अजय रत्न सिंह चौहान
#समाजवाद_क्या_है?
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जैसे अंधेरे का इलाज उजाला है उसी प्रकार पूँजीवाद का और उससे जन्मी सामाजिक विषमता का एक मात्र इलाज समाजवाद है ।जैसे एकतन्त्रवाद या साम्राज्यवाद के चोली दामन का साथ है वे एक दूसरे के पूरक हैं।उसी प्रकार लोकतंत्र और समाजवाद का अंतरंग संबन्ध है।एक के बिना दूसरे का अस्तित्व सम्भव नहीं है।रूस सबसे बड़ा समाजवादी देश था पर लोकतंत्र के अभाव में लौह यवनिका के चलते विघटित हो गया।
समाजवाद सार्वजनिक संस्थाओं को अधिकाधिक जिम्मेदारी के पक्ष में रहता है जनसुविधाओं की जिम्मेदारी निजी हाथों में देने से आर्थिक विषमता और बेरोज़गारी बढ़ने का कारण बन जाती है।समाजवाद सत्ता के विकेन्द्रीयकरण का समर्थक होता है जो सार्वजनिक संस्थाओं के पक्ष में इसलिए रहता है कि इससे आर्थिक लाभ की पूंजी सरकार के पास रहती है जो अंततोगत्वा जनहित में व्यय होता है।
निजीकरण से अमीर गरीब की खाई और बेरोजगारी दोनों बढती है। पूंजी और सत्ता के तालमेल अलोकतांत्रिक और जनहित के विरुद्ध होती है।और अगर इस मे धर्म का भी तालमेल हो तो लोकतंत्र की विपरीत स्थिति पैदा होती है यह एकतन्त्रवाद और सत्ता के केंद्रीकरण का कारक होता हैं।
आरएसएस और बीजोपी और उनकी सरकार की विचारधारा संविधान का शुरू से विरोध करती रही है ।न वह सत्ता का विकेंद्रीयकरण के पक्ष में है न समाजवाद के। अपनी जातीय और धार्मिक श्रेष्ठता का सिद्धांत के चलते धर्मनिरपेक्षता की मनसा, वसा, कर्मणा विरोधी है और भारत की मिलीजुली संस्कृति की दुश्मन है वैश्विक पूँजीवद और साम्राज्यवाद में शब्दों का अंतर है। इसीलिए समाजवादी विचार धारा और बीजेपी के सोच में 36 का विपरीत आंकड़ा है। जितना समाजवाद सामाजिक विद्रूपता,विसंगति,विषमता के विरुद्ध है उतनी ही यथास्थितिवादी यह सरकार है।
सरकार ने सार्वजनिक संस्थानों को निजी हाथों में देने हेतु जो उनकी बिक्री करना शुरू किया है वह पूंजी,धर्म और सत्ता के जनविरोधी गठबन्धन को मजबूत करने की साजिश है।
बढ़ती महंगाई, भ्रष्टाचार,गरीबी, भुखमरी, हिंसा आकस्मिक नहीं है वरन इस सरकार की सोची समझी नीति का कुपरिणाम है।ऐसी सच्चाई को रेखांकित करनेवाले बुद्धिजीवियों के हिन्दू विरोध, राष्ट्रद्रोही,अर्बननक्सली घोषित करके मुँहबन्ध करने की तानाशाही प्रवृति के हज़ारों उदाहरण हैं।इसपर हम को सोचना पड़ेगा।
जयहिन्द
आदरणीय गुरुजी
#श्री_उदय_प्रताप_सिंह_जी