स्वच्छ समाज के लिए संतुलित मानस आवश्यक

    इस सम्पूर्ण व्रह्मांण्ड  में “सत्यम शिवम सुन्दरम” से उत्कृष्ट वाक्यांश तलाश करना शायद सम्भव हो,सत्य की महिमा का कोई अन्त नहीं है। सारे शास्त्र, वेद, पुरान तथा अन्य धार्मिक ग्रंथ सत्य की ही खोज करते हैं, यथा सम्भव सत्य की ही व्याख्या करते हैं और सत्य के ही व्यवहारिक रुप को प्रस्तुत करते हैं तथा सत्य को प्राप्त करने की विधियों का वर्णन  करते हैं। एक मात्र ईश्वर  सत्य है और यह  सृष्टि ईश्वर का ही प्रतिरुप है, अतः इसके एक-एक कण में सत्य का वास है।  कण की परिभाषा अणु, परमाणु, न्यूट्रान, प्रोटान, इलेक्ट्रान आदि कणों में दी जाती है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इनके भी टुकड़े हो सकते हैं, इन टुकड़ों को नग्न आखों से पूर्णतः देख  पाना सम्भव नहीं है।  अध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी सामान्यतः सत्य को ऑखों से पूर्णतः से देख पाने का कोई उपाय नहीं है, इसको सिर्फ हृदय से महशूस  किया जा सकता है। इस सृष्टि में हमें जो भी वस्तु  दिखायी  पड़ती  है,  वह सत्य के उपर का आवरण मात्र  है इसलिए इस दृष्य  जगत को नश्वर कहा गया है। एक मात्र सत्य ही अटल, अनादि और  अनन्त है,  इसके अतिरिक्त अन्य सभी वस्तुएं  नश्वर हैं।

    सत्य  शिवरुप में एक ऐसी प्रेरणा है जो सुन्दरता का निर्माण करती है। सत्य की व्याख्या  एक ऐसी अदृश्य किन्तु प्रकाशमान प्रेरणा के रुप में की जा सकती है, जो व्यक्ति के मन में कल्याणकारी भावनाओं को जन्म देती है, उसके हृदय मे प्रेम का भाव उत्पन्न करती है, मष्तिस्क को ज्ञानवान तथा कर्मेन्द्रियों को संयमित करती है और उसके स्वरुप को सुन्दरता  प्रदान करती है। कुरुपता से सुन्दरता की तरफ,  दुर्गुणों से सद्गुणों की तरफ की यात्रा ही सत्य का मार्ग है। सत्य का व्यवहारिक स्वरुप  अत्यन्त ही जटिल है, इसको समझ पाना अत्यन्त ही दुर्गम कार्य है। यह दृश्य संसार सत्य का आवरण मात्र है अतः इस दृश्य संसार का परिवर्तन भी सत्य का आवरण मात्र होगा। इस दृश्य संसार के परिवर्तन में सत्य के साक्षात्कार की एक सम्भावना मात्र निहित है न कि सत्य पूर्ण रुप से प्रत्यत्क्षदर्शी है।जिस प्रकार हम सूर्य के प्रकाश में खड़े होकर यह नहीं कह सकते हैं कि हम सूर्य के पास खड़े हैं  उसी प्रकार सत्य के विस्तार रुपी इस संसार में रहते हुए, इस संसार के कर्मो को करते हुए भी हम यह नहीं कह सकते हैं कि हम पूर्ण सत्य में जीवित हैं ।  जिस प्रकार गंगा अपने उद्गम स्थल पर ही पूर्ण रूप से सत्य, शुद्ध एवं पवित्र है उसके आगे एक यात्रा या प्रवाह मात्र है, जिसमें  अनेकों वांक्षित एवं अवांक्षित तत्वों का समावेश होता है। उसी प्रकार जीवन भी अपने बीज रूप, ईश्वर, आत्मा, परमात्मा, भगवान, प्राण या जिस नाम से भी सम्बोधित किया जाये,  में ही पूर्ण सत्य है, उसके आगे यात्रा मात्र है। गंगा की एक यात्रा है पर्वतों से समुद्र तक की जिसे गंगा कहते हैं, इसकी दूसरी यात्रा है समुद्र से आकाश तक तथा आकाश से पृथ्वी की जिसे वाष्पीकरण तथा वर्षा कहते हैं। सत्य एक यात्रा है दृश्य अथवा शरीर रूप जिसे हम जीवन कहते हैं तथा दूसरी यात्रा है अदृश्य रूप में जिसे मृत्यु कहते हैं। सत्य का व्रह्मांड के रूप में विस्तार जीवन है तथा व्रह्मांड का पुनः सत्य के रुप में संकलित होने की प्रक्रिया का नाम मृत्यु है। यात्रा का नाम जो भी हो गंगा, वर्षा, जीवन, मृत्यु या कोई दूसरा नाम, किन्तु उसमें प्रवाह की शक्ति एक ही है। सत्य की व्याख्या एक ऐसे अदृश्य शक्ति के रुप में की जा सकती है जो संसार के समस्त क्रिया कलापों को उनमें सन्निहित हुए बिना सम्पादित करती है। समस्त क्रिया कलापों के पीछे एक ही शक्ति (सत्य) की प्रेरणा कार्य करती है, जो उनको स्वरुप एवं विस्तार प्रदान करती है तो फिर असत्य शब्द की कल्पना भी  बेमानी लगती है। किन्तु यह सत्य नहीं है क्योंकि जो शक्ति शिवरुप में परिवर्तित हो, अर्थात जो शक्ति परिवर्तित होकर शिवमय अर्थात कल्याणकारी होती है वही शक्ति सत्य कहलाती है। जब व्यक्ति कोई कार्य कल्याण की भावना से अथवा सृजन की भावना से करता है तो वह कार्य सत्य से प्रेरित कही जा  सकती है।

     इस संसार  में क्या कल्याणकारी है और क्या विनाशकारी है इलका निर्धारण करना भी एक अत्यन्त ही कठिन  कार्य  है। प्रायः ऐसा देखने में आता है कि एक ही कार्य एक व्यक्ति के लिए कल्याणकारी तो दूसरे व्यक्ति के लिए विनाशकारी सिद्ध होता है। अनेक मुद्दों पर दो पक्षों के बीच विवाद, लड़ाई-झगड़ा अथवा जनसंघर्ष इस बात के साक्षी हैं। एक व्यक्ति जो सांसारिक कृत्यों में लिप्त है उसे सांसारिक कृत्यों में अथवा भौतिक विकास में जनकल्याण का दर्शन होता है, जबकि दूसरी तरफ एक संयासी प्रवृति के व्यक्ति को भौतिक विकास तुच्छ और आध्यात्मिक विकास जनकल्याणकारी प्रतीत होता है। एक भौतिकवादी व्यक्ति की दृष्टि में भौतिक साधनों के उत्थान के कार्य कल्याणकारी होते हैं तो दूसरी तरफ एक अध्यात्मिक व्यक्ति की दृष्टि  में भौतिक साधनों का त्याग कल्याणकारी हो सकता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि एक ही वस्तु दो व्यक्तियों के लिए कल्याणकारी सिद्ध होती है,  किन्तु विपरित परिस्थितियों में।  एक व्यक्ति उसी वस्तु को प्राप्त करके कल्याण का अनुभव करता है, तो दूसरा व्यक्ति उसी वस्तु का त्याग करके कल्याण का अनुभव करता है। निष्कर्ष रुप में हम कह सकते हैं कि व्यक्ति के इच्छा के अनुकूल फल प्राप्ति ही उसे कल्याणकारी प्रतीत होती है। तात्पर्य यह कि प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा अपनी इच्छानुसार फल प्राप्ति के लिए किया जाने वाला कार्य ही सत्य है। किन्तु सत्य की यह विवेचना सत्य नहीं है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की प्रत्येक इच्छा सत्य पर आधारित नहीं हो सकती है।

    इच्छाओं का उद्गम स्थल मन है, मन से अनेकों प्रकार की वैचारिक तरंगे उठती हैं जो कि मष्तिस्क में जाकर योजना का रुप धारण करती हैं और कर्मेन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष होती हैं। वास्तव में मन से उठने वाली ये तरंगें ही सत्य से निकलने वाली शक्तियां हैं। इन वैचारिक शक्तियों  की तुलना विद्युत शक्ति से की जा  सकती है।  जिस प्रकार विद्युत शक्ति जब पूर्व नियोजित उपकरणों एवं माध्यमों से प्रवाहित होती हैं तो प्रकाश का माध्यम बनती हैं किन्तु अनियोजित माध्यमों से प्रवाहित होने पर वही    शक्ति विनाशकारी सिद्ध होती है। ठीक इसी प्रकार संयमित एवं सत्य संस्कारित मन से उत्पन्न इच्छा योजना रुप में प्रत्यक्ष होती है तो वह सत्य कही जा सकती है।

    विभिन्न धार्मिक एवं वैज्ञानिक अध्ययनों से पता चलता है कि मन की भूमिका हमारे शरीर में एक रडार की भाँति होती है। जिस प्रकार रडार का प्रयोग तरंगों को प्रेषित करने तथा वापस आने वाली तरंगों को ग्रहण कर संदेशों के रुप में प्रदर्शित करने के लिए होता है,उसी प्रकार मन; विचार,इच्छा या स्वप्न रुपी संदेशों को मष्तिस्क के दृश्य पटल पर प्रदर्शित करता है, जो कि बुद्धि के द्वारा कर्मेन्द्रियों तक प्रेषित किया जाता है।जिस प्रकार यदि रडार सही न हो और सुचारु रुप से कार्य न करे तो स्पष्ट और सत्य संदेश दृश्य पटल पर नहीं दिखायी देते हैं, उसी प्रकार यदि मन संयमित और अनुशाषित न हो तो वह सत्य संदेश मष्तिस्क तक नहीं प्रेषित करता है, जिसके फलस्वरुप अनेकों प्रकार की गलत इच्छाएं मष्तिस्क तक पहुँचती हैं, जिनकी पूर्ति के लिए व्यक्ति अनेकों प्रकार की अमानुषिक क्रियाएं करता है और व्यभिचारी कहलाता है।जिस व्यक्ति का मन बिना किसी विकृति के समावेश के, एक मात्र सत्य ईश्वरीय तत्व से जुड़ा रहता है तथा उससे उत्पन्न संदेशों को स्पष्ट स्पष्ट रुप से ग्रहण करता है तथा उनको उसी रुप में मष्तिस्क तक प्रेषित करता है, तो उसके फलस्वरुप व्यक्ति जिन इच्छाओं को प्राप्त करता है तथा उन इच्छाओं की पूर्ति के लिए जो कर्म करता है वे सत्य कहलाते हैं। व्यवहारिक रुप में संयमित मन के वास्तविक रुप की पहचान अत्यन्त ही कठिन कार्य है। एक पात्र में गंगा जल रख दिया जाय और यदि उसमें एक पत्थर उछाला जाय तो पत्थर पानी को दो भागों में विभाजित करता हुआ पात्र के तल में जाकर स्थिर हो जाता है, पत्थर ज्यों-ज्यों उपर से नीचे की ओर जाता है त्यों-त्यों पत्थर के उपर का विभाजित जल स्वतः उस प्रकार की पूर्व अवस्था में आ जाता है जैसे कि वह विभाजित ही न हुआ हो।कहने का तात्पर्य यह है कि जल पत्थर के गिरने से प्रभावित तो होता है, किन्तु उतने ही समय के लिए जितने समय में पत्थर पात्र के तल में स्थिर हो जाता है, अर्थात अपने गन्तव्य स्थान तक पहुँच जाता है।तत्पश्चात जल अपने पूर्वास्था को प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार जिस व्यक्ति का मन संयमित, अनुशाषित, एवं ,सत्य की अवस्था में होता है, वह व्यक्ति एकात्म भाव से ईश्वर में स्थित हो परमार्थ की कामना करता है। ऐसे व्यक्ति के मन में इच्छाएं जाग्रत तो होती हैं, किन्तु ये इच्छाएं परमार्थ के लिए होती हैं।इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि एक ऐसा व्यक्ति जिसका मन पूर्ण रुप से सत्य में स्थिर रहते हुए किसी अन्य व्यक्ति के मन को सत्य में स्थापित करने के लिए, उस व्यक्ति के मन में उत्पन्न इच्छाओं के दमन के लिए, उन इच्छाओं की पूर्ति, अपूर्ति अथवा किसी अन्य उपाय की इच्छा करता है वह व्यक्ति सत्यमार्गी तथा उसके द्वारा किया जाने वाला आचरण सत्य कहा जा सकता है।

    इस सांसारिक जीवन में प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी इच्छा के पीछे भागता दिखायी पड़ता है, सुबह से शाम तक किसी न किसी इच्छा की पूर्ति हेतु संघर्षशील दिखायी पड़ता है, ऐसे में निश्चयात्मक रुप से किसी व्यक्ति के विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता है। प्रथम दृष्टि में ही किसी को दोषी या किसी को निर्दोष कह देना, एक न्यायपूर्ण अथवा सत्य पर आधारित कथन नहीं  कहा जा सकता है। क्योंकि किसी व्यक्ति का मन किस अवस्था में विचरण करता है इस बात का निर्णय किसी व्यक्ति का चेहरा देखकर नहीं किया जा सकता है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार सागर के उपरी जलस्तर को देखकर या उसके लहरों से उठने वाली ध्वनियों को सुनकर उसकी गहराई का अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता है। दो व्यक्ति समान आचरण करते हैं, दोनों काम, क्रोध, मद, लोभ आदि से भरे दिखायी देते हैं, तो उसमें कौन सत्य पर आधारित है, और कौन असत्य पर, इसका निर्धारण करना कठिन हो जाता है, क्योंकि किस व्यक्ति ने इन क्रियाओं को परमार्थ हेतु केवल आचरण रुप में ग्रहण किया है और किस व्यक्ति का मन इन क्रियाओं में संस्कारित है इसका निर्णय एक दीर्घकालिक “आचरणों पर प्रयोग”से ही सम्भव है, न कि प्रथम दृष्टया किसी को देख लेने मात्र से।

      समुद्र के जल में दो प्रकार से लहरें उठती हैं, एक नियंत्रित तथा दूसरी अनियंत्रित। समुद्र की छाती पर एक विशालकाय जहाज चलता है तो उसके जल में लहरें उठतीं हैं, किन्तु ये लहरें किसी का कोई नुकसान नहीं करती हैं, अपितु जहाज को उसकी मंजिल तक पहुँचाने का माध्यम बनती हैं। क्योंकि ये लहरें मानव हित के लिए निर्धारित एक संतुलित एवं निश्चित क्रिया के प्रतिक्रिया के फलस्वरुप उत्पन्न होती हैं इसलिए ये संयमित हितकारी होती हैं। दूसरी स्थिति में समुद्र में लहरें तब उठती हैं जब समुद्र में तूफान अथवा ज्वार भाटा आता है। ये लहरें इतनी अनियंत्रित, असंतुलित एवं अनियमित होती हैं कि किनारे पर स्थित अनेकों वस्तुओं को नष्ट कर डालती हैं।

      रामचरितमानस में वर्णित राम और रावण का युद्ध जग विदित है। दोनों के बीच युद्ध क्रोध का ही परिणाम था किन्तु दोनों के क्रोध में एक अन्तर यह था कि राम ने क्रोध केवल युद्ध के दौरान ही धारण किया जबकि रावण दैनिक जीवन में भी अनुचित स्थानों पर भी क्रोध करता था अतः यह कहा जा सकता है कि रावण का क्रोध मन का संस्कार था । राम ने केवल युद्ध के दौरान क्रोध को धारण किया, संसार के कल्याण हेतु रावण के वध के लिए। रावण का मन राम की तरह सत्य में स्थित नहीं था, जिसके कारण उसकी सारी शक्तियाँ भी उसके विनाश को न रोक सकीं। निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि संयमित, स्वच्छ एवं संतुलित मन से उत्पन्न इच्छा के लिए संतुलित मानस के द्वारा सुनियोजित कर्म जो कि मानव एवं सम्पूर्ण प्राणियों के लिए कल्याणकारी एवं सुन्दर परिणाम उत्पन्न करता है, सत्य कहलाता है। अतः जीवन में सत्य पालन जीवन को सुखमय, सुन्दर, आदर्श एवं महान बना सकता है।