शची इन्द्र की पत्नी और पुलोमा की कन्या थीं। द्रौपदी इन्हीं के अंश से उत्पन्न हुई थीं और ये स्वयं प्रकृति की अन्यतम कला से जन्मी थीं। जयंत शची के ही पुत्र थे। शची को 'इन्द्राणी' , 'ऐन्द्री', 'महेन्द्री', 'पुलोमजा', 'पौलोमी' आदि नामों से भी जाना जाता है।

ऐरावत पर सवार इन्द्र और शाची ; जैन ग्रन्थ पंचकल्याणक (१६७०-८०) से)

ब्रह्महत्या के भय से एक बार जब इन्द्र जलगर्भ में छिपे हुए थे तो देवताओं ने नहुष को इंद्रपद दे या। नहुष ने शची पर कुदृष्टि की तो बृहस्पति की आज्ञा से उन्होंने भुवनेश्वरी की आराधना की और उनसे अभय प्राप्त किया। फिर शची ने मानसरोवर जाकर छिपे हुए इंद्र से अपनी सारी कथा कही। इंद्र की सलाह से शची ने नहुष से कहलाया 'यदि सप्तर्षियों के कंधे पर रखी पालकी में बैठकर आवें तो मैं तुम्हारे साथ चलूँगी।' नहुष ने ऐसा ही किया। ऋषियों को धीरे धीरे चलते देखकर उसने आदेश दिया 'नाग नाग' (जल्दी चलो) अंततोगत्वा ऋषियों के शाप से नहुष को नाग हो जाना पड़ा।

अपने विवाह के पूर्व शची ने शंकर से सुंदर पति, स्वेच्छामत रूप तथा शारीरिक सुख एवं दीर्घ आयु का वरदान माँगा था। ऋग्वेद में शचीरचित कुछ सूक्त हैं जिनमें सपत्नी का नाश करने के लिए प्रार्थना की गई है (ऋचा, 10-159)। कुछ विद्वानों के मत से सूक्त बहुत बाद की रचनाएँ हैं।

सातवीं-शताब्दी के हर्षचरित में बाणभट्ट द्वारा सम्राट हर्ष की बहिन राज्यश्री के विवाह प्रसंग में आए विभिन्न प्रकार के लोगों का वर्णन करते हुए अनेक शाखाओं के दूर-दूर से आए हुए चारणों का देवी इंद्राणी के मंदिर में एकत्रित होने का उल्लेख है।[1]

  1. Datta, Amaresh (1988). Encyclopaedia of Indian Literature: Devraj to Jyoti (अंग्रेज़ी में). Sahitya Akademi. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-260-1194-0.