व्लादिमीर लेनिन
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व्लदिमिर इल्यिच उल्यानोव, जिन्हें लेनिन के नाम से भी जाना जाता है, (२२ अप्रैल १८७० – २१ जनवरी १९२४) एक रूसी साम्यवादी क्रान्तिकारी, राजनीतिज्ञ तथा राजनीतिक सिद्धांतकार थे। लेनिन को रूस में बोल्शेविक की लड़ाई के नेता के रूप में प्रसिद्धि मिली। वह 1917 से 1924 तक सोवियत रूस के, और 1922 से 1924 तक सोवियत संघ के भी "हेड ऑफ़ गवर्नमेंट" रहे। उनके प्रशासन काल में रूस, और उसके बाद व्यापक सोवियत संघ भी, रूसी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा नियंत्रित एक-पक्ष साम्यवादी राज्य बन गया। लेनिन विचारधारा से मार्क्सवादी थे, और उन्होंने लेनिनवाद नाम से प्रचलित राजनीतिक सिद्धांत विकसित किए।
व्लादिमिर लेनिन Vladimir Lenin Владимир Ленин | |
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पद बहाल 30 दिसम्बर 1922 – 21 जनवरी 1924 | |
पूर्वा धिकारी | Position established |
उत्तरा धिकारी | Alexei Rykov |
पद बहाल 8 नवम्बर 1917 – 21 जनवरी 1924 | |
पूर्वा धिकारी | Position established |
उत्तरा धिकारी | Alexei Rykov |
जन्म | 22 अप्रैल 1870 Simbirsk, Rush |
मृत्यु | 21 जनवरी 1924 Gorki, Russian SFSR, Soviet Union | (उम्र 53 वर्ष)
समाधि स्थल | Lenin's Mausoleum, Moscow, Russian Federation |
जन्म का नाम | व्लादिमीर इलीइच उल्यानोव |
राष्ट्रीयता | रूसी साम्राज्य |
राजनीतिक दल |
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अन्य राजनीतिक संबद्धताऐं |
League of Struggle for the Emancipation of the Working Class (1895–1898) |
जीवन संगी | Nadezhda Krupskaya (वि॰ 1898–1924) |
संबंध |
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शैक्षिक सम्बद्धता | Saint Petersburg Imperial University |
सिंविर्स्क में एक अमीर मध्यमवर्गीय परिवार में पैदा हुए । 1887 में जब उनके बड़े भाई को मौत की सजा मिली तो उन्होंने रूस की क्रांतिकारी समाजवादी राजनीति को गले लगाया। रूसी साम्राज्य की ज़ार सरकार के विरोध में भाग लेने पर उन्हें कज़न इंपीरियल विश्वविद्यालय से निकाल दिया गया, और फिर उन्होंने अगले वर्षों में कानून की डिग्री प्राप्त की। वह 1893 में सेंट पीटर्सबर्ग में चले गए और वहां एक वरिष्ठ मार्क्सवादी कार्यकर्ता बन गए। 1897 में उन्हें देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया, और तीन साल तक शूसनस्केय को निर्वासित कर दिया गया, जहां उन्होंने नाडेज़्दा कृपकाया से शादी कर ली। अपने निर्वासन के बाद, वह पश्चिमी यूरोप में चले गए, जहां वे मार्क्सवादी रूसी सामाजिक डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी (आरएसडीएलपी) में एक प्रमुख सिद्धांतकार बन गए। 1903 में उन्होंने आरएसडीएलपी के वैचारिक विभाजन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, और फिर वह जुलियस मार्टोव के मेन्शेविकों के खिलाफ बोल्शेविक गुट का नेतृत्व करने लगे। रूस की 1905 की असफल क्रांति के दौरान विद्रोह को प्रोत्साहित करने के बाद उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध के समय एक अभियान चलाया, जिसे यूरोप-व्यापी सर्वहारा क्रांति में परिवर्तित किया जाना था, क्योंकि एक मार्क्सवादी के रूप में उनका मानना था कि यह विरोध पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने, और समाजवाद की स्थापना का कारण बनेगा। 1917 की फरवरी क्रांति के बाद जब रूस में ज़ार को हटा दिया गया और एक अनंतिम सरकार की स्थापना हो गई, तो वह रूस लौट आए। उन्होंने अक्तूबर क्रांति में प्रमुख भूमिका निभाई, जिसमें बोल्शेविकों ने नए शासन को उखाड़ फेंका था। यह एक कट्टरपंथी साम्यवादी था।
जीवन परिचय
संपादित करेंव्लादिमीर इलीइच लेनिन का जन्म सिंविर्स्क नामक स्थान में हुआ था और उसका वास्तविक नाम "उल्यानोव" था। उनके पिता विद्यालयों के निरीक्षक थे जिनका झुकाव लोकतंत्रात्मक विचारों की ओर था। उसकी माता, जो एक चिकित्सक की पुत्री थी, सुशिक्षित महिला थी। सन् 1886 में पिता की मृत्यु हो जाने पर कई पुत्र पुत्रियों वाले बड़े परिवार का सारा बोझ लेनिन की माता पर पड़ा। ये भाई बहन प्रारंभ से ही क्रांतिवाद के अनुयायी बनते गए। बड़े भाई एलेग्जेंडर को ज़ार की हत्या का षडयंत्र रचने में शरीक होने के आरोप में फाँसी दे दी गई।
उच्च योग्यता के साथ स्नातक बनने पर लेनिन ने 1887 में कज़ान विश्वविद्यालय के विधि विभाग में प्रवेश किया किंतु शीघ्र ही विद्यार्थियों के क्रांतिकारी प्रदर्शन में हिस्सा लेने के कारण विश्वविद्यालय ने निष्कासित कर दिया गया। सन् 1889 में वह समारा चला गया जहाँ उसने स्थानीय मार्क्सवादियों की एक मंडली का संगटन किया। 1891 में सेंट पीटर्सबर्ग विश्वविद्यालय से विधि परीक्षा में उपाधि प्राप्त कर लेनिन ने समारा में ही वकालत करना आरभ कर दिया। 1893 में उसने सेंट पीटर्सबर्ग को अपना निवास स्थान बनाया। शीघ्र ही वह वहाँ के मार्क्सवादियों का बहुमान्य नेता बन गया। यहीं सुश्री क्रुप्सकाया से, जो श्रमिकों में क्रांति का प्रचार करने में संलग्न थी, उसका परिचय हुआ। इसके बाद लेनिन की क्रांतिकारी संघर्ष में जीवन पर्यंत उसका घनिष्ठ सहयोग प्राप्त होता रहा।
सन् 1895 में लेनिन को बंदीगृह में डाल दिया गया और 1897 में तीन वर्ष के लिए पूर्वी साइबेरिया के एक स्थान पर निर्वासित कर दिया गया। कुछ समय बाद क्रुप्सकाया को भी निर्वासित होकर वहाँ जाना पड़ा और अब लेनिन से उसका विवाह हो गया। निर्वासन में रहते समय लेनिन ने तीस पुस्तकें लिखीं, जिनमें से एक थी "रूस में पूँजीवाद का विकास"। इसमें मार्क्सवादी सिद्धांतों के आधार पर रूस की आर्थिक उन्नति के विश्लेषण का प्रयत्न किया गया। यहीं उसने अपने मन में रूस के निर्धन श्रमिकों या सर्वहारा वर्ग का एक दल स्थापित करने की योजना बनाई।
सन् 1900 में निर्वासन से वापस आने पर एक समाचार पत्र स्थापित करने के उद्देश्य से उसने कई नगरों की यात्रा की। ग्रीष्म ऋतु में वह रूस के बाहर चला गया और वहीं से उसने "इस्क्रा" (चिनगारी) नामक समाचार पत्र का संपादन आरंभ किया। इसमें उसके साथ ""श्रमिकों की मुक्ति"" के लिए प्रयत्न करने वाले वे रूसी मार्क्सवादी भी थे जिन्हें ज़ारशाही के अत्याचारों से उत्पीड़ित होकर देश के बाहर रहना पड़ रहा था। 1902 में उसने "हमें क्या करना है" शीर्षक पुस्तक तैयार की जिसमें इस बात पर जोर दिया कि क्रांति का नेतृत्व ऐसे अनुशासित दल के हाथ में होना चाहिए जिसका मुख्य कामकाज ही क्रांति के लिए उद्योग करना है। सन् 1903 में रूसी श्रमिकों के समाजवादी लोकतंत्र दल का दूसरा सम्मेलन हुआ। इसमें लेनिन तथा उसके समर्थकों को अवसरवादी तत्वों से कड़ा लोहा लेना पड़ा। अंत में क्रांतिकारी योजना के प्रस्ताव बहुमत से मंजूर हो गया और रूसी समाजवादी लोकतंत्र दल दो शाखाओं में विभक्त हो गया - क्रांति का वास्तविक समर्थक बोलशेविक समूह और अवसरवादी मेंशेविकों का गिरोह।
सन् 1905-07 में उसने रूस की प्रथम क्राति के समय जनसाधारण को उभारने और लक्ष्य की ओर अग्रसर करने में बोलशेविकों के कार्य का निदेशन किया। अवसर मिलते ही नवंबर, 1905 में वह रूस लौट आया। सशस्त्र विद्रोह की तैयारी कराने तथा केंद्रीय समिति की गतिविधि का संचालन करने में उसने पूरी शक्ति से हाथ बँटाया और करखानों तथा मिलों में काम करनेवाले श्रमिकों की सभाओं में अनेक बार भाषण किया।
प्रथम रूसी क्रांति के विफल हो जाने पर लेनिन को फिर देश से बाहर चले जाना पड़ा। जनवरी, 1912 में सर्व रूसी दल का सम्मेलन प्राग में हुआ। लेनिन के निदेश से सम्मेलन ने क्रांतिकारी समाजवादी लोकतंत्र दल से मेनशेविकों को निकाल बाहर किया। इसके बाद लेनिन के क्रैको नामक स्थान में रहकर दल के पत्र "प्रावदा" का संचालन करने, उसके लिए लेख लिखने और चौथे राज्य ड्यूमा के बोलशेविक दल का निदेशन करने में अपने आपको लगाया।
सन् 1913-14 में लेनिन ने दो पुस्तकें लिखीं - "राष्ट्रीयता के प्रश्न पर समीक्षात्मक "विचार" तथा (राष्ट्रो का) आत्मनिर्णय करने का अधिकार।" पहली में उसने बूर्ज्वा लोगों के राष्ट्रवाद की तीव्र आलोचना की और श्रमिकों की अंतर्राष्ट्रीयता के सिद्धांतों का समर्थन किया। दूसरी में उसने यह माँग की कि अपने भविष्य का निर्णय करने का राष्ट्रों का अधिकार मान लिया जाए। उसने इस बात पर बल दिया कि गुलामी से छुटकारा पाने का प्रयत्न करनेवाले देशों की सहायता की जाए।
प्रथम महासमर के दौरान लेनिन के नेतृत्व में रूसी साम्यवादियों ने सर्वहारा वर्ग की अंतरराष्ट्रीयता का, "साम्राज्यवादी" युद्ध के विरोध का, झंडा ऊपर उठाया। युद्धकाल में उसने मार्क्सवाद की दार्शनिक विचारधारा को और आगे बढ़ाने का प्रयत्न किया। उसने अपनी पुस्तक "साम्राज्यवाद" (1916) में साम्राज्यवाद का विश्लेषण करते हुए बतलाया कि यह पूँजीवाद के विकास की चरम और आखिरी मंजिल है। उसने उन परिस्थितियों पर भी प्रकाश डाला जो साम्राज्यवाद के विनाश के अनिवार्य बना देती हैं। उसने यह स्पष्ट कर दिया कि साम्राज्यवाद के युग में पूँजीवाद के आर्थिक एवं राजनीतिक विकास की गति सब देशों में एक सी नहीं होती। इसी आधार पर उसने यह निष्पत्ति निकाली कि शुरू शुरू में समाजवाद की विजय पृथक् रूप से केवल दो तीन, या मात्र एक ही, पूँजीवादी देश में संभव है। इसका प्रतिपादन उसने अपनी दो पुस्तकों में किया - "दि यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ यूरोप स्लोगन" (1915) तथा "दि वार प्रोग्राम ऑफ दि पोलिटिकल रिवाल्यूशन" (1916)।
महासमर के समय लेनिन ने स्विटजरलैंड में अपना निवास बनाया। कठिनाइयों के बावजूद अपने दल के लोगों का संगठन और एकसूत्रीकरण जारी रखा, रूस में स्थित दल की संस्थाओं से पुन: संपर्क स्थापित कर लिया तथा और भी अधिक उत्साह एवं साहस के साथ उनके कार्य का निदेशन किया। फरवरी-मार्च, 1917 में रूस में क्रांति का आरंभ होने पर वह रूस लौट आया। उसने क्रांति की व्यापक तैयारियों का संचालन किया और श्रमिकों तथा सैनिकों की बहुसंख्यक सभाओं में भाषण कर उनकी राजनीतिक चेतना बढ़ाने और संतुष्ट करने का प्रयत्न किया।
जुलाई, 1917 में क्रांतिविरोधियों के हाथ में सत्ता चली जाने पर बोलशेविक दल ने अपने नेता के अज्ञातवास की व्यवस्था की। इसी समय उसने "दि स्टेट ऐंड रिवाल्यूशन" (राज तथा क्रांति) नामक पुस्तक लिखी और गुप्त रूप से दल के संगठन और क्रांति की तैयारियों के निर्देशन का कार्य जारी रखा। अक्टूबर में विरोधियों की कामचलाऊ सरकार का तख़्ता उलट दिया गया और 7 नवम्बर 1917 को लेनिन की अध्यक्षता में सोवियत सरकार की स्थापना कर दी गई। प्रारंभ से ही सोवियत शासन ने शांति स्थापना पर बल देना शुरू किया। जर्मनी के साथ उसने संधि कर ली; जमींदारों से भूमि छीनकर सारी भूसंपत्ति पर राष्ट्र का स्वामित्व स्थापित कर दिया गया, व्यवसायों तथा कारखानों पर श्रमिकों का नियंत्रण हो गया और बैकों तथा परिवहन साधनों का राष्ट्रीकरण कर दिया गया। श्रमिकों तथा किसानों को पूँजीपतियों और जमींदारों से छुटकारा मिला और समस्त देश के निवासियों में पूर्ण समता स्थापित कर दी गई। नवस्थापित सोवियत प्रजातंत्र की रक्षा के लिए लाल सेना का निर्माण किया गया। लेनिन ने अब मजदूरों और किसानों के संसार के इस प्रथम राज्य के निर्माण का कार्य अपने हाथ में लिया। उसने "दि इमीडिएट टास्क्स ऑफ दि सोवियत गवर्नमेंट" तथा "दि प्रोले टेरियन रिवाल्यूशन ऐंड दि रेनीगेड कौत्स्की" नामक पुस्तकें लिखीं (1918)। लेनिन ने बतलाया कि मजदूरों का अधिनायकतंत्र वास्तव में अधिकांश जनता के लिए सच्चा लोकतंत्र है। उसका मुख्य काम दबाव या जोर जबरदस्ती नहीं वरन् संगठनात्मक तथा शिक्षण संबंधी कार्य है।
बाहरी देशों के सैनिक हस्तक्षेपों तथा गृहकलह के तीन वर्षों 1928-20 में लेनिन ने विदेशी आक्रमणकारियों तथा प्रतिक्रांतिकारियों से दृढ़तापूर्वक लोहा लेने के लिए सोवियत जनता का मार्ग दर्शन किया। इस व्यापक अशांति और गृहयुद्ध के समय भी लेनिन ने युद्ध काल से हुई देश की बर्बादी को दूर कर स्थिति सुधारने, विद्युतीकरण का विकास करने, परिवहन के साधनों के विस्तार और छोटी छोटी जोतों को मिलाकर सहयोग समितियों के आधार पर बड़े फार्म स्थापित करने की योजनाएँ आरंभ कर दीं। उसने शासनिक यंत्र का आकार घटाने, उसमें सुधार करने तथा खर्च में कमी करने पर बल दिया। उसने शिक्षित और मनीषी वर्ग से किसानों, मजदूरों के साथ सहयोग करते हुए नए समाज के निर्माणकार्य में सक्रिय भाग लेने का आग्रह लिया।
जहाँ तक सोवियत शासन की विदेश नीति का प्रश्न है, लेनिन ने अविकल रूप से शांति बनाए रखने का निरंतर प्रयत्न किया। उसने कहा कि "हमारी समस्त नीति और प्रचार का लक्ष्य यह होना चाहिए कि चाहे कुछ भी हो जाए, हमारे देशवासियों को युद्ध की आग में न झोंका जाए। लड़ाई का खात्मा कर देने की ओर ही हमें अग्रसर होना चाहिए।" उसने साम्यवाद के शत्रुओं से देश का बचाव करने के लिए प्रतिरक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने पर बल दिया और सोवियत नागरिकों से आग्रह किया कि वे "वास्तविक" लोकतंत्र तथा समाजवाद के स्थापनार्थ विश्व के अन्य सभी देशों में रहनेवाले श्रमिकों के साथ अंतरराष्ट्रीय बंधुत्व की भावन। उनके शव को एम्बाम किया गया और वो आज भी मॉस्को के रेड स्कवेयर में रखा है। 20वीं सदी की सबसे महत्वपूर्ण और असरदार शख़्सियतों में गिने जाने वाले लेनिन की मौत के बाद उनकी पर्सनेलिटी ने बड़े तबके पर गहरा असर डाला। साल 1991 में सोवियत संघ के बिखरने तक उनका ख़ासा असर जारी रहा। मार्क्सवाद-लेनिनवाद के साथ उनकी वैचारिक अहमियत काफ़ी रही और अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट मूवमेंट में उनका ख़ास स्थान रहा। हालांकि, उन्हें काफ़ी विवादित और भेदभाव फैलाने वाला नेता भी माना जाता है। लेनिन को उनके समर्थक समाजवाद और कामकाजी तबके का चैम्पियन मानते हैं, जबकि आलोचक उन्हें ऐसी तानाशाही सत्ता के अगुवा के रूप में याद करते हैं, जो राजनीतिक अत्याचार और बड़े पैमाने पर हत्याओं के लिए ज़िम्मेदार रहे।[उद्धरण चाहिए]
विचारधारा
संपादित करेंलेनिनवाद साम्राज्यवाद और सर्वहारा क्रांति के युग का मार्क्सवाद है। विचारधारा के स्तर पर यह सर्वहारा क्रांति की और विशेषकर सर्वहारा की तानाशाही का सिद्धांत और कार्यनीति है। लेनिन ने उत्पादन की पूँजीवादी विधि के उस विश्लेषण को जारी रखा जिसे मार्क्स ने पूंजी में किया था और साम्राज्यवाद की परिस्थितियों में आर्थिक तथा राजनीतिक विकास के नियमों को उजागर किया। लेनिनवाद की सृजनशील आत्मा समाजवादी क्रांति के उनके सिद्धांत में व्यक्त हुई है। लेनिन ने प्रतिपादित किया कि नयी अवस्थाओं में समाजवाद पहले एक या कुछ देशों में विजयी हो सकता है। उन्होंने नेतृत्वकारी तथा संगठनकारी शक्ति के रूप में सर्वहारा वर्ग की दल विषयक मत को प्रतिपादन किया जिसके बिना सर्वहारा अधिनायकत्व की उपलब्धि तथा साम्यवादी समाज का निर्माण असम्भव है।
वस्तुतः लेनिनवाद एक लेनिन के बाद की वैचारिक परिघटना है। लेनिन का देहांत 1924 में हुआ। अपने जीवन में उन्होंने ख़ुद न तो 'लेनिनवाद' शब्द का प्रयोग किया, और न ही उसके प्रयोग को प्रोत्साहित किया। वे अपने विचारों को मार्क्सवादी, समाजवादी और कम्युनिस्ट श्रेणियों में रख कर व्यक्त करते थे। लेनिन के इस रवैये के विपरीत उनके जीवन के अंतिम दौर में (1920 से 1924 के बीच) सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के शीर्ष कम्युनिस्ट नेताओं और सिद्धांतकारों ने लेनिन के प्रमुख सिद्धांतों, रणनीतियों और कार्यनीतियों के इर्द-गिर्द विभिन्न राजनीतिक और रणनीतिक परिप्रेक्ष्य विकसित किये जिनके आधार पर आगे चल कर लेनिनवाद का विन्यास तैयार हुआ। इन नेताओं में निकोलाई बुखारिन, लियोन ट्रॉट्स्की, जोसेफ़ स्तालिन, ग्रेगरी ज़िनोवीव और लेव कामेनेव प्रमुख थे। उत्तर-लेनिन अवधि में हुए सत्ता-संघर्ष में स्तालिन की जीत हुई जिसके परिणामस्वरूप बाकी नेताओं को जान से हाथ धोना पड़ा। अतः आज लेनिनवाद का जो रूप हमारे सामने है, उस पर प्रमुख तौर पर स्तालिन की व्याख्याओं की छाप है। स्तालिन ने 1934 में दो पुस्तकें लिखीं : "फ़ाउंडेशंस ऑफ़ लेनिनिज्म" और "प्रॉब्लम्स ऑफ़ लेनिनिज्म" जो लेनिनवाद की अधिकारिक समझ का प्रतिनिधित्व करती हैं। अगर स्तालिन द्वारा दी गयी परिभाषा मानें तो लेनिनवाद साम्राज्यवाद और सर्वहारा क्रांति के युग का मार्क्सवाद होने के साथ-साथ सर्वहारा की तानाशाही की सैद्धांतिकी और कार्यनीति है। स्पष्ट है कि स्तालिन इस परिभाषा के द्वारा लेनिनवाद को एक सार्वभौम सिद्धान्त की तरह पेश करना चाहते थे। उन्हें अपने इस लक्ष्य में जो सफलता मिली, उसके पीछे लेनिन द्वारा सोवियत क्रांति के बाद 1919 में स्थापित कोमिंटर्न (कम्युनिस्ट इंटरनेशनल) की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता।
स्तालिन की सफलता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि दुनिया के अधिकतर मार्क्सवादी कार्यकर्त्ता और नेता मार्क्सवाद को लेनिनवाद के बिना अपूर्ण समझते हैं। दरअसल, लेनिनवाद क्लासिकल मार्क्सवाद में कुछ नयी बातें जोड़ता है। पहली बात तो यह है कि वह केवल क्रांतिकारी सर्वहारा पर निर्भर रहने के बजाय क्रांतिकारी मेहनतकशों यानी मज़दूरों और किसानों के गठजोड़ की मुख्य क्रांतिकारी शक्ति के रूप में शिनाख्त करता है। अपने इस योगदान के कारण लेनिनवाद, मार्क्सवाद को विकसित औद्योगिक पूँँजीवाद की सीमाओं से निकाल कर अल्पविकसित और अर्ध-औपनिवेशिक देशों के राष्ट्रीय मुक्ति संग्रामों के लिए उपयोगी विचारधारा बना देता है। लेनिनवाद ऐसे सभी देशों के कम्युनिस्टों और अन्य रैडिकल तत्त्वों के लिए क्रांति करने की व्यावहारिक विधि का प्रावधान बन कर उभरा है। लेनिनवाद के इस आयाम के महत्त्व का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि मजदूरों और किसानों के क्रांतिकारी मोर्चे की अवधारणा चीन, वियतनाम, कोरिया और लातीनी अमेरिका में कम्युनिस्ट क्रांति को अग्रगति देने में सफल रही है। जिन देशों में कम्युनिस्ट क्रांतियाँ नहीं भी हो पायीं (जैसे भारत), वहाँ के कम्युनिस्ट भी लेनिनवाद की इसी केंद्रीय थीसिस पर अमल करते हैं।[उद्धरण चाहिए]