प्रयोजनवाद या फलानुमेयप्रामाण्यवाद या व्यवहारिकता अंगरेजी के "प्रैगमैटिज़्म" (Pragmatism) का समानार्थवाची शब्द है और प्रैगमैटिज़्म शब्द यूनानी भाषा के 'Pragma' शब्द से बना है, जिसका अर्थ "क्रिया" या "कर्म" होता है। तदनुसार "फलानुमेयप्रामाण्यवाद" एक ऐसी विचारधारा है जो ज्ञान के सभी क्षेत्रों में उसके क्रियात्मक प्रभाव या फल को एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण स्थान देती है। इसके अनुसार हमारी सभी वस्तुविषयक धारणाएँ उनके संभव व्यावहारिक परिणामों की ही धारणाएँ होती हैं। अत: किसी भी बात या विचार को सही सही समझने के लिए उसके व्यावहारिक परिणामों की परीक्षा करना आवश्यक है।

प्रयोजनवाद एक नवीनतम् दार्शनिक विचारधारा है। वर्तमान युग में दर्शन एवं शिक्षा के विभिन्न विचारधाराओं में इस विचारधारा को सबसे अधिक मान्यता प्राप्त है।

यथार्थवाद ही एक ऐसी विचारधारा है जिसका बीजारोपण मानव-मस्तिष्क में अति प्राचीन काल में ही हो गया था। यथार्थवाद किसी एक सुगठित दार्शनिक विचारधारा का नाम न होकर उन सभी विचारों का प्रतिनिधित्व करता है जो यह मानते हैं कि वस्तु का अस्तित्व स्वतंत्र रूप से है। आदर्शवादी यह मानता है कि ‘वस्तु’ का अस्तित्व हमारे ज्ञान पर निर्भर करता है। यदि यह विचार सही है तो वस्तु की कोई स्थिति नहीं है। इसके ठीक विपरीत यथार्थवादी मानते हैं कि वस्तु का स्वतंत्र अस्तित्व है चाहे वह हमारे विचारों में हो अथवा नहीं। वस्तु तथा उससे सम्बन्धित ज्ञान दोनों पृथक-पृथक सत्तायें है। संसार में अनेक ऐसी वस्तुयें हैं जिनके सम्बन्ध में हमें जानकारी नहीं है परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वे अस्तित्व में है ही नहीं। कहने का तात्पर्य यह है कि वस्तु की स्वतंत्र स्थिति है। हमारा ज्ञान हमको उसकी स्थिति से अवगत कराता है परन्तु उसके बारे में हमारा ज्ञान न होने से उसका अस्तित्व नष्ट नहीं हो जाता। वैसे ज्ञान प्राप्ति के साधन के विषय में यथार्थवादी, प्रयोजनवाद के समान वैज्ञानिक विधि को ही सर्वोत्तम विधि मानता है और निगमन विधि का आश्रय लेता है। प्रयोजनवाद के निम्नलिखित शिक्षण सिद्धांत है

  • (१) सीखने के उद्देश्य पूर्ण प्रक्रिया का सिद्धांत
  • (२) क्रिया या अनुभव द्वारा सीखने का सिद्धांत
  • (३) एकीकरण का सिद्धांत
  • (४) बाल केंद्रित सिद्धांत
  • (५) सामूहिक क्रिया का सिद्धान्त
 
प्रमुख व्यवहारवादी दार्शनिक : पीअर्स, जेम्स, डुई और मीड

प्रयोजनवादी विचारधारा का उद्भव कब हुआ था यह तो निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, किन्तु फिर भी इस विचारधारा की विशिष्टता को ध्यान में रखते हुए यह अवश्य ही कहा जा सकता है कि जब से मनुष्य ने अपनी समस्याओं एवं कठिनाइयों के कारणों एवं उनके समाधान के लिए किये गये प्रयासों से प्राप्त अनुभवों की सत्यता एवं व्यावहारिकता के सम्बन्ध में चिन्तन प्रारम्भ किया तभी से इस विचारधारा का बीजारोपण हो गया था। इस सिद्धांत के कतिपय समर्थक इसे यूनानी विचारक प्रोटेगोरस (Protagoras) के "मनुष्य सब वस्तुओं की माप है" (Man is the measure of all things) - इस कथन से संबंधित करते हैं और सुकरात एवं अरस्तू आदि प्राचीन दार्शनिकों को भी प्रैगमैटिक विधि के प्रयोक्ता बतलाते हैं; परंतु वस्तुत: यह एक आधुनिक विचारधारा है और इसके प्रमुख प्रतिपादक अमरीका के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक विलियम जेम्स (1842-1910), शिक्षाशास्त्री जॉन ड्युई (John Dewey, 1859-1952) तथा ग्रेट ब्रिटेन के डाक्टर एफ. सी. एस. शिलर (Schiller, 1864-1927) हैं।

अमेरिका के सुप्रसिद्ध विचारक चार्ल्स सैन्डर्स पियर्स ने प्रयोजनवाद के आधुनिक रूप को जन्म दिया। पियर्स के कार्य को विलियम जेम्स ने और अधिक बढ़ाया और उसे स्पष्टता एवं व्यापकता प्रदान की। इसलिए अनेक लोग विलियम जेम्स को ही प्रयोजनवाद के आधुनिक स्वरूप का जन्मदाता मानते हैं। अमेरिका में जान डीवी तथा इंग्लैण्ड में शिलर इसके प्रमुख समर्थक एवं प्रचारक हुए। प्रयोजनवाद अथवा प्रयोगवाद का जन्म अमेरिकी लोगों के रहन-सहन तथा विचार प्रक्रिया के फलस्वरूप हुआ। क्योंकि धार्मिक स्वतंत्रता के लिए यूरोप तथा इंग्लैण्ड से भागे हुए लोगों ने अमेरिका की सीमा-सम्बन्धी स्वतंत्रता के कारण एक विचित्र क्रियात्मकता में विश्वास करना प्रारम्भ किया, इसलिए सांस्कृतिक मूल्यों के पचड़े से दूर, नवजीवन निर्माण हेतु कर्मठ प्राणियों के लिए इसके अतिरिक्त और कोई विचारधारा उपयुक्त न थी। अमेरिकी जीवन का यह ‘वाद’ प्रतिबिम्ब है। इस नवीन दर्शन को सबसे महान पृष्ठ पोषक, विशेषज्ञ एवं प्रचारक महान दार्शनिक, शिक्षक एवं शिक्षाशास्त्री जॉन डीवी ने पूर्ण परिपक्व रूप प्रदान किया और इसीलिए उन्हें प्रयोजनवाद का प्रतिनिधि माना जाता है।

डॉ॰ शिलर ने मानवीयतावाद (Humanism) नामक सिद्धांत का प्रतिपादन किया है जिसे वास्तव में फलानुमेयप्रामाण्यवाद की एक शाखा ही समझना चाहिए। जेम्स की तो प्राय: सभी कृतियाँ इस विचारधारा पर आधारित हैं। जेम्स प्राय: अध्यात्मवाद के, विशेषतया हेगेलीय अध्यात्मवाद के, कट्टर विरोधी थे। उन्हें प्रयोगप्रिय एवं बाह्यवस्तुवादी अमरीकी जनता का वैचारिक प्रतिनिधि कहना अनुचित न होगा। जब वह सत्य के एक ऐसे मापदंड के विचार में लगे थे जो अध्यात्मवादी मापदंड से सर्वथा भिन्न हो, उन्होंने जनवरी, सन् 1878 ई. के "पौप्यूलर साइंस" नामक एक अमरीकी मासिकपत्र में, चार्ल्स पीअर्स (charles Pierce) लिखित "हम अपने विचारों को स्पष्ट कैसे बनाएँ" (How to make our ideas clear) - लेख पढ़ा और उसमें आधनिक फलानुमेय प्रामाण्यवाद की मूलभूत रूपरेखा पाकर उन्हें यह विश्वास हो गया कि सत्य या सत्यज्ञान की कसौटी यही है। पीअर्स को, जैसा स्वयं उन्होंने ही कहा है, फलानुमेयप्रामाण्यवाद का सभानार्थवाची "प्रैगमैटिज़्म" शब्द और उसका भाव दोनों ही जर्मनी के सुप्रसिद्ध दार्शनिक कांट की कृतियों से मिले थे। परंतु इस विचारधारा की प्राचीनता प्रदर्शित करते हुए भी जेम्स ने अपने को विशेष रूप से पीअर्स का ही आभारी माना है और उन्हें दर्शनजगत् में आधुनिक फलानुमेयप्रामाण्यवाद का प्रवर्तक कहकर सम्मानित किया है। जो भी हो, इस सिद्धांत को बल एवं प्रख्याति प्रदान करने में स्वयं जेम्स का ही नाम सर्वोपर उल्लेखनीय है। उनके लिखे हुए "मनोविज्ञान के सिद्धांत" (The Principles of Psychology), "धार्मिक अनुभव के विविध रूप" (Varieties of Religious Experience), "फलानुमेयप्रामाण्यवाद" (Pragmatism), "सत्य का अर्थ" (The Meaning of Truth) और "नानात्मक विश्व" (A Pluralistic Universe) आदि सभी प्रख्यात ग्रंथ इस विचारधारा का समर्थन करते हैं। उनके न केवल तार्किक (सत्यासत्य संबंधी) विचार ही किंतु मनोवैज्ञानिक एवं तात्विक-सभी प्रकार के विचार फलानुमेयप्रामाण्यवादी प्रवृत्ति के सुस्पष्ट प्रतीक हैं।

जेम्स के अनुसार "सत्य उन सब बातों का नाम है जो विश्वास के मार्ग में, तथा निश्चित निर्दिष्टव्य हेतुओं से भी, अपने आपको श्रेष्ठ सिद्ध करती हैं"। संक्षेप में, "सत्य विचार की प्रक्रिया का एक योग्य या उचित उपकरण मात्र होता है, ठीक वैसे ही जैसे "शुभ" हमारे व्यावहारिक जीवन का एक सफल साधन मात्र; वह किसी भी प्रकार से लाभप्रद और, वस्तुत:, अंततोगत्वा तथा सब बातों को ध्यान में रखने पर लाभदायक है।" जेम्स सत्य को हमारी निजी धारणाओं का नकद मूल्य मानते हैं, वस्तुगत तथ्य नहीं। उनके अनुसार हम स्वयं अपने सत्यों का निर्माण करते हैं। वे बाह्य वस्तुओं की प्रतिक्रिया मात्र नहीं; किंतु हमारे प्रयोजनों के साधक हमारे ही विश्वास होते हैं। हम उन विश्वासों को जो हमें भावात्मक तृप्ति या व्यावहारिक सफलता प्रदान करते हैं सत्य मानने लगते हैं, और इसके विपरीत परिणामवालों को असत्य। अत: हमारे विश्वासों या विचारों का सत्यत्व (या असत्यत्व) उनके फल या परिणाम द्वारा अनुमेय होता है। उसके स्थापित होने के लिए समय और अनुभव की आवश्यकता होती है। जैसे जैसे हमें किसी विश्वास से व्यवहार में सफलता मिलती जाती है वैसे ही वैसे उसका सत्यत्व भी बढ़ता जाता है। हमारे सीमित अनुभव द्वारा प्रमाणित हमारी किसी भी आस्था को पूर्णतया सत्य कहलाने का अधिकार नहीं, यहाँ तक कि विज्ञान के तथाकथित प्राकृतिक नियमों को भी पूर्ण रूप से सत्य नहीं कहा जा सकता। हमें अधिक से अधिक यही कहने का अधिकार है कि जहाँ तक हमारे अब तक के अनुभवों का सबंध है, वे सत्य सिद्ध हुए हैं; परंतु इससे उनकी शाश्वत सत्यता प्रमाणित नहीं होती। पूर्ण सत्य के लिए पूर्ण अनुभव, जिसका होना कभी संभव नहीं, अपेक्षित है। अत: मानव द्वारा प्रतिपादित कोई भी सत्य, चाहे वह वैज्ञानिक हो चाहे वह वैज्ञानिक हो चाहे तार्किक, पूर्ण सत्य नहीं हो सकता। जिन्हें प्राय: मनुष्य सिद्ध-सत्य या सिद्धांत सझते हैं उन्हें फलानुमेयप्रामाण्यवादी केवल उपकल्पना (Hypothesis) ही मानते हैं। वे बुद्धिवादी तर्कशास्त्र की कड़ी आलोचना करते हैं और उनके न्यायवाक्य (Syllogism) आदि सिद्धांतों को दूषित ठहराते हैं। वे मानवीय विचारों को, बुद्धिवादी तर्कशास्त्रियों की मान्यता के विरुद्ध, सदैव प्रयोजनात्मक मानते हैं, नि:स्वार्थ नहीं। ज्ञान के सत्यत्वासत्यत्व के परीक्षण की भारतीय न्यायदर्शन की "प्रवृत्तिसामर्थ्य व प्रवृत्तिविसंवाद" नामक विधि, जिसके अनुसार कार्य में प्रवृत्त होने पर सफलता प्रदायक ज्ञान को यथार्थ तथा विफलताजनक ज्ञान को अयथार्थ या मिथ्या माना जाता है, इस फलानुमेयप्रामाण्यवादी विधि से मिलती जुलती मालूम होती है। परंतु, साथ ही साथ, "तद्वति तत्प्रकारकं ज्ञानं यथार्थम्" एवं तदभाववति तत्प्रकारकं ज्ञानं भ्रम:" कहनेवाला कट्टर वस्तुवादी न्यायदर्शन अनुरूपतावाद (Correspondence theory) का समर्थक प्रतीत होता है, जब कि जेम्स आदि पाश्चात्य फलानुमेयप्रामाण्यवादियों ने उसकी कटु आलोचना की है।

जिस प्रकार सत्यासत्य विवेचन में, उसी प्रकार मानसिक प्रक्रियाओं या विचारों की व्याख्या में भी फलानुमेयप्रामाण्यवादी हमारी प्रयोजनात्मक क्रियाओं को ही प्रमुख स्थान प्रदान करते हैं। उनके अनुसार, हम न केवल अपने सत्यों का ही किंतु विविध अनुभवों का भी निर्माण करते हैं। हमारा प्राथमिक अथवा, मूलभूत अनुभव एक अविच्छिन्न धारा जैसा होता है और हम स्वप्रयोजनों एवं स्वार्थों से प्रेरित होकर, विश्लेषण तथा चुनाव आदि करने की अपनी मानसिक क्रियाओं द्वारा, उसका विभाजन, विभिन्न पदार्थों तथा उनके पारस्परिक संबंधों के रूप में, कर लिया करते है। इस प्रकार, इनके मनोविज्ञान और लॉक आदि के परमाणुवादी मनोविज्ञान में, जिसके अनुसार हमारे विचार प्रारंभिक सरल प्रत्ययों के एक यांत्रिक ढंग से संग्रहीत अनुक्रम माने जाते हैं, मौलिक अंतर है। फलानुमेयप्रामाण्यवादियों की दृष्टि में परमाणुवादी मनोविज्ञान इसी नाम के भौतिक विज्ञान की नकल है जो वास्तविकता से दूर एवं भ्रामक है।

विश्वासों या विचारों के सत्यत्वासत्यत्व के परीक्षण में फलानुमेयप्रामाण्यवादी विधि स्वीकार करनेवालों में तत्वज्ञान संबंधी मतैक्य नहीं। फिर भी, यदि किसी तत्वज्ञान को इस विचारधारा का प्रतिरूप कहा जा सकता है तो वह है प्रो॰ ड्युई द्वारा समर्थित डॉ॰ शिलर का "स्टडीज़ इन ह्यूमैनिज़्म" नामक पुस्तक में प्रतिपादित तात्विक सिद्धांत। इसके अनुसार, हम स्वयं ही सदैव एक बड़ी हद तक और सही अर्थ में वास्तविकता (Reality) का निर्माण करते रहते हैं, क्योंकि प्रत्येक तथाकथि यथार्थ वस्तु हमारे तत्संबंधी ज्ञान पर आश्रित रहती है। कोई भी ज्ञात पदार्थ ऐसा नहीं होता जिसका स्वरूप हमारे द्वारा उसके ज्ञात होने से, विशेष रूप से, निर्धारित एवं निर्मित न होता हो। पारमार्थिकता क्या है यह हम नहीं जानते और न उसके विषय में, निश्चय रूप से, कुछ कहा ही जा सकता है। परंतु जहाँ तक ज्ञात वास्तविकता का निर्माण करते रहते हैं, क्योंकि प्रत्येक तथाकथि यथार्थ वस्तु हमारे तत्संबंधी ज्ञान पर आश्रित रहती है। कोई भी ज्ञात पदार्थ ऐसा नहीं होता जिसका स्वरूप हमारे द्वारा उसके ज्ञात होने से, विशेष रूप से, निर्धारित एवं निर्मित न होता हो। पारमार्थिकता क्या है यह हम नहीं जानते और न उसके विषय में, निश्चय रूप से, कुछ कहा ही जा सकता है। परंतु जहाँ तक ज्ञात वास्तविकता (या तथ्यों) का संबंध है यह निश्चय है कि उसका स्वरूप निर्मण, एक अत्यंत महत्वपूर्ण अंश में, हमार और हमारे उस ज्ञान के ऊपर निर्भर रहता है जिसपर हमारे प्रयोजनों और स्वार्थों की छाप अनिवार्यत लगी रहती है। हमारे तथ्य वे ही होते हैं जिनमें उनकी निर्मापिका में हमारी इच्छाओं को तृप्त करने की शक्ति या योग्यता होती है। जिस प्रकार सत्य हमारे सफल विश्वास होते हैं उसी प्रकार तथ्य हमारी इच्छाओं को संतुष्टि प्रदान करनेवाले पदार्थ होते हैं। संक्षेप में हमारे व्यावहारिक जीवन में सफल क्रियात्मक प्रभावोत्पादकता को ही, इन विचारकों के अनुसार, तथ्यता या वास्तविकता का लक्षण समझना चाहिए। भारतीय बौद्ध दर्शन की सत् (पदार्थ) की परिभाषा भी, जिसके अनुसार "सत् वह है जिसमें किसी कार्य को उत्पन्न करने की क्षमता हो", (अर्थ क्रियाकारित्वलक्षणं सत्) फलानुमेयप्रामण्यवादी विचारधारा के अनुकूल प्रतीत होती है, क्योंकि उसमें भी वस्तुओं के सत्तवासत्त्व, अस्तित्व, अनस्तित्व, के निर्धारण में उनके कार्यरूप फल को ही निर्णायक माना है। परंतु तत्वज्ञान संबंधी अनेक अन्य बातों में सभी बौद्ध दार्शनिक न तो आपस में सहमत हैं और न आधुनिक फलानुमेयप्रामाण्यवादियों के साथ।

प्रयोजनवाद के सिद्धान्त

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एक मानवतावादी दर्शन होने के कारण प्रयोजनवाद संसार एवं उसकी वस्तुओं तथा क्रियाओं के कारणों पर उस गंभीरता से विचार नहीं करता जितना मानव जीवन में उसकी उपयोगिता पर विचार करता है। एक स्वतंत्र दर्शन के रूप में अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए प्रयोजनवाद ने मानव को आधार बनाते हुए संसार एवं उसकी क्रियाओं के कारणों पर विचार करते हुए निम्नलिखित मूल सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है-

  • (१) प्रयोजनवाद किसी भी शाश्वत ‘मूल्य’ तथा शाश्वत ‘सत्य’ में विश्वास नहीं करता है। इसकी धारणा है कि मूल्य एवं सत्य देश, काल एवं परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं। प्रयोजनवाद यदि किसी शाश्वत मूल्य में विश्वास करता है तो वह ‘शिव’ (उपयोगिता) है। इसलिए जीवन के स्थायी एवं निश्चित आदर्श की सत्ता को स्वीकार नहीं करता।
  • (२) प्रयोजनवादी व्यावहारिक जीवन मात्र से सम्बन्ध रखना उचित समझते हैं। ईश्वर, आत्मा, धर्म, इत्यादि का व्यावहारिक जीवन से सम्बन्ध न होने के कारण इनका कोई महत्व नहीं है।
  • (३) प्रयोजनवाद यह मानता है कि इस संसार में यथार्थ (reality) का ज्ञान संभव नहीं है।
  • (४) प्रयोजनवाद की यह धारणा है कि मनुष्य ‘परिकल्पना’ का प्रयोग करके ज्ञान के समीप पहुंँच सकता है।
  • (५) प्रयोजनवादी अंधविश्वास का विरोध करते हैं। वे विज्ञान में तो विश्वास करते हैं किन्तु यन्त्रवादी नहीं होते। वे विकास का समर्थन करते हैं। प्रयोजनवाद शाश्वत वास्तविकता में विश्वास नहीं करता है क्योंकि उसके अनुसार वास्तविकता का निर्माण होता रहता है।
  • (६) प्रयोजनवादियों के अनुसार सत्य कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो पहले से विद्यमान हो। परिस्थितियों के परिवर्तन के फलस्वरूप मनुष्य के समक्ष अनेक समस्यायें उत्पन्न होती है जिनकी पूर्ति के लिए मनुष्य चिन्तन करता है। चिन्तन में आये सभी विचार सत्य नहीं होते, सत्य केवल वे ही विचार होते हैं जिनके प्रयोग से सन्तोषजनक फल की प्राप्ति होती है।
  • (७) प्रयोजनवाद समाज में व्याप्त रूढ़ियों, मान्यताओं, परम्पराओं, बन्धनों, अंधविश्वासों आदि में कोई आस्था नहीं रखता। यह जीवन की वास्तविक परिस्थितियों में, जीवन की अनेक प्रकार की क्रियाओं में ज्यादा विश्वास करता है। प्रयोजनवाद के अनुसार विचारों की उत्पत्ति क्रिया के बाद होती है, इसलिए विचारों की अपेक्षा क्रिया को अधिक महत्व प्रदान किया जाता है।
  • (८) मनुष्य रचनात्मक कार्य करता है, यथार्थ की रचना में भी उसका योगदान है तथा मूल्य भी मानव द्वारा ही निर्मित होते हैं।
  • (९) प्रज्ञा व्यक्ति को वातावरण के अनुकूल बनाने की शक्ति देती है।
  • (१०) आदर्शवादी विचारकों के समान प्रयोजनवादी विचारक भी मनुष्य को विश्व का सर्वोच्च प्राणी मानते हैं। प्रयोजनवादियों के अनुसार मनुष्य ही एक ऐसा मनःशारीरिक प्राणी है जो अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए अनेक प्रकार की उच्चतम क्रियायें करता है। वह क्रियाओं की उपयोगिता एवं अनुपयोगिता को देखकर अनुभवों का संचय करता है तथा मानव-सभ्यता का सृजन एवं संवर्द्धन करता है।

प्रयोजनवाद की विशेषताएँ

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  • (१) प्रयोजनवाद ‘शाश्वत मूल्यों में विश्वास नहीं करता। प्रयोजनवाद के अतिरिक्त सभी दार्शनिक विचारधारायें सत्य को अपरिवर्तनशील मानती हैं परन्तु प्रयोजनवाद के अनुसार सत्य देश, काल एवं परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होता रहता है। प्रयोजनवादी डीवी केवल ‘शिव’ में ही विश्वास रखते हैं, ‘सत्य’ तथा ‘सुन्दर’ में नहीं। उनके अनुसार जो वस्तु एक स्थान पर सत्य है, यह आवश्यक नहीं है कि वह दूसरे स्थान पर भी सत्य हो। इस प्रकार सत्य सदा परिवर्तनशील है।
  • (२) बुद्धि के व्यावहारिक रूप में ही प्रयोजनवाद का विश्वास होने के कारण वे विज्ञान एवं वैज्ञानिक सत्यों पर विश्वास नहीं करते। उनका विश्वास है कि प्रज्ञा वातावरण को परिवर्तित करने में सहायक होती है। इसी कारण ‘व्यावहारिक इच्छायें’, चेष्टाओंका विकास’, ‘चुनाव द्वारा कार्य’ इत्यादि बातें ही उसके लिए उचित है।
  • (३) प्रयोजनवाद, बहुतत्त्ववादी विचारधारा का समर्थक एवं पोषक है। इसके अनुसार संसार का निर्माण अनेक तत्वों के योग से हुआ है। इस सम्बन्ध में रस्क महोदय ने लिखा है – प्रकृतिवाद प्रत्येक वस्तु को जीवन अथवा भौतिक तत्व से निर्मित मानता है। आदर्शवाद मन (विचार) अथवा आत्मा से। प्रयोजनवाद किसी एक की आधारभूत सिद्धान्त के आधार पर इसकी व्याख्या की आवश्यकता नहीं समझता है। वह अनेक सिद्धान्त के योगदान को स्वीकार करते हैं। इस प्रकार वह बहुतत्ववादी है।
  • (४) प्रयोजनवाद, आदर्शवाद के विपरीत प्रकृतिवाद के साथ सहयोग करके व्यक्तित्व का संकीर्ण अर्थ बताता है। चूँकि मनुष्य जन्म से ही भिन्न भिन्न स्वभाव तथा व्यक्तित्व वाले होते हैं इसलिए आदर्शवाद के व्यक्तित्व की सार्वभौमिकता पर प्रयोजनवाद का विश्वास नहीं है।
  • (५) प्रयोजनवाद ‘सत्य’ को ‘व्यवहार’ तथा ‘प्रयोजन’ की कसौटी पर कसकर तथा परिणाम द्वारा व्यवहार के अच्छे तथा बुरे होने की बात करके वह आदर्शवाद का विरोध करता है तथा तर्क एवं प्रज्ञा के विषय में मनुष्यों तथा पशुओं में साम्य बताकर वह प्रकृतिवादी विचारकों का समर्थन करता है।
  • (६) प्रयोजनवाद का शाश्वत मूल्यों (सांस्कृतिक मूल्यों) तथा आदर्शों में भी विश्वास नहीं है। इस विचार में वह प्रकृतिवाद का ही समर्थन करता है।
  • (७) प्रयोजनवाद, प्रकृतिवाद के समान ही ज्ञान को हेय तथा बुद्धि को मनस् (माइण्ड) से स्वतंत्र मानते हैं। यद्यपि आदर्शवादी भी मात्र कल्पना में विश्वास नहीं करते हैं।

अतः स्पष्ट है कि प्रयोजनवादी कभी आदर्शवादियों का समर्थन करते हैं तो कभी प्रकृतिवादियों का। इस प्रकार वे अपने को इन दोनों ‘वादोें’ के बीच की स्थिति में रखते हैं।

प्रयोजनवाद की आलोचना

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प्रयोजनवादी दर्शन ‘प्रगति गामी शिक्षा’ के आन्दोलन के रूप में प्रस्फुटित हुआ परन्तु आज उसकी सफलता के संबंध में अनेक आशंकायें उठाई जा रही हैं। कारण स्पष्ट है कि प्रयोजनवाद ने अपने अनिश्चित उद्देश्यों से, साधन को साध्य से अधिक महत्व देकर तथा मनुष्य की मूल्यों के क्षेत्र में रचनात्मकता इत्यादि सिद्धान्तों का प्रतिपादन करके अपूर्ण विचारधारा होने का परिचय दिया है। प्रयोजनवादी दर्शन के सम्बन्ध में कुछ विचारणीय बिन्दु इस प्रकार हैं –

  • (१) कार्य (क्रिया) सदैव विचार से अधिक महत्वशाली नहीं हो सकता। विचार क्रिया से ही उत्पन्न नहीं होता अपितु अनेक बार विचार की परिणति क्रिया में होती है।
  • (२) इस दर्शन का आध्यात्मिकता में कोई विश्वास नहीं है। प्रयोजनवादी अनुभव में यथार्थ का अस्तित्व मानता है किन्तु उन व्यक्तियों का मार्ग अवरूद्ध कर देता है जो आध्यात्मिकता को कल्पना की वस्तु न मानकर अनुभव की ही वस्तु मानते हैं और जिन्हें आध्यात्मिकता की अनुभूति बराबर होती रहती है।
  • (३) प्रयोजनवाद में एक नकारात्मकता परिलक्षित होती है। स्थापित सिद्धान्तों एवं मूल्यों को इन्कार करने के अलावा प्रयोजनवाद ने और कुछ नहीं किया। नये सिद्धान्त एवं मूल्य स्थापित करने में प्रयोजनवाद असफल रहा।
  • (४) प्रयोजनवाद जीवन की सभी समस्याओं के विचार के लिए वैज्ञानिक विधि का उपयोग करता है जबकि दूसरी ओर विज्ञान के अमानुषिक विवेचन की भर्त्सना भी करता है। यह एक विरोधाभास सा दिखाई देता है। इसके अलावा जीवन के भावनात्मक एवं आध्यात्मिक प्रश्नों के विवेचन के लिए अन्य प्रकार की विधि अपेक्षित होगी।
  • (५) प्रयोजनवाद ने चिरन्तन मूल्यों की उपेक्षा करके शैक्षिक उद्देश्यों को निम्न स्तर पर लाकर खड़ा कर दिया है। उनके अनुसार शिक्षा का कोई निश्चित उद्देश्य नहीं होता। बिना उद्देश्यों के शिक्षा देने से तो अच्छा यही जान पड़ता है कि शिक्षा दी ही न जाय, क्योंकि सुशिक्षा एवं कुशिक्षा में उद्देश्य के आधार पर ही भेद किया जा सकता है।
  • (७) कोमल शिक्षा प्रणाली के कारण बालकों को वास्तविक जीवन जीने के लिए तैयार नहीं किया जाता। उन्हें एक कृत्रिम ख्याली दुनियाँ में रखा जाता है।

अन्य क्षेत्रों में व्यावहारिकतावाद

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इन्हें भी देखें

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महत्वपूर्ण आरम्भिक पुस्तकें

द्वितीयक स्रोत

  • Cornelis De Waal, On Pragmatism
  • Louis Menand, The Metaphysical Club: A Story of Ideas in America
  • Hilary Putnam, Pragmatism: An Open Question
  • Abraham Edel, Pragmatic Tests and Ethical Insights
  • D. S. Clarke, Rational Acceptance and Purpose
  • Haack, Susan & Lane, Robert, Eds. (2006). Pragmatism Old and New: Selected Writings. New York: Prometheus Books.
  • Louis Menand, ed., Pragmatism: A Reader (includes essays by Peirce, James, Dewey, Rorty, others)

पत्रिकाएँ
There are several peer-reviewed journals dedicated to pragmatism, for example

आनलाइन स्रोत