी कृपा थी।
फारसी अतर -संस्कृत-,अत्रि
अतर , अताश , या अजार ( अवेस्तान अतर ) पवित्र अग्नि की पारसी अवधारणा है ।
जिसे कभी-कभी अमूर्त शब्दों में "जलती हुई और जलती हुई आग" या "दृश्यमान और अदृश्य आग" भी माना जाता है।इसे इसके (मिर्जा, 1987: 389) रूप में वर्णित किया जाता है।
इसे यज़ता नाम के माध्यम से अहुरा मज़्दा और उनकी आशा की दृश्यमान उपस्थिति माना जाता है । साल में 1,128 बार आग को शुद्ध करने का अनुष्ठान किया जाता है।

तुर्क शाही राजा तेगिन शाह के एक सिक्के पर ईरानी अग्निदेव अदुर (अतर अत्रि-) , 728 ईस्वी
अवेस्तान भाषा में , अतर गर्मी और प्रकाश के स्रोतों का एक गुण है, जिनमें से नाममात्र का एकवचन रूप अतारी है, जो फारसी अत: (अग्नि) का स्रोत है । एक बार इसे व्युत्पत्ति से संबंधित माना जाता था अवेस्तान अशरौआन / अशौरुन ( वैदिक अथर्वन ), एक प्रकार का पुजारी, लेकिन अब इसे असंभाव्य माना जाता है (बॉयस, 2002:16)। अतर की अंतिम व्युत्पत्ति , जो पहले अज्ञात थी (बॉयस, 2002:1), अब माना जाता है कि यह इंडो-यूरोपीय *h x eh x tr- 'फायर' से है। यह इसे लैटिन ater . से संबंधित बना देगा(काला) और संभवतः अल्बानियाई वातिर , रोमानियाई वात्र और सर्बो-क्रोएशियाई वात्रा (अग्नि) का एक संज्ञेय। [1] रूप है।
बाद के पारसी धर्म में, अतर ( मध्य फ़ारसी : 𐭠𐭲𐭥𐭥𐭩 आदर या आदुर ) प्रतीकात्मक रूप से आग से ही जुड़ा हुआ है, जो मध्य फ़ारसी में अतक्ष है , जो पारसी प्रतीकवाद की प्राथमिक वस्तुओं में से एक है।
"शास्त्र में वर्णन- करना
गाथिक ग्रंथों में-
अतर पहले से ही गाथाओं में स्पष्ट है , जो अवेस्ता के संग्रह का सबसे पुराना ग्रंथ है और माना जाता है कि इसकी रचना स्वयं जोरोस्टर ने की थी । इस मोड़ पर, जैसा कि यस्ना हप्तनघैती (सात-अध्याय का यस्ना जो संरचनात्मक रूप से गाथाओं को बाधित करता है और भाषाई रूप से उतना ही पुराना है जितना कि स्वयं गत), अतर अभी भी है - केवल एक अपवाद के साथ - एक अमूर्त अवधारणा बस एक साधन, एक माध्यम, निर्माता की और अभी तक गर्मी और प्रकाश की दिव्यता ( यज़ता ) नहीं है कि अतर बाद के ग्रंथों में बनना था।
सबसे प्राचीन ग्रंथों में, अतर एक माध्यम है, एक संकाय, जिसके माध्यम से निर्णय पारित किया जाता है और गर्मी द्वारा परीक्षा के पूर्व-पारसी संस्थान को दर्शाता है (अवेस्तान: गारमो-वराह , गर्मी की परीक्षा; सीएफ। बॉयस 1996: अध्याय 6)।
न्याय अतर ( यस्ना 31.3, 34.4, 36.2, 47.2), धधकते हुए अतर (31.19, 51.9) के माध्यम से, अतर की गर्मी के माध्यम से (43.4), धधकते, चमकते, पिघली हुई धातु ( अयंग खशुष्ट , 30.7, 32.7, ) के माध्यम से प्रशासित किया जाता है। 51.9)।
एक व्यक्ति जिसने अग्नि परीक्षा पास कर ली है, उसने शारीरिक और आध्यात्मिक शक्ति, ज्ञान, सत्य और प्रेम को शांति के साथ प्राप्त किया है (30.7)।
हालाँकि, सभी संदर्भों के बीचअतर सबसे पुराने ग्रंथों में, इसे केवल एक बार अहुरा मज़्दा से स्वतंत्र रूप से संबोधित किया जाता है। इस अपवाद में, अतर को तीसरे व्यक्ति के मर्दाना एकवचन में कहा जाता है: "वह हाथ से पकड़कर पापियों का पता लगाता है" ( यस्ना 34.4)।
कुल मिलाकर, "कहा जाता है कि कुल मिलाकर लगभग 30 प्रकार के उग्र परीक्षण हुए हैं।" (बॉयस, 2002:1)
इसके अलावा प्रारंभिक ग्रंथों में, अपराध स्थापित करने में अपनी भूमिका के लिए स्पर्शरेखा, अतर रहस्योद्घाटन का प्रकाश है जिसके माध्यम से जोरोस्टर का चयन अहुरा मज़्दा द्वारा किया जाता है, जरथुस्त्र मैन्यु अथरा ( यस्ना 31.3), अहुरा मज़्दा (43.9) द्वारा विकिरणित, की सजा को प्रभावित करता है "अच्छा उद्देश्य" ( वोहु मनाह , 43.4; अमेशा स्पेंटा भी देखें ), और अपने भीतर के आत्मज्ञान को उजागर करना (46.7)। दिव्य रोशनी की अवधारणा के इस ढांचे के भीतर, अतर "अन्य रोशनी" (31.7), सार (अहुरा मज़्दा का) विकीर्ण करता है, जिससे अंतर्दृष्टि और ज्ञान ब्रह्मांड में व्याप्त है। अत: पारसी की आज्ञा हमेशा अतारो की उपस्थिति में प्रार्थना करने के लिए- या तो सूर्य की ओर, या अपने स्वयं के चूल्हों की ओर - ताकि उनकी भक्ति को आशा, धार्मिकता और उस गुण पर बेहतर ढंग से केंद्रित किया जा सके जिसके लिए प्रयास किया जाना चाहिए ( यस्ना 43.9, बॉयस, 1975: 455 भी देखें)।
"परवर्ती ग्रन्थों में सम्पादन-)

कुषाण शासक हुविष्क (150-180 सीई) के एक सिक्के के पीछे अत्शो (अतर)।
अपराध का पता लगाने के माध्यम के रूप में अतर की गाथिक भूमिका अवेस्ता के बाद के ग्रंथों में प्रत्यक्ष रूप से स्पष्ट नहीं है, लेकिन धार्मिकता के माध्यम से अंगरा मैन्यु को जलाने और नष्ट करने के एक रूपक के रूप में संशोधित रूप में फिर से प्रकट होता है , "जहां आशा वशिष्ठ की पहचान कई बार की जाती है। चूल्हे पर घर की आग।
"वहां, "पदार्थ और आत्मा के क्षेत्र में पहचान केवल आशा के संबंध में जोरोस्टर की शिक्षाओं के मुख्य सिद्धांतों को प्रमुखता में लाने के लिए कार्य करती है" (ढल्ला, 1938: 170)। वेंडीडाडी में अभी भी गर्मी से अग्नि परीक्षा की प्राचीन संस्था का एक अवशेष मौजूद है4.54-55, जहां सच्चाई के खिलाफ बोलना और वादे की पवित्रता का उल्लंघन करना दंडनीय है और "पानी, धधकते, सुनहरे रंग के, अपराध का पता लगाने की शक्ति रखने वाले" के सेवन से पता चला है। इस मार्ग पर ज़ेंड अनुवाद/टिप्पणी "चमकदार" को "गंधक और सल्फर" के रूप में अनुवादित करती है, और नोट करती है कि इस "अपराध-पहचान तरल" की खपत से निर्दोषता या अपराध स्थापित किया गया था। इसी तरह, डेनकार्ड में , अधारबाद मारस्पंद-ससानीद युग के महायाजक, जिनके लिए अवेस्ता ग्रंथों के संयोजन का श्रेय दिया जाता है- को पवित्र ग्रंथों की सटीकता के प्रमाण के रूप में उनके सीने पर "अनबर्निंग पिघले हुए जस्ता" के नौ उपायों को लागू करने के लिए कहा जाता है। .
कालानुक्रमिक रूप से देखा जाए, तो अतर से निर्णय के वाहन के रूप में अतर यज़ाता में अग्नि की अध्यक्षता करने वाले देवत्व का संक्रमण अचानक होता है ।
जबकि पुराने गैथिक अवेस्टन ग्रंथों में कठोर निर्णय से जुड़ी गर्मी (और इस प्रकार आग) है, छोटे अवेस्तान ग्रंथों में देवत्व अतर पूरी तरह से प्रतिनिधित्व करता है और आग से ही प्रतिनिधित्व किया जा रहा है; और गर्मी और प्रकाश के साथ जुड़ा हुआ है और विकास के लिए आवश्यक है। हालांकि अतर के साथ आशा वशिष्ठ के जुड़ाव को आगे बढ़ाया गया है, और उनका अक्सर एक साथ उल्लेख किया जाता है ( यस्ना 62.3, न्याशेस)5.9, आदि)। इसलिए संरक्षक के रूप में उनकी भूमिकाओं में भी, "जब दुष्ट आत्मा ने अच्छे सत्य के निर्माण पर आक्रमण किया, तो अच्छे विचार और आग ने हस्तक्षेप किया" ( यश 13.77)
यह बाद के ग्रंथों में है कि अतर को अहुरा मज़्दा (मानक पदवी, यास्ना 25.7 एट अल।) के "पुत्र" के रूप में व्यक्त किया गया है और इसे "महिमा से भरा और उपचार उपचार से भरा" ( न्याश 5.6) कहा जाता है। यस्ना 17.11 में, अतर " घर का स्वामी" है, गाथाओं में चूल्हा की आग की भूमिका को याद करते हुए। वही मार्ग "पाँच प्रकार की आग" की गणना करता है:
अतर बेरेज़ी-सावा , "अत्यधिक लाभकारी अतर " (" ऑक्सीजन " की तुलना करें), ज़ेंड ग्रंथों में "अग्नि जो खाना खाती है लेकिन पानी नहीं पीती" के रूप में योग्य है, और उस तरह की आग जो अताश-बेहराम में जलती है , उच्चतम अग्नि मंदिर का ग्रेड ।
अतर वोहु-फ्रायना , " अच्छे स्नेह का अतर " (" अग्नि " की तुलना करें, भगा और मित्र के साथ संगत ), बाद में "अग्नि फैलाने वाली अच्छाई" और "आग जो पानी और भोजन दोनों को खा जाती है" के रूप में योग्य है।
अतर उर्वजिष्ट , " सबसे बड़ा आनंद का अतर " (" गर्मी की तुलना करें ), बाद में "सुखी जीवन की आग" के रूप में योग्य, और "वह आग जो पानी पीती है लेकिन खाना नहीं खाती"।
अतर वज़िष्ट , " अतर सबसे तेज़" (" विद्युत स्पार्क्स " की तुलना करें), बाद में बादलों में आग के रूप में योग्य, यानी बिजली, और "आग जो न तो पानी पीती है और न ही खाना खाती है"।
अतर स्पीनिष्ट , " अतर सबसे पवित्र", [2] (" एथर ", संज्ञेय बाल्टो-स्लाविक ventas "पवित्र" की तुलना करें) ("ज़ेंड" ग्रंथों में "समृद्धि की आग" के रूप में वर्णित है और ओहर्मुजद से पहले आध्यात्मिक आग जल रही है .
सस्सानीद युग की टिप्पणियों ( ज़ेंड ग्रंथों) में आग का विवरण बुंदाहिशन ("मूल निर्माण", 11 वीं या 12 वीं शताब्दी में पूरा हुआ) में वर्णित लोगों से थोड़ा अलग है । उत्तरार्द्ध में, पहली और आखिरी तरह की आग का वर्णन उलट दिया गया है।
"संस्कृति और परम्पापरा★

एक पारसी - पारसी जश्न समारोह (यहां पुणे , भारत में एक घर का आशीर्वाद )
"देवत्व के रूप में -
देर से अचमेनिद युग के दौरान , अदार - यज़ता अदार की सर्वोत्कृष्टता- देवताओं के पारसी पदानुक्रम में शामिल किया गया था। उस स्थिति में, अदार आशा वाहिष्ता ( अवेस्तान, मध्य फ़ारसी : अर्धविष्ट ) की सहायता करता है, जो कि अमेशा स्पेंटा प्रकाशकों के लिए जिम्मेदार है। यज़ातों से जुड़े फूलों में से , अदार का गेंदा ( कैलेंडुला ) ( बुंदाहिशन 27.24) है।
देवत्व का महत्व अदार पारसी कैलेंडर में इकाई के प्रति समर्पण से स्पष्ट होता है : अदार उन पांच यजतों में से एक है जिनके पास एक महीने का नाम समर्पण है। इसके अतिरिक्त, अदार पारसी धार्मिक कैलेंडर में महीने के नौवें दिन का नाम है, और 1925 के नागरिक ईरानी कैलेंडर ( आधुनिक फारसी : अजार ) के वर्ष के नौवें महीने का नाम है, जिसमें महीने के नाम उन लोगों से प्राप्त होते हैं जिनका उपयोग किया जाता है। पारसी कैलेंडर।
पारसी ब्रह्मांड में, अदार भौतिक ब्रह्मांड की सात रचनाओं में से सातवां था। यह केवल अदार की सहायता से है, जो जीवन-शक्ति के रूप में कार्य करता है, कि अन्य छह रचनाएं अपना काम शुरू करती हैं ( बुंदाहिशन 3.7–8; अधिक तार्किक रूप से ज़त्स्प्रम 3.77-83 में समझाया गया है)।
"आग का पथ- करना
हालांकि जोरास्ट्रियन किसी भी रूप में अग्नि का सम्मान करते हैं, मंदिर की आग वस्तुतः अग्नि की श्रद्धा के लिए नहीं है, बल्कि स्वच्छ पानी के साथ ( अबान देखें ), अनुष्ठान शुद्धता का एक एजेंट है। स्वच्छ, सफेद "शुद्धिकरण समारोहों के लिए राख है। को अनुष्ठान जीवन का आधार माना जाता है", जो "अनिवार्य रूप से एक घरेलू आग की प्रवृत्ति के लिए उचित संस्कार हैं, क्योंकि मंदिर पंथ एक नए के लिए उठाए गए चूल्हे की आग है। गंभीरता" (बॉयस, 1975:455)। क्योंकि, "वह व्यक्ति जो हाथ में ईंधन लेकर, हाथ में बेयर्समैन के साथ, हाथ में दूध के साथ, हाथ में पवित्र हाओमा की शाखाओं को कुचलने के लिए मोर्टार के साथ बलिदान करता है, उसे खुशी मिलती है" ( यस्ना 62.1 ) न्याशेस 5.7 )
आग का पारसी पंथ स्पष्ट रूप से पारसी धर्म से बहुत छोटा है और लगभग उसी समय धर्मस्थल पंथ के रूप में प्रकट होता है, जो पहली बार चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में स्पष्ट होता है (लगभग एक देवत्व के रूप में अदार की शुरूआत के साथ समकालीन)। अवेस्ता में मंदिर के आग के पंथ का कोई उचित संकेत नहीं है, और न ही किसी के लिए कोई पुराना फारसी शब्द है। इसके अलावा, बॉयस ने सुझाव दिया कि आग के मंदिर पंथ को छवि / तीर्थ पंथ के विरोध में स्थापित किया गया था और "पार्थियन काल से पहले एक अग्नि मंदिर के वास्तविक खंडहर की पहचान नहीं की गई है" (बॉयस, 1975: 454)।
आग का पंथ एक सैद्धांतिक संशोधन था और प्रारंभिक पारसी धर्म से अनुपस्थित था, यह अभी भी बाद के अताश न्याश में स्पष्ट है : उस मुकदमे के सबसे पुराने अंशों में, यह चूल्हा आग है जो "उन सभी के लिए बोलती है जिनके लिए यह शाम और सुबह बनाती है भोजन", जिसे बॉयस ने देखा, पवित्र अग्नि के अनुरूप नहीं है। मंदिर पंथ एक और भी बाद का विकास है: हेरोडोटस से यह ज्ञात है कि 5 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के मध्य में पारसी लोग खुले आकाश में पूजा करते थे, अपनी आग जलाने के लिए चढ़ते हुए टीले ( द हिस्ट्रीज़ , i.131)। स्ट्रैबो इसकी पुष्टि करता है, यह देखते हुए कि 6 वीं शताब्दी में, कप्पाडोसिया में ज़ेला में अभयारण्य एक कृत्रिम टीला था, जिसकी दीवारों से घिरा हुआ था, लेकिन आकाश के लिए खुला था।XI.8.4.512)।
पार्थियन युग (250 ईसा पूर्व -226 सीई) तक , पारसी धर्म में वास्तव में दो प्रकार के पूजा स्थल थे: एक, जाहिरा तौर पर बैगिन या अयाज़ान कहा जाता है, एक विशिष्ट देवत्व को समर्पित अभयारण्य, एक व्यक्ति या परिवार के संरक्षक याजाता के सम्मान में निर्मित और सम्मानित व्यक्ति का एक चिह्न या पुतला शामिल है। दूसरे थे एट्रोशन , "जलती हुई आग के स्थान", जो बॉयस (1997: ch. 3) नोट के रूप में, अधिक से अधिक प्रचलित हो गए क्योंकि आइकोनोक्लास्टिक आंदोलन ने समर्थन प्राप्त किया। सस्सानिद राजवंश के उदय के बाद, यज़ातों के मंदिर मौजूद रहे, मूर्तियों के साथ-कानून द्वारा-या तो खाली अभयारण्यों के रूप में छोड़ दिया गया था, या अग्नि वेदियों द्वारा प्रतिस्थापित किया जा रहा था (इसलिए मेहर के लिए लोकप्रिय मंदिर भी /मिथ्रा जिसने दरब -ए मेहर- मिथ्रा गेट- का नाम बरकरार रखा, जो आज एक अग्नि मंदिर के लिए पारसी तकनीकी शब्दों में से एक है)।
इसके अलावा, जैसा कि शिपमैन ने देखा (स्थान । सिट। बॉयस, 1975:462), यहां तक कि ससानिद युग (226-650 सीई) के दौरान भी इस बात का कोई सबूत नहीं है कि आग को उनकी पवित्रता के अनुसार वर्गीकृत किया गया था। "ऐसा लगता है कि वस्तुतः केवल दो थे, अर्थात् अताश-ए वहराम [शाब्दिक रूप से: "विजयी आग", जिसे बाद में बहराम की आग के रूप में गलत समझा गया , ग्नोली, 2002: 512 देखें] और कम अताश-ए अदारन , या 'फायर ऑफ फायर', एक पैरिश फायर, जैसा कि एक गांव या शहर के क्वार्टर की सेवा कर रहा था" (बॉयस, 1 9 75: 462; बॉयस 1 9 66: 63)। जाहिरा तौर पर, यह केवल अताश-ए वहराम में था कि आग लगातार जलती रही, अदारानी के साथहर साल रिलिट की जा रही आग। जबकि आग के विशेष नाम थे, संरचनाएं नहीं थीं, और यह सुझाव दिया गया है कि "मध्य फारसी नामों ( कडग , आदमी , और ज़ानाग ) की पेशेवर प्रकृति एक साधारण घर के लिए सभी शब्द हैं) शायद भाग पर एक इच्छा को दर्शाती है उन लोगों में से जिन्होंने मंदिर-पंथ को लंबे समय तक चूल्हा-अग्नि के पुराने पंथ के चरित्र में यथासंभव करीब रखने और विस्तार को हतोत्साहित करने के लिए बढ़ावा दिया" (बॉयस, 2002: 9)।
अंग्रेजी भाषा में "अग्नि-पुजारी" के रूप में अथोर्नन (अवेस्तान भाषा "अथरावन" से व्युत्पन्न) शब्द को प्रस्तुत करने की भारतीय पारसी -पारसी प्रथा गलत धारणा पर आधारित है कि अथरा* उपसर्ग अतर से निकला है (बॉयस, 2002: 16-17)। अथरावन शब्द गाथाओं में प्रकट नहीं होता है, जहां एक पुजारी एक ज़ोतर होता है , और इसके सबसे पुराने प्रमाणित उपयोग ( यस्ना 42.6) में यह शब्द "मिशनरी" का पर्याय प्रतीत होता है। बाद के यश्त 13.94 में, जोरोस्टर खुद को एक अथर्वन कहा जाता है , जो इस संदर्भ में अतर का संदर्भ नहीं हो सकता है।अगर जोरोस्टर के समय में आग का पंथ और उससे जुड़े पौरोहित्य अभी तक मौजूद नहीं थे। इस प्रकार, सभी संभावनाओं में, "अथरावण शब्द की एक अलग व्युत्पत्ति है।" (बॉयस, 2002:17)
पौराणिक कथाओं और लोककथाओं में-
वेंडीदाद 1 में, अदार आकाश के महान अजगर असी दहाका से लड़ता है।
फ़िरदौसी के शाहनामे में , होशंग , पहले आदमी गयोमार्ड का पोता , एक चट्टान में आग का पता लगाता है। वह इसे अहुरा मज़्दा की दिव्य महिमा के रूप में पहचानता है, उसे श्रद्धांजलि देता है, और अपने लोगों को भी ऐसा करने का निर्देश देता है। इसके अलावा शाहनामे में सेवावश की कथा है , जो अपनी बेगुनाही के प्रमाण के रूप में "अग्निमय अग्नि" से गुजरता है।
एक शाही प्रतीक के रूप में-

अर्धशिर I का चांदी का सिक्का जिसके पीछे एक अग्नि वेदी है (180 - 242 ईस्वी)।
ससानिद युग (226-650 सीई) के दौरान, आग का प्रतीक वही भूमिका निभाता है जो पंखों वाले सूरज फरवाहर ने अचमेनिड काल (648-330 ईसा पूर्व) के दौरान किया था। सस्सानिद साम्राज्य के संस्थापक, अर्दाशिर प्रथम के साथ शुरुआत करते हुए, राजवंश के कई राजाओं ने एक या एक से अधिक सिक्के जारी किए, जिनमें आग का प्रतीक था, और आग के प्रतीक के साथ मुहरें और बुल्ले आम थे।
साम्राज्य के पहले चांदी के सिक्कों में अर्धशिर I ( आर। 226-241) या उसके पिता पापक के अग्रभाग पर (आगे की ओर शासक सम्राट का एक आंकड़ा पूरे राजवंश के अनुरूप है), आग के प्रतिनिधित्व के साथ है। वेदी, पौराणिक कथा के साथ अताश मैं अर्तक्षिर , "अर्दशीर की आग", पीछे की तरफ। अर्दाशिर के बेटे, शापुर प्रथम ( आर। 241-272), की छवि बहुत समान है, लेकिन अग्नि वेदी पर दो परिचारकों को जोड़ता है। होर्मिज़द I (जिसे अर्दाशिर II, आर। 272-273 के नाम से भी जाना जाता है) के सिक्कों पर , सम्राट स्वयं एक परिचारक की मदद से आग लगाता है। बहराम II(276-293) स्वयं भी प्रकट होता है, उसके साथ उसकी रानी और पुत्र क्या हो सकता है। नरसेह ( आर. 293-303) भी इस बार अकेले ही आग में शामिल होते हैं। शापुर III ( र. 283-388) के सिक्कों पर अग्नि से एक देवत्व निकलता प्रतीत होता है। यज़्देगर्ड II ( आर। 438–457) के सिक्कों में अग्नि वेदी का आकार वर्तमान अग्नि मंदिरों के समान है। अर्देशिर के तहत पेश की गई किंवदंती पेरोज़ ( आर। 457–484) के तहत एक टकसाल चिह्न और जारी करने के वर्ष की उपज देती है, जो शेष राजवंश के सभी सिक्कों में स्पष्ट है।
यह सभी देखें-
अबान , "पानी", जो पारसी धर्म के समान महत्व का है ।
गाथा , अवेस्ता का सबसे पवित्र ग्रंथ
Yazatas और Amesha Spentas पारसी देवताओं के रूप में
पारसी कैलेंडर में अदार को समर्पण
अग्नि
चमकदार ईथर
Eitr , मूल अस्तित्व का मूल पदार्थ, यमीर , पुराने नॉर्स ब्रह्मांड विज्ञान में
अनन्त लौ
संदर्भ-
^ मैलोरी, जेपी; एडम्स, डगलस क्यू. (1997)। इंडो-यूरोपीय संस्कृति का विश्वकोश - जेम्स मैलोरी - गूगल बोकेन । आईएसबीएन 9781884964985. 2012-08-27 को लिया गया ।
^ बॉयस, मैरी (1983), "अम्सा स्पींटा", इनसाइक्लोपीडिया ईरानिका , वॉल्यूम। 1, न्यूयॉर्क: रूटलेज और केगन पॉल, पीपी. 933-936.
_____________________________________
"पुन: गायत्री प्रकरण- के पूरक श्लोक-

सनत्कुमारश्च महानुभावो मनुर्महात्मा भगवान्प्रजापतिः
पुराणदेवोथ तथा प्रचक्रे प्रदीप्तवैश्वानरतुल्यतेजाः।५१।
पुरा कमलजातस्य स्वपतस्तस्य कोटरे
पुष्करे यत्र संभूता देवा ऋषिगणास्तथा।५२।
एष पौष्करको नाम प्रादुर्भावो महात्मनः
पुराणं कथ्यते यत्र वेदस्मृतिसुसंहितं।५३।
वराहस्तु श्रुतिमुखः प्रादुर्भूतो विरिंचिनः
सहायार्थं सुरश्रेष्ठो वाराहं रूपमास्थितः।५४।
विस्तीर्णं पुष्करे कृत्वा तीर्थं कोकामुखं हि तत्
वेदपादो यूपदंष्ट्रः क्रतुहस्तश्चितीमुखः।५५।
अग्निजिह्वो दर्भरोमा ब्रह्मशीर्षो महातपाः
अहोरात्रेक्षणो दिव्यो वेदांगः श्रुतिभूषणः।५६।
आज्यनासः स्रुवतुंडः सामघोषस्वनो महान्
सत्यधर्ममयः श्रीमान्कर्मविक्रमसत्कृतः।५७।
प्रायश्चित्तनखो धीरः पशुजानुर्मखाकृतिः
उद्गात्रांत्रो होमलिंगो फलबीजमहौषधिः।५८।
वाय्वंतरात्मा मंत्रास्थिरापस्फिक्सोमशोणितः
वेदस्कंधो हविर्गंधो हव्यकव्यातिवेगवान्।५९।
प्राग्वंशकायो द्युतिमान्नानादीक्षाभिरर्चितः
दक्षिणाहृदयो योगी महासत्रमयो महान्।६०।
उपाकर्मेष्टिरुचिरः प्रवर्ग्यावर्तभूषणः
छायापत्नीसहायो वै मणिशृंगमिवोच्छ्रितः।६१।
सर्वलोकहितात्मा यो दंष्ट्रयाभ्युज्जहारगाम्
ततः स्वस्थानमानीय पृथिवीं पृथिवीधरः।६२।
ततो जगाम निर्वाणं पृथिवीधारणाद्धरिः
एवमादिवराहेण धृत्वा ब्रह्महितार्थिना।६३।
उद्धृता पुष्करे पृथ्वी सागरांबुगता पुरा
वृतः शमदमाभ्यां यो दिव्ये कोकामुखे स्थितः।६४।
आदित्यैर्वसुभिः साध्यैर्मरुद्भिर्दैवतैः सह
रुद्रैर्विश्वसहायैश्च यक्षराक्षसकिन्नरैः।६५।
दिग्भिर्विदिग्भिः पृथिवी नदीभिः सह सागरैः
चराचरगुरुः श्रीमान्ब्रह्मा ब्रह्मविदांवरः।६६।
उवाच वचनं कोकामुखं तीर्थं त्वया विभो
पालनीयं सदा गोप्यं रक्षा कार्या मखे त्विह।६७।
एवं करिष्ये भगवंस्तदा ब्रह्माणमुक्तवान्
उवाच तं पुनर्ब्रह्मा विष्णुं देवं पुरः स्थितम्।६८।
त्वं हि मे परमो देवस्त्वं हि मे परमो गुरुः
त्वं हि मे परमं धाम शक्रादीनां सुरोत्तम।६९।
उत्फुल्लामलपद्माक्ष शत्रुपक्ष क्षयावह
यथा यज्ञेन मे ध्वंसो दानवैश्च विधीयते ।७०।
तथा त्वया विधातव्यं प्रणतस्य नमोस्तु ते
विष्णुरुवाच
भयं त्यजस्व देवेश क्षयं नेष्यामि दानवान्।७१।
ये चान्ते विघ्नकर्तारो यातुधानास्तथाऽसुराः
घातयिष्याम्यहं सर्वान्स्वस्ति तिष्ठ पितामह।७२।
एवमुक्त्वा स्थितस्तत्र साहाय्येन कृतक्षणः
प्रववुश्च शिवा वाताः प्रसन्नाश्च दिशो दश।७३।
सुप्रभाणि च ज्योतींषि चंद्रं चक्रुः प्रदक्षिणम्
न विग्रहं ग्रहाश्चक्रुः प्रसेदुश्चापि सिंधवः।७४।
________________
"नीरजस्का भूमिरासीत्सकला ह्लाददास्त्वपः
जग्मुः स्वमार्गं सरितो नापि चुक्षुभुरर्णवाः ।७५।
आसन्शुभानींद्रियाणि नराणामंतरात्मनाम्
महर्षयो वीतशोका वेदानुच्चैरवाचयन्।७६।
यज्ञे तस्मिन्हविः पाके शिवा आसंश्च पावकाः
प्रवृत्तधर्मसद्वृत्ता लोका मुदितमानसाः।७७।
विष्णोः सत्यप्रतिज्ञस्य श्रुत्वारिनिधना गिरः
ततो देवाः समायाता दानवा राक्षसैस्सह।७८।
भूतप्रेतपिशाचाश्च सर्वे तत्रागताः क्रमात्
गंधर्वाप्सरसश्चैव नागा विद्याधरागणाः।७९।
वानस्पत्याश्चौषधयो यच्चेहेद्यच्च नेहति
ब्रह्मादेशान्मारुतेन आनीताः सर्वतो दिशः।८०।
यज्ञपर्वतमासाद्य दक्षिणामभितोदिशम्
सुरा उत्तरतः सर्वे मर्यादापर्वते स्थिताः।८१।
गंधर्वाप्सरसश्चैव मुनयो वेदपारगाः
पश्चिमां दिशमास्थाय स्थितास्तत्र महाक्रतौ।८२।
सर्वे देवनिकायाश्च दानवाश्चासुरागणाः
अमर्षं पृष्ठतः कृत्वा सुप्रीतास्ते परस्परम्।८३।
ऋषीन्पर्यचरन्सर्वे शुश्रूषन्ब्राह्मणांस्तथा
ऋषयो ब्रह्मर्षयश्च द्विजा देवर्षयस्तथा।८४।
राजर्षयो मुख्यतमास्समायाताः समंततः
कतमश्च सुरोप्यत्र क्रतौ याज्यो भविष्यति।८५।
पशवः पक्षिणश्चैव तत्र याता दिदृक्षवः
ब्राह्मणा भोक्तुकामाश्च सर्वे वर्णानुपूर्वशः।८६।
स्वयं च वरुणो रत्नं दक्षश्चान्नं स्वयं ददौ
आगत्यवरुणोलोकात्पक्वंचान्नंस्वतोपचत्।८७।
वायुर्भक्षविकारांश्च रसपाची दिवाकरः
अन्नपाचनकृत्सोमो मतिदाता बृहस्पतिः।८८।
धनदानं धनाध्यक्षो वस्त्राणि विविधानि च
सरस्वती नदाध्यक्षो गंगादेवी सनर्मदा।८९
याश्चान्याः सरितः पुण्याः कूपाश्चैव जलाशयाः
पल्वलानि तटाकानि कुंडानि विविधानि च।९०।
प्रस्रवाणि च मुख्यानि देवखातान्यनेकशः
जलाशयानि सर्वाणि समुद्राः सप्तसंख्यकाः।९१।
लवणेक्षुसुरासर्पिर्दधिदुग्धजलैः समम्
सप्तलोकाः सपातालाः सप्तद्वीपाः सपत्तनाः।९२।
वृक्षा वल्ल्यः सतृणानि शाकानि च फलानि च
पृथिवीवायुराकाशमापोज्योतिश्च पंचमम्।९३।
सविग्रहाणि भूतानि धर्मशास्त्राणि यानि च
वेदभाष्याणि सूत्राणि ब्रह्मणा निर्मितं च यत्।९४।
अमूर्तं मूर्तमत्यन्तं मूर्तदृश्यं तथाखिलम्
एवं कृते तथास्मिंस्तु यज्ञे पैतामहे तदा।९५।
देवानां संनिधौ तत्र ऋषिभिश्च समागमे
ब्रह्मणो दक्षिणे पार्श्वे स्थितो विष्णुः सनातनः।९६।
वामपार्श्वे स्थितो रुद्रः पिनाकी वरदः प्रभुः
ऋत्विजां चापि वरणं कृतं तत्र महात्मना।९७।
भृगुर्होतावृतस्तत्र पुलस्त्योध्वर्य्युसत्तमः
तत्रोद्गाता मरीचिस्तु ब्रह्मा वै नारदः कृतः।९८।
सनत्कुमारादयो ये सदस्यास्तत्र ते भवन्
प्रजापतयो दक्षाद्या वर्णा ब्राह्मणपूर्वकाः।९९।
ब्रह्मणश्च समीपे तु कृता ऋत्विग्विकल्पना
वस्त्रैराभरणैर्युक्ताः कृता वैश्रवणेन ते।१००।
( 1.खण्ड 16.अध्याय 100 .श्लोक )
___________________________________
अंगुलीयैः सकटकैर्मकुटैर्भूषिता द्विजाः
चत्वारो द्वौ दशान्ये च त षोडशर्त्विजः।१०१।
ब्रह्मणा पूजिताः सर्वे प्रणिपातपुरःसरम्
अनुग्राह्यो भवद्भिस्तु सर्वैरस्मिन्क्रताविह।१०२।
पत्नी ममैषा सावित्री यूयं मे शरणंद्विजाः
विश्वकर्माणमाहूय ब्रह्मणः शीर्षमुंडनं।१०३।
यज्ञे तु विहितं तस्य कारितं द्विजसत्तमैः
आतसेयानि वस्त्राणि दंपत्यर्थे तथा द्विजैः।१०४।
ब्रह्मघोषेण ते विप्रा नादयानास्त्रिविष्टपम्
पालयंतो जगच्चेदं क्षत्रियाः सायुधाः स्थिताः।१०५।
भक्ष्यप्रकारान्विविधिन्वैश्यास्तत्र प्रचक्रिरे
रसबाहुल्ययुक्तं च भक्ष्यं भोज्यं कृतं ततः।१०६।
अश्रुतं प्रागदृष्टं च दृष्ट्वा तुष्टः प्रजापतिः
प्राग्वाटेति ददौ नाम वैश्यानां सृष्टिकृद्विभुः।१०७।
द्विजानां पादशुश्रूषा शूद्रैः कार्या सदा त्विह
पादप्रक्षालनं भोज्यमुच्छिष्टस्य प्रमार्जनं।१०८।
तेपि चक्रुस्तदा तत्र तेभ्यो भूयः पितामहः
शूश्रूषार्थं मया यूयं तुरीये तु पदे कृताः।१०९।
द्विजानां क्षत्रबन्धूनां बन्धूनां च भवद्विधैः
त्रिभ्यश्शुश्रूषणा कार्येत्युक्त्वा ब्रह्मा तथाऽकरोत्।११०।
द्वाराध्यक्षं तथा शक्रं वरुणं रसदायकम्
वित्तप्रदं वैश्रवणं पवनं गंधदायिनम्।१११।
उद्योतकारिणं सूर्यं प्रभुत्वे माधवः स्थितः
सोमः सोमप्रदस्तेषां वामपक्ष पथाश्रितः।११२।
सुसत्कृता च पत्नी सा सवित्री च वरांगना
अध्वर्युणा समाहूता एहि देवि त्वरान्विता।११३।
उत्थिताश्चाग्नयः सर्वे दीक्षाकाल उपागतः
व्यग्रा सा कार्यकरणे स्त्रीस्वभावेन नागता।११४।
इहवै न कृतं किंचिद्द्वारे वै मंडनं मया
भित्त्यां वैचित्रकर्माणि स्वस्तिकं प्रांगणेन तु।११५।
प्रक्षालनं च भांडानां न कृतं किमपि त्विह
लक्ष्मीरद्यापि नायाता पत्नीनारायणस्य या।११६।
अग्नेः पत्नी तथा स्वाहा धूम्रोर्णा तु यमस्य तु
वारुणी वै तथा गौरी वायोर्वै सुप्रभा तथा।११७।
ऋद्धिर्वैश्रवणी भार्या शम्भोर्गौरी जगत्प्रिया
मेधा श्रद्धा विभूतिश्च अनसूया धृतिः क्षमा।११९।
गंगा सरस्वती चैव नाद्या याताश्च कन्यकाः
इंद्राणी चंद्रपत्नी तु रोहिणी शशिनः प्रियाः।१२०।
अरुंधती वसिष्ठस्य सप्तर्षीणां च याः स्त्रियः
अनसूयात्रिपत्नी च तथान्याः प्रमदा इह।१२१।
वध्वो दुहितरश्चैव सख्यो भगिनिकास्तथा
नाद्यागतास्तु ताः सर्वा अहं तावत्स्थिता चिरं।१२२।।
नाहमेकाकिनी यास्ये यावन्नायांति ता स्त्रियः
ब्रूहि गत्वा विरंचिं तु तिष्ठ तावन्मुहूर्तकम्।१२३।।
सर्वाभिः सहिता चाहमागच्छामि त्वरान्विता
सर्वैः परिवृतः शोभां देवैः सह महामते।१२४।।
भवान्प्राप्नोति परमां तथाहं तु न संशयः
वदमानां तथाध्वर्युस्त्यक्त्वा ब्रह्माणमागतः।१२५।।
सावित्री व्याकुला देव प्रसक्ता गृहकर्माणि
सख्यो नाभ्यागता यावत्तावन्नागमनं मम।१२६।।
एवमुक्तोस्मि वै देव कालश्चाप्यतिवर्त्तते
यत्तेद्य रुचितं तावत्तत्कुरुष्व पितामह।१२७।।
एवमुक्तस्तदा ब्रह्मा किंचित्कोपसमन्वितः
पत्नीं चान्यां मदर्थे वै शीघ्रं शक्र इहानय।१२८।।
यथा प्रवर्तते यज्ञः कालहीनो न जायते
तथा शीघ्रं विधित्स्व त्वं नारीं कांचिदुपानय।१२९।।
यावद्यज्ञसमाप्तिर्मे वर्णे त्वां मा कृथा मनः
भूयोपि तां प्रमोक्ष्यामि समाप्तौ तु क्रतोरिह।१३०।।।
______________________________________
"(एवमुक्तस्तदा शक्रो गत्वा सर्वं धरातलं
स्त्रियो दृष्टाश्च यास्तेन सर्वाः परपरिग्रहाः।१३१।।
"आभीरकन्या रूपाढ्या सुनासा चारुलोचना
न देवी न च गंधर्वी नासुरी न च पन्नगी।१३२।
न चास्ति तादृशी कन्या यादृशी सा वरांगनाददर्श तां सुचार्वंगीं श्रियं देवीमिवापराम् ।१३३।
संक्षिपन्तीं मनोवृत्ति विभवं रूपसंपदा
यद्यत्तु वस्तुसौंदर्याद्विशिष्टं लभ्यते क्वचित् ।१३४।
तत्तच्छरीरसंलग्नं तन्वंग्या ददृशे वरम्तां दृष्ट्वा चिंतयामास यद्येषा कन्यका भवेत्।१३५।
तन्मत्तः कृतपुण्योन्यो न देवो भुवि विद्यतेयोषिद्रत्नमिदं सेयं सद्भाग्यायां पितामहः।१३६।
सरागो यदि वा स्यात्तु सफलस्त्वेष मे श्रमःनीलाभ्र कनकांभोज विद्रुमाभां ददर्श तां ।१३७।
त्विषं संबिभ्रतीमंगैः केशगंडे क्षणाधरैः
मन्मथाशोकवृक्षस्य प्रोद्भिन्नां कलिकामिव ।।१३८।
प्रदग्धहृच्छयेनैव नेत्रवह्निशिखोत्करैः
धात्रा कथं हि सा सृष्टा प्रतिरूपमपश्यता।१३९।
कल्पिता चेत्स्वयं बुध्या नैपुण्यस्य गतिः परा
उत्तुंगाग्राविमौ सृष्टौ यन्मे संपश्यतः सुखं।१४०।
पयोधरौ नातिचित्रं कस्य संजायते हृदि
रागोपहतदेहोयमधरो यद्यपि स्फुटम्।१४१।
तथापि सेवमानस्य निर्वाणं संप्रयच्छति
वहद्भिरपि कौटिल्यमलकैः सुखमर्प्यते।१४२।
दोषोपि गुणवद्भाति भूरिसौंदर्यमाश्रितः
नेत्रयोर्भूषितावंता वाकर्णाभ्याशमागतौ।१४३।
कारणाद्भावचैतन्यं प्रवदंति हि तद्विदः
कर्णयोर्भूषणे नेत्रे नेत्रयोः श्रवणाविमौ।१४४।।
कुंडलांजनयोरत्र नावकाशोस्ति कश्चन
न तद्युक्तं कटाक्षाणां यद्द्विधाकरणं हृदि।१४५।।
तवसंबंधिनोयेऽत्र कथं ते दुःखभागिनः
सर्वसुंदरतामेति विकारः प्राकृतैर्गुणैः।।१४६।।
वृद्धे क्षणशतानां तु दृष्टमेषा मया धनम्
धात्रा कौशल्यसीमेयं रूपोत्पत्तौ सुदर्शिता।।१४७।।
करोत्येषा मनो नॄणां सस्नेहं कृतिविभ्रमैः
एवं विमृशतस्तस्य तद्रूपापहृतत्विषः।।१४८।।
निरंतरोद्गतैश्छन्नमभवत्पुलकैर्वपुः
तां वीक्ष्य नवहेमाभां पद्मपत्रायतेक्षणाम् ।।१४९।।
देवानामथ यक्षाणां गंधर्वोरगरक्षसाम्
नाना दृष्टा मया नार्यो नेदृशी रूपसंपदा।१५०
(1प्रथम सृष्टिखण्ड .अध्याय16.श्लोक 150)
त्रैलोक्यांतर्गतं यद्यद्वस्तुतत्तत्प्रधानतः
समादाय विधात्रास्याः कृता रूपस्य संस्थितिः।१५१।
इंद्र उवाच
कासि कस्य कुतश्च त्वमागता सुभ्रु कथ्यताम्
एकाकिनी किमर्थं च वीथीमध्येषु तिष्ठसि।१५२।
यान्येतान्यंगसंस्थानि भूषणानि बिभर्षि च
नैतानि तव भूषायै त्वमेतेषां हि भूषणम्।१५३।
न देवी न च गंधर्वी नासुरी न च पन्नगी
किन्नरी दृष्टपूर्वा वा यादृशी त्वं सुलोचने।१५४।
उक्ता मयापि बहुशः कस्माद्दत्से हि नोत्तरम्
त्रपान्विता तु सा कन्या शक्रं प्रोवाच वेपती१५५
______
"गोपकन्या त्वहं वीर विक्रीणामीह गोरसम्
नवनीतमिदं शुद्धं दधि चेदं विमंडकम्।।१५६।।
दध्ना चैवात्र तक्रेण रसेनापि परंतप
अर्थी येनासि तद्ब्रूहि प्रगृह्णीष्व यथेप्सितम्।१५७।।
एवमुक्तस्तदा शक्रो गृहीत्वा तां करे दृढम्
अनयत्तां विशालाक्षीं यत्र ब्रह्मा व्यवस्थितः।।१५८।
नीयमाना तु सा तेन क्रोशंती पितृमातरौ
हा तात मातर्हा भ्रातर्नयत्येष नरो बलात्।१५९।।
यदि वास्ति मया कार्यं पितरं मे प्रयाचय
स दास्यति हि मां नूनं भवतः सत्यमुच्यते।।१६०।
का हि नाभिलषेत्कन्या भर्तांरं भक्तिवत्सलम्
नादेयमपि ते किंचित्पितुर्मे धर्मवत्सल।१६१।।
प्रसादये तं शिरसा मां स तुष्टः प्रदास्यति
पितुश्चित्तमविज्ञाय यद्यात्मानं ददामि ते ।१६२।।
धर्मो हि विपुलो नश्येत्तेन त्वां न प्रसादये
भविष्यामि वशे तुभ्यं यदि तातः प्रदास्यति ।१६३।।
इत्थमाभाष्यमाणस्तु तदा शक्रोऽनयच्च ताम्
ब्रह्मणः पुरतः स्थाप्य प्राहास्यार्थे मयाऽबले।१६४।
__________________________________
"आनीतासि विशालाक्षि मा शुचो वरवर्णिनि
गोपकन्यामसौ दृष्ट्वा गौरवर्णां महाद्युतिम्।१६५।
कमलामेव तां मेने पुंडरीकनिभेक्षणाम्
तप्तकांचनसद्भित्ति सदृशा पीनवक्षसम्।१६६।
मत्तेभहस्तवृत्तोरुं रक्तोत्तुंग नखत्विषं
तं दृष्ट्वाऽमन्यतात्मानं सापि मन्मनथचरम्।१६७।
तत्प्राप्तिहेतु क धिया गतचित्तेव लक्ष्यते
प्रभुत्वमात्मनो दाने गोपकन्याप्यमन्यत।१६८।
यद्येष मां सुरूपत्वादिच्छत्यादातुमाग्रहात्
नास्ति सीमंतिनी काचिन्मत्तो धन्यतरा भुवि।१६९।
अनेनाहं समानीता यच्चक्षुर्गोचरं गता
अस्य त्यागे भवेन्मृत्युरत्यागे जीवितं सुखम्।१७०।
भवेयमपमानाच्च धिग्रूपा दुःखदायिनी
दृश्यते चक्षुषानेन यापि योषित्प्रसादतः।१७१।
सापि धन्या न संदेहः किं पुनर्यां परिष्वजेत्
जगद्रूपमशेषं हि पृथक्संचारमाश्रितम्।१७२।
लावण्यं तदिहैकस्थं दर्शितं विश्वयोनिना
अस्योपमा स्मरः साध्वी मन्मथस्य त्विषोपमा।१७३।
तिरस्कृतस्तु शोकोयं पिता माता न कारणम्
यदि मां नैष आदत्ते स्वल्पं मयि न भाषते।१७४।
अस्यानुस्मरणान्मृत्युः प्रभविष्यति शोकजः
अनागसि च पत्न्यां तु क्षिप्रं यातेयमीदृशी।१७५।
कुचयोर्मणिशोभायै शुद्धाम्बुज समद्युतिः
मुखमस्य प्रपश्यंत्या मनो मे ध्यानमागतम्।१७६।
अस्यांगस्पर्शसंयोगान्न चेत्त्वं बहु मन्यसे
स्पृशन्नटसि तर्हि न त्वं शरीरं वितथं परम्।१७७।।
अथवास्य न दोषोस्ति यदृच्छाचारको ह्यसि
मुषितः स्मर नूनं त्वं संरक्ष स्वां प्रियां रतिम्।१७८।।
त्वत्तोपि दृश्यते येन रूपेणायं स्मराधिकः
ममानेन मनोरत्न सर्वस्वं च हृतं दृढम्।१७९।।
शोभा या दृश्यते वक्त्रे सा कुतः शशलक्ष्मणि
नोपमा सकलं कस्य निष्कलंकेन शस्यते।१८०।।
समानभावतां याति पंकजं नास्य नेत्रयोः
कोपमा जलशंखेन प्राप्ता श्रवणशंङ्खयोः।१८१।।
विद्रुमोप्यधरस्यास्य लभते नोपमां ध्रुवम्
आत्मस्थममृतं ह्येष संस्रवंश्चेष्टते ध्रुवम्।१८२।।
यदि किंचिच्छुभं कर्म जन्मांतरशतैः कृतम्
तत्प्रसादात्पुनर्भर्ता भवत्वेष ममेप्सितः।१८३।।
गायत्री नाम तो माता पिता के द्वारा निश्चित था।
"एवं चिंतापराधीना यावत्सा गोपकन्यकातावद् ब्रह्मा हरिं प्राह यज्ञार्थं सत्वरं वचः।१८४।
।देवी चैषा महाभागा गायत्री नामतः प्रभोएवमुक्ते तदा विष्णुर्ब्रह्माणं प्रोक्तवानिदम्।१८५।।
तदेनामुद्वहस्वाद्य मया दत्तां जगत्प्रभो
गांधर्वेण विवाहेन विकल्पं मा कृथाश्चिरम्।१८६।
अमुं गृहाण देवाद्य अस्याः पाणिमनाकुलम्
गांधेर्वेण विवाहेन उपयेमे पितामहः।१८७।
तामवाप्य तदा ब्रह्मा जगादाद्ध्वर्युसत्तमम्
कृता पत्नी मया ह्येषा सदने मे निवेशय।१८८।
मृगशृंगधरा बाला क्षौमवस्त्रावगुंठिता
पत्नीशालां तदा नीता ऋत्विग्भिर्वेदपारगैः।१८९।
औदुंबेरण दंडेन प्रावृतो मृगचर्मणा
महाध्वरे तदा ब्रह्मा धाम्ना स्वेनैव शोभते।१९०।।
प्रारब्धं च ततो होत्रं ब्राह्मणैर्वेदपारगैः
भृगुणा सहितैः कर्म वेदोक्तं तैः कृतं तदा
तथा युगसहस्रं तु स यज्ञः पुष्करेऽभवत्।१९१।।
इति श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे गायत्रीसंग्रहोनाम षोडशोऽध्यायः।१६।





और पद्मपुराण गर्गसंहिता आदि ग्रन्थों में गोप को आभीर भी कहा जैसा कि शास्त्रों में नन्द को कहीं "गोप तो कहीं "आभीर कहा है जैसा कि गर्गसंहिता में👇-
"आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वपुत्र: प्रकीर्तित:।
वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्रोऽयं गतत्रप: ।१४।
"
(गर्ग संहिता उद्धव शिशुपालसंवाद )
(विश्वजितखण्ड अध्याय सप्तम)
____________________________
कृष्ण वास्तव में नन्द अहीर का पुत्र है ।
उसे वसुदेव ने वरबस अपना पुत्र माने लिया है उसे इस बात पर तनिक भी लाज ( त्रप) नहीं आती है ।१४।।
<ref>{{}}</ref>(गर्ग संहिता उद्धव शिशुपालसंवाद )
<small><big>Yadav Yogesh kumar "Rohi"</big></small>
____________________________________






'''पुराणों मे नन्द को तो गोप कहा गया है । वसुदेव को भी गोप कहा गया है।
देवीभागवतपुराणम्-
स्कन्धः ०४ -अध्यायः ०२
"तदहं संप्रवक्ष्यामि कृष्णजन्मकथां शुभाम् ।
स एव भगवान्विष्णुरवतीर्णो यदोः कुले ॥४०॥
"कश्यपस्य मुनेरंशो वसुदेवः प्रतापवान् ।
गोवृत्तिरभवद्राजन् पूर्वशापानुभावतः ॥ ४१॥
"कश्यपस्य च द्वे पत्न्यौ शापादत्र महीपते ।
अदितिः सुरसा चैवमासतुः पृथिवीपते ।४२।
"देवकी रोहिणी चोभे भगिन्यौ भरतर्षभ।
वरुणेन महाञ्छापो दत्तः कोपादिति श्रुतम् ।४३
'''
राजोवाच
किं कृतं कश्यपेनागो येन शप्तो महानृषिः ।
सभार्यः स कथं जातस्तद्वदस्व महामते ॥४४॥
कथञ्च भगवान्विष्णुस्तत्र जातोऽस्ति गोकुले ।
वासी वैकुण्ठनिलये रमापतिरखण्डितः॥ ४५॥
निदेशात्कस्य भगवान्वर्तते प्रभुरव्ययः ।
नारायणः सुरश्रेष्ठो युगादिः सर्वधारकः॥४६।
स कथं सदनं त्यक्त्वा कर्मवानिव मानुषे।
करोति जननं कस्मादत्र मे संशयो महान्।४७।
प्राप्य मानुषदेहं तु करोति च विडम्बनम्।
भावान्नानाविधांस्तत्र मानुषे दुष्टजन्मनि॥४८॥
< देवीभागवतपुराणम् – स्कन्धः ०४ अध्याय द्वितीय-(२)
कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणम्
सूत उवाच
एवं पृष्टः पुराणज्ञो व्यासः सत्यवतीसुतः ।
परीक्षितसुतं शान्तं ततो वै जनमेजयम् ॥१॥
उवाच संशयच्छेत्तृ वाक्यं वाक्यविशारदः ।
व्यास उवाच
राजन् किमेतद्वक्तव्यं कर्मणां गहना गतिः ॥२॥
दुर्ज्ञेया किल देवानां मानवानां च का कथा।
यदा समुत्थितं चैतद्ब्रह्माण्डं त्रिगुणात्मकम् ॥३॥
कर्मणैव समुत्पत्तिः सर्वेषां नात्र संशयः ।
अनादिनिधना जीवाः कर्मबीजसमुद्भवाः ॥ ४॥
नानायोनिषु जायन्ते म्रियन्ते च पुनः पुनः ।
कर्मणा रहितो देहसंयोगो न कदाचन ॥ ५ ॥
शुभाशुभैस्तथा मिश्रैः कर्मभिर्वेष्टितं त्विदम् ।
त्रिविधानि हि तान्याहुर्बुधास्तत्त्वविदश्च ये ॥ ६ ॥
सञ्चितानि भविष्यन्ति प्रारब्धानि तथा पुनः।
वर्तमानानि देहेऽस्मिंस्त्रैविध्यं कर्मणां किल ॥ ७॥
ब्रह्मादीनां च सर्वेषां तद्वशत्वं नराधिप ।
सुखं दुःखं जरामृत्युहर्षशोकादयस्तथा ॥ ८ ॥
कामक्रोधौ च लोभश्च सर्वे देहगता गुणाः ।
दैवाधीनाश्च सर्वेषां प्रभवन्ति नराधिप ॥ ९ ॥
रागद्वेषादयो भावाः स्वर्गेऽपि प्रभवन्ति हि ।
देवानां मानवानाञ्च तिरश्चां च तथा पुनः ॥१०॥
विकाराः सर्व एवैते देहेन सह सङ्गताः ।
पूर्ववैरानुयोगेन स्नेहयोगेन वै पुनः ॥ ११॥
उत्पत्तिः सर्वजन्तूनां विना कर्म न विद्यते।
कर्मणा भ्रमते सूर्यः शशाङ्कः क्षयरोगवान्॥१२॥
कपाली च तथा रुद्रः कर्मणैव न संशयः ।
अनादिनिधनं चैतत्कारणं कर्म विद्यते ॥१३॥
तेनेह शाश्वतं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम् ।
नित्यानित्यविचारेऽत्र निमग्ना मुनयः सदा ॥१४॥
न जानन्ति किमेतद्वै नित्यं वानित्यमेव च ।
मायायां विद्यमानायां जगन्नित्यं प्रतीयते ॥१५॥
कार्याभावः कथं वाच्यः कारणे सति सर्वथा।
माया नित्या कारणञ्च सर्वेषां सर्वदा किल ॥१६॥
कर्मबीजं ततोऽनित्यं चिन्तनीयं सदा बुधैः।
भ्रमत्येव जगत्सर्वं राजन्कर्मनियन्त्रितम् ॥१७॥
नानायोनिषु राजेन्द्र नानाधर्ममयेषु च।
इच्छया च भवेञ्चन्म विष्णोरमिततेजसः ॥१८॥
युगे युगेष्वनेकासु नीचयोनिषु तत्कथम् ।
त्यक्त्वा वैकुण्ठसंवासं सुखभोगाननेकशः ॥१९॥
विण्मूत्रमन्दिरे वासं संत्रस्तः कोऽभिवाञ्छति ।
पुष्पावचयलीलां च जलकेलिं सुखासनम् ॥ २०॥
त्यक्त्वा गर्भगृहे वासं कोऽभिवाच्छति बुद्धिमान्।
तूलिकांमृदुसंयुक्तां दिव्यां शय्यां विनिर्मिताम्।२१॥
त्यक्त्वाधोमुखवासं च कोऽभिवाञ्छति पण्डितः।
गीतं नृत्यञ्च वाद्यञ्च नानाभावसमन्वितम् ॥२२॥
मुक्त्वा को नरके वासं मनसापि विचिन्तयेत्।
सिन्धुजाद्भुतभावानांरसंत्यक्त्वासुदुस्त्वजम्।२३।
विण्मूत्ररसपानञ्ज क इच्छेन्मतिमान्नरः ।
गर्भवासात्परो नास्ति नरको भुवनत्रये ॥ २४ ॥
तद्भीताश्च प्रकुर्वन्ति मुनयो दुस्तरं तपः ।
हित्वा भोगञ्च राज्यञ्चवने यान्ति मनस्विनः।२५।
यद्भीतास्तु विमूढात्मा कस्तं सेवितुमिच्छति ।
गर्भे तुदन्ति कृमयो जठराग्निस्तपत्यधः ॥ २६ ॥
वपासंवेष्टनं कूरं किं सुखं तत्र भूपते ।
वरं कारागृहे वासो बन्धनं निगडैर्वरम् ॥ २७ ॥
अल्पमात्रं क्षणं नैव गर्भवासः क्वचिच्छुभः ।
गर्भवासे महद्दुःखं दशमासनिवासनम् ॥ २८ ॥
तथा निःसरणे दुःखं योनियन्त्रेऽतिदारुणे ।
बालभावे तदा दुःखं मूकाज्ञभावसंयुतम् ॥ २९ ॥
क्षुतृष्णावेदनाशक्तः परतन्त्रोऽतिकातरः ।
क्षुधिते रुदिते बाले माता चिन्तातुरा तदा ॥ ३० ॥
भेषजं पातुमिच्छन्ती ज्ञात्वा व्याधिव्यथां दृढाम् ।
नानाविधानि दुःखानि बालभावे भवन्ति वै ॥३१॥
किं सुखं विबुधा दृष्ट्वा जन्म वाञ्छन्ति चेच्छया ।
संग्रामममरैः सार्धं सुखं त्यक्त्वा निरन्तरम् ॥३२॥
कर्तुमिच्छेच्च को मूढः श्रमदं सुखनाशनम् ।
सर्वथैव नृपश्रेष्ठ सर्वे ब्रह्मादयः सुराः ॥३३॥
कृतकर्मविपाकेन प्राप्नुवन्ति सुखासुखे ।
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।
देहवद्भिर्नृभिर्देवैस्तिर्यग्भिश्च नृपोत्तम ॥३४॥
तपसा दानयज्ञैश्च मानवश्चेन्द्रतां व्रजेत् ।
क्षीणे पुण्येऽथ शक्रोऽपि पतत्येव न संशयः॥३५॥
रामावतारयोगेन देवा वानरतां गताः ।
तथा कृष्णसहायार्थं देवा यादवतां गताः॥३६॥
एवं युगे युगे विष्णुरवताराननेकशः ।
करोति धर्मरक्षार्थं ब्रह्मणा प्रेरितो भृशम् ॥३७॥
पुनः पुनर्हरेरेवं नानायोनिषु पार्थिव ।
अवतारा भवन्त्यन्ये रथचक्रवदद्भुताः ॥३८॥
दैत्यानां हननं कर्म कर्तव्यं हरिणा स्वयम् ।
अंशांशेन पृथिव्यां वै कृत्वा जन्म महात्मना ॥३९॥
'''तदहं संप्रवक्ष्यामि कृष्णजन्मकथां शुभाम् ।
स एव भगवान्विष्णुरवतीर्णो यदोः कुले ॥४०॥'''
कश्यपस्य मुनेरंशो वसुदेवः प्रतापवान् ।
गोवृत्तिरभवद्राजन् पूर्वशापानुभावतः ॥४१॥
कश्यपस्य च द्वे पत्न्यौ शापादत्र महीपते ।
अदितिः सुरसा चैवमासतुः पृथिवीपते ॥ ४२॥
देवकी रोहिणी चोभे भगिन्यौ भरतर्षभ ।
वरुणेन महाञ्छापो दत्तः कोपादिति श्रुतम् ।४३॥
राजोवाच
किं कृतं कश्यपेनागो येन शप्तो महानृषिः ।
सभार्यः स कथं जातस्तद्वदस्व महामते ॥ ४४ ॥
कथञ्च भगवान्विष्णुस्तत्र जातोऽस्ति गोकुले ।
वासी वैकुण्ठनिलये रमापतिरखण्डितः ॥४५॥
निदेशात्कस्य भगवान्वर्तते प्रभुरव्ययः ।
नारायणः सुरश्रेष्ठो युगादिः सर्वधारकः ॥४६॥
स कथं सदनं त्यक्त्वा कर्मवानिव मानुषे।
करोति जननं कस्मादत्र मे संशयो महान् ॥४७॥
प्राप्य मानुषदेहं तु करोति च विडम्बनम् ।
भावान्नानाविधांस्तत्र मानुषे दुष्टजन्मनि ॥ ४८ ॥
कामः क्रोधोऽमर्षशोकौ वैरं प्रीतिश्च कर्हिचित् ।
सुखं दुःखं भयं नॄणां दैन्यमार्जवमेव च ॥४९॥
दुष्कृतं सुकृतं चैव वचनं हननं तथा ।
पोषणं चलनं तापो विमर्शश्च विकत्थनम् ॥५०॥
लोभो दम्भस्तथा मोहः कपटः शोचनं तथा ।
एते चान्ये तथा भावा मानुष्ये सम्भवन्ति हि ॥५१॥
स कथं भगवान्विष्णुस्त्वक्त्या सुखमनश्वरम् ।
करोति मानुषं जन्म भावैस्तैस्तैरभिद्रुतम् ॥५२॥
किं सुखं मानुषं प्राप्य भुवि जन्म मुनीश्वर ।
किं निमित्तं हरिः साक्षाद्गर्भवासं करोति वै ॥५३॥
गर्भदुःखं जन्मदुःखं बालभावे तथा पुनः ।
यौवने कामजं दुःखं गार्हस्त्येऽतिमहत्तरम् ॥ ५४ ।
दुःखान्येतान्यवाप्नोति मानुषे द्विजसत्तम ।
कथं स भगवान्विष्णुरवतारान्पुनः पुनः ॥ ५५ ॥
प्राप्य रामावतारं हि हरिणा ब्रह्मयोनिना ।
दुःखं महत्तरं प्राप्तं वनवासेऽतिदारुणे ॥ ५६ ॥
सीताविरहजं दुःखं संग्रामश्च पुनः पुनः ।
कान्तात्यागोऽप्यनेनैवमनुभूतो महात्मना ॥ ५७ ॥
तथा कृष्णावतारेऽपि जन्म रक्षागृहे पुनः ।
गोकुले गमनं चैव गवां चारणमित्युत ॥ ५८ ॥
कंसस्य हननं कष्टाद् द्वारकागमनं पुनः ।
नानासंसारदुःखानि भुक्तवान्भगवान् कथम् ॥५९॥
स्वेच्छया कः प्रतीक्षेत मुक्तो दुःखानि ज्ञानवान् ।
संशयं छिन्धि सर्वज्ञ मम चित्तप्रशान्तये ॥ ६०॥
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'''इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां ॥ चतुर्थस्कन्धे कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणं नाम द्वितीयोऽध्यायः॥ २॥'''
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ब्रह्मपुराणम्/अध्यायः १८५ अध्याय: १८५
ब्रह्मपुराणम्
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कालीयदमनाख्यानम्
" नन्दगोपश्च गोपाश्च रामश्चाद्भुतविक्रमः।
त्वरितं यमुनां जग्मुः कृष्णदर्शनलालसाः।। १८५.२२
"अत्रावतीर्णयोः कुष्ण गोपा एव हि बान्धवाः।
गोप्यश्च सीदतः कस्मात्त्वं बन्धून्समुपेक्षसे।। १८५.३२ ।।
इति श्रीमहापुराणे आदिब्राह्मे बालचरिते कालीयदमननिरूपणं नाम पञ्चाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। १८५ ।।
'''विष्णुपुराण पञ्चमाँश अध्याय- (७)'''

ब्रह्मा ने ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र रूप में चारो वर्ण अपने शरीर से उत्पन्न किये अत: ये चारो वर्ण ब्राह्मी-सृष्टि हैं।
(यद्यपि श्रीमद्भगवद्गीता में यह श्लोक संशोधित रूप से संलग्न किया गया है कि गुण कर्म और स्वभाव के आधार पर वर्णों का विधान है।- परन्तु आज तक इस प्रकार का इस वर्ण-व्यवस्था को व्यवहारिक रूप कभी नहीं दिया गया- )
मूल श्लोकः
"'''चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।4.13।।'''
।।4.13।।मनुष्यलोक में ही वर्णाश्रम आदिके कर्मोंका अधिकार है अन्य लोकोंमें नहीं यह नियम किस कारणसे है यह बतानेके लिये ( अगला श्लोक कहते हैं ) अथवा वर्णाश्रम आदि विभागसे युक्त हुए मनुष्य सब प्रकारसे मेरे मार्गके अनुसार बर्तते हैं ऐसा आपने कहा सो नियमपूर्वक वे आपके ही मार्गका अनुसरण क्यों करते हैं दूसरेके मार्गका क्यों नहीं करते इस पर कहते हैं ( ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र इन ) चारों वर्णोंका नाम चातुर्वर्ण्य है। सत्त्व रज तम इन तीनों गुणोंके विभाग से तथा कर्मों के विभागसे यह चारों वर्ण मुझ ईश्वरद्वारा रचे हुए (उत्पन्न किये हुए) हैं।
ब्राह्मण इस पुरुषका मुख हुआ इत्यादि श्रुतियों से यह प्रमाणित है।
उनमें से सात्त्विक सत्त्वगुणप्रधान ब्राह्मणके शम दम तप इत्यादि कर्म हैं।
और जिसमें सत्त्वगुण गौण है और रजोगुण प्रधान है उस क्षत्रियके शूरवीरता तेज प्रभृति कर्म हैं। और जिसमें तमोगुण गौण और रजोगुण प्रधान है ऐसे वैश्य के कृषि आदि कर्म हैं।
तथा और जिसमें रजोगुण गौण और तमोगुण प्रधान है उस शूद्रका केवल सेवा ही कर्म है।
इस प्रकार गुण और कर्मों के विभागसे चारों वर्ण मेरे द्वारा उत्पन्न किये गये हैं।
यह अभिप्राय है। ऐसी यह चार वर्णों की अलग अलग व्यवस्था दूसरे लोकोंमें नहीं है इसलिये ( पूर्वश्लोकमें)"मानुषेलोके) यह विशेषण लगाया गया है। यदि चातुर्वर्ण्यकी रचना आदि कर्मके आप कर्ता हैं तब तो उसके फलसे भी आपका सम्बन्ध होता ही होगा इसलिये आप नित्यमुक्त और नित्यईश्वर भी नहीं हो सकते इसपर कहा जाता है यद्यपि मायिक व्यवहार से मैं उस कर्म का कर्ता हूँ तो भी वास्तव में मुझे तू अकर्ता ही जान तथा इसीलिये मुझे अव्यय और असंसारी ही समझ।
।।4.13 -- 4.14।। मेरे द्वारा गुणों और कर्मोंके विभागपूर्वक चारों वर्णोंकी रचना की गयी है। उस-(सृष्टि-रचना आदि-) का कर्ता होनेपर भी मुझ अव्यय रमेश्वरको तू अकर्ता जान। "कारण कि कर्मोंके फलमें मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो मुझे तत्त्वसे जान लेता है, वह भी कर्मोंसे नहीं बँधता।

"'''ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः । ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायतः १०/९०/१२ ऋग्वेद॥)'''
(ब्राह्मणः अस्य मुखम् आसीत् बाहू राजन्यः कृतः ऊरू तत्-अस्य यत्-वैश्यः पद्भ्याम् शूद्रः अजायतः ।)
यदि शब्दों के अनुसार देखें तो इस ऋचा का अर्थ यों समझा जा सकता है:
सृष्टि के मूल उस परम ब्रह्म का मुख ब्राह्मण था, बाहु क्षत्रिय के कारण बने, उसकी जंघाएं वैश्य बने और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुआ ।
क्या उक्त ऋचा की व्याख्या इतने सरल एवं नितांत शाब्दिक तरीके से किया जाना चाहिए ? या यह बौद्धिक तथा दैहिक श्रम-विभाजन पर आधारित एक अधिक सार्थक सामाजिक व्यवस्था की ओर इशारा करती है ?
किंचित् अंतर के साथ इस ऋचा से साम्य रखने वाला श्लोक मनुस्मृति में भी उपलब्ध है:।
"'''लोकानां तु विवृद्ध्यर्थं मुखबाहूरूपादतः । ननब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निरवर्तयत् ॥
( मनुस्मृति, अध्याय 1, श्लोक 31) '''
(लोकानां तु विवृद्धि-अर्थम् मुख-बाहू-ऊरू-पादतः ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निर्-अवर्त.
लोक की वृद्धि के उद्देश्य से उस (ब्रह्मा ने) मुख, बाहुओं, जंघाओं एवं पैरों से क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र का निर्माण किया ।
परन्तु अहीर अथवा गोप जाति इस वर्ण-व्यवस्था से पृथक है । क्यों की उनकी उत्पत्ति ब्रह्मा से नहीं अपितु विष्णु के रोमविवर से हुई है । आभीर अथवा गोप वैष्णवी उत्पत्ति हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण का ब्रह्मखण्ड के अध्याय 5 में वर्णन है ।
"'''कृष्णस्य लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने: । आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव -च तत्सम: ।।41। (ब्रह्म- वैवर्त पुराण अध्याय 5)'''
कृष्ण के लोम- कूपों से गोपों की उत्पत्ति हुई --जो रूप और वेश में कृष्ण के समान थे ।

ब्रह्म आदि कल्पों का परिचय, गोलोक में श्रीकृष्ण का नारायण. आदि के साथ रास मण्डल में निवास, श्रीकृष्ण के वामपार्श्व से श्रीराधा का प्रादुर्भाव; राधा के रोमकूपों से गोपांगनाओं का प्राकट्य तथा श्रीकृष्ण से गोपों, गौओं, बलीवर्दों, हंसों, श्वेत घोड़ों और सिंहों की उत्पत्ति; श्रीकृष्ण द्वारा पाँच रथों का निर्माण तथा पार्षदों का प्राकट्य; भैरव, ईशान और डाकिनी आदि की उत्पत्ति
महर्षि शौनक के पूछने पर सौति कहते हैं – ब्रह्मन! मैंने सबसे पहले ब्रह्म कल्प के चरित्र का वर्णन किया है। अब वाराह कल्प और पाद्म कल्प – इन दोनों का वर्णन करूँगा, सुनिये। मुने! ब्राह्म, वाराह और पाद्म – ये तीन प्रकार के कल्प हैं; जो क्रमशः प्रकट होते हैं। जैसे सत्य युग, त्रेता, द्वापर और कलियुग– ये चारों युग क्रम से कहे गये हैं, वैसे ही वे कल्प भी हैं। तीन सौ साठ युगों का एक दिव्य युग माना गया है। इकहत्तर दिव्य युगों का एक मन्वन्तर होता है।चौदह मनुओं के व्यतीत हो जाने पर ब्रह्मा जी का एक दिन होता है। ऐसे तीन सौ साठ दिनों के बीतने पर ब्रह्मा जी का एक वर्ष पूरा होता है। इस तरह के एक सौ आठ वर्षों की विधाता की आयु बतायी गयी है।
यह परमात्मा श्रीकृष्ण का एक निमेषकाल है। कालवेत्ता विद्वानों ने ब्रह्मा जी की आयु के बराबर कल्प का मान निश्चित किया है।छोटे-छोटे कल्प बहुत-से हैं, जो संवर्त आदि के नाम से विख्यात हैं। महर्षि मार्कण्डेय सात कल्पों तक जीने वाले बताये गये हैं; परंतु वह कल्प ब्रह्माजी के एक दिन के बराबर ही बताया गया है। तात्पर्य यह है मार्कण्डेय मुनि की आयु ब्रह्मा जी के सात दिन में ही पूरी हो जाती है,ऐसा निश्चय किया गया है।
ब्रह्म, वाराह और पाद्म –ये तीन महाकल्प कहे गये हैं।
इनमें जिस प्रकार सृष्टि होती है, वह बताता हूँ। सुनिये।
ब्राह्म कल्प में मधु-कैटभ के मेद से मेदिनी की सृष्टि करके स्रष्टा ने भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा ले सृष्टि-रचना की थी। फिर वाराह कल्प में जब पृथ्वी एकार्णव के जल में डूब गयी थी, वाराह रूपधारी भगवान विष्णु के द्वारा अत्यन्त प्रयत्नपूर्वक रसातल से उसका उद्धार करवाया और सृष्टि-रचना की; तत्पश्चात् पाद्म कल्प में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने विष्णु के नाभि कमल पर
सृष्टि का निर्माण किया। ब्रह्मलोक पर्यन्त जो त्रिलोकी है, उसी की रचना की, ऊपर के जो नित्य तीन लोक हैं, उनकी नहीं।
सृष्टि-निरूपण के प्रसंग में मैंने यह काल-गणना बतायी है और किंचिन मात्र सृष्टि का निरूपण. किया है। अब फिर आप क्या सुनना चाहते हैं?
गर्गसंहिता में भी गोपों की उत्पत्ति विष्णु के रोमकूपों से हुई है।
"'''नन्दद्रोणो वसु: साक्षाज्जातोगोपकुलेऽपिस:
गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोमसमुद्भवा:।।२१।।राधारोमोद्भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताःकाश्चित्पुण्यैः कृतैः पूर्वैः प्राप्ताः कृष्णं वरैः परैः॥२२।। '''
<small>इति श्रीगर्गसंहितायां श्रीविश्वजित्खण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे दंतवक्त्रयुद्धे करुषदेशविजयो नामैकादशोऽध्यायः॥११॥</small>
इस प्रकार गोप अथवा आभीर जाति का जन्म वैष्णवी शक्तियों के रूप में होता है।
ये ब्रह्मा की वर्णव्यवस्था से परे हैं । महाभारत काल में भी गोपों ने कभी वर्ण-व्यवस्था मूलक विधानों का पालन नहीं किया यदि गोप वैश्य होते तो नाराणी सेना के यौद्धा बन कर कभी युद्ध नहीं करते क्यों कि वैश्यों का युद्ध करना शास्त्र विरुद्ध है। जैसा कि मार्कण्डेय पुराण में वर्णन है।
मार्कण्डेय पुराण में एक स्थान अध्याय 130/ के श्लोक 30 पर शास्त्रीय. विधानों का निर्देशन करते हुए ।
वर्णित है अर्थात् (परिव्राट् मुनि ने राजा दिष्ट से कहा कि ) हे राजन् आपका पुत्र नाभाग धर्म से पतित होकर वैश्य हो गया है;और वैश्य के साथ आपका युद्ध करना नीति के विरुद्ध अनुचित ही है ।।30।।
"'''<small>तवत्पुत्रस् महाभागविधर्मोऽयं महातमन्।।
तवापि वैश्येन सह न युद्धं धर्म वन्नृप ।30।
</small>'''

उपर्युक्त श्लोक जो मार्कण्डेय पुराण से उद्धृत है उसमें स्पष्ट विधान है कि वैश्य युद्ध नहीं कर सकता अथवा वैश्य के साथ युद्ध नहीं किया जा सकता है
तो फिर यह भी विचारणीय है कि गोप जो नारायणी सेना के योद्धा थे वे वैश्य कहाँ हुए ? क्योंकि वे तो नित्य युद्ध करते थे।
"मत्संहननतुल्यानां गोपानां अर्बुदं महत् ।
नारायणा इतिहास ख्याता : सर्वे संग्रामयोधिन:।18।'''
'''ते वा युधि दुराधर्षा भवन्त्वेकस्य सैनिका:।
अयुध्यमान: संग्रामे न्यस्तशस्त्रोऽहमेकत:।19।'''
'''आभ्यान्यतरं पार्थ यत् ते हृद्यतरं मतम्।
तद् वृणीतां भवानग्रे प्रवार्यस्त्वं धर्मत:।।20।'''
जब दुर्योधन और अर्जुन कृष्ण के पास युद्ध में सहायता के लिए जाते हैं तो कृष्ण स्वयं कोअर्जुन के लिए और अपने नारायणी सेना जिसकी संख्या 10 करोड़ थी ! उसे दुर्योधन को युद्ध सहायता के लिए देते हैं ।
👇कृष्ण दुर्योधन से कहते हैं कि नारायणी सेना के गोप (आभीर)सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं। कृष्ण ने ऐसा दुर्योधन से कहा उन सब की नारायणी संज्ञा है वह सभी युद्ध. में बैठकर लोहा लेने वाले हैं ।17.एक और तो वे 10 करोड़ सैनिक युद्ध के लिए उद्धत रहेंगे और दूसरी ओर से मैं अकेला रहूंगा । परंतु मैं ना तो युद्ध करूंगा और ना कोई शस्त्र ही धारण करूंगा ।18 हे अर्जुन इन दोनों में से कोई एक वस्तु जो तुम्हारे मन को अधिक रुचिकर लगे ! तुम पहले उसे चुनो क्योंकि धर्म के अनुसार पहले तुम ही अपनी मनचाही वस्तु चुनने के अधिकारी हो ।19👇
और दूसरी और ---मैं स्वयं नि:शस्त्र रहुँगा ! दौनों विकल्पों में जो आपको अच्छा लगे उसका चयन कर लो ! " तब स्थूल बुद्धि दुर्योधन ने कृष्ण की नारायणी गोप - सेना को चयन किया ! और अर्जुन ने स्वयं कृष्ण को ! गोप अर्थात् अहीर निर्भीक यदुवंशी यौद्धा तो थे ही इसमें कोई सन्देह नहीं ! गोप निर्भाक होने से ही अभीर कहलाते थे । अ = नहीं +भीर: = भीरु अथवा कायर अर्थात् अहीर. या अभीर वह है --- जो कायर न हो इसी का अण् प्रत्यय करने पर आभीर इसी लिए दुर्योधन ने उनका ही चुनाव किया
यादवों ने वर्णवियवस्था का कभी पालन नहीं किया स्वयं कृष्ण का चरित्र इसका प्रमाण है।
महाभारत काल में गोपालन ( वैश्यवृत्ति ) गीता का उपदेश( ब्राह्मणवृत्ति) दुष्टों का संहार ( क्षत्रिय वृत्ति) और युधिष्ठर के राजसूय यज्ञ में उछिष्ट ( झूँठें) भोजनपात्र उठाना शूद्रवृत्ति हैं। कृष्ण ने यादव होकर ये सब किया।
यदि कृष्ण इनमें से एक होते तो ये परस्पर विरोधी सभी कार्य न करते -कृष्ण ने भागवत धर्म की स्थापना ब्राह्मणवाद और देववाद के खण्डन हेतु की थी ।
कृष्ण ने वैदिक प्रधान देव इन्द्र की पूजा का विधान ही समाप्त कर गो" प्रकृति और एक अद्वित्तीय ब्रह्म की सत्ता का प्रतिपादन किया अत: समस्त आभीर जाति वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत है।
सनातन काल से विष्णु का अवतरण गोपों के मध्य ही होता है । स्वयं पद्म पुराण और स्कन्द पुराण इसका साक्ष्य हैं ।
पद्मपुराणम्-खण्डः(१)
(सृष्टिखण्डम्)अध्यायः(१७)
(पदान्वय अर्थसमन्विता सुमन्तनी टीका)
पद्मपुराणम् | खण्डः १ (सृष्टिखण्डम्)
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(अनुवाद-यादव योगेश कुमार "रोहि"(पद्मपुराणम्-प्रथम सृष्टि खण्डम् अध्याय:१७.
-तस्मिन्यज्ञे किमाश्चर्यं तदासीद्द्विजसत्तम ।
कथं रुद्रः स्थितस्तत्र विष्णुश्चापि सुरोत्तमः।१
।भीष्म उवाच।
''' "शब्दार्थ- ★'''
१-तस्मिन्यज्ञे= उस यज्ञ में । २-किमाश्चर्यम तदासीत् द्विजसत्तम = क्या आश्चर्य तब हुआ द्विजों मे श्रेष्ठ पुलस्त्य जी ३- कथंरूद्र: स्थितस्तत्र विष्णुश्चापि सुरोत्तम: = कैसे रूद्र. और विष्णु भी जो देवों में उत्तम हैं वहाँ स्थित रहे
हे द्विज श्रेष्ठ ! उस यज्ञ में कौन सा आश्चर्य हुआ? और वहाँ रूद्र और विष्णु जो देवों में उत्तम हैं कैसे बने रहे ? ।१।
_______________ ऊं________________
गायत्र्या किंकृतंतत्रपत्नीत्वे स्थितया तया
आभीरैः किं सुवृत्तज्ञैर्ज्ञात्वा तैश्च कृतं मुने।२।
ब्रह्मा की पत्नी रूप में स्थित होकर गायत्री देवी द्वारा वहाँ क्या किया गया ? और सुवृत्तज्ञ अहीरों द्वारा जानकारी करके वहाँ क्या किया गया हे मुनि !।२।
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एतद्वृत्तं समाचक्ष्व यथावृत्तं यथाकृतम्।आभीरैर्ब्रह्मणा चापि ममैतत्कौतुकं महत्।३।
आप मुझे इस वृत्तान्त को बताइए ! तथा वहाँ पर और जो घटना जैसे हुई उसे भी बताइए मुझे यह. भी जानने का महा कौतूहल है कि अहीरों और ब्राह्मणों ने भी उसके बाद जो किया । ३।
_______________ऊं________________
★पुलस्त्य उवाच★
तस्मिन्यज्ञे यदाश्चर्यं वृत्तमासीन्नराधिप।★
कथयिष्यामि तत्सर्वं शृणुष्वैकमना नृप।४।
(पुलस्त्य ऋषि बोले-)
हे राजन् उस यज्ञ में जो आश्चर्यमयी घटना घटित है । उसे मैं पूर्ण रूप से कहुँगा । उस सब को आप एकमन होकर श्रवण करो ।४।
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(रुद्रस्तु महदाश्चर्यं कृतवान्वै सदो गत:।निंद्यरूपधरो देवस्तत्रायाद्द्विजसन्निधौ।५।
उस सभा में जाकर रूद्र ने तो निश्चय ही आश्चर्य मयी कार्य किया वहाँ वे महादेव निन्दित (घृणित) रूप धारण करके ब्राह्मणों के सन्निकट आये ।५।
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"विष्णुना न कृतं किंचित्प्राधान्ये स यतः स्थितः। "नाशं तु गोपकन्याया ज्ञात्वा गोपकुमारकाः।६।।
इस पर विष्णु ने वहाँ रूद्र का वेष देकर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं की वह वहीं स्थित रहे क्योंकि वहाँ वे विष्णु ही प्रधान व्यवस्थापक थे गोपकुमारों ने यह जानकर कि गोपकन्या गायब अथवा अदृश्य हो गयी ।६।
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गोप्यश्च तास्तथा सर्वा आगता ब्रह्मणोंतिकम्
दृष्ट्वा तां मेखलाबद्धां यज्ञसीमव्यस्थिताम्।७।
और अन्य गोपियों ने भी यह बात जानी तो तो वे सब के सब अहीरगण ( आभीर) ब्रह्मा जी के पास आये वहाँ उन सब अहीरों ने देखा कि यह गोपकन्या कमर में मेखला ( करधनी) बाँधे यज्ञ भूमि की सीमा में स्थित है।७।
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'''हा पुत्रीति तदा माता पिता हा पुत्रिकेति चस्वसेति बान्धवाः सर्वे सख्यः सख्येन हा सखि।८।'''
यह देखकर उसके माता-पिता हाय पुत्री ! कहकर चिल्लाने लगे उसके भाई ( बान्धव) स्वसा (बहिन) कहकर तथा सभी सखियाँ सखी कहकर चिल्ला रह थी ।८।
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केन त्वमिह चानीता अलक्तांका तु सुन्दरी
शाटीं निवृत्तां कृत्वा तु केन युक्ता च कम्बली।९।
और किस के द्वारा तुम यहाँ लायी गयीं महावर( अलक्तक) से अंकित तुम सुन्दर साड़ी उतारकर किस के द्वारा तुम कम्बल से युक्त कर दी गयीं ?।९।
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केन चेयं जटा पुत्रि रक्तसूत्रावकल्पिता।एवंविधानि वाक्यानि श्रुत्वोवाच स्वयं हरिः।१०।
हे पुत्री ! किसके द्वारा तुम्हारे केशों की जटा (जूड़ा) बनाकर लालसूत्र से बाँध दिया गया ? ('''अहीरों की)''' इस प्रकार की बातें सुनकर श्रीहरि भगवान विष्णु ने स्वयं कहा ! ।१०।
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इह चास्माभिरानीता पत्न्यर्थं विनियोजिता
ब्रह्मणालंबिता बाला प्रलापं मा कृथास्त्विह।११।
यहाँ यह हमारे द्वारा लायी गयी हैं और इसे पत्नी के रूप के लिए नियुक्त किया गया है । अर्थात ् ब्रह्मा जी ने इसे अपनी पत्नी रूप में अधिग्रहीत किया है । अर्थात् यह बाला ब्रह्मा पर आश्रिता है
अत: यहाँ प्रलाप अथवा दु:खपूर्ण रुदन मत करो! ।११।
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पुण्या चैषा सुभाग्या च सर्वेषां कुलनंदिनीपुण्या चेन्न भवत्येषा कथमागच्छते सदः।१२।
यह अत्यंत पुण्य शालिनी सौभाग्यवती तथा तुम्हारे सबके जाति - कुल को आनन्दित करने वाली है यदि यह पुण्यशालिनी नहीं होती तो यह इस ब्रह्मा की सभा में कैसे आ सकती थी ?।१२।
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एवं ज्ञात्वा महाभाग न त्वं शोचितुमर्हसि
कन्यैषा ते महाभागा प्राप्ता देवं विरिंचनम्।१३।
इसलिए हे महाभाग अहीरों ! इस बात को जानकर आप लोगों शोक करने के योग्य नहीं होते हो !
यह कन्या परम सौभाग्यवती है इसने स्वयं ब्रह्मा जी को( पति के रूप में) प्राप्त किया है ।१३
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योगिनो योगयुक्ता ये ब्राह्मणा वेदपारगाः
न लभंते प्रार्थयन्तस्तां गतिं दुहिता गता।१४।
तुम्हारी इस कन्या ने जिस गति को प्राप्त किया है उस गति को योगकरने वाले योगी और प्रार्थना करने वाले वेद पारंगत ब्राह्मण भी प्राप्त नहीं कर पाते हैं ।१४।
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"धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम् मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।
(भगवान विष्णु अहीरों से बोले ! हे गोपों) मेरे द्वारा यह जानकर कि आप धार्मिक' सदाचरण करने वाले और धर्मवत्सल के पात्र हो आपकी यह कन्या तब मेरे द्वारा ही ब्रह्मा को दान (कन्यादान) की गयी है ।१५।
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<u>'''"अनया तारितो गच्छ दिव्यान्लोकान्महोदयान्-
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थ सिद्धये अवतारं करिष्ये अहं ।१६।'''</u>
(द्विव्य लोकों को गये हुए महोदयों को इसके द्वारा तार दिया गया है तम्हारे कुल में और भी देव कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा ।।१६। -
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इस कन्या के द्वारा तुम्हारी जाति- कुल के दिवंगत पितरों का भी उद्धार कर दिया गया और भी देवों के कार्य की सिद्धि के लिए मेैं भी तुम्हारे कुल में ही अवतरण करुँगा ।१६।
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<u>'''सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
'''</u>
और वे तब मेरे साथ भविष्य में क्रीडा (रास नृत्य करेंगीं।१७।
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<u>'''करिष्यंति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यंति मया सह।१८।'''</u>
मैं भी उस समय गोप रूप में तुम्हारी कन्याओं के साथ( रास अथवा हल्लीसम्) खेल करुँगा और वे सब कन्या मेरे साथ रहेंगीं।१८।
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तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सर:करिष्यंति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९।
उस समय न तो कोई दोष होगा और न किसी को इसका द्वेष होगा और न कोई किसी से क्रोध करेगा उस समय आभीर लोग भी किसी प्रकार का भय नहीं करेंगे अर्थात् निर्भीक रहेंगे।१९।
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<u>'''न चास्या भविता दोषःकर्मणानेन कर्हिचित्
श्रुत्वा वाक्यं तदा विष्णोःप्रणिपत्य ययुस्तदा।२०।
'''</u>
इस कार्य से इनको भी कोई पाप नहीं लगेगा
भगवान विष्णु की ये आश्वासन पूर्ण बातें सुनकर सभी अहीर उन विष्णु को प्रणाम कर तब सभी अपने घरों को चले गये ।२०।
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<u>'''एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे
अवतारः कुलेस्माकं कर्तव्यो धर्मसाधनः।२१।
'''</u>
उन सभी अहीरों ने जाने से पहले भगवान विष्णु से कहा कि हे देव ! आपने जो वरदान हम्हें दिया है वह निश्चय ही हमारा होकर रहे ! आपको हमारे जाति वंश और कुल ( परिवार )में धर्म के सिद्धिकरण के लिए अवतार करने योग्य ही है ।२१।
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भवतो दर्शनादेव भवामः स्वर्गवासिनः
शुभदा कन्यका चैषा तारिणी मे कुलैः सह।२२।
आपका दर्शन करके ही हम सब लोग दिव्य होकर स्वर्ग के निवासी बन गये हैं । शुभ देने वाली ये कन्या भी हम लोगों के जाति कुल का तारण करने वाली बन गयी है ।२२।
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पद्मपुराण सृष्टिखण्ड अध्याय १७ में विष्णु स्वयं अहीर जाति के यदुवंश के वृष्णि कुल में अवतार लेने की घोषणा करते हैं ।
(भगवान विष्णु अहीरों से बोले ! हे गोपों) मेरे द्वारा यह जानकर धार्मिक' सदाचरण करने वाली और धर्मवत्सला के रूप पात्र है यह कन्या तब मेरे द्वारा ही ब्रह्मा को दान (कन्यादान) की गयी है ।१५।
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<u>'''अनया तारितो गच्छ दिव्यान्लोकान्महोदयान्युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थ सिद्धये अवतारं करिष्ये अहं ।१६।
'''</u>
(द्विव्य लोकों को गये हुए महोदयों को इसके द्वारा तारदिया गया है तम्हारे कुल में और भी देव कार्य की सिद्धि के लिए में मैं अव तरण करुँगा ।।१६। -
वेदों में विष्णु को गोप नाम से सम्बोधित किया गया है।
"<u>'''गाःपालयन्ति सततं रजसो गवां चगंगां स्पृशन्ति च जपन्ति गवां सुनाम्नाम् ।प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च जातिःपरा न विदिता भुवि गोपजातेः॥२२॥)'''</u>
अर्थ • गोप सदा गौओं का पालन करते हैं,
और गोरज की गंगा में नहाते तथा, उसका स्पर्श
करते हैं तथा गौओं का उत्तम नामों का जप करते हैं।
इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओं के सुन्दर
मुख को देखते हैं।
इस भूतल पर गोप-जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।।२२।।
<sup>श्रीगर्गसंहितायां वृन्दावनखण्डे श्रीकृष्णचंद्रदर्शनम् नाम अष्टादशोऽध्यायः।१८॥</sup>
परन्तु कालान्तरण में इस आभीर जाति के आध्यात्मिक वर्चस्व से अभिभूत होकर तत्कालिक पुरोहितों नें अहीरों को वर्णसंकर
शूद्र और म्लेच्छ तक घोषित करने के लिए स्मृतियों में विधान बनाये-
"<u>'''पाराशर संहिता- में लिखा कि“मणिवन्द्यां तन्तुवायात् गोपजातेश्च सम्भवः” '''</u>
पराशरः -संहिता ( मण वन्द्य जाति की स्त्री में तन्तुवाय पुरुष से गोप जाति उत्पन्न होती है । ।
अब स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र कह कर वर्णित किया गया है। यह भी देखें---
व्यास -स्मृति )तथा सम्वर्त -स्मृति में एक स्थान पर लिखा है
--------------------------------------------------------
" <u>'''क्षत्रियात् शूद्र कन्यानाम् समुत्पन्नस्तु य: सुत:। स गोपाल इति ज्ञेयो भोज्यो विप्रैर्न संशय: '''</u> --------------------------------------------------------
अर्थात् क्षत्रिय से शूद्र की कन्या में उत्पन्न होने वाला पुत्र गोपाल अथवा गोप होता है ।
और विप्रों के द्वारा उनके यहाँ भोजान्न होता है इसमे संशय नहीं ....
पाराशर स्मृति में वर्णित है कि.._
_____________________________________
<u>'''वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारक:। वणिक् किरात: कायस्थ: मालाकार: कुटुम्बिन: एते चान्ये च बहव शूद्र:भिन्न स्व कर्मभि: चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नट: वरटो मेद। चाण्डालदास श्वपचकोलका: ।।११।।'''</u>
एतेsन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना: एषां सम्भाषणाद् स्नानंदर्शनादर्क वीक्षणम् ।।१२।।
-------------------------------------------------------- वर्द्धकी (बढ़ई) , नाई , गोप , आशाप , कुम्हार ,वणिक् ,किरात , कायस्थ, माली , कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं ।
चमार ,भट, भील ,धोवी, पुष्कर, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दाश,श्वपच , तथा कोल (कोरिया) ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं ।
और अन्य जो गोभक्षक हैं वे भी अन्त्यज होते हैं। इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान कर सूर्य दर्शन करना चाहिए तब शुद्धि होती है।
___________________
अभोज्यान्ना:स्युरन्नादो यस्य य: स्यात्स तत्सम: नापितान्वयपित्रार्द्ध सीरणो दास गोपका:।।४९।। शूद्राणामप्योषान्तु भुक्त्वाsन्न नैव दुष्यति । धर्मेणान्योन्य भोज्यान्ना द्विजास्तु विदितान्वया:।५०।। (व्यास-स्मृति)
नाई वंश परम्परा व मित्र ,अर्धसीरी ,दास ,तथा गोप ,ये सब शूद्र हैं ।
तो भी इन शूद्रों के अन्न को खाकर दूषित नहीं होते।
जिनके वंश का ज्ञान है ; द्विज धर्म से परस्पर में भोजन के योग्य अन्न वाले होते हैं ।५०। ______________________________________ <big>व्यास- स्मृति प्रथम अध्याय श्लोक ११-१२)</big>
स्मृतियों की रचना काशी में हुई , वर्ण-व्यवस्था का पुन: दृढ़ता से विधान पारित करने के लिए काशी के इन ब्राह्मणों ने रूढ़ि वादी पृथाओं के पुन: संचालन हेतु स्मृति -ग्रन्थों की रचना की जो पुष्यमित्र सुंग की परम्पराओं के अनुगामी थे।
देखें---निम्न श्लोक दृष्टव्य है इस सन्दर्भ में..
___________________
"<big>वाराणस्यां सुखासीनं वेद व्यास तपोनिधिम्। पप्रच्छुमुर्नयोSभ्येत्य धर्मान् वर्णव्यवस्थितान् १-।।
</big>
अर्थात् वाराणसी में सुख-पूर्वक बैठे हुए तप की खान वेद व्यास से ऋषियों ने वर्ण-व्यवस्था के धर्मों को पूछा ।
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निश्चित रूप इन विरोधाभासी तथ्यों से ब्राह्मणों के विद्वत्व की पोल खुल गयी है ।
शास्त्रों में अहीरों की सात्विक प्रवृत्ति सर्व विदित है नारायण विष्णु का ही रूपान्तरण है।
सत्यनारायण की कथाओं के पात्र भी गोपगण ही रहे हैं ।
पञ्चमोध्याय: -
सूत उवाच-
अथान्यत् संप्रवक्ष्यामि श्रृणध्वं मुनिसत्तमा:। आसीत् तुङ्गध्वजो राजा प्रजापालनतत्पर:॥1॥
प्रसादं सत्यदेवस्य त्यक्त्त्वा दु:खमवाप स:। एकदा स वनं गत्वा हत्वा बहुविधान् पशून्॥2॥
आगत्य वटमूलं च दृष्ट्वा सत्यस्य पूजनम् । आभीरा:कुर्वन्ति सन्तुष्टाभक्तियुक्ता:सबन्धवा:।3॥
राजा दृष्ट्वा तु दर्पेण न गतो न ननाम स: । ततो गोपगणा: सर्वे प्रसादं नृपसन्निधौ ॥4॥
सूतजी बोले हे ऋषियों ! मैं और भी एक कथा सुनाता हूँ, उसे भी ध्यानपूर्वक सुनो ! प्रजापालन. में लीन तुंगध्वज नाम का एक राजा था। उसने भी भगवान का प्रसाद त्याग कर बहुत ही दु:ख प्राप्त किया। एक बार वन में जाकर वन्य पशुओं को मारकर वह बड़ के पेड़ के नीचे आया। वहाँ उसने अहीरों को भक्ति-भाव से अपने बंधुओं सहित सत्यनारायण भगवान. का पूजन करते देखा।
अभिमानवश राजा ने उन्हें देखकर भी पूजा स्थान. में नहीं गया और ना ही उसने भगवान को नमस्कार ही किया। ग्वालों ने राजा को प्रसाद दिया।
संस्थाप्य पुनरागत्य भुक्त्वा सर्वे यथेप्सितम् । तत: प्रसादं संत्यज्य राजा दु:खमवाप स: ॥5॥
तस्य पुत्राशतं नष्टं धनधान्यादिकं च यत् । सत्यदेवेन तत्सर्वं नाशितं मम निश्चितम् ॥6॥
अतस्तत्रैव गच्छामि यत्र देवस्य पूजनन् । मनसा तु विनिश्चित्य ययौ गोपालसन्निधौ॥7॥
ततोऽसौ सत्यदेवस्य पूजां गोपगणै: सह । भक्तिश्रद्धान्वितो भूत्वा चकार विधिना नृप: ॥8॥
लेकिन उसने वह प्रसाद नहीं खाया और प्रसाद को वहीं छोड़ वह अपने नगर को चला गया। जब वह नगर में पहुंचा तो वहाँ सबकुछ. तहस-नहस हुआ पाया तो वह शीघ्र ही समझ गया कि यह सब भगवान ने ही किया है।
वह दुबारा ग्वालों के पास पहुंचा और विधि पूर्वक पूजा कर के प्रसाद खाया ।
सत्यदेवप्रसादेन धनपुत्राऽन्वितोऽभवत् । इह लोके सुखं भुक्त्वा पश्चात् सत्यपुरं ययौ ॥9॥
य इदं कुरुते सत्यव्रतं परम दुर्लभम् । श्रृणोति च कथां पुण्यां भक्तियुक्तां फलप्रदाम्।10॥
धनधान्यादिकं तस्य भवेत् सत्यप्रसादत: । दरिद्रो लभते वित्तं बद्धो मुच्येत बन्धनात् ॥11॥
भीतो भयात् प्रमुच्येत सत्यमेव न संशय: । ईप्सितं च फलं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ब्रजेत् ॥12॥
इति व: कथितं विप्रा: सत्यनारायणव्रतम् । यत्कृत्वा सर्वदु:खेभ्यो मुक्तो भवति मानव: ॥13॥
विशेषत: कलियुगे सत्यपूजा फलप्रदा । केचित्कालं वदिष्यन्ति सत्यमीशं तमेव च ॥14॥
सत्यनारायणं केचित् सत्यदेवं तथापरे । नाना रूपधरो भूत्वा सर्वेषामीप्सितप्रद:॥15॥
भविष्यति कलौ सत्यव्रतरूपी सनातन:। श्रीविष्णुना धृतं रूपं सर्वेषामीप्सितप्रदम् ॥16॥
तो श्रीसत्यनारायण भगवान की कृपा से सब कुछ पहले जैसा हो गया। दीर्घकाल तक सुख भोगने के बाद मरणोपरांत उसे स्वर्गलोक की प्राप्ति हुई। जो मनुष्य परम दुर्लभ इस व्रत को करेगा तो भगवान सत्यनारायण की अनुकंपा से उसे धन-धान्य की प्राप्ति होगी। निर्धन धनी होकर भयमुक्त हो जीवन जीता है। संतान हीन मनुष्य को संतान सुख मिलता है और सारे मनोरथ पूर्ण होने पर मानव अंतकाल में बैकुंठधाम को जाता है।
श्रृणोति य इमां नित्यं कथा परमदुर्लभाम् । तस्य नश्यन्ति पापानि सत्यदेव- प्रसादत:॥17॥
व्रतं यैस्तु कृतं पूर्वं सत्यनारायणस्य च । तेषां त्वपरजन्मानि कथयामि मुनीश्वरा: ॥18॥
शतानन्दो महा-प्राज्ञ: सुदामा ब्राह्मणोऽभवत् । तस्मिन् जन्मनि श्रीकृष्णं ध्यात्वा मोक्षमवाप ह ।19
काष्ठभारवहो भिल्लो गुहराजो बभूव ह । तस्मिन् जन्मनि श्रीरामसेवया मोक्षमाप्तवान् ॥20॥
उल्कामुखो महाराजो नृपो दशरथोऽभवत् । श्रीरङ्नाथं सम्पूज्य श्रीवैकुण्ठं तदाऽगमत्॥21॥
धार्मिक:सत्यसन्धश्च साधुर्मोरध्वजोऽभवत् । देहार्ध क्रकचेश्छित्वा मोक्षमवापह ॥२२॥
तुङ्गध्वजो महाराजो स्वायम्भरभवत्किल । सर्वान् धर्मान् कृत्वा श्री वकुण्ठतदागमत् ॥२३॥
सूतजी बोले–जिन्होंने पहले इस व्रत को किया है अब उनके दूसरे जन्म की कथा कहता हूँ। वृद्ध शतानन्द ब्राह्मण ने सुदामा का जन्म लेकर. मोक्ष की प्राप्ति की।लकड़हारे ने अगले जन्म में निषाद बनकर मोक्ष प्राप्त किया।
उल्कामुख नाम का राजा दशरथ होकर बैकुंठ को गए। साधु नाम के वैश्य ने मोरध्वज बनकर अपने पुत्र को आरे से चीरकर मोक्ष पाया। महाराज तुंगध्वज ने स्वयंभू होकर भगवान में भक्तियुक्त हो कर्म कर मोक्ष पाया।
"इति श्री स्कन्द पुराणे रेवाखंडे सत्यनारायण व्रत कथायां पञ्चमोध्यायःसमाप्तः॥
त्रीणि पदा विचक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। अतो धर्माणि धारयन्” इसमें भी कहा गया है कि किसी के द्वारा जिसकी हिंसा नहीं हो सकती, उस सर्वजगत के रक्षक विष्णु ने अग्निहोत्रादि कर्मों का पोषण करते हुए पृथिव्यादि स्थानों में अपने तीन पदों से क्रमण किया। इस तरह अनेक श्रुतियों में परमात्मा के सगुण साकार रूप का वर्णन है।
विष्णु का परम पद, परम धाम दिव्य आकाश. में स्थित एवं सूर्य के समान देदीप्यमान माना गया है - 'तद् विष्यों: परमं पदं पश्यन्ति सूरयः। दिवीय चक्षुरातातम् (ऋग्वेद १/२२/२०)। विष्णु अजय गोप हैं, गोपाल हैं, रक्षक हैं और उनके गोलोक धाम में गायें हैं - 'विष्णुर्गोपा' अदाभ्यः (ऋग्वेद १/२२/१८) 'यत्रगावो भूरिश्रृंगा आयासः (ऋग्वेद १/१५). विष्णु ही श्रीकृष्ण वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए। ब्राह्मण ग्रन्थों में इन्हीं विष्णु को यज्ञ के रूप में माना गया - 'यज्ञो व विष्णु:'। तैत्तिरीयसंहिता शतपथ ब्राह्मण और ऐतरेय ब्राह्मण में इन्हें त्रिविक्रम रूप से भी प्रस्तुत किया गया है , जिनकी कथा पुराणों में वामन अवतार के रूप. में मिलती है। विष्णु के उपासक, भक्त वैष्णव. कहे जाते हैं। विष्णु को अनन्त ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य रूप 'भग' से सम्पन्न होने के कारण भगवान् या भगवत् कहा जाता है।
इस कारण वैष्णवों को भगवत् नाम से भी जाना जाता है - जो भगवत् का भक्त हो भागवत्। महाप्रभु श्रीमद् वल्लभाचार्य का कथन है कि इन्ही परमतत्त्व को वेदान्त में 'ब्रह्म'.स्मृतियों में 'परमात्मा' तथा भागवत् में 'भगवान्' कहा गया है। उनकी सुदृढ़ मान्यता है कि श्रीकृष्ण ही परब्रह्म है 'परब्रह्म तु कृष्णो हि' (सिद्धान्त मुक्तावली-३) वैष्णव धर्म भक्तिमार्ग है।
भक्ति का सम्बंध हृदय की रागात्मिक वृति से, प्रेम. से है। इसीलिए महर्षि शांडिल्य को ईश्वर के प्रति अनुरक्ति अर्थात् उत्कृष्ठ प्रेम मानते हैं और देवर्षि नारद इसे परमात्मा के प्रति परम प्रेमस्वरूपता कहते हैं। वैष्णव भक्ति का उदय और प्रसार सबसे पहले भगवान् श्रीकृष्ण की जन्मभूमि और लीलास्थली ब्रजमंडल में हुआ। तंत्रों में भगवान् श्रीकृष्ण के वंश के आधार पर ही वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरूद्ध. ये चार व्यूह माने गये हैं।
एक समय ऐसा आया था जबकि वैष्णव धर्म ही मानों राष्ट्र का धर्म बन गया था।
गुप्त नरेश अपने आपको 'परम भागवत्' कहलाकर गोरवान्वित होते थे तथा यूनानी राजदूत हेलियोडोरस (ई.पू. २००) ने भेलसा (विदिशा) में गरूड़ स्तम्भ बनवाया और वह स्वयं को गर्व के साथ 'परमभागवत्' कहता था।
पाणिनि के पूर्व भी तैत्तिरीय आरण्यक में विष्णु गायत्री में विष्णु, नारायण और वासुदेव की एकता दर्शायी गयी है -
''''<u>नारायणाय विद्मेह वायुदेवाय धीमह तन्नों विष्णु प्रचोदयात्'। </u>'''
सातवीं से चौदहवी शताब्दि के बीच दक्षिण के द्रविड क्षेत्र में अनेक आलवार भक्त हुए, जो भगवद् भक्ति में लीन रहते थे और. भगवान् वासुदेव नारायण के प्रेम, सौन्दर्य तथा आत्मसमर्पण के पदो की रचाना करके गाते थे।उनके भक्तिपदों को वेद के समान पवित्र और सम्मानित मानकर 'तमिलवेद' कहा जाने लगा था।
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देवीभागवतपुराणम् – स्कन्धः ०४ अध्याय द्वितीय-(२)
कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणम्।

सूत उवाच
एवं पृष्टः पुराणज्ञो व्यासः सत्यवतीसुतः ।
परीक्षितसुतं शान्तं ततो वै जनमेजयम् ॥१॥
सूत जी बोले – हे मुनियों पुराणवेत्ता वाणीविशारद सत्यवतीपुत्र महर्षि व्यास ने शान्त स्वभाव वाले परीक्षित्- पुत्र जनमेजय से उनके सन्देहों को दूर करने वाले वचन बोले ।।१=१/२।।
उवाच संशयच्छेत्तृ वाक्यं वाक्यविशारदः ।
व्यास उवाच !
राजन् किमेतद्वक्तव्यं कर्मणां गहना गतिः ॥२॥
दुर्ज्ञेया किल देवानां मानवानां च का कथा।
यदा समुत्थितं चैतद्ब्रह्माण्डं त्रिगुणात्मकम् ॥३॥
कर्मणैव समुत्पत्तिः सर्वेषां नात्र संशयः ।
अनादिनिधना जीवाः कर्मबीजसमुद्भवाः ॥ ४॥
नानायोनिषु जायन्ते म्रियन्ते च पुनः पुनः ।
कर्मणा रहितो देहसंयोगो न कदाचन ॥ ५ ॥
व्यास जी बोले- हे राजन इस विषय में क्या कहा जाय ! कर्मों की बड़ी गहन गति होती है। कर्मों की गति जानने में देवता भी समर्थ नहीं हैं । तो मानवों की तो बात ही क्या! जब इस त्रि गुणात्मक ब्रह्माण्ड का निर्माण हुआ उसी समय से कर्म के द्वारा सभी की उत्पत्ति होती चली आ रही है ।।
विशेष-★
( एक बार सबको एक समान स्थिति बिन्दु से गुजरना होता है - इस के पश्चात जो अपनी स्वाभिकता रूपी प्रवृत्तियों दमन कर संयम से आचरण करता उसको सद्गति और दुराचरण करता है उसको दुर्गति मिलती है।) इस विषय में कोई सन्देह नहीं है। आदि-(प्रारम्भ) और अन्त से रहित होते हुए भी समस्त जीव कर्म रूपी बीज से संसार में जनमते- मरते हैं । वे प्राणी अनेक प्रकार की योनियों( शरीरों) में बार+बार पैंदा होते और मरते हैं । कर्म से रहित जीव या देह संयोग कभी भी सम्भव नहीं है।।२-५।।
शुभाशुभैस्तथा मिश्रैः कर्मभिर्वेष्टितं त्विदम् ।
त्रिविधानि हि तान्याहुर्बुधास्तत्त्वविदश्च ये ॥ ६ ॥
सञ्चितानि भविष्यन्ति प्रारब्धानि तथा पुनः।
वर्तमानानि देहेऽस्मिंस्त्रैविध्यं कर्मणां किल ॥ ७॥
शुभ अशुभ और मिश्र - इन कर्मों से यह संसार सदैव व्याप्त रहता है। तत्वों के ज्ञाता जो विद्वान हैं उन्होंने संचित प्रारब्ध और क्रियमाण( वर्तमान में किए गये कर्म) ये तीन प्रकार के कर्म हैं। इन कर्मों का त्रैविध्य इस शरीर में अवश्य विद्यमान रहता है।६-७।।
ब्रह्मादीनां च सर्वेषां तद्वशत्वं नराधिप ।
सुखं दुःखं जरामृत्युहर्षशोकादयस्तथा ॥ ८ ॥
कामक्रोधौ च लोभश्च सर्वे देहगता गुणाः ।
दैवाधीनाश्च सर्वेषां प्रभवन्ति नराधिप ॥ ९ ॥
हे राजन् ! –ब्रह्मा आदि सभी देवता भी उस कर्म के वशवती होते हैं । सुख-दु:ख और वृद्धावस्था मृत्यु हर्ष शोक काम( स्त्री मिलन की कामना) क्रोध लोभ आदि ये सभी शारीरिक गुण हैं। हे राजन् ! ये भाग्य के अधीन होकर सभी प्राणीयों को प्राप्त होते हैं ।८-९।।
रागद्वेषादयो भावाः स्वर्गेऽपि प्रभवन्ति हि ।
देवानां मानवानाञ्च तिरश्चां च तथा पुनः ॥१०॥
विकाराः सर्व एवैते देहेन सह सङ्गताः ।
पूर्ववैरानुयोगेन स्नेहयोगेन वै पुनः ॥ ११॥
उत्पत्तिः सर्वजन्तूनां विना कर्म न विद्यते।
कर्मणा भ्रमते सूर्यः शशाङ्कः क्षयरोगवान्॥१२॥
राग-द्वेष भाव स्वर्ग में भी होते हैं ।
और इस प्रकार के भाव देवों मनुष्यों और पशु- पक्षीयों में भी विद्यमान रहते हैं ।१०।
पूर्वजन्म में किए गये वैर तथा स्नेह के कारण ये समस्त विकार सदा ही शरीर के साथ लगे रहते हैं ।११।
सभी जीवों की उत्पत्ति कर्म के विना तो हो ही नहीं सकती है। कर्म से ही सूर्य नियमित रूप से परिभ्रमण करता है।( विदित हो कि सूर्य भी आकाश गंगा का परिक्रमण करता है) चन्द्रमा क्षयरोग से ग्रस्त रहता है। १२।।
कपाली च तथा रुद्रः कर्मणैव न संशयः ।
अनादिनिधनं चैतत्कारणं कर्म विद्यते ॥१३॥
तेनेह शाश्वतं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम् ।
नित्यानित्यविचारेऽत्र निमग्ना मुनयः सदा ॥१४॥
न जानन्ति किमेतद्वै नित्यं वानित्यमेव च ।
मायायां विद्यमानायां जगन्नित्यं प्रतीयते ॥१५॥
कार्याभावः कथं वाच्यः कारणे सति सर्वथा।
माया नित्या कारणञ्च सर्वेषां सर्वदा किल ॥१६॥
कर्मबीजं ततोऽनित्यं चिन्तनीयं सदा बुधैः।
भ्रमत्येव जगत्सर्वं राजन्कर्मनियन्त्रितम् ॥१७॥
एकोहं बहुस्याम: तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति तत्तेजोऽसृजत तत्तेज ऐक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति तदपोऽसृजत । तस्माद्यत्र क्वच शोचति स्वेदते वा पुरुषस्तेजस एव तदध्यापो जायन्ते ॥
<big> ( ६.२.३ ॥छान्दोग्योपनिषद्-)</big>
मैं एक अनेक रूप में हो जाऊँ उस एक परब्रह्म ने यह संकल्प किया-।
इस पृथक करण काल अपने अस्तित्व का बोध अहंकार के रूप में उसे हुआ -( अहंकार से संकल्प उत्पन्न हुआ और इस संकल्प से इच्छा उत्पन्न हुई और यह इच्छा ही कर्म की जननी है।) संसार में सकाम( इच्छा समन्वित कर्म ही ) फल दायक होता है।
अपने कर्मो के प्रभाव से ही रूद्र को नरमुण्डों की माला धारण करनी पड़ती है। इसमें कोई सन्देह नहीं !! आदि अन्त रहित वह कर्म ही जगत की उत्पत्ति का कारण है।१३।।
स्थावर( अचल) और जंगम( चलायवान्) यह सम्पूर्ण शाश्वत जगत् उसी कर्म के प्रभाव में नियन्त्रित है। सभी मुनिगण इस कर्म मय जगत कि नित्यता और अनित्यता के विचार में सदैव डूबे रहते हैं ।।
फिर भी वे नहीं जान पाते कि यह जगत नित्य है अथवा अनित्य। जब तक माया ( अज्ञान) विद्यमान रहती है तब तक यह जगत् नित्य प्रतीत होता है।१४-१५।।
"कारण की सर्वथा सत्ता रहने पर "कार्य या अभाव कैसे कहा जा सकता है।
यह माया नित्य है और वही सर्वदा सबका कारण है।१६।।
इसलिए ही कर्म-बीज की अनित्यता पर विद्वान पुरुषों को सदैव विचार करना चाहिए!
हे राजन्! सम्पूर्ण जगत कर्म के द्वारा नियन्त्रित होकर परिवर्तित होता रहता है।१७।।
'''नानायोनिषु राजेन्द्र नानाधर्ममयेषु च।
इच्छया च भवेञ्चन्म विष्णोरमिततेजसः ॥१८॥'''
युगे युगेष्वनेकासु नीचयोनिषु तत्कथम् ।
त्यक्त्वा वैकुण्ठसंवासं सुखभोगाननेकशः ॥१९॥
विण्मूत्रमन्दिरे वासं संत्रस्तः कोऽभिवाञ्छति ।
पुष्पावचयलीलां च जलकेलिं सुखासनम् ॥ २०॥
त्यक्त्वा गर्भगृहे वासं कोऽभिवाच्छति बुद्धिमान्।
तूलिकांमृदुसंयुक्तां दिव्यां शय्यां विनिर्मिताम्।२१॥
त्यक्त्वाधोमुखवासं च कोऽभिवाञ्छति पण्डितः।
गीतं नृत्यञ्च वाद्यञ्च नानाभावसमन्वितम् ॥२२॥
मुक्त्वा को नरके वासं मनसापि विचिन्तयेत्।
सिन्धुजाद्भुतभावानांरसंत्यक्त्वासुदुस्त्वजम्।२३।
विण्मूत्ररसपानञ्ज क इच्छेन्मतिमान्नरः ।
गर्भवासात्परो नास्ति नरको भुवनत्रये ॥ २४ ॥
तद्भीताश्च प्रकुर्वन्ति मुनयो दुस्तरं तपः ।
हित्वा भोगञ्च राज्यञ्चवने यान्ति मनस्विनः।२५।
'''विशेष-★'''
विदित हो कि समय परिवर्तन का कारण है और परिवर्तन का घनीभूत व स्थूल रूप कर्म है।)
____________________
हे राजन् असीमित तेज वाले भगवान् विष्णु अपनी इच्छा से पृथ्वी पर जन्म लेने में स्वतन्त्र होते तो वे अनेक प्रकार सी योनियों मेंअनेक प्रकार धर्म कर्म के अनुसार युगों में तथा अनेक प्रकार की। निम्न योनियों में जन्म क्यों लेते ? अनेक प्रकार के सुखभोगों तथा वैकुण्ठपुरी का निवास त्याग कर मल मूत्र वाले स्थान ( उदर ) में भला कौन रहना चाहेगा? फूल चुनने की। क्रीडा जल विहार और सुख -दायक आसन का त्याग कर कौन बुद्धिमान गर्भगृह में वास करना चाहेगा ?
कोमल रुई से निर्मित गद्दे तथा दिव्य शय्या को छोड़कर गर्भ में औंधे-(ऊर्ध्व-मुख) पड़ा रहना भला कौन विद्वान पुरुष पसन्द कर सकता है ?
अनेक प्रकार के भावों से युक्त गीत वाद्य तथा नृत्य या परित्याग करके गर्भ रूपी नरक में रहने का मन में विचार तक भला कौन कर सकता है ? ऐसा कौन बुद्धिमान व्यक्ति होगा जो लक्ष्मी के अद्भुत भावों के " अत्यंत कठिनाई से त्याग करने योग्य रस को छोड़कर मलमूत्र का कीचड़ ( दूषित रस) पीने की। इच्छा करेगा।इसलिए तीनों लोकों में गर्भवास से बढ़कर नरक रूप अन्य कोई स्थल नहीं है। गर्भ वास ( जन्ममरण) से भयभीत होकर मुनि लोग कठिन तपस्या करते हैं। बड़े-बड़े मनस्वी जिस गर्भवास से डरकर राज्य और सुख कि परित्याग करके वन को चले जाते थे। ऐसा कौन मूर्ख होगा ? जो इसके सेवन की। इच्छा करेगा।।१८–२५=१/२।।
'''यद्भीतास्तु विमूढात्मा कस्तं सेवितुमिच्छति ।
गर्भे तुदन्ति कृमयो जठराग्निस्तपत्यधः ॥ २६ ॥
'''
'''वपासंवेष्टनं कूरं किं सुखं तत्र भूपते ।
वरं कारागृहे वासो बन्धनं निगडैर्वरम् ॥ २७ ॥
'''
'''अल्पमात्रं क्षणं नैव गर्भवासः क्वचिच्छुभः ।
गर्भवासे महद्दुःखं दशमासनिवासनम् ॥ २८ ॥'''
'''तथा निःसरणे दुःखं योनियन्त्रेऽतिदारुणे ।
बालभावे तदा दुःखं मूकाज्ञभावसंयुतम् ॥ २९ ॥
'''
'''क्षुतृष्णावेदनाशक्तः परतन्त्रोऽतिकातरः ।
क्षुधिते रुदिते बाले माता चिन्तातुरा तदा ॥ ३० ॥'''
'''भेषजं पातुमिच्छन्ती ज्ञात्वा व्याधिव्यथां दृढाम् ।
नानाविधानि दुःखानि बालभावे भवन्ति वै ॥३१॥
'''
'''किं सुखं विबुधा दृष्ट्वा जन्म वाञ्छन्ति चेच्छया ।
संग्रामममरैः सार्धं सुखं त्यक्त्वा निरन्तरम् ॥३२॥
कर्तुमिच्छेच्च को मूढः श्रमदं सुखनाशनम् ।
सर्वथैव नृपश्रेष्ठ सर्वे ब्रह्मादयः सुराः ॥३३॥
कृतकर्मविपाकेन प्राप्नुवन्ति सुखासुखे ।
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।
देहवद्भिर्नृभिर्देवैस्तिर्यग्भिश्च नृपोत्तम ॥३४॥
तपसा दानयज्ञैश्च मानवश्चेन्द्रतां व्रजेत् ।
क्षीणे पुण्येऽथ शक्रोऽपि पतत्येव न संशयः॥३५॥
'''
गर्भ में कीड़े काटते हैं और नीचे से जठराग्नि कराती है। हे राजन् ! उस समय शरीर में अत्यंत दुर्गन्धयुक्त मज्जा( Marrow) लगा रहता है तो फिर वह कौनसा सुख है? कारागार में रहना और बेड़ीयों में बँधे रहना अच्छा है किन्तु एक क्षण के अल्पकाल तक गर्भ में रहना कभी भी शुभ नहीं होता गर्भ वास में जीव को अत्यधिक पीड़ा होती है।
वहाँ दस महीने तक रहना पड़ता है। इसके अतिरिक्त अत्यंत दारुण( भयंकर) योनियन्त्र से बाहर आने पर महान यातना प्राप्त होती है। तत्पश्चात् बाल्यावस्था में अज्ञान का तथा बोल न पाने के कारण बहुत कष्ट प्राप्त होता है ।
दूसरे के अधीन अत्यंत भयभीत बालक भूख-और प्यास की। पीड़ा के कारण बालक कमजोर रहता है। भूखे बालकों को रोता हुआ देखकर माता ( रोने काम कारण जानने के लिए) चिन्ता ग्रस्त हो उठती है।और पुन: किसी बड़े रोगजनित कष्ट कि अनुभव करके उसे औषधि पिलाने की इच्छा करती है।
इस प्रकार बाल्यकाल में अनेक प्रकार के कष्ट प्राप्त होते हैं ।तब विवेकी पुरुष किस दु:ख को देखकर स्वयं जन्म लेने की इच्छा करते हैं।२६-३१=१/२।।
कौन ऐसा मूर्ख होगा जो देवताओं के साथ रहते हुए सुख भोग का त्याग करके श्रमपूर्ण तथा सुखनाशक युद्ध करने कि इच्छा करेगा।
हे श्रेष्ठ राजन्! ब्रह्मा आदि सभी देवता भी अपने किए हुए कर्मों के परिणाम स्वरूप दु:ख-सुख प्राप्त करते हैं। हे श्रेष्ठ राजन्! सभी देहधारी जीव चाहें वे मनुष्य देवता अथवा पशु पक्षी अपने अपने कर्मों का शुभ-अशुभ पाते हैं।।३२-३४।।
मनुष्य तप यज्ञ तथा दान के द्वारा इन्द्र पद को प्राप्त हो जाता है। और पुण्य क्षीण हो जाने पर इन्द्र कि भी स्वर्ग से पतन हो जाता है । इसमें कोई सन्देह नहीं!३५।।
_____________________

"
रामावतारयोगेन देवा वानरतां गताः ।
तथा कृष्णसहायार्थं देवा यादवतां गताः॥३६॥
एवं युगे युगे विष्णुरवताराननेकशः ।
करोति धर्मरक्षार्थं ब्रह्मणा प्रेरितो भृशम् ॥३७॥
पुनः पुनर्हरेरेवं नानायोनिषु पार्थिव ।
अवतारा भवन्त्यन्ये रथचक्रवदद्भुताः ॥३८॥
दैत्यानां हननं कर्म कर्तव्यं हरिणा स्वयम् ।
अंशांशेन पृथिव्यां वै कृत्वा जन्म महात्मना ॥३९॥
" तदहं संप्रवक्ष्यामि कृष्णजन्मकथां शुभाम्।
स एव भगवान्विष्णुरवतीर्णो यदोः कुले ॥४०॥
'''कश्यपस्य मुनेरंशो वसुदेवः प्रतापवान् ।
गोवृत्तिरभवद्राजन् पूर्वशापानुभावतः ॥४१॥'''
कश्यपस्य च द्वे पत्न्यौ शापादत्र महीपते ।
अदितिः सुरसा चैवमासतुः पृथिवीपते ॥ ४२॥
देवकी रोहिणी चोभे भगिन्यौ भरतर्षभ ।
वरुणेन महाञ्छापो दत्तः कोपादिति श्रुतम् ।४३॥ "
राजोवाच
किं कृतं कश्यपेनागो येन शप्तो महानृषिः ।
सभार्यः स कथं जातस्तद्वदस्व महामते ॥४४।
कथञ्च भगवान्विष्णुस्तत्र जातोऽस्ति गोकुले।
वासी वैकुण्ठनिलये रमापतिरखण्डितः ॥४५॥
निदेशात्कस्य भगवान्वर्तते प्रभुरव्ययः ।
नारायणः सुरश्रेष्ठो युगादिः सर्वधारकः ॥४६॥
स कथं सदनं त्यक्त्वा कर्मवानिव मानुषे।
करोति जननं कस्मादत्र मे संशयो महान् ॥४७॥
प्राप्य मानुषदेहं तु करोति च विडम्बनम् ।
भावान्नानाविधांस्तत्र मानुषे दुष्टजन्मनि॥४८।
कामः क्रोधोऽमर्षशोकौ वैरं प्रीतिश्च कर्हिचित् ।
सुखं दुःखं भयं नॄणां दैन्यमार्जवमेव च ॥४९॥
दुष्कृतं सुकृतं चैव वचनं हननं तथा ।
पोषणं चलनं तापो विमर्शश्च विकत्थनम्।५०॥
लोभो दम्भस्तथा मोहः कपटः शोचनं तथा ।
एते चान्ये तथा भावा मानुष्ये सम्भवन्ति हि ॥५१॥
स कथं भगवान्विष्णुस्त्वक्त्या सुखमनश्वरम् ।
करोति मानुषं जन्म भावैस्तैस्तैरभिद्रुतम् ॥५२॥
किं सुखं मानुषं प्राप्य भुवि जन्म मुनीश्वर ।
किं निमित्तं हरिः साक्षाद्गर्भवासं करोति वै ॥५३॥
गर्भदुःखं जन्मदुःखं बालभावे तथा पुनः ।
यौवने कामजं दुःखं गार्हस्त्येऽतिमहत्तरम् ॥ ५४ ।
दुःखान्येतान्यवाप्नोति मानुषे द्विजसत्तम ।
कथं स भगवान्विष्णुरवतारान्पुनः पुनः।५५।
प्राप्य रामावतारं हि हरिणा ब्रह्मयोनिना ।
दुःखं महत्तरं प्राप्तं वनवासेऽतिदारुणे ॥ ५६ ॥
सीताविरहजं दुःखं संग्रामश्च पुनः पुनः ।
कान्तात्यागोऽप्यनेनैवमनुभूतो महात्मना।५७।
तथा कृष्णावतारेऽपि जन्म रक्षागृहे पुनः ।
गोकुले गमनं चैव गवां चारणमित्युत ॥ ५८ ॥
कंसस्य हननं कष्टाद् द्वारकागमनं पुनः ।
नानासंसारदुःखानि भुक्तवान्भगवान् कथम् ॥५९॥
स्वेच्छया कः प्रतीक्षेत मुक्तो दुःखानि ज्ञानवान्।
संशयं छिन्धि सर्वज्ञ मम चित्तप्रशान्तये ॥ ६०॥
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<small><big>इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां ॥ चतुर्थस्कन्धे कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणं नाम द्वितीयोऽध्यायः॥ २॥</big></small>
_____________________
रामावतार के समय देवता कर्म बन्धन के कारण वानर. बन्दर/ वन के नर बने और कृष्णावतार में कृष्ण की सहायता के लिए देवता यादव बने थे।★३६।।
इस प्रकार प्रत्येक युग में धर्म सी रक्षा के लिए भगवान् विष्णु ब्रह्मा जी अत्यंत प्रेरित होकर अनेक अवतार धारण करते हैं।।३७।।
हे राजन् ! इस प्रकार रथ चक्र की भाँति विविध प्रकार की योनियों में भगवान् विष्णु के अद्भुत अवतार बार-बार होते रहते हैं।३८।।
महात्मा भगवान विष्णु अपने अंशांश से पृथ्वी पक अवतार ग्रहण करके दैत्यों या वध रूपी कार्य सम्पन्न करते हैं।
इसलिए अब मैं यहाँ श्रीकृष्ण के जन्म कि पवित्र कथा मैं कह रहा हूँ; वे साक्षात् विष्णु ही यदुवंश में अवतरित हुए थे।३९-४०।।
हे राजन् ! कश्यप जी के अंश से प्रतापी वसुदेव जी उत्पन्न हुए थे। जिन्होंने पूर्वजन्म के शापवश इस जन्म में गोप बनकर गोपालन का कार्य किया।४१।।★-
हे राजन् हे पृथ्वीपति ! उन्हीं कश्यप मुनि की दो पत्नियाँ अदित और सुरसा ने भी शाप वश पृथ्वी पर अवतार ग्रहण किया । हे भरत श्रेष्ठ! उन दौनों ने देवकी और रोहिणी नामक बहिनों के रूप में जन्म लिया। मैंने यह सुना है कि क्रुद्ध होकर वरुण ने ही उन्हें यह शाप दिया था।।४२-४३।।
राजा बोला! हे महामते! महर्षि कश्यप ने ऐसा कौनसा अपराध किया था। जिस कारण उन्हें स्त्रीयों सहित शाप मिला था।मुझे यह बताइए!४४।।
वैकुण्ठवासी अविनाशी रमापति भगवान् विष्णु को गोपकुल ( गोकुल) में क्यों अवतार लेना पड़ा?।। ४५।।
भगवान विष्णु मानव शरीर धारण करके इस हीन मनुष्य शरीर में अनेक प्रकार की। लीलाऐं दिखाते हुए। और अनेक प्रपञ्च क्यों करते हैं?
काम- क्रोध अमर्ष शोक वैर प्रेम दु:ख-सुख भय दीनता सरलता पाप पुण्य वचन मारण पोषण चलन ताप विमर्श ताप आत्मश्लाघा लोभ दम्भ मोह कपट चिन्ता– ये तथा अन्य नाना प्रकार के भाव मनुष्य -जन्म में विद्यमान रहते हैं।४९-५१।।
वे भगवान विष्णु शाश्वत सुख या त्याग करके इन भावों से ग्रस्त मनुष्य जन्म धारण किस लिए करते हैं।
हे मुनीश्वर इस पृथ्वी पर मानव जन्म पाकर कौन सा अक्षय सुख प्राप्त होता है। वे साक्षात् - विष्णु किस कारण गर्भवास करते हैं ?।५२-५३।।
गर्भवास में दु:ख जन्म ग्रहण में दुःख बाल्यावस्था में दुःख यौवनावस्था में कामवासना जनित दुःख और गृहस्थ जीवन में तो बहुत बड़ा दुःख होता है।५४।।
हे विप्र अनेक कष्ट मानव जीवन में प्राप्त होते हैं। तो वे भगवान विष्णु अवतार क्यों लेते हैं पृथ्वी पर।५५।।
ब्रह्म योनि भगवान विष्णु को रामावतार ग्रहण करते हुए अत्यंत दारुण वनवास काल में घोर कष्ट प्राप्त हुआ था। उन्हें माता सीता वियोग से उत्पन्न महान कष्ट हुआ था। तथा अनेक बार राक्षसों से युद्ध करना पड़ा अन्त में महान आभा वाले उन श्री राम को पत्नी आ त्याग कि असीम वेदना भी साहनी पड़ी।।५६-५७।।
उसी प्रकार कृष्णावतार में भी बन्धीग्रह में जन्म गोकुल गमन गोचारण कंस वध और पुन: कष्ट पूर्वक द्वारिका के लिए प्रस्थान -इन अनेक विधि सांसारिक कष्टों को भगवान कृष्ण ने क्यों भोगा ?।।५८-५९।।
ऐसा कौन ज्ञानी व्यक्ति होगा जो मुक्त होता हुआ भी स्वेच्छा से इन दु:खों की प्रतीक्षा करेगा? हे सर्वज्ञ मेरे मन की। शान्ति के लिए इस सन्देह का निवारण कीजिए!!।।६०।।
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<big>इस प्रकार देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के द्वितीय अध्याय का समापन।।</big>
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[[File:Gayatri_mata.jpg|220x124px|thumb|right]]
{{Infobox deity
| name = श्री गायत्री देवी
===यह भी देखे===
[[गायत्री मन्त्र|गायत्री मंत्र]]




पद्मपुराण के सृष्टिखण्ड में सत्युग से ही अहीर जाति का अस्तित्व है ।
जिसमें गायत्री नामक वैष्णवी शक्ति का अवतरण होता है ।
जो ब्रह्मा के यज्ञकार्य के लिए उनकी पत्नी के रूप में उपस्थित होती हैं।
पद्म पुराण को निम्न श्लोक ही इनकी प्राचीनता और महानता को साक्ष्य हैं ।
धर्मवंतं सदाचारं भवंतं धर्मवत्सलम्
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचये।१५।
अनया गायत्र्या तारितो गच्छ युवां भो आभीरा दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नंदप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद -
विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है ।
हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तु सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल को अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों को कार्य री सिद्धि को लिए मैं अवतरण करुँगा और वहीं मेरी लीला( क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का का अवतरण होगा।
वैष्णव ही इन अहीरों का इनका वर्ण है ।
विष्णु" एक मत्स्य मानव के रूप में जो सुमेरियन और हिब्रू संस्कृतियों में भी वर्णित देवता है।
विष्णु का गोप के रूप में वेदों में वर्णन है।
वही विष्णु अहीरों में जन्म लेता है ।
औरअहीर शब्द ही वीर शब्द का रूपान्तरण है।
विदित हो की "आभीर शब्द अभीर का समूह वाची रूप है। परन्तु परवर्ती शब्द कोश कारों ने दोनों शब्दों को पृथक मानकर इनकी व्युत्पत्ति भी पृथक ही क्रमश: १- आ=समन्तात्+ भी=भीयं(भयम्)+ र=राति ददाति शत्रुणां हृत्सु = जो चारो तरफ से शत्रुओं को हृदय नें भय उत्पन्न करता है
- यह उत्पत्ति अमरसिंह को शब्द कोश अमर कोश पर आधारित है ।
अमर सिंह को परवर्ती शब्द कोश कार
२-तारानाथ वाचस्पत्यम् ने अभीर -शब्द की व्युत्पत्ति अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर के रूप में की अमर सिंह कि व्युत्पत्ति अहीरों की वीरता प्रवृत्ति (aptitude ) को अभिव्यक्त करती है ।तो तारानाथ वाचस्पति की व्युत्पत्ति अहीरों कि गोपालन वृत्ति अथवा ( व्यवसाय( profation) को अभिव्यक्त करती है ।
क्योंकि
अहीर "वीर" चरावाहे थे !
अहीर शब्द हिब्रू बाइबिल के जेनेसिस खण्ड में अबीर" शब्द के रूप में ईश्वर के पाँच नामों में से एक है।
और यहूदियों का पूर्व और अपर एक कबीला जो मार्शल आर्ट का विशेषज्ञ माना जाता है अबीर कहलाता था ।
हिब्रू भाषा नें अबीर का अर्थ शक्तिशाली से है
क्योंकि अबीर का मूल रूप "बर / बीर" है ।
भारोपीय भाषाओं में वीर का सम्प्रसारण( आर्य) हो जाता है ।
अत: आर्य शब्द ऋग्वेद तथा पाणिनीय कालीन भाषाओं में कृषक का वाचक रहा है ।
चरावाहों ने ही कृषि का आविष्कार किया और ये ग्रामीण संस्कृति ये सूत्रधार थे।
अत: वीर शब्द से ही आवीर/आभीर का विकास हुआ।
अहीर एक प्राचीनतम जनजाति है ।
__________________________________
प्रस्तुति करण:- यादव योगेश कुमार रोहि"
अहीर जाति के प्राचीनतम सतयुग कालीन पौराणिक दस्तावेज़-
प्रस्तुति करण:- यादव योगेश कुमार रोहि-
★_________________________★
अहीर जाति की प्राचीनता और महानता के पौराणिक दस्तावेज़- जिसमें कालान्तर में यदुवंश का प्रादुर्भाव हुआ- आज हम कई भारतीय प्राचीन शास्त्रों से सन्दर्भित कर रहे हैं ।
सेमेटिक पुरा कथाओं में जिस प्रकार यहुदह् ( यदु:)- यहूदियों के पूर्वज के पिता याकूव/ जैकव को अबीर नाम से वर्णन किया गया है। हिब्रू बाइबिल को जैनेसिस खण्ड में -जो की ईश्वर का एक नाम है।
ठीक उसी प्रकार सबसे पुराने पौराणिक दस्तावेज़ पद्मपुराण में अहीर जाति में ही अत्रि से लेकर पुरुरवा, आयुस्, नहुष , ययाति तथा उनके बाद के यदु: और तुर्वसु को भी दर्शाया गया है।
अब कुछ लोग प्रश्न कर सकते हैं कि क्या अहीर शब्द यादव शब्द से पूर्व है?
तो हमारा उत्तर होगा हाँ√
क्योंकि सत् युग में जब एक समय ब्रह्मा पुष्कर क्षेत्र में यज्ञ करते हैं तो ब्रह्मा की।
पत्नी सावित्री के मुहूर्त काल में यज्ञार्थ उपस्थित न होने पर ब्रह्माजी यज्ञ कराने वाले ऋषियों की। प्रेरणा से यज्ञार्थ पत्नी लाने को लिए पृथ्वी पर इन्द्र को भेजते हैं।
तब भगवान विष्णु कि कृपा से वैष्णवी शक्ति गायत्री एक अहीर कन्या को रूप में दधि और छाछ लाते हुए इन्द्र को प्राप्त होती हैं ।
तब विष्णु उसके दत्ता( कन्यादान करने वाले )बनकर ब्रह्मा को पत्नी रूप में देते हैं ।
परन्तु जब सावित्री यज्ञ स्थल पर ब्रह्मा को साथ गायत्री को देखती हैं तो वे क्रमश: ब्रह्मा के दे वित्तीय विवाह को लिए जिम्मेदार सभी देवताओं देवीयों और ऋषियों तथा ब्रह्मा विष्णु और शंकर को भी शाप देती हैं ।
परन्तु गायत्री द्वारा दिए गये शाप को वरदान में बदल कर सावित्री से स्वयं को सर्वोपरि सिद्ध कर देती हैं ।
इसी प्रसंग जब सावित्री इन्द्र सी पत्नी शचि को नहुष द्वारा अधिग्रहित करने का शाप देती है ।
तब नहुष कि उपस्थिति ययाति और यदु से पूर्व होने के कारण अहीर की स्थिति होती है ।
पुरुरवा के आयुष और आयुष के नहुष हुए-
नहुष की कथा पुराणों में चन्द्रवंशी राजा के रूप में है ।
महाभारत में इसे चंद्रवंशी आयुष राजा का पुत्र माना जाता है।
विशेष—पुराणानुसार यह बडा़ प्रतापी राजा था। जब इंद्र ने वृत्रासुर को मारा था उस समय इंद्र को ब्रह्महत्या लगी थी।
उसके भय से इंद्र १००० वर्ष तक कमलनाल में छिपकर रहा था।
उस समय इंद्रासन शून्य देख गुरु बृहस्पति ने इसको योग्य जान कुछ दिनों के लिये इंद्र पद दिया था।
उस अवसर पर इंद्राणी पर मोहित होकर इसने उसे अपने पास बुलाना चाहा।
तब बृहस्पति की सम्मति से इंद्राणी ने कहला दिया कि 'पालकी पर बैठकर सप्तर्षियों के कंधे पर हमारे यहाँ आओ तब हम तुम्हारे साथ चलें'।
यह सुन राजा ने तदनुसार ही कार्य किया और घबराहट में आकर सप्तर्षियों से कहा—सर्प सर्प (जल्दी चलो), इसपर अगस्त्य मुनि ने शाप दे दिया कि 'जा, सर्प हो जा'।
तब वह वहाँ से पतित होकर बहुत दिनों तक सर्प योनि में रहा।
महाभारत में लिखा है कि पाँडव लोग जब द्वैतवन में रहत थे तब एक बार भीम शिकार खेलने गए थे। उस समय उन्हें एक बहुत बडे़ साँप ने पक़ड लिया। जब उनके लौटने में देर हुई तब युधिष्ठिर उन्हें ढूँढ़ने निकले।
एक स्थान पर उन्होंने देखा कि एक बडा़ साँप भीम को पकडे़ हुए हैं।
उनके पूछने पर साँप ने कहा कि मैं महाप्रतापी राजा नहुष हूँ; ब्रह्मर्षि, देवता, राक्षस और पन्नग आदि मुझे कर ( tex)देते थे।
ब्रह्मर्षि लोग मेरी पालकी उठाकर चला करते थे। एक बार अगस्त्य मुनि मेरी पालकी उठाए हुए थे, उस समय मेरा पैर उन्हें लग गया जिससे उन्होंने मुझे शाप दिया कि जाओ, तुम साँप हो जाओ।
मेरे बहुत प्रार्थना करने पर उन्होंने कहा कि इस योनि से राजा युधिष्ठिर तुम्हें मुक्त करेंगे।
इसके बाद उसने युधिष्टिर से अनेक प्रश्न भी किए थे जिनका उन्होंने यथेष्ट उत्तर दिया था।
इसके उपरांत साँप ने भीम को छोड़ दिया और दिव्य शरीर धारण करके स्वर्ग को प्रस्थान किया।
ये कथाऐं प्रागैतिहासिक होने से मिथकीय रूप में परिवर्तित होकर आज तक संस्कृतियों का अंग हैं।
अत: आभीर ( अहीर) शब्द की अवधारणा यादव शब्द से भी पूर्व की है यह एक जनजातीय का वाचक है ।
जिसमें यदुवंश का प्रादुर्भाव होता है ।
और उसी यदुवंश में वृष्णिकुल का प्रादुर्भाव जिसमें कृष्ण का जन्म होता है।
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परन्तु आज कुछ लोग जिन्हें न तो भाषाविज्ञान सा बोध है न ही इतिहास का वे अहीर शब्द की नयी नयी काल्पनिक व्युत्पति कर देते हैं ।
हमारे समाज और देश में बड़े बड़े अनुसन्धान कर्ता हुए हैं।
अभी अभी एक शूद्र वादी विचारधारा के पोषक विद्वान लेखक "राकेश यादव जी" ने 'अहीर शब्द की कुण्डली को खोज कर इसकी व्युत्पत्ति की नयी थ्योरी ईजाद की है।
उनके अनुसार अहीर शब्द वर्हि: शब्द का रूपान्तरण है।
न कि आभीर शब्द का
परन्तु लेखक ने संस्कृत से अनभिज्ञ होने के कारण वर्हि; शब्द का अर्थ केवल मोर को ही माना हैं। जबकि वर्हि: का अर्थ मुर्गा भी होता है ।
("वर्हमस्य+ इन) -व्युपत्ति से जिसके वर्हम ( पूँछ-पंख हो वह वर्हिण- या वर्हि: होने से मयूर तथा मुर्गा का वाचक है ।
यद्यपि अहीर लोग मोर अथवा मुर्गा तो नहीं पालते थे जिन्हें वर्हि से सम्बद्ध किया जाए।
परन्तु मोर पंख का मुकुट अहीर जाति में उत्पन्न यादवों के तत्कालिक नायक श्रीकृष्ण अवश्य धारण करते थे ।
मयूर पालना गुप्त काल में मगध के मौर्यों का कार्य रहा है ।
विदित हो कि ब्राह्मणीय-
वर्ण-व्यवस्था में यादवों अथवा अहीर जाति को समाहित नहीं किया जा सकता है।
क्यों कि जब वर्ण-व्यवस्था की अवधारणा भी नहीं थी तब भी अहीर जाति थी।
क्यों कि अहीर जाति में ईश्वरीय विभूतियों के रूप में अनेक वैष्णवी शक्तियों ने अवतरण किया है।
आभीर जाति के नायक / नायिका "गायत्री "दुर्गा "राधा और विन्ध्याचल वासिनी तथा कृष्ण और बलराम आदि के रूप में गोप लीला करते हुए भी भागवत धर्म का द्वार समस्त शूद्र और स्त्रीयों के लिए खोल देते हैं ।
गोप अहीरों के द्वारा नारायणी सेना बना कर दुष्टों का संहार कर देते हैं ।
युद्ध- भूमि में कृष्ण सूत बनकर रथ भी हाँकते हैं।
और युधिष्ठिर के राजसूय-यज्ञ में शूद्र बनकर उच्छिष्ट ( झूँठी) पत्तर भी कृष्ण उठाते हैं।
और वैश्यवृत्ति समझी जाने वाले कार्य कृषि-और गोपालन करने वाले होकर गायें भी चराते हैं ।
फिर अहीरों के लिए वर्ण- व्यवस्था के क्या मायने हैं ? अहीर हिन्दु नहीं हैं क्योंकि हिन्दुत्व में बनिया ब्राह्मण और ठाकुर या राजपूत समझे जाने वाले लोग श्रीराम के नाम पर भगवा के बैनर तले एक जुट हैं ।
अहीर भागवत हैं सात्वत हैं ।
जिसे मनु स्मृति कार ने पूर्वदुराग्रह वश शूद्र बनाने की कोशिश की है।
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वैश्यात्तु जायते व्रात्यात्सुधन्वाचार्य एव च।
कारुषश्च विजन्मा च मैत्रः सात्वत एव च॥10.23॥
(मनुस्मृति-)
वैश्य वर्ण के व्रात्य से स्वजातीय स्त्री से उत्पन्न पुत्र को सुधन्वाचार्य, कारुष्य, विजन्मा, मैत्र और सात्वत कहते हैं।
जबकि पुराणों के अनुसार सात्वत यादवों का वह समुदाय है जिसने भागवत धर्म का प्रतिपादन किया।
मनुस्मृतिकार ने तो अहीर जाति को ही वर्णसंकर बनाकर निम्नरूप में वर्णन किया है।
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ब्राह्मणादुग्रकन्यायामावृतो नाम जायते।
आभीरोऽम्बष्ठकन्यायामायोगव्यां तु धिग्वणः॥
[मनु स्मृति 10.15]
उग्र कन्या (क्षत्रिय से शूद्रा में उत्पन्न कन्या को उग्रा कहते हैं) में ब्राह्मण से उत्पन्न बालक को आवृत, अम्बष्ठ (ब्राह्मण से वैश्य स्त्री से उत्पन्न कन्या) कन्या में ब्राह्मण से उत्पन्न पुत्र आभीर और आयोगवी कन्या (शूद्र से वैश्य स्त्री से उत्पन्न कन्या) से उत्पन्न पुत्र को धिग्व्रण
पद्मपुराण के सृष्टिखण्ड में सत्युग में ही अहीर जाति का अस्तित्व है ।
जिसमें गायत्री नामक वैष्णवी शक्ति का अवतरण होता है ।
जो ब्रह्मा के यज्ञकार्य के लिए उनकी पत्नी के रूप में उपस्थित होती हैं।
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धर्मवंतं सदाचारं भवंतं धर्मवत्सलम्
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचये।१५।
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अनया (गायत्र्या) तारितो गच्छ (युवां भो आभीरा) दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नंदप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद -
विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है ।
हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तु सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल को अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों को कार्य री सिद्धि को लिए मैं अवतरण करुँगा और वहीं मेरी लीला( क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का का अवतरण होगा।
वैष्णव ही इन अहीरों का इनका वर्ण है ।
विष्णु" एक मत्स्य मानव के रूप में जो सुमेरियन और हिब्रू संस्कृतियों में भी वर्णित देवता है।
विष्णु का गोप के रूप में वेदों में वर्णन है।
वही विष्णु अहीरों में जन्म लेता है । और
अहीर शब्द ही वीर शब्द का रूपान्तरण है।
विदित हो की "आभीर शब्द अभीर का समूह वाची रूप है।
परन्तु परवर्ती शब्द कोश कारों ने दोनों शब्दों को पृथक मानकर इनकी व्युत्पत्ति भी पृथक ही क्रमश:
१- आ=समन्तात्+ भी=भीयं(भयम्)+ र=राति ददाति शत्रुणां हृत्सु = जो चारो तरफ से शत्रुओं को हृदय नें भय उत्पन्न करता है
- यह उत्पत्ति अमरसिंह को शब्द कोश अमर कोश पर आधारित है ।
अमर सिंह को परवर्ती शब्द कोश कार
२-तारानाथ वाचस्पत्यम् ने अभीर -शब्द की व्युत्पत्ति अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर के रूप में की अमर सिंह कि व्युत्पत्ति अहीरों की वीरता प्रवृत्ति (aptitude ) को अभिव्यक्त करती है ।
तो तारानाथ वाचस्पति की व्युत्पत्ति अहीरों कि गोपालन वृत्ति अथवा ( व्यवसाय( profation) को अभिव्यक्त करती है ।
क्योंकि अहीर "वीर" चरावाहे थे !
अहीर शब्द हिब्रू बाइबिल के जेनेसिस खण्ड में अबीर" शब्द के रूप में ईश्वर के पाँच नामों में से एक है।
और यहूदियों का पूर्व और अपर एक कबीला जो मार्शल आर्ट का विशेषज्ञ माना जाता है अबीर कहलाता था ।
हिब्रू भाषा नें अबीर का अर्थ शक्तिशाली से है
क्योंकि अबीर का मूल रूप "बर / बीर" है ।
भारोपीय भाषाओं में वीर का सम्प्रसारण( आर्य) हो जाता है ।
अत: आर्य शब्द ऋग्वेद तथा पाणिनीय कालीन भाषाओं में कृषक का वाचक रहा है ।
चरावाहों ने ही कृषि का आविष्कार किया और ये ग्रामीण संस्कृति ये सूत्रधार थे।
अत: वीर शब्द से ही आवीर/आभीर का विकास हुआ।
अहीर एक प्राचीनतम जनजाति है ।
जो अफ्रीका कि अफर" जाति थी जिसका प्रारम्भिक रूप मध्य अफ्रीका को जिम्बाब्वे नें था।
तुर्कमेनिस्तान तथा अजरबैजान में यही लोग "अवर" और आयवेरिया में आयवरी रूप में और- ग्रीक में अफोर- आदि नामों से विद्यमान थी ।
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प्राचीनतम पुराण "पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड में अहीर जाति का उल्लेख "धर्मवत्सल और सदाचरणपरायण के रूप में हुआ है ।
जिसमें वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री का जन्म होता है ;जो सावित्री द्वारा सभी देवताओं को दिए गये शाप को वरदान में बदल देती हैं।
इसी अहीर जाति में द्वापर में चलकर यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि-कुल में कृष्ण का जन्म होता है ।
अत: ययाति के पूर्व पुरुषों की जाति भी अहीर ही सिद्ध होती है परन्तु यदु ने ही गोपालन वृत्ति द्वारा अहीर जाति को अन्य मानवीय जातियों से भिन्न बनाये रखा।
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और अहीर शब्द केवल यदुवंशीयों को ही रूढ़ हो गया।
अहीर जाति में गायत्री का जब जन्म हुआ था तब पुरुरवा आयुष
नहुष' और ययाति आदि का नाम नहीं था।
तुर्वसु के वंशज तुर्की जिनमें "अवर" जाति है है ।
वही अहीर जाति का ही रूप है।
वर्तमान में इतना ही जानना काफी है कि जो अहीर है वही यादव हो सकता है ।
अहीरों में गोत्र की कोई मान्यता नहीं है।
और अहीर कभी गोत्रवाद में आस्था नहीं रखते हैं
पद्मपुराण का यह श्लोक ही इस बात को प्रमाणित कर देता है ।
गोत्र की अवधारणा-
पद्मपुराण, स्कन्दपुराण, तथा नान्दी उपपुराण तथा लक्ष्मीनारयणसंहिता आदि के अनुसार ब्रह्मा जी की एक पत्नी गायत्री देवी भी हैं,।
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यद्यपि गायत्री वैष्णवी शक्ति का अवतार हैं ।
दुर्गा भी इन्हीं का रूप है जब ये नन्द की पुत्र बनती हैं तब इनका नाम यदुवंश समुद्भवा भी होता है ।।
पुराणों के ही अनुसार ब्रह्मा जी ने एक और स्त्री से विवाह किया था जिनका नाम माँ सावित्री है।
इतिहास अनुसार यह गायत्री देवी राजस्थान के पुष्कर की रहने वाली थी जो वेदज्ञान में पारंगत होने के कारण महान मानी जाती थीं।
कहा जाता है एक बार पुष्कर में ब्रह्माजी को एक यज्ञ करना था और उस समय उनकी पत्नीं सावित्री उनके साथ नहीं थी तो उन्होंने गायत्री से विवाह कर यज्ञ संपन्न किया।
लेकिन बाद में जब सावित्री को पता चला तो उन्होंने सभी देवताओं सहित ब्रह्माजी को भी शाप दे दिया।
तब उस शाप का निवारण भी आभीर कन्या गायत्री ने ही किया जो ब्रह्मा जी की द्वितीय पत्नी थी।
स्वयं ब्रह्मा को सावित्री द्वारा दिए गये शाप को गायत्री ने वरदान में बदल दिया।
तब अहीरों में कोई गोत्र या प्रवर नहीं था ।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रह में गायत्री यदुवंश समुद्भवा के रूप में- नन्द की पुत्री हैं।
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पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रहवाँ -
*-भीष्म उवाच–
तस्मिन्यज्ञे किमाश्चर्यं तदासीद्द्विजसत्तम
कथं रुद्रः स्थितस्तत्र विष्णुश्चापि सुरोत्त्तमः।१।___________
गायत्र्या किं कृतं तत्र पत्नीत्वे स्थितया तया
आभीरैः किं सुवृत्तज्ञैर्ज्ञात्वा तैश्च कृतं मुने।२।
एतद्वृत्तं समाचक्ष्व यथावृत्तं यथाकृतम्
आभीरैर्ब्रह्मणा चापि ममैतत्कौतुकं महत्।३।
*-पुलस्त्य उवाच–
तस्मिन्यज्ञे यदाश्चर्यं वृत्तमासीन्नराधिप
कथयिष्यामि तत्सर्वं शृणुष्वैकमना नृृप।४।
रुद्रस्तु महदाश्चर्यं कृतवान्वै सदो गतः
निंद्यरूपधरो देवस्तत्रायाद्द्विजसन्निधौ।५।
विष्णुना न कृतं किंचित्प्राधान्ये स यतः स्थितः
नाशं तु गोपकन्याया ज्ञात्वा गोपकुमारकाः।६।
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गोप्यश्च तास्तथा सर्वा आगता ब्रह्मणोंतिकम्
दृष्ट्वा तां मेखलाबद्धां यज्ञसीमव्यस्थिताम्।७।
हा पुत्रीति तदा माता पिता हा पुत्रिकेति च
स्वसेति बान्धवाः सर्वे सख्यः सख्येन हा सखि।८।
केन त्वमिह चानीता अलक्तांका तु संदरी
शाटीं निवृत्तां कृत्वा तु केन युक्ता च कंबली।९।
केन चेयं जटा पुत्रि रक्तसूत्रावकल्पिता
एवंविधानि वाक्यानि श्रुत्वोवाच स्वयं हरिः।१०।
इह चास्माभिरानीता पत्न्यर्थं विनियोजिता
ब्रह्मणालंबिता बाला प्रलापं मा कृथास्त्विह।११।
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पुण्या चैषा सुभाग्या च सर्वेषां कुलनंदिनी
पुण्या चेन्न भवत्येषा कथमागच्छते सदः।१२।
एवं ज्ञात्वा महाभाग न त्वं शोचितुमर्हसि
कन्यैषा ते महाभागा प्राप्ता देवं विरिंचनम्।१३।
योगिनो योगयुक्ता ये ब्राह्मणा वेदपारगाः
न लभंते प्रार्थयन्तस्तां गतिं दुहिता गता।१४।
धर्मवंतं सदाचारं भवंतं धर्मवत्सलम्
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचयेे।१५।
अनया( गायत्र्या) तारितो गच्छ (युवां भो आभीरा:) दिव्यान्लोकान्महोदयान्
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
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अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
करिष्यंति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यंति मया सह।१८।
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तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः
करिष्यंति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९।
न चास्या भविता दोषः कर्मणानेन कर्हिचित्
श्रुत्वा वाक्यं तदा विष्णोः प्रणिपत्य ययुस्तदा।२०।
एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे
अवतारः कुलेस्माकं कर्तव्यो धर्मसाधनः।२१।
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भवतो दर्शनादेव भवामः स्वर्गवासिनः
शुभदा कन्यका चैषा तारिणी मे कुलैः सह।२२।
एवं भवतु देवेश वरदानं विभो तव
अनुनीतास्तदा गोपाः स्वयं देवेन विष्णुना।२३।
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ब्रह्मणाप्येवमेवं तु वामहस्तेन भाषितम्
त्रपान्विता दर्शने तु बंधूनां वरवर्णिनी।२४।
कैरहं तु समाख्याता येनेमं देशमागताः
दृष्ट्वा तु तांस्ततः प्राह गायत्री गोपकन्यका।२५।
वामहस्तेन तान्सर्वान्प्राणिपातपुरःसरम्
अत्र चाहं स्थिता मातर्ब्रह्माणं समुपागता।२६।
भर्ता लब्धो मया देवः सर्वस्याद्यो जगत्पतिः
नाहं शोच्या भवत्या तु न पित्रा न च बांधवैः।२७।
सखीगणश्च मे यातु भगिन्यो दारकैः सह
सर्वेषां कुशलं वाच्यं स्थितास्मि सह दैवतैः।२८।
गतेषु तेषु सर्वेषु गायत्री सा सुमध्यमा
ब्रह्मणा सहिता रेजे यज्ञवाटं गता सती।२९।
याचितो ब्राह्मणैर्ब्रह्मा वरान्नो देहि चेप्सितान्
यथेप्सितं वरं तेषां तदा ब्रह्माप्ययच्छत।३०।
तया देव्या च गायत्र्या दत्तं तच्चानुमोदितम्
सा तु यज्ञे स्थिता साध्वी देवतानां समीपगा।३१।
दिव्यंवर्षशतं साग्रं स यज्ञो ववृधे तदा
यज्ञवाटं कपर्दी तु भिक्षार्थं समुपागतः।३२।
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बृहत्कपालं संगृह्य पंचमुण्डैरलंकृतः
ऋत्विग्भिश्च सदस्यैश्च दूरात्तिष्ठन्जुगुप्सितः३३
ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन महाभारत शान्ति पर्व के ‘मोक्षधर्म पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 208 के अनुसार इस प्रकार है ।
ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन इस प्रकार है।
- भीष्म द्वारा ब्रह्मा के पुत्र का वर्णन युधिष्ठिर ने पूछा– भरतश्रेष्ठ! पूर्वकाल में कौन कौन से लोग प्रजापति थे और प्रत्येक दिशा में किन-किन महाभाग महर्षियों की स्थिति मानी गयी है। भीष्म जी ने कहा–
भरतश्रेष्ठ! इस जगत में जो प्रजापति रहे हैं तथा सम्पूर्ण दिशाओं में जिन-जिन ऋषियों की स्थिति मानी गयी है, उन सबको जिनके विषय में तुम मुझसे पूछते हो; मैं बताता हूँ, सुनो।
एकमात्र सनातन भगवान स्वयम्भू ब्रह्मा सबके आदि हैं।
स्वयम्भू ब्रह्मा के सात महात्मा पुत्र बताये गये हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु तथा महाभाग वसिष्ठ।
ये सभी स्वयम्भू ब्रह्मा के समान ही शक्तिशाली हैं। पुराण में ये साम ब्रह्मा निश्चित किये गये हैं। अब मैं समस्त प्रजापतियों का वर्णन आरम्भ करता हूँ।
अत्रिकुल मे उत्पन्न जो सनातन ब्रह्मयोनि भगवान प्राचीन बर्हि हैं, उनसे प्रचेता नाम वाले दस प्रजापति उत्पन्न हूँ।
पुराणानुसार पृथु के परपोते ओर प्राचीनवर्हि के दस पुत्र जिन्होंने दस हजार वर्ष तक समुद्र के भीतर रहकर कठिन तपस्या की और विष्णु से प्रजासृष्टि का वर पाया था।
दक्ष उन्हीं के पुत्र थे।
उन दसों के एकमात्र पुत्र दक्ष नाम से प्रसिद्ध प्रजापति हैं।
उनके दो नाम बताये जाते है – ‘दक्ष’ और ‘क’ मरीचि के पुत्र जो कश्यप है, उनके भी दो नाम माने गये हैं।
कुछ लोग उन्हें अरिष्टनेमि कहते हैं और दूसरे लोग उन्हें कश्यप के नाम से जानते हैं।
अत्रि के औरस पुत्र श्रीमान और बलवान राजा सोम हुए, जिन्होंने सहस्त्र दिव्य युगों तक भगवान की उपासना की थी।
प्रभो ! भगवान अर्यमा और उनके सभी पुत्र-ये प्रदेश (आदेश देनेवाले शासक) तथा प्रभावन (उत्तम स्रष्टा) कहे गये हैं।
धर्म से विचलित न होने वाले युधिष्ठिर! शशबिन्दु के दस हजार स्त्रियाँ थी।
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अत्रि ऋषि की उत्पत्ति-
अथाभिध्यायतः सर्गं दश पुत्राः प्रजज्ञिरे ।
भगवत् शक्तियुक्तस्य लोकसन्तानहेतवः ॥२१॥
मरीचिरत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः ।
भृगुर्वसिष्ठो दक्षश्च दशमस्तत्र नारदः ॥ २२ ॥
उत्सङ्गान्नारदो जज्ञे दक्षोऽङ्गुष्ठात्स्वयम्भुवः ।
प्राणाद्वसिष्ठः सञ्जातो भृगुस्त्वचि करात्क्रतुः।२३।
पुलहो नाभितो जज्ञे पुलस्त्यः कर्णयोः ऋषिः ।
अङ्गिरा मुखतोऽक्ष्णोऽत्रिः मरीचिर्मनसोऽभवत् ॥ २४ ॥
धर्मः स्तनाद् दक्षिणतो यत्र नारायणः स्वयम् ।
अधर्मः पृष्ठतो यस्मात् मृत्युर्लोकभयङ्करः।२५॥
हृदि कामो भ्रुवः क्रोधो लोभश्चाधरदच्छदात् ।
आस्याद् वाक्सिन्धवो मेढ्रान् निर्ऋतिः पायोरघाश्रयः ॥ २६ ॥
छायायाः कर्दमो जज्ञे देवहूत्याः पतिः प्रभुः ।
मनसो देहतश्चेदं जज्ञे विश्वकृतो जगत् ॥ २७ ॥
वाचं दुहितरं तन्वीं स्वयम्भूर्हरतीं मनः ।
अकामां चकमे क्षत्तः सकाम इति नः श्रुतम् ।२८॥
तमधर्मे कृतमतिं विलोक्य पितरं सुताः ।
मरीचिमुख्या मुनयो विश्रम्भात् प्रत्यबोधयन्।२९ ॥
नैतत्पूर्वैः कृतं त्वद्ये न करिष्यन्ति चापरे ।
यस्त्वं दुहितरं गच्छेः अनिगृह्याङ्गजं प्रभुः ॥ ३० ॥
तेजीयसामपि ह्येतन्न सुश्लोक्यं जगद्गुरो ।
यद्वृत्तमनुतिष्ठन् वैन्वै लोकः क्षेमाय कल्पते।३१॥
तस्मै नमो भगवते य इदं स्वेन रोचिषा ।
आत्मस्थं व्यञ्जयामास स धर्मं पातुमर्हति ।३२ ॥
स इत्थं गृणतः पुत्रान् पुरो दृष्ट्वा प्रजापतीन् ।
प्रजापतिपतिस्तन्वं तत्याज व्रीडितस्तदा ।
तां दिशो जगृहुर्घोरां नीहारं यद्विदुस्तमः ॥ ३३ ॥
कदाचिद् ध्यायतः स्रष्टुः वेदा आसंश्चतुर्मुखात् ।
कथं स्रक्ष्याम्यहं लोकाम् समवेतान् यथा पुरा ॥ ३४
चातुर्होत्रं कर्मतन्त्रं उपवेदनयैः सह ।
धर्मस्य पादाश्चत्वारः तथैवाश्रमवृत्तयः ॥ ३५।
।।विदुर उवाच ।।
स वै विश्वसृजामीशो वेदादीन् मुखतोऽसृजत् ।
यद् यद् येनासृजद् देवस्तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥ ३६।
।।मैत्रेय उवाच ।।
ऋग्यजुःसामाथर्वाख्यान् वेदान् पूर्वादिभिर्मुखैः ।
शास्त्रमिज्यां स्तुतिस्तोमं प्रायश्चित्तं व्यधात्क्रमात् ॥ ३७ ॥
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तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 21-37 का हिन्दी अनुवाद -
इसके पश्चात् जब भगवान् की शक्ति से सम्पन्न ब्रह्मा जी ने सृष्टि के लिए संकल्प किया, तब उनके दस पुत्र और उत्पन्न हुए।
उनसे लोक की बहुत वृद्धि हुई।
उनके नाम मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष और दसवें नारद थे।
इसमें नारद जी प्रजापति ब्रह्मा जी की गोद से, दक्ष अँगूठे से, वसिष्ठ प्राण से, भृगु त्वचा से, क्रतु हाथ से, पुलह नाभि से, पुलस्त्य ऋषि कानों से, अंगिरा मुख से, अत्रि नेत्रों से और मरीचि मन से उत्पन्न हुए।
फिर उनके दायें स्तन से धर्म उत्पन्न हुआ, जिनकी पत्नी मूर्ति से स्वयं नारायण अवतीर्ण हुए तथा उनकी पीठ से अधर्म का जन्म हुआ और उससे संसार को भयभीत करने वाला मृत्यु उत्पन्न हुआ।
इसी प्रकार ब्रह्मा जी के हृदय से काम, भौहों से क्रोध, नीचे के होंठ से लोभ, मुख से वाणी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती, लिंग से समुद्र, गुदा से पाप का निवास स्थान (राक्षसों का अधिपति) निर्ऋति।
छाया से देवहूति के पति भगवान् कर्दमजी उत्पन्न हुए।
इस तरह यह सारा जगत् जगत्कर्ता ब्रह्मा जी के शरीर और मन से उत्पन्न हुआ।
विदुर जी ! भगवान् ब्रह्मा की कन्या सरस्वती बड़ी ही सुकुमारी और मनोहारी थी।
हमने सुना है-एक बार उसे देखकर ब्रह्मा जी काममोहित हो गये थे, यद्यपि वह स्वयं वासनाहीन थीं।
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उन्हें ऐसा अधर्ममय संकल्प करते देख, उनके पुत्र मरीचि आदि ऋषियों ने उन्हें विश्वासपूर्वक समझाया।
‘पिताजी! आप समर्थ हैं, फिर भी अपने मन में उत्पन्न हुए काम के वेग को न रोककर पुत्रीगमन्-जैसा दुस्तर पाप करने का संकल्प कर रहे हैं।
ऐसा तो आपसे पूर्ववर्ती किसी भी ब्रह्मा ने नहीं किया और न आगे ही कोई करेगा।
जगद्गुरो! आप-जैसे तेजस्वी पुरुषों को भी ऐसा काम शोभा नहीं देता; क्योंकि आप लोगों के आचरणों का अनुसरण करने से ही तो संसार का कल्याण होता है।
जिन भगवान् ने अपने स्वरूप में स्थित इस जगत् को अपने ही तेज से प्रकट किया है, उनें नमस्कार है।
इस समय वे ही धर्म की रक्षा कर सकते हैं’।
अपने पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियो को अपने सामने इस प्रकार कहते देख प्रजापतियों के पिता ब्रह्मा जी बड़े लज्जित हुए और उन्होंने उस शरीर को उसी समय छोड़ दिया।
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तब उस घोर शरीर को दिशाओं ने ले लिया।
वही कुहरा हुआ, जिसे अन्धकार भी कहते है।
एक बार ब्रह्मा जी यह सोच रहे थे कि ‘मैं पहले की तरह सुव्यवस्थित रूप से सब लोकों की रचना किस प्रकार करूँ?
इसी समय उनके चार मुखों से चार वेद प्रकट हुए।
इनके सिवा उपवेद, न्यायशास्त्र, होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रह्मा- इन चार ऋत्विजों के कर्म, यज्ञों का विस्तार, धर्म के चार चरण और चारों आश्रम तथा उनकी वृत्तियाँ-ये सब भी ब्रह्मा जी के मुखों से ही उत्पन्न हुए।
(भागवतपुराणस्कन्ध तृतीय अध्याय-१२)
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उनमें से प्रत्येक के गर्भ से एक-एक हजार पुत्र उत्पन्न हुए। इस प्रकार उन महात्मा के एक करोड़ पुत्र थे। वे उनके सिवा किसी दूसरे प्रजापति की इच्छा नहीं करते थे।
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प्राचीनकाल के ब्राह्मण अधिकांश प्रजा की उत्पत्ति शशबिन्दु यादव से ही बताते हैं। प्रजापति का वह महान वंश ही वृष्णिवंश का उत्पादक हुआ।
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संस्कृत कोश गन्थों सं में गोत्र के विकसित अर्थ अनेक हैं जैसे १.संतान । २. नाम । ३. क्षेत्र । ४.(रास्ता) वर्त्म । ५. राजा का छत्र ।
६. समूह । जत्था । गरोह । ७. वृद्धि । बढ़ती । ८. संपत्ति । धन । दौलत । ९. पहाड़ ।
१०. बंधु । भाई ।
११. एक प्रकार का जातिविभाग । १२. वंश । कुल । खानदान ।
१३. कुल या वंश की संज्ञा जो उसके किसी मूल पुरुष के अनुसार होती है ।
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विशेष—ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य द्विजातियों में उनके भिन्न भिन्न गोत्रों की संज्ञा उनके मूल पुरुष या गुरु ऋषयों के नामों के अनुसार है ।
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सगोत्र विवाह भारतीय वैदिक परम्परा में यम के समय से निषिद्ध माना जाता है।
यम ने ही संसार में धर्म की स्थापना की यम का वर्णन विश्व की अनेक प्राचीन संस्कृतियों में हुआ है
जैसे कनानी संस्कृति ,नॉर्स संस्कृति ,मिश्र संस्कृति ,तथा फारस की संस्कृति और भारतीय संस्कृति आदि-में यम का वर्णन है ।
यम से पूर्व स्त्री और पुरुष जुड़वाँ बहिन भाई के रूप में जन्म लेते थे ।
परन्तु यम ने इस विधान को मनुष्यों के लिए निषिद्ध कर दिया ।
केवल पक्षियों और कुछ अन्य जीवों में ही यह रहा ।
यही कारण है कि मनु और श्रद्धा भाई बहिन भी थे
और पतिपत्नी भी ।
मनुष्यों के युगल स्तन ग्रन्थियाँ इसका प्रमाण हैं ।
ऋग्वेद में यम-यमी संवाद भी यम से पूर्व की दाम्पत्य व्यवस्था का प्रमाण है ।
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एक ही गोत्र के लड़का लड़की का भाई -बहन होने से विवाह भी निषिद्ध ही है।
यद्यपि गोत्र शब्द का प्रयोग वंश के अर्थ में वैदिक ग्रंथों मे कहीं दिखायी नही देता।
ऋग्वेद में गोत्र शब्द का प्रयोग गायों को रखने के स्थान के एवं मेघ के अर्थ में हुआ है।
गोसमूह के अर्थ में गोत्र-
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त्वं गोत्रमङ्गिरोभ्योऽवृणोरपोतात्रये शतदुरेषु गातुवित् ।
ससेन चिद्विमदायावहो वस्वाजावद्रिं वावसानस्य नर्तयन् ॥
— ऋग्वेद १/५१/३॥
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- पदपाठ
त्वम् । गोत्रम् । अङ्गिरःऽभ्यः । अवृणोः । अप । उत । अत्रये । शतऽदुरेषु । गातुऽवित् ।
ससेन । चित् । विऽमदाय । अवहः । वसु । आजौ । अद्रिम् । ववसानस्य । नर्तयन् ॥३।
सायण भाष्य-
हे इन्द्र “त्वं “गोत्रम् अव्यक्तशब्दवन्तं वृष्ट्युदकस्यावरकं मेघम् “अङ्गिरोभ्यः अङ्गिरसामृषीणामर्थाय "अप "अवृणोः अपवरणं कृतवानसि । वृष्टेरावरकं मेघं वज्रेणोद्घाट्य वर्षणं कृतवानसीत्यर्थः। यद्वा । (गोत्रं गोसमूहं) पणिभिरपहृतं गुहासु निहितम् अङ्गिरोभ्यः ऋषिभ्यः अप अवृणोः गुहाद्वारोद्घाटनेन प्रकाशयः । "उत अपि च "अत्रये महर्षये । कीदृशाय । “शतदुरेषु शतद्वारेषु यन्त्रेष्वसुरैः पीडार्थं प्रक्षिप्ताय "गातुवित् मार्गस्य लम्भयिताभूः ।
तथा “विमदाय “चित् विमदनाम्ने महर्षयेऽपि "ससेन अन्नेन युक्तं “वसु धनम् “अवहः प्रापितवान् । तथा “आजौ संग्रामे जयार्थं "ववसानस्य निवसतो वर्तमानस्यान्यस्यापि स्तोतुः "अद्रिं वज्रं “नर्तयन् रक्षणं कृतवानसीति शेषः । अतस्तव महिमा केन वर्णयितुं शक्यते इति भावः ॥
गोत्रम् ।' गुङ् अव्यक्ते शब्दे । औणादिकः त्रप्रत्ययः । यद्वा । खलगोरथात्' इत्यनुवृत्तौ ‘ इनित्रकट्यचश्च' (पा. सू. ४. २. ५१) इति समूहार्थे त्रप्रत्ययः । शतदुरेषु । शतं दुरा द्वाराण्येषाम् । द्वृ इत्येके । द्वर्यन्ते संव्रियन्ते इति दुराः। घञर्थे कविधानम्' इति कप्रत्ययः। छान्दसं संप्रसारणं परपूर्वत्वम् । तच्च यो ह्युभयोः स्थाने भवति स लभतेऽन्यतरेणापि व्यपदेशम् इति • उरण् रपरः ' ( पाणिनि सूूूूत्र १. १. ५१ ) इति रपरं भवति ।
यद्वा । द्वारशब्दस्यैव छान्दसं संप्रसारणं द्रष्टव्यम् । गातुवित् । ‘गाङ् गतौ' । अस्मात् ‘कमिमनिजनिभागापायाहिभ्यश्च' (उ. सू. १. ७२ ) इति तुप्रत्ययः । तं वेदयति लम्भयतीति गातुवित् । ‘विद्लृ लाभे' । अन्तर्भावितण्यर्थात् क्विप् । कृदुत्तरपदप्रकृतिस्वरत्वम्। ससेन । ससम् इति अन्ननाम । ‘ससं नमः आयुः' (नि.२.७.२१) इति तन्नामसु पाठात् । आजिः इति संग्रामनाम । “आहवे आजौ ' (नि. २. १७. ८) इति तत्र पाठात् । अद्रिम् । अत्ति भक्षयति वैरिणम् इति अद्रिर्वज्रः । ‘ अदिशदिभूशुभिभ्यः क्रिन्' इति क्रिन्प्रत्ययः । नित्त्वादाद्युदात्तत्वम् । यास्कस्त्वेवम् अद्रिशब्दं व्याचख्यौ- अद्रिरादृणात्यनेनापि वात्तेः स्यात् ' ( निरु. ४. ४ ) इति । ववसानस्य । ‘वस निवासे । कर्तरि ताच्छीलिकः चानश् । 'बहुलं छन्दसि ' इति शपः श्लुः । द्विर्भावहलादिशेषौ । चित्वादन्तोदात्तत्वम्
इसको निघण्टु (मेघः । इति निघण्टुः । १ । १० । ) तथा सायण के भाष्य में मेघ का अर्थ दिया है। यथा सायणभाष्य से :
हे इन्द्र “त्वं “गोत्रम् अव्यक्तशब्दवन्तं वृष्ट्युदकस्यावरकं मेघम् “अङ्गिरोभ्यः अङ्गिरसामृषीणामर्थाय "अप "अवृणोः अपवरणं कृतवानसि । वृष्टेरावरकं मेघं वज्रेणोद्घाट्य वर्षणं कृतवानसीत्यर्थः। यद्वा ।
मेघ के अर्थ में ऋग्वेद में "गोत्र" के प्रयोग का भी उदाहरण :
'यथा कण्वे मघवन्मेधे अध्वरे दीर्घनीथे दमूनसि ।
यथा गोशर्ये असिषासो अद्रिवो मयि गोत्रं हरिश्रियम्
— ऋग्वेद ८/५०/१०॥
सायण-भाष्य-
हे अद्रिवः वज्रिवन् इन्द्र मेधे यज्ञे यथा येन प्रकारेण कण्वे एतन्नामके ऋषौ निमित्ते हरिश्रियम् । हरिः जगत्तापहर्त्री हरितवर्णा वा श्रीः जललक्ष्मीर्यस्य तादृशम् । गोत्रं मेघम् असिसासः दत्तवानसि । ईदृशे कण्वे अध्वरे । ध्वरतिर्हिंसाकर्मा । तद्रहिते दीर्घनीथे दीर्घं स्वर्लोकपर्यन्तं नीथं हविः प्रापणं यस्य तथाभूते । पुनः कीदृशे । दमूनसि दानमनसि उदारे । यथा च गोशर्ये एतन्नामके ऋषौ मेघं दत्तवानसि तथा मयि पुष्टिगौ हरिश्रियं गोत्रं देहि। यथा तयोरनुग्रहदृष्ट्या मेघवृष्टिं कृतवानसि तथा मय्यपि कृपादृष्ट्या अभिलषितवृष्टिं कुर्वित्यभिप्रायः ॥ ॥ १७ ॥
इसके अर्थ में समय के साथ विस्तार हुआ है।
गौशाला एक बाड़ अथवा परिसीमा में निहित स्थान है। इस शब्द का क्रमिक विकास गौशाला से उसके साथ रहने वाले परिवार अथवा कुल के रूप में हुआ।
इसमें विस्तार से गोत्र को विस्तार, वृद्धि के अर्थ में प्रयुक्त किया जाने लगा।
गोत्र का अर्थ पौत्र तथा उनकी सन्तान के अर्थ में भी है । इस आधार पर यह वंश तथा उससे बने कुल-प्रवर की भी द्योतक है।
यह किसी व्यक्ति की पहचान, उसके नाम को भी बताती है तथा गोत्र के आधार पर कुल तथा कुलनाम बने हैं।
इसे समयोपरांत विभिन्न गुरुओं के कुलों (यथा कश्यप, षाण्डिल्य, भरद्वाज आदि) को पहचानने के लिए भी प्रयोग किया जाने लगा।
क्योंकि शिक्षणकाल में सभी शिष्य एक ही गुरु के आश्रम एवं गोत्र में ही रहते थे, अतः सगोत्र हुए।
यह इसकी कल्पद्रुम में दी गई व्याख्या से स्पष्ट होता है :
गोत्रम्, क्ली, गवते शब्दयति पूर्ब्बपुरुषान् यत् । इति भरतः ॥ (गु + “गुधृवीपतीति ।” उणादि । ४ । १६६ । इति त्रः ) तत्पर्य्यायः । सन्ततिः २ जननम् ३ कुलम् ४ अभिजनः ५ अन्वयः ६ वंशः ७ अन्ववायः ८ सन्तानः ९ । इत्यमरः । २ । ७ । १ ॥ आख्या । (यथा, कुमारे । ४ । ८ । “स्मरसि स्मरमेखलागुणैरुत गोत्रस्खलितेषु बन्धनम् ॥”) सम्भावनीयबोधः । काननम् । क्षेत्रम् । वर्त्म । इति मेदिनी कोश । २६ ॥
छत्रम् । इति हेमचन्द्रःकोश ॥ संघः । वृद्धिः । इति शब्दचन्द्रिका ॥ वित्तम् । इति विश्वः ॥
यह व्यवस्था विभिन्न जीवों में विभेद करने के लिए भी प्रयोग होती है।
गोत्र का परिसीमन के आधार पर क्षेत्र, वन, भूमि, मार्ग भी इसका अर्थ है (मेदिनीकोश)
तथा उणादि सूत्र "गां भूमिं त्रायते त्रैङ् पालने क" से गोत्र का अर्थ (गो=भूमि तथा त्र=पालन करना, त्राण करना) के आधार पर भूमि के रक्षक अर्थात पर्वत, वन क्षेत्र, बादल आदि है।
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गो अथवा गायों की रक्षा हेतु ऋग्वेद में इसका अर्थ गौशाला निहित है,।
तथा वह सभी व्यक्ति जो परिवार के रूप में इससे जुडे हैं वह भी गोत्र ही कहलाए।
इसके विस्तार के अर्थ से यह वित्त (सम्पदा), अनेकता, वृद्धि, सम्भावनाओं का ज्ञान आदि के अर्थ में भी प्रकाशित हुआ है।
तथा हेमचंद्र के अनुसार इसका एक अर्थ छतरी( छत्र भी है।
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क्योंकि उस वैदिक समय में गोत्र नहीं थे ।
गोत्रों की अवधारणा परवर्ती काल की है । सपिण्ड (सहोदर भाई- बहिन ) के विवाह निषेध के बारे में ऋग्वेद 10 वें मण्डल के_1-से लेकर 14 वें सूक्तों में यम -यमी जुड़वा भाई-बहिन के सम्वाद के रूप में एक आख्यान द्वारा पारस्परिक अन्तरंगो के सम्बन्ध में उसकी नैतिकता और अनैतिकता को लेकर संवाद मिलता है।
यमी अपने सगे भाई यम से संतान उत्पन्न करने की प्रबल इच्छा प्रकट करती है।
परन्तु यम उसे यह अच्छे तरह से समझाता है ,कि ऐसा मैथुन सम्बन्ध अब प्रकृति के नियमों के विरुद्ध होता है।
और जो इस प्रकार संतान उत्पन्न करते हैं वे घोर पाप करते हैं.
“सलक्षमा यद्विषुरुषा भवाति” ऋ10/10/2 (“सलक्ष्मा सहोदर बहन से पीडाप्रद संतान उत्पन्न होने की सम्भावना होती है”)
न वा उ ते तन्वा तन्वं सं पपृच्यां पापमाहुर्यः स्वसारं निगच्छात् ।
अन्येन मत्प्रमुदः कल्पयस्व न ते भ्राता सुभगे वष्ट्येतत् ॥१२॥
पदान्वय-
न । वै । ऊं इति । ते । तन्वा । तन्वम् । सम् । पपृच्याम् । पापम् । आहुः । यः । स्वसारम् । निऽगच्छात् ।
अन्येन । मत् । प्रऽमुदः । कल्पयस्व । न । ते । भ्राता । सुऽभगे । वष्टि । एतत् ॥१२।
सायण-भाष्य
यमो यमीं प्रत्युक्तवान् । हे यमि “ते तव “तन्वा शरीरेण “तन्वम् आत्मीयं शरीरं “न “वै “सं पपृच्यां नैव संपर्चयामि । नैवाहं त्वां संभोक्तुमिच्छामीत्यर्थः । “यः भ्राता “स्वसारं भगिनीं “निगच्छात् नियमेनोपगच्छति । संभुङ्त्श इत्यर्थः । तं “पापं पापकारिणम् “आहुः । शिष्टा वदन्ति । एतज्ज्ञात्वा हे “सुभगे सुष्ठु भजनीये हे यमि त्वं “मत् मत्तः “अन्येन त्वद्योग्येन पुरुषेण सह “प्रमुदः संभोगलक्षणान् प्रहर्षान् “कल्पयस्व समर्थय । “ते तव “भ्राता यमः “एतत् ईदृशं त्वया सह मैथुनं कर्तुं “न “वष्टि न कामयते । नेच्छति ॥
“ पापमाहुर्य: सस्वारं निगच्छात” ऋ10/10/12 ( “जो अपने सगे बहन भाई से संतानोत्पत्ति करते हैं, भद्र जन उन्हें पापी कहते हैं)
इस विषय पर स्पष्ट जानकारी पाणिनी कालीन भारत से भी मिलती है.
अष्टाध्यायी के अनुसार “ अपत्यं पौत्र प्रभृति यद गोत्रम् “ एक पुर्वज अथवा पूर्वपुरुष के पौत्र परपौत्र आदि जितनी संतान होगी वह एक गोत्र की कही जायेगी.
यहां पर सपिण्ड का उद्धरण करना आवश्यक हो जाता है.
“ सपिण्डता तु पुरुषे सप्तमे विनिवर्तते !
समानोदकभावस्तु जन्मनाम्नोरवेदन !! “
मनु स्मृति –5/60
(सपिण्डता) सहोदरता (सप्तमे पुरुषे) सातवीं पुरुष में (पीढ़ी में ) (विनिवर्तते) छूट जाती है।
(जन्म नाम्नोः) जन्म और नाम दोनों के (आवेदने) जानने से, (समान-उदक भावः तु) आपस में (जलदान)का व्यवहार भी छूट जाता है।
इसलिये सूतक में सम्मिलित होना भी आवश्यक नहीं समझा गया।
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“सगापन तो सातवीं पीढी में समाप्त हो जाता है.
आनुवंशिकी (जेनेटिक्स) गुण - मानव के ।
गोत्र निर्धारण की व्याख्या करता है ।।
जीवविज्ञान की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत आनुवंशिकता -उत्तराधिकारिता ( जेनेटिक्स हेरेडिटी) तथा जीवों की विभिन्नताओं (वैरिएशन) का अध्ययन किया जाता है।
आनुवंशिकता के अध्ययन में' ग्रेगर जॉन मेंडेल "जैसे यूरोपीय जीववैज्ञानिकों की मूलभूत उपलब्धियों को आजकल आनुवंशिकी के अंतर्गत समाहित कर लिया गया है।
विज्ञान की भाषा में प्रत्येक सजीव प्राणी का निर्माण मूल रूप से कोशिकाओं द्वारा ही हुआ होता है। अत: कोशिका जीवन की शुक्ष्म इकाई है।
इन कोशिकाओं में कुछ गुणसूूूूूत्र (क्रोमोसोम) पाए जाते हैं। इनकी संख्या प्रत्येक जाति (स्पीशीज) में निश्चित होती है।
इन गुणसूत्रों के अन्दर माला की मोतियों की भाँति कुछ (डी .एन. ए .) की रासायनिक इकाइयाँ पाई जाती हैं जिन्हें जीन कहते हैं।
यद्यपि डी.एन.ए और आर.एन.ए दोनों ही न्यूक्लिक एसिड होते हैं।
इन दोनों की रचना "न्यूक्लिओटाइड्स" से होती है जिनके निर्माण में कार्बन शुगर, फॉस्फेट और नाइट्रोजन बेस (आधार) की मुख्य भूमिका होती है।
डीएनए जहाँ आनुवंशिक गुणों का वाहक होता है और कोशिकीय कार्यों के संपादन के लिए कोड प्रदान करता है वहीँ आर.एन.ए की भूमिका उस कोड (संकेतावली)
को प्रोटीन में परिवर्तित करना होता है। दोेैनों ही तत्व जैनेटिक संरचना में अवयव हैं ।
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आनुवंशिक कोड (Genetic Code) डी.एन.ए और बाद में ट्रांसक्रिप्शन द्वारा बने (M–RNA पर नाइट्रोजन क्षार का विशिष्ट अनुक्रम (Sequence) है,
जिनका अनुवाद प्रोटीन के संश्लेषण के लिए एमीनो अम्ल के रूप में किया जाता है।
एक एमिनो अम्ल निर्दिष्ट करने वाले तीन नाइट्रोजन क्षारों के समूह को कोडन, कोड या प्रकुट (Codon) कहा जाता है।
और ये जीन, गुणसूत्र के लक्षणों अथवा गुणों के प्रकट होने, कार्य करने और अर्जित करने के लिए उत्तरदायी होते हैं।
इस विज्ञान का मूल उद्देश्य आनुवंशिकता के ढंगों (पद्धति) का अध्ययन करना है ।
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गुणसूत्रों के पुनर्संयोजन के फलस्वरूप एक ही पीढी की संतानें भी भिन्न हो सकती हैं।
समस्त जीव, चाहे वे जन्तु हों या वनस्पति, अपने पूर्वजों के यथार्थ प्रतिरूप होते हैं।
वैज्ञानिक भाषा में इसे 'समान से समान की उत्पति' (लाइक बिगेट्स लाइक) का सिद्धान्त कहते हैं।
आनुवंशिकी के अन्तर्गत कतिपय कारकों का विशेष रूप से अध्ययन किया जाता है। जो निम्नलिखित हैं।
प्रथम कारक आनुवंशिकता है। किसी जीव की आनुवंशिकता उसके जनकों (पूर्वजों या माता पिता) की जननकोशिकाओं द्वारा प्राप्त रासायनिक सूचनाएँ होती हैं।
जैसे कोई प्राणी किस प्रकार परिवर्धित होगा, इसका निर्धारण उसकी आनुवंशिकता ही करेगी।
दूसरा कारक विभेद है जिसे हम किसी प्राणी तथा उसकी सन्तान में पाते हैं।
प्रायः सभी जीव अपने माता पिता या कभी कभी बाबा, दादी या उनसे पूर्व की पीढ़ी के लक्षण प्रदर्शित करते हैं।
ऐसा भी सम्भव है कि उसके कुछ लक्षण सर्वथा नवीन हों।
इस प्रकार के परिवर्तनों या विभेदों के अनेक कारण होते हैं।
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जीवों का परिवर्धन तथा उनके परिवेश अथवा पर्यावरण (एन्वाइरनमेंट) पर भी निर्भर करता है।
प्राणियों के परिवेश अत्यन्त जटिल होते हैं; इसके अंतर्गत जीव के वे समस्त पदार्थ तत्व बल तथा अन्य सजीव प्राणी (आर्गेनिज़्म) समाहित हैं, जो उनके जीवन को प्रभावित करते रहते हैं।
वैज्ञानिक इन समस्त कारकों का सम्यक् अध्ययन करता है, एक वाक्य में हम यह कह सकते हैं कि आनुवंशिकी वह विज्ञान है।
जिसके अन्तर्गत आनुवंश्किता के कारण जीवों तथा उनके पूर्वजों (या संततियों) में समानता तथा विभेदों, उनकी उत्पत्ति के कारणों और विकसित होने की संभावनाओं का अध्ययन किया जाता है।
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पैतृक गुणसूत्रों के पुनर्संयोजन के फलस्वरूप एक ही पीढी की संतानें भी भिन्न हो सकती हैं।
उत्परिवर्तन की प्रक्रिया-।
जीन दोहराव अतिरेक(आवश्यकता से अधिक होने का भाव, गुण या स्थिति / आधिक्य )आदि प्रदान करके विविधीकरण की अनुमति देता है।
एक जीन जीव को नुकसान पहुंचाए बिना अपने मूल कार्य को मूक( म्यूट ) और खो सकता है।
डी़.एन.ए प्रतिकृति की प्रक्रिया के दौरान, दूसरी स्ट्रैंड( रस्सी का बल)के बहुलकीकरण में कभी-कभी त्रुटियां होती हैं।
म्यूटेशन नामक ये त्रुटियां किसी जीव के फेनोटाइप को प्रभावित कर सकती हैं।
फिनोटाइप(phenotype) क्या है ?
लक्षण प्रारूप या फिनोटाइप समलक्षी जीवो के विभिन्न गुणों जैसे आकार,आकृति,रंग तथा स्वभाव आदि को व्यक्त करता है।
जीनोटाइप(genotype)
जीव प्रारूप या जीनोटाइप जीनी संरचना जीव के जैनिक संगठन को व्यक्त करता है,।
जो कि उसमें विभिन्न लक्षणों को निर्धारित करता है।
फेनोटाइप और जीनोटाइप में अन्तर "लक्षण 'प्ररूप और जीव प्ररूप में अन्तर-
फेनोटाइप(लक्षण प्ररूप) जीनोटाइप(जीव प्ररूप)
यह जीवों के विभिन्न गुण आकार,आकृति,रंग तथा स्वभाव को व्यक्त करता है।
यह जैनिक संगठन को व्यक्त करता है जो उसमे विभिन्न लक्षणों को निर्धारित करता है।
जीवो को प्रत्यक्ष देखने से ही समलक्षणी का पता चल जाता है।
इस संरचना को जीवो की पूर्वज -कथा या संतति के आधार पर ही स्थापित किया जा सकता है।
समान समलक्षणी वाले जीवों की जीनी संरचना समान हो भी सकती और नहीं भी।
समान जीनी संरचना वाले जीवों के एक ही पर्यावरण में होने पर उनका समलक्षणी भी समान होता है।
इनके व्यक्त करने का आधार दृश्य संरचना(देखकर) है। इनका आधार जीन संरचना है।
उम्र के साथ बदलते रहते हैं। यह पूरी उम्र एक समान होते है।
खासकर अगर वे एक जीन के प्रोटीन कोडिंग अनुक्रम के भीतर होती हैं।
डी.एन.ए पोलीमरेज़ की "प्रूफरीडिंग" क्षमता के कारण, प्रत्येक 10–100 मिलियन बेस में त्रुटि दर आमतौर पर बहुत कम होती है।
डी.एन.ए में परिवर्तन की दर को बढ़ाने वाली प्रक्रियाओं को उत्परिवर्तजन कहा जाता है:
उत्परिवर्तजन रसायन डी.एन.ए प्रतिकृति में त्रुटियों को बढ़ावा देते हैं, अक्सर आधार-युग्मन की संरचना में हस्तक्षेप करके, जबकि यूवी विकिरण डी.एन.ए संरचना को नुकसान पहुंचाकर उत्परिवर्तन को प्रेरित करता है।
डीएनए के लिए रासायनिक क्षति स्वाभाविक रूप से होती है और कोशिकाएँ बेमेल और टूटने की मरम्मत के लिए डी.एन.ए मरम्मत तंत्र का उपयोग करती हैं।
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हालांकि, मरम्मत हमेशा मूल अनुक्रम को पुनर्स्थापित नहीं करती है।
डीएनए और पुनः संयोजक जीनों के आदान-प्रदान के लिए क्रोमोसोमल क्रॉसओवर का उपयोग करने वाले जीवों में, अर्धसूत्रीविभाजन के दौरान संरेखण में त्रुटियां भी उत्परिवर्तन का कारण बन सकती हैं।
क्रॉसओवर में त्रुटियां विशेष रूप से होने की संभावना है जब समान अनुक्रम पार्टनर गुणसूत्रों को गलत संरेखण को अपनाने का कारण बनाते हैं;
यह जीनोम में कुछ क्षेत्रों को इस तरह से उत्परिवर्तन के लिए अधिक प्रवण बनाता है।
ये त्रुटियां डीएनए अनुक्रम में बड़े संरचनात्मक परिवर्तन पैदा करती हैं - दोहराव, व्युत्क्रम, संपूर्ण क्षेत्रों का विलोपन - या विभिन्न गुणसूत्रों (गुणसूत्र अनुवाद) के बीच अनुक्रमों के पूरे भागों का आकस्मिक विनिमय।
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प्राकृतिक चयन और विकास -
उत्परिवर्तन एक जीव के जीनोटाइप को बदल देते हैं और कभी-कभी यह विभिन्न फेनोटाइप को प्रकट करने का कारण बनता है।
अधिकांश उत्परिवर्तन एक जीव के फेनोटाइप, स्वास्थ्य या प्रजनन फिटनेस (शारीरिक रूप से उपयुक्त) बहुत कम प्रभाव डालते हैं।
कई पीढ़ियों से, जीवों के जीनोम में महत्वपूर्ण परिवर्तन हो सकता है,।
जिसके परिणामस्वरूप गोत्र विकास होता है। अनुकूलन नामक प्रक्रिया में, लाभकारी उत्परिवर्तन के लिए चयन एक प्रजाति को उनके पर्यावरण में जीवित रहने के लिए बेहतर रूप में विकसित करने का कारण बन सकता है।
विभिन्न प्रजातियों के जीनोम के बीच की होमोलॉजी की तुलना करके, उनके बीच विकासवादी दूरी की गणना करना संभव है।
और जब वे अलग हो सकते हैं। आनुवंशिक तुलना को आमतौर पर फेनोटाइपिक विशेषताओं की तुलना में प्रजातियों के बीच संबंधितता को चिह्नित करने का एक अधिक सटीक तरीका माना जाता है।
प्रजातियों के बीच विकासवादी दूरी का उपयोग विकासवादी वृक्ष बनाने के लिए किया जा सकता है; ये वृक्ष समय के साथ सामान्य वंश और प्रजातियों के विचलन का प्रतिनिधित्व करते हैं,।
हालांकि वे असंबंधित प्रजातियों (क्षैतिज जीन स्थानांतरण और बैक्टीरिया में सबसे आम के रूप में ज्ञात) के बीच आनुवंशिक सामग्री के हस्तांतरण को नहीं दिखाते हैं
आधुनिक जेनेटिक अनुवांशिक विज्ञान के अनुसार (inbreeding multiplier) अंत:प्रजनन से उत्पन्न विकारों की सम्भावना का वर्धक गुणांक इकाई से अर्थात एक से कम सातवीं पीढी मे जा कर ही होता है.
गणित के समीकरण के अनुसार इसे समझे-
अंत:प्रजनन विकार गुणांक= (0.5)raised to the power N x100, ( N पीढी का सूचक है,)
पहली पीढी मे N=1,से यह गुणांक 50 होगा, छटी पीढी मे N=6 से यह गुणांक 1.58 हो कर भी इकाई से बडा रहता है. सातवी पीढी मे जा कर N=7 होने पर ही यह अंत:पजनन गुणांक 0.78 हो कर इकाई यानी एक से कम हो जाता है।
तात्पर्य स्पष्ट है कि सातवी पीढी के बाद ही अनुवांशिक रोगों की सम्भावना समाप्त होती है।
यह एक अत्यंत विस्मयकारी आधुनिक विज्ञान के अनुरूप सत्य है जिसे हमारे ऋषियो ने सपिण्ड विवाह निषेध कर के बताया था।
सगोत्र विवाह से शारीरिक रोग , अल्पायु , कम बुद्धि, रोग निरोधक क्षमता की कमी, अपंगता, विकलांगता सामान्य विकार होते हैं. ।
सपिण्ड विवाह निषेध भारतीय वैदिक परम्परा की विश्व भर मे एक अत्यन्त आधुनिक विज्ञान से समर्थित/अनुमोदित व्यवस्था है.।
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प्राचीन सभ्यता चीन, कोरिया, इत्यादि मे भी गोत्र /सपिण्ड विवाह अमान्य है।
परन्तु मुस्लिम और दूसरे पश्चिमी सभ्यताओं मे यह विषय आधुनिक विज्ञान के द्वारा ही लाया जाने के प्रयास चल रहे हैं.
एक जानकारी भारत वर्ष के कुछ मुस्लिम समुदायों के बारे मे भी पता चली है.
ये मुसलमान भाई मुस्लिम धर्म मे जाने से पहले के अपने हिंदु गोत्रों को अब भी याद रखते हैं; और विवाह सम्बंध बनाने समय पर सगोत्र विवाह नही करते.
आधुनिक अनुसंधान और सर्वेक्षणों के अनुसार फिनलेंड मे कई शताब्दियों से चले आ रहे शादियों के रिवाज मे अंत:प्रजनन के कारण ढेर सारी ऐसी बीमारियां सामने आंयी हैं जिन के बारे वैज्ञानिक अभी तक कुछ भी नही जान पाए हैं।
माना जाता है, कि मूल पुरुष ब्रह्मा के चार पुत्र हुए, भृगु,अंगिरा, मरीचि और अत्रि।
भृगु के कुल मे जमदग्नि, अंगिरा के कुल में गौतम और भरद्वाज,मरीचि के कश्यप,वसिष्ट, एवं अत्रि के विश्वामित्र हुए.
इस प्रकार जमदग्नि, गौतम, भरद्वाज, कश्यप, वसिष्ट, अगस्त्य और विश्वामित्र ये सात ऋषि आगे चल कर गोत्रकर्ता या वंश चलाने वाले हुए.
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गौत्र एक अवधारणा का आधार यह भी तथ्य है ।
अत्रि के विश्वामित्र के साथ एक और भी गोत्र चला बताते हैं।
इस प्रकार के विवरण से प्राप्त होती है आदि ऋषियों के आश्रम के नाम.अपने नाम के साथ गुरु शिष्य परम्परा, पिता पुत्र परम्परा आदि, अपने नगर, क्षेत्र, व्यवसाय समुदाय के नाम जोड कर बताने की प्रथा चल पडी थीं.
परन्तु वैवाहिक सम्बंध के लिए सपिंड की सावधानी सदैव वांछित रहती है।
आधुनिक काल मे जनसंख्या वृद्धि से उत्तरोत्तर समाज, आज इतना बडा हो गया है कि सगोत्र होने पर भी सपिंड न होंने की सम्भावना होती है।
इस लिए विवाह सम्बंध के लिए आधुनिक काल मे अपना गोत्र छोड देना आवश्यक नही रह गया है.
परंतु सगोत्र होने पर सपिण्ड की परीक्षा आवश्यक हो जाती है.यह इतनी सुगम नही होती. सात पीढी पहले के पूर्वजों की जानकारी साधारणत: उपलब्ध नही रहती।
इसी लिए सगोत्र विवाह न करना ही ठीक माना जाता है.
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इसी लिए 1955 के हिंदु विवाह सम्बंधित कानून मे सगोत्र विवाह को भारतीय न्याय व्यवस्था मे अनुचित नही माना गया.
परंतु अंत:प्रजनन की रोक के लिए कुछ मार्ग निर्देशन भी किया गया है.
वैदिक सभ्यता मे हर जन को उचित है के अपनी बुद्धि का विकास अवश्य करे. इसी लिए गायत्री मंत्र सब से अधिक महत्वपूर्ण माना और पाया जाता है.
निष्कर्ष यह निकलता है कि सपिण्ड विवाह नही करना चाहिये. गोत्र या दूसरे प्रचलित नामों, उपाधियों को बिना विवेक के सपिण्ड निरोधक नही समझना चाहिये.
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परमपूज्य गुरुदेव श्री सुमन्त कुमार यादव जौरा" के श्री चरणों में समर्पित यह विचारों की अञ्जलि-
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प्रस्तुतिकरण- यादव योगेश कुमार रोहि
गायत्री वह दैवी शक्ति है जिससे सम्बन्ध स्थापित करके मनुष्य अपने जीवन विकास के मार्ग में बड़ी सहायता प्राप्त कर सकता है। परमात्मा की अनेक शक्तियाँ हैं, जिनके कार्य और गुण पृथक् पृथक् हैं। उन शक्तियों में गायत्री का स्थान बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। यह मनुष्य को सद्बुद्धि की प्रेरणा देती है। गायत्री से आत्मसम्बन्ध स्थापित करने वाले मनुष्य में निरन्तर एक ऐसी सूक्ष्म एवं चैतन्य विद्युत् धारा संचरण करने लगती है, जो प्रधानतः मन, बुद्धि, चित्त और अन्तःकरण पर अपना प्रभाव डालती है। बौद्धिक क्षेत्र के अनेकों कुविचारों, असत् संकल्पों, पतनोन्मुख दुर्गुणों का अन्धकार गायत्री रूपी दिव्य प्रकाश के उदय होने से हटने लगता है। यह प्रकाश जैसे- जैसे तीव्र होने लगता है, वैसे- वैसे अन्धकार का अन्त भी उसी क्रम से होता जाता है।
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