संजीव
संजीव (6 जुलाई, 1947 से वर्तमान) हिन्दी साहित्य की जनवादी धारा के प्रमुख कथाकारों में से एक हैं। कहानी एवं उपन्यास दोनों विधाओं में समान रूप से रचनाशील। प्रायः समाज की मुख्यधारा से कटे विषयों, क्षेत्रों एवं वर्गों को लेकर गहन शोधपरक कथालेखक के रूप में मान्य।
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जीवन-परिचयसंपादित करें
संजीव का जन्म 6 जुलाई, 1947 ई० को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के गाँव बाँगर कलाँ में हुआ था।[1] इनकी उच्च शिक्षा विज्ञान विषयों को लेकर हुई। बी०एस-सी०, ए०आई०सी० की डिग्री लेकर इन्होंने सन् 1965 से 2003 ई० तक इंडियन आयरन एंड स्टील कंपनी, कुल्टी में केमिस्ट इंचार्ज के रूप में काम किया। वहाँ से स्वैच्छिक सेवा-अवकाश लेने के पश्चात् कुछ महीने हैदराबाद विश्वविद्यालय के विजिटिंग प्रोफेसर रहे। कुछ महीने तक अक्षरपर्व (रायपुर) के संपादक रहे। करीब साल भर तक माधव प्रकाशन में संपादन कार्य करने के बाद राजेन्द्र यादव द्वारा हंस का कार्यकारी संपादक नियुक्त होकर दिल्ली में ही रहने लगे। 'हंस' के संपादन से मुक्त होने के बाद भी स्वतंत्र लेखन करते हुए अनेक वर्षों से दिल्ली में ही रह रहे हैं।
रचनात्मक परिचयसंपादित करें
संजीव हिन्दी साहित्य में साठोत्तरी दौर के बाद जनवादी कथान्दोलन के प्रायः साथ-साथ विकसित पीढ़ी के प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक हैं। वे लंबे समय तक साहित्यिक प्रचार केंद्रों से दूर रहकर ही प्रायः एक साधक की तरह रचनारत रहे हैं। उनकी पहली प्रकाशित कहानी 'अपर्णा' थी, जो उनके बगल के शहर से प्रकाशित होनेवाली लघु पत्रिका 'परिचय' में 1962 ई० में छपी थी।[2] बड़ी पत्रिका (सारिका) में प्रकाशित होनेवाली पहली कहानी थी 'किस्सा एक बीमा कम्पनी की एजेंसी का'। यह कहानी 'सारिका' में अप्रैल 1976 में प्रकाशित हुई थी।[3] कहानी एवं उपन्यास दोनों विधाओं में उन्होंने समान रूप से क्रियाशीलता एवं दक्षता का परिचय दिया है। अब तक उनके 12 कहानी संग्रह और 10 उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। इनके अतिरिक्त दो बाल उपन्यास एवं कुछ अन्य रचनाएँ भी प्रकाशित हैं। कहानी एवं उपन्यास दोनों विधाओं में तो अनेक लेखकों ने लिखा है, परंतु दोनों में समान क्रियाशीलता तथा समान उपलब्धि दुर्लभ रही है। किन्हीं का कहानीकार रूप प्रधान बना रह जाता है तो किन्हीं का उपन्यासकार रूप। आचार्य निशांतकेतु ने इन दोनों विधाओं में समान सिद्धि एवं प्रसिद्धि के प्रसंग में अनेक लोगों की चर्चा करते हुए प्रेमचन्द एवं जैनेन्द्र कुमार के संदर्भ में लिखा है कि अब आलोचक इस निष्कर्ष पर पहुँच चुके हैं और जिसकी चर्चा होती है कि ये दोनों रचनाकार कहानी तथा उपन्यास दोनों रचनाधर्मिता पर समान महत्ता और लोकसिद्ध प्रतिष्ठा के अधिकारी हैं।... दोनों कथाकार दोनों विधाओं में समस्वर हैं।[4] संजीव इस क्रम में तीसरी कड़ी प्रतीत होते हैं। संजीव का अधिकांश लेखन शोध केंद्रित है। उनकी रचना-प्रक्रिया भी उनकी इस समझ को प्रकट करती है कि रचना भावावेग की परिणति से आगे बढ़कर संघर्षपूर्ण निर्माण की एक प्रक्रिया है।[5] संजीव के प्रति सृंजय के कथन से भी यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है - अभीष्ट विषय पर रचना का एक ड्राफ्ट यह पूरा कर लेगा। फिर हम कुछ मित्र किसी दिन बैठक करेंगे। यह अपनी लिखत सुनाएगा... हम जमकर खिंचाई करेंगे... यह एक-एक नुक्स नोट करता रहेगा। दुबारा लिखकर कुछ असाहित्यिक आदमियों को सुनाएगा- कथा-रस और संप्रेषणीयता की परीक्षा के लिए... फिर तिबारा कभी-कभी तो चार-पाँच बार भी। यह अपने उपन्यासों को भी कई बार रिराइट करता है।[6] स्वयं संजीव का मानना है कि बिना शोध और संधान के मुझे लगता है कि मैं नहीं लिख पाऊँगा।[7]
वस्तुतः उनका लेखन पूरी तरह प्रतिबद्ध लेखन है। 'कला कला के लिए' का उनके लिए कोई महत्त्व नहीं है। 'कला जीवन के लिए' को वे मानते ही नहीं बल्कि जीते भी हैं। इस सन्दर्भ में बराबर उन्होंने गोगोल का उदाहरण दिया है। उनका कहना है कि गोगोल हमेशा ही मेरे लिए मानक रहा है, 'उसने वह नहीं लिखा जो वह लिख सकता था, उसने वह नहीं लिखा जो जनता चाहती थी बल्कि उसने वह लिखा जिससे उसके समाज और देश का भला होता।' अभी भी मेरा लक्ष्य वही है।[8]
लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि 'कला' को वे महत्त्व नहीं देते। उनकी रचनाओं में कथ्य एवं शिल्प का अपूर्व संयोजन हुआ है। एक नज़र में तथ्यों की बहुलता उन्हें आलोचकों की दृष्टि में समस्या उत्पन्न करती सी लगती है लेकिन जिस कौशल से वे तथ्यों के साथ स्थानीयता तथा वातावरण का भी सर्जनात्मक उपयोग करते हैं, वह उन्हें विशिष्ट बनाता है। डाॅ० पुष्पपाल सिंह का स्पष्ट कथन है कि संजीव हमारे उन चंद समकालीन कथाकारों में अग्रणी स्थान रखते हैं जो रचना में विचार का संगुंफन अत्यन्त कुशलता, कीमियागिरी के साथ करते हैं, जिनकी कहानी को पढ़कर पाठक को एक वैचारिक सम्पन्नता तो मिलती है, यह प्रतीति भी बनी रहती है कि उसने कहानी पढ़ी है।[9]
उनके अधिकांश उपन्यास गहन शोध की रचनात्मक परिणति है।[10] 'सर्कस' में समाज की मुख्य जीवनधारा से भिन्न रूप में जीने वाले वर्ग की जीवन शैली तथा विडंबना, 'सावधान! नीचे आग है' में कोयलांचल के मजदूरों की त्रासदी, तथा 'धार' एवं खासकर 'जंगल जहां शुरू होता है' में आदिवासी जीवन की विषमताओं-विडंबनाओं का चित्रण करते हुए एक रचनात्मक प्रतिपक्ष की कोशिश स्पष्ट दिखती है। 'सूत्रधार' में लोकसाहित्यकार भिखारी ठाकुर का जीवन बहुआयामिता में चित्रित हुआ है, तो 2011 में प्रकाशित उपन्यास 'रह गईं दिशाएँ इसी पार' फिक्शन के माध्यम से रचना की नयी जमीन तोड़ता है। अपने वैज्ञानिक अध्ययन एवं अनुभवों का पूरी तरह से रचनात्मक उपयोग करते हुए संजीव ने मानवीय विकास की असीम आकांक्षाओं के मध्य दुर्निवार विडंबनाओं के चित्रण-रूप में अपूर्व संसार रच डाला है। इस उपन्यास के संदर्भ में डाॅ० मैनेजर पाण्डेय ने माना है कि विमर्श की इस बहुआयामी प्रक्रिया में संजीव हर तरह के अन्याय, अत्याचार तथा अतिचार के विरोधी हैं और अग्रगामी, न्यायसंगत तथा मानवीय दृष्टिकोण के पक्षधर।[11]
लगभग चार दशकों की लंबी लेखन-अवधि में फैली उनकी कहानी-यात्रा के पाठ केंद्रित आलोचन-विश्लेषण के क्रम में डॉ० रवि भूषण उनकी कहानियों को स्वतंत्र भारत की वास्तविक कथा का अभिधान देते है; साथ ही यह भी स्पष्टतया मानते हैं कि संजीव की कहानियों का फलक व्यापक है। प्रेमचन्द और यशपाल को छोड़कर इतने बड़े कथा-फलक का अन्य कोई कथाकार हिन्दी में नहीं है।[12]
प्रकाशित कृतियाँसंपादित करें
- कहानी संग्रह
- तीस साल का सफरनामा (1981)
- आप यहाँ हैं (1984)
- भूमिका और अन्य कहानियाँ (1987)
- दुनिया की सबसे हसीन औरत (1990)
- प्रेतमुक्ति (1991)
- प्रेरणास्रोत और अन्य कहानियाँ (1996)
- ब्लैक होल (1997)
- डायन और अन्य कहानियाँ (1999)
- खोज (2000)
- गली के मोड़ पर सूना-सा कोई दरवाजा (2008)
- संजीव की कथायात्रा [सम्पूर्ण कहानियाँ, तीन खण्डों में] (2008)
- झूठी है तेतरी दादी [2008 के बाद की कहानियाँ] (2012)
- गैर इरादतन हत्या उर्फ मृत्युपूर्व का इक़बालिया बयान [प्रारंभिक कहानियों का संकलन] (2015)
- उपन्यास
- किसनगढ़ के अहेरी (1981)
- सर्कस (1984)
- सावधान ! नीचे आग है (1986)
- धार (1990)
- पाँव तले की दूब (1995)
- जंगल जहाँ शुरु होता है (2000)
- सूत्रधार (2002)
- आकाश चम्पा (2008)
- रह गईं दिशाएँ इसी पार (2011)
- फाँस (2015)
- प्रत्यंचा(2019)
- नाटक
ऑपरेशन जोनाकी
- बाल उपन्यास
- रानी की सराय
- डायन
- यात्रा साहित्य
सात समंदर पार
सम्मानसंपादित करें
- अपराध (प्रथम पुरस्कार) - अखिल भारतीय भाषा कथा प्रतियोगिता (सारिका) 1980
- प्रथम कथाक्रम सम्मान, लखनऊ (1997)
- 'जंगल जहाँ शुरु होता है' के लिए इंदु शर्मा अंतरराष्ट्रीय कथा सम्मान, लंदन (2001)
- पहल कथा सम्मान (2005)
- सुधा कथा सम्मान (2008)
- हिन्दी साहित्य के सबसे बड़े (11 लाख रुपये के) तीन पुरस्कारों में से एक श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफको साहित्य सम्मान से सम्मानित (2013)
- विशेष
रचना एवं व्यक्तित्व पर केन्द्रित पाखी (सितंबर 2009) का समग्र विशेषांक
बाहरी कड़ियाँसंपादित करें
सन्दर्भसंपादित करें
[[श्रेणी:यू के कथा सम्मान]
- ↑ संजीव का जन्म सामान्य स्तर के परिवार में हुआ था, जहाँ उन दिनों जन्म-तिथि कोई मायने नहीं रखती थी। अतः उनकी जन्म-तिथि पाँचवीं कक्षा में नामांकन करवाते समय विद्यालय के प्रधानाध्यापक द्वारा कल्पित की गयी। द्रष्टव्य-'मेरी यात्रा', कथाकार संजीव, सं० गिरीश काशिद; शिल्पायन, शाहदरा, दिल्ली; संस्करण-2008, पृ०-11.
- ↑ गैरइरादतन हत्या उर्फ मृत्युपूर्व का इक़बालिया बयान, संजीव, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2015, भूमिका (कहानी पहली कहानी की), पृ०-9.
- ↑ संजीव की कथा-यात्रा, भाग-3(तीसरा पड़ाव), वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2008, भूमिका, पृ०-10; तथा 'गैरइरादतन हत्या उर्फ मृत्युपूर्व का इक़बालिया बयान', पूर्ववत्, पृ०-9.
- ↑ कथांतर, संपादक- निशांतकेतु, बिहार स्टेट टेक्स्ट बुक पब्लिशिंग कारपोरेशन लिमिटेड, पटना, संस्करण-2005, भूमिका, पृ०-viii.
- ↑ संजीव की कथा-यात्रा, भाग-1(पहला पड़ाव), वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2008, भूमिका, पृ०-9.
- ↑ कथाकार संजीव, सं० गिरीश काशिद; शिल्पायन, शाहदरा, दिल्ली; संस्करण-2008, पृ०-36.
- ↑ कथाकार संजीव, पूर्ववत्, पृ०-103.
- ↑ कथाकार संजीव, पूर्ववत्, पृ०-106; पृ०-84 पर प्रो० गौतम सान्याल से बातचीत में भी संजीव ने गोगोल का उदाहरण दिया है।
- ↑ पुष्पपाल सिंह, कथाकार संजीव, सं० गिरीश काशिद; पूर्ववत्, पृ०-231.
- ↑ संजीव की कथा-यात्रा, भाग-2(दूसरा पड़ाव), वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2008, भूमिका, पृ०-9.
- ↑ उपन्यास और लोकतन्त्र, मैनेजर पाण्डेय; वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली; संस्करण-2013, पृ.233.
- ↑ कथाकार संजीव, सं.गिरीश काशिद; पूर्ववत्, पृ०-176.