व्रत (जैन)
सत्प्रवृत्ति और दोषनिवृत्ति को ही जैनधर्म में व्रत कहा जाता है। सत्कार्य में प्रवृत्त होने के व्रत का अर्थ है उसके विरोधी असत्कार्यों से पहले निवृत्त हो जाना। फिर असत्कार्यों से निवृत्त होने के व्रत का मतलब है, उसके विरोधी सत्कार्यों में मन, वचन और काय से प्रवृत्त होना।
मुख्य व्रत पाँच हैं- अहिंसा, अमृषा, अस्तेय, अमैथुन और अपरिग्रह।