नवगीतों के उत्स में निराला                                                                                       भोलानाथ 

भोलानाथ निराला का आभिर्भाव भारतीय साहित्य-संसार का बसंतोत्सव है !अपने अनुभव और सामर्थ्य से जो भी और जैसा भी जितना भी साहित्य को टटोल और खंगाल पाया हूँ !नवगीत के फूटते हुए उत्स देख और समझ पाया हूँ !निराला जिनमे नवगीत का प्रथम उत्स फूटता हुआ दिखाई देता है संक्षिप्त परिचय नवगीत की गंगोत्री का आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ इस आशा और विस्वास के साथ की सुनी सुनाई भ्रांतियां के बहार निकल कर हम नवगीत की शक्ति और सामर्थ्य को समझ सकें ! विस्मार्क की लौह और रक्त की कूटनीति सेविषाक्त हुए विश्व में उन्नीसवीं शताब्दी जब दम तोड़ रही थी ,निराला का जन्म शताब्दी के अंतिम बसंत में २१फ़रवरी १८९९ के दिन बंगाल के मिदनापुर जिले की महिषादल रियासत में हुआ !निराला गढ़ाकोला का दैन्य और करुना ,महिषादल की सघन हरीत्मा ,बैस्वाडे का ठेठ पौरुष,वैदिक परम्परा पांडित्य लेकर अवतरित हुए ! वे आजीवन शोषण दुरव्यवस्था के अंधमहासगर मथते रहे, विष पीते रहे और अमृत बांटे रहे !निराला के जितने रंग हैं,उनके न रहने पर साहित्यिक बनियों ने उन रंगों से व्यापारिक मेले सजाये और अपने घर भरे,पर निराला के मन में बसे दीन- हीन मनुष्य के भाल का मंगल अभिषेक न हुआ !पुरुषोत्तम दास टंडन और रामचंद्र शुक्ल की उपस्थिति में साहित्य सम्मलेन में पीटने वाला निराला ,जिस भारतीय और भारतीय मनुष्य के गौरव के लिए लड़ता रहा, आज भी वह उतना ही बंधुआ है,उतना ही गिरवी,और उतना ही पराधीन है ! निराला के सामने जितने भी रस्ते थे,वे सब इतने संकीर्ण थे की उनके महाप्राण न तो उन्हें स्वीकार कर सकते थे,न तो उनमें उनका विराट व्यक्तित्व समा सकता था ! तो निराला के कवि को जीवन भर चट्टाने कटनी पड़ीं और पीठ पर नदी ढोनी पड़ी ! बस इसी संघर्ष और श्रजन के बीच अमृत का जो ज्योतिर्मय निर्झर,हजारों सालों से कुचले गए सामान्यजन के चुल्लू तक पहुँच पता है !उसे ही हम नवगीत की संज्ञा देकर निराला और निराला के बाद की छान्दसिक कविता को पंडों और प्रदुषण से मुक्त रखने की च्येष्ठ में जुटे हुए हैं ! निराला के श्रजन में उनके संघर्ष और उनके संघर्ष में इस सृजन को देखे बिना,न तो नवगीत के प्रथम उत्स के रहस्य को समझा जा सकता है और न ही निराला के व्यक्तित्व और कृतित्व की व्याख्या की जा सकती है !पारम्परिक काव्य और कविता की राजनीती से कविता की विशुद्ध धरा को फोड़ कर निकलने में जहाँ चट्टानें कटीं वहीँ नवगीत का जनम हुआ और जहाँ छेनियाँ टूटीं वहां कविता छंधीन होकर रह गई ! बाद में इसी छंधीन कविता को कविता के बनियों ने नई कविता की संज्ञा देकर बेंचना – भांजना शुरू कर दिया ! फिर तो बाकायदा इसका उत्पादन भी प्रारंभ हो गया !सस्ती चीजें जल्दी बनती हैं और जल्दी बिकती हैं !लोकप्रियता अर्जित करने के के सूत्र खोज निकाले गएऔर इस तरह नई कविता और पारंपरिक सस्ते गीतों के नियोग से अक अलग ही प्रकार की कविता का जन्म हुआ !जिसे आजकल मंच की कविता के नाम से ख़रीदा और बेचा जाता है!कौन कला,परिश्रम और समय के संकट में पड़े !लोग तो आनन् फानन रहीस बनाना चाहते हैं! कविता के रहीसों में ऐसे लोगों की संख्या बहुत बड़ी है ! निराला के सामने दोहरी कठिनाइयाँ थीं ! अक तो उन्हें निरंतर प्रयोग से गुजरना था दोसरे तमाम तरह के घटिया लोगों के सामने अपनी प्रमाणिकता को बनाये रखना था !यही करण है की प्रयोग के तहत उनहोंने कभी छंद को छोड़ा और कभी छंदों के अभिनव प्रयोग किये !उन्हें निरंतर इन दोनों ही प्रकार की कविताओं की प्रमाणिकता के जिस तत्कालीन मठाधीशों से जूझना पड़ा !महावीर प्रसाद दूवेदी ने गढ़ाकोला से दौलतपुर तक निराला के ढोये आम तो खा लिए उनकी कविताएँ छपने से परहेज ही करते रहे !रामचंद्र शुक्ल से तो उनकी बराबर ठनी रही !रामचंद्र शुक्ल पर निरालाजी की लिखी हुई कविता का यह अंश,उनकी विनोद प्रियता, विरोधिओं को आड़े हांथों लेने को सदा तत्पर रहना तथा कलात्मक अभिव्यक्ति को प्रतिकूल समय में भी बनाये रखने की अदभुतक्षमता का परिचायक है ! - जब से एफ.ए.फेल हुआ, - हमारा कालेज का बचुआ ! - हिंदी का लिक्खाड़ बड़ा वह . - जब देखो तब ऐडा पड़ा वह, - छायावाद रहस्यवाद के - भावों का बटुआ ! आरोप की भाषा में अक बात कही जाती है की, लोग अपनी विधा को निराला से जोड़कर महान बन्ने में जुटे हुए हैं ! यह दंभी मनुष्यों की अधकचरी मानसिकता प्रलाप है ! ऐसे लोग न तो निराला को और न ही परवर्ती नवगीतकारों को समझना चाहते !ये लोग तो साहित्य की दलाली करने में सर्वस्य देखते हैं !आज की वामपंथी एवम् दक्षिण पंथी साहित्यिक संस्थाएं ऐसे ही दलालों की गिरोह बनकर रह गेन हैं !ये संस्थाएं पुरोधा कवियों का यश उड़कर बड़ी बनी हैं ! जबकि आज का नवगीतकार भारतीय कविता को आधुनिक संस्कार देने में साधना रत है ! किसी तरह के वाद से मुक्त,राजनैतिक प्रपंच से दूर रहकर छान्दसिक अभिव्यक्ति को नए क्षितिज देने में वह इतना मुग्ध एवम्मस्त है की प्रतिस्पर्धा की घटिया दौड़ में सम्मलित होने का न तो उसके पास समय है और न ही मानसिकता ! स्वयं निराला वादों के संक्रामक रोगों से कितने मुक्त थे,उनकी मास्को डायलाग्स शीर्षक कविता से यह बात समझी जा सकती है ! फिर कहा, मेरे समाज में बड़े बड़े आदमी हैं, एक से एक मुर्ख,उनको फ़साना है ! XXX XXX XXX XXX XXX उपन्यास लिखा है,जरा देख दीजिये अगर कहीं छप जाय तो प्रभाव पद जाय उल्लू के पट्ठों पर ! XXX XXX XXX XXX देखा उपन्यास मैंने श्री गणेश में मिला पृय अस्नेह्मयी स्यामा मुझे प्रेम है , इसको फिर रख दिया, देखा, मास्को डायेलाग्स देखा गिडवानी को ! निराला का जो अनुभव संसार था उसे चित्रित करने के लिए,उनके पास समय भी तो न था !उसे किसी भी तरह व्यक्त कर देने की गरज से निराला को कभी छंदों से नीचे भी उतरना पड़ा ! यह निराला के लिए निहायत जरुरी था ! किन्तु अपनी रचनात्मक समाधि के क्षणों में उन्होंने जो भी रचा,वे भारतीय कविता के अद्धितीयनमूने हैं !छंद निबद्ध ऐसी ही कविताओं को हम हिंदी के सबसे पहले नवगीत कहते हैं ! बानगी …… नव गति,नव लय,ताल छंद नव नव नभ के नव विहगवृन्द को नव पर नव स्वर दे ! वीणा वादिनी वर दे ! ये पंक्तियाँ नव्यता के प्रति निराला की उत्कट ललक को व्यक्त करती हैं !वीणा वादिनी माँ सरस्वती की वंदना में लिखी गई यह कविता, न केवल निराला के उत्कृष्ट नवगीत, नवगीतकार होने का प्रमाण प्रस्तुत करती है बल्कि इससे यह भी सिद्ध होता है की वे निरंतर नव्यता के अन्वेषण में लगे रहे ! कवि की यह अन्वेषण शक्ति ही उसकी मौलिकता और वैक्तिक पहचान को विस्तार देती है !छान्दसिक अभिव्यक्ति के लिए ही नहीं नवगीत की मूलभूतविशेषताओं और प्रवृतियों और भविष्य के प्रति निराला कितने सचेष्ट थे,बीज रूप में इन साड़ी चीजों को इस गीत में उन्होंने संचित कर दिया है !उनका “स्व” सदैव का प्रतिनिधि रहा है ! कविता से सबका मंगल हो यह कामना करते हुए कविता नव्यता – भव्यता से समृद्ध हो सभ्यता की अनमोल धरोहर बने,निराला की यह संवेदना-सदभावना ही संभावनाओं के नए द्वार नए आकाश खोलने के लिए उन्हें प्रेरित करती रही ! नव गति,नव लय,ताल छंद नव नव नभ के नव विहगवृन्द को नव पर नव स्वर दे ! वीणा वादिनी वर दे ! की प्रार्थना और कामना करने वाला कवि जब अतुकांत और छंद हीन कवितायें लिखता है ! तब यह और भी महत्त्व पूर्ण हो जाता है की कसौतिओं की जांच परख कर ली जाय, फिर सुवर्ण पर हाथ रखा जाय !निराला के मुक्त अथवा रबर या केचुआ छंद एक और साहित्यिक मठाधीशों की आलोचना का शिकार होते रहे और दूसरी और कला और कविता से बाहर की दुनियाँ के लिक्खाडों के कविता लिखने का मार्ग प्रशस्त करते रहे ! और छंद मुक्त कविताओं से किताबें, पात्र पत्रिकाएं ही नहीं कविता के मंच तक भर गए ! किन्तु निराला की छंद मुक्त कविताओं में नवगीत की वे प्रवृतियां जो निराला के समकालीन गीतों और निराला के बाद के नवगीतकारों के के गीतों में विकसित हुईं प्रचुर मात्र में देखि जा सकती हैं !काव्यात्मक अभिव्यक्ति की अनिवार्य शर्त है गति,लय,एवम् ताल, यह निराला की मुक्त छंद कविताओं में भी नए रंग और प्रभाव के साथ मुखरित हुई हैं ! निराला के मुक्त छंद इन शर्तों को नागरिक गेयता के वंचन-वनवास सहकर भी पूरा करते हैं !”जूही की कलि””संध्या सुंदरी”अथवा “जागो फिर एक बार”जैसी कवितायें बिम्ब योजना,चित्रात्मकता, लय और कथ्य की बंकिम नवीनता के अनुपम उदहारण प्रस्तुत करती है ! विजन वल्लरी पर सोती थी सुहाग-भरी-स्नेह-स्वप्न-मग्न अमल-कोमल-तनु तरुणी-जूही की कलि दृग बंद किये शिथिल पत्रांक में !

              (जूही की कली) 

“मेघमय आसमान से उतर रही है वह संध्या-सुंदरी पारी सी धीरे-धीरे-धीरे !

      (संध्या सुंदरी) 

“जागो फिर एक बार” उनकी अतुकांत और छंद मुक्त कविता है,किन्तु इसका निम्न अंश देख कर कौन कह सकता है कि,यह कविता छंद हीन होगी सवा सवा लाख पर

   एक को चढाऊंगा,

गोविन्द सिंह निज

  नाम जब कहाऊंगा,

शेरों की मांड में

  आया है फिर स्यार,

जागो फिर एक बार ! यांत्रिकता के इस दौर में व्यवस्था की विसंगतियों के प्रति छोभ और आक्रोश के बीज निराला की कविताओं में नए तेवर के साथ प्रस्फुटित होते हैं आज के प्रायः सभी समर्थ नवगीतकारों के नवगीतों में यह छोभ और आक्रोश पूरी समर्थता के साथ व्यक्त होता है ! निराला कुछ इस तरह उगलते हैं यह आग --- वहीँ गंदे में उगा देता हुआंबुत्ता पहाड़ी से उठा सर ऐंठ कर बोला कुकुरमुत्ता !

     निराला अपने युग के सबसे विलक्षण कवि थे ! कविता को लेकर जितने प्रयोग उन्होंने किये उनके मुकाबले हिंदी ही नहीं भारतीय संस्कृत साहित्य में भी कोई कवि नहीं टिकता !अन्वेषण और प्रयोग के समय लिखी गई कविताओं में जितने मूल्य,अर्थ और बोध वे दे जाते हैं वह दुर्लभ है !वे सत्य के साधक थे !उन्हें परम्पराओं को तोड़ने और नए प्रतीक निर्मित करने में बड़ा सुख मिलता था !

कुकुरमुत्ता,खजोहरा,भावों का बटुआ,अनामिका,परमिल,जूही की कलि,चमेली,जैसी कविताओं तथा चतुरी चमार,देवी,कुल्लीभाट एवं बिल्लेसुर बकरिहा जैसी कहानियों ने नए नए प्रतीकों को जन्म ही नहीं दिया बल्कि संघर्ष के बीच जन्मने वाली कविता के सामने नए प्रतीकों और पात्रों के सृजन के नवद्वार भी खोले प्रतीकात्मकता लघु कलेवर नवगीतों के आवश्यक तत्व ही नहीं प्रमाणित हुए,आज नवगीत प्रतीकों के न्वान्वेशण के आधार भी बने हैं !

    ध्वनियों के आवर्त, बिम्ब योजना,शब्द लाघव,प्रतीकात्मकता,चित्रात्मकता.एवं,लय संयोजन की आधुनिक प्रवृतियां नवगीत को निराला से ही प्राप्त हुईं !यथार्थ के धरातल पर खुरदरे शब्दों का कलात्मक प्रयोग निराला के पहले नहीं देखा गया !प्रयोगवादी दृष्टि से निराला सबसे अनूठे और अकेले कवि थे !यह अकेलापन उन्होंने सदैव महसूस किया ! नवगीत की तमाम शर्तों को पूरा करने वाला यह गीत उस युग में उनकी एकान्तिक अनुभूति को व्यक्त करता है !

मैं अकेला, देखता हूँ,आ रही

मेरे दिवस की सांध्य बेला !

पके आधे बाल मेरे, हुए निष्प्रभ गाल मेरे, चाल मेरी मंद होती जा रही

          हट रहा मेला !

जानता हूँ, नदी झरने, जो मुझे थे पार करने, कर चूका हूँ,हंस रहा यह देख

            कोई नहीं मेला !

निराला जीते जी, नव गति नवलय,-छंद नव तथा नव नभ,नव विहंग,तथा नव पर और नव स्वर से युक्त गीतों के मेले देखने को ललकते तरसते अवश्य रहे !पर आज हिंदी का साहित्य नवगीतों और नवगीत –करों के इस भव्य मेले पर गौरव कर सकता है ,जिसे जिसे नवगीतकारों की चार-चार पीढियां सजाने में व्यस्त हैं !

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                                             हिंदी साहित्य के केंद्र में नवगीत [भोलानाथ]

मेरे अपने सभी सुधि पाठक ,सुधि श्रोता और नवोदित, वरिष्ठ,तथा मेरे समय साथ के सभी गीतकार,नवगीतकार और साहित्यिक मित्रों को समर्पित आज का यह नया नवगीत विद्रूप यथार्थ की धरातल पर सामाजिक व्यवस्था और प्रबंधन की चरमराती लचर तानाशाही के कुरूप चहरे की मुक्म्मल बदलाव की जरूत महसूस करता हुआ नवगीत ! साहित्यिक संध्या की सुन्दरतम की पूर्व बेला में निवेदित कर रहा हूँ !आपकी प्रतिक्रियाएं ही इस चर्चा और पहल को सार्थक दिशाओं का सहित्यिक बिम्ब दिखाने में सक्षम होंगी !

और आवाहन करता हूँ "हिंदी साहित्य के केंद्रमें नवगीत" के सवर्धन और सशक्तिकरण के विविध आयामों से जुड़ने और सहभागिता निर्वहन हेतु !आपने लेख /और नवगीत पढ़ा मुझे बहुत खुश हो रही है मेरे युवा मित्रों की सुन्दर सोच /भाव बोध /और दृष्टि मेरे भारत माँ की आँचल की ठंडी ठंडी छाँव और सोंधी सोंधी मिटटी की खुशबु अपने गुमराह होते पुत्रों को सचेत करती हुई माँ भारती ममता का स्नेह व दुलार निछावर करने हेतु भाव बिह्वल माँ की करूँणा समझ पा रहे हैं और शनै शैने अपने कर्म पथ पर वापसी के लिए अपने क़दमों को गति देने को तत्...

गूंगे मुह साहस तो देखिये चूहों ने मांदों को भूंसे का ढेर समझ गाड दिये पौरुष के झंडे ! बिल्ली बिलारों की बात क्या करें शेरों के सामने शिकारी से तने हुये चींटियों के अंडे ! चेहरों का अक्स नहीं उभरा तरासेंगी चींटियाँ चमचमाता आइना फोड़ कर पाँव से पहाड़, बरसाती मेंढकों से सुन सुन गंगा की अमर कथा कुओं की गुलरियाँ तोड़ रहीं पानी में हाड, गोबर की गौरें बंदन कर पूजी हैं कई कई नदी ताल झरने समझी विधायें न पाथ दिये कंडे ! गूंगे मुह साहस तो देखिये चूहों ने मांदों को भूंसे का ढेर समझ गाड दिये पौरुष के झंडे ! बिल्ली बिलारों की बात क्या करें शेरों के सामने शिकारी से तने हुये चींटियों के अंडे ! गुर क्या सीखेंगे बडबोले नेवले पिया जहर नागों का उगल रहे ओंठों से शब्दों के ऊपर, संज्ञायें सूरज की निगल रही लोमड़ियाँ बंजर के इतिहासी शिलालेख गुरुकुल में उगी है थूहर, चुंगी चिलम के अखबारी चर्चे कसे हैं देवालय धुंआ में बाना लिये मुह में नाच रहे पँडे ! गूंगे मुह साहस तो देखिये चूहों ने मांदों को भूंसे का ढेर समझ गाड दिये पौरुष के झंडे ! बिल्ली बिलारों की बात क्या करें शेरों के सामने शिकारी से तने हुये चींटियों के अंडे ! सनकी हवाओं की धमकी दबे पाँव हलकी सी आहट सवाली शहर की हवेली है कोनों से खंडित, बरगद की छाती अनचाही पीपल की माया बामियों बमीठों में खोज रहा हाथी जादूगर पंडित, मुखागर कहें क्या सूखी है स्याही कलम की ओंठों के नगमे कंठों में कैसे हैं ठंडे ! गूंगे मुह साहस तो देखिये चूहों ने मांदों को भूंसे का ढेर समझ गाड दिये पौरुष के झंडे ! बिल्ली बिलारों की बात क्या करें शेरों के सामने शिकारी से तने हुये चींटियों के अंडे !

भोलानाथ


मेरे अपने सभी सुधि पाठक ,सुधि श्रोता और नवोदित, वरिष्ठ,तथा मेरे समय साथ के सभी गीतकार,नवगीतकार और साहित्यिक मित्रों को समर्पित आज का यह नया नवगीत विद्रूप यथार्थ की धरातल पर सामाजिक व्यवस्था और प्रबंधन की चरमराती लचर तानाशाही के कुरूप चहरे की मुक्म्मल बदलाव की जरूत महसूस करता हुआ नवगीत ! साहित्यिक संध्या की सुन्दरतम की पूर्व बेला में निवेदित कर रहा हूँ !आपकी प्रतिक्रियाएं ही इस चर्चा और पहल को सार्थक दिशाओं का सहित्यिक बिम्ब दिखाने में सक्षम होंगी !

और आवाहन करता हूँ "हिंदी साहित्य के केंद्रमें नवगीत" के सवर्धन और सशक्तिकरण के विविध आयामों से जुड़ने और सहभागिता निर्वहन हेतु !आपने लेख /और नवगीत पढ़ा मुझे बहुत खुश हो रही है मेरे युवा मित्रों की सुन्दर सोच /भाव बोध /और दृष्टि मेरे भारत माँ की आँचल की ठंडी ठंडी छाँव और सोंधी सोंधी मिटटी की खुशबु अपने गुमराह होते पुत्रों को सचेत करती हुई माँ भारती ममता का स्नेह व दुलार निछावर करने हेतु भाव बिह्वल माँ की करूँणा समझ पा रहे हैं और शनै शैने अपने कर्म पथ पर वापसी के लिए अपने क़दमों को गति देने को तत्...

पर्वत पहाड़ों को काट काट बहती हैं शदियों से नदियाँ जब तब बदलती हैं धारा छोड़ कर किनारा ! दमघोंटू उबाऊ व्यवस्था की जर्जर संस्कारी छप्पर से उकताई पीढी को कैसे कहें हम अबारा ! पुरखों के पुस्तैनी इंद्र धनु ऊँचे वितानों को हमने सूरज के आगे उतारा नहीं, साफ़ सुथरी दीवारों की ठाठों में मकड़ों ने जाले बुने पेट प्रजनन की आगी धुयें को निहारा नहीं, गढ़ गढ़ के विष कन्या पौरुष निबल पर आजमाते रहे निमुआं निचोड़ा हमीं ने दूध सीकों का फारा ! पर्वत पहाड़ों को काट काट बहती हैं शदियों से नदियाँ जब तब बदलती हैं धारा छोड़ कर किनारा ! दमघोंटू उबाऊ व्यवस्था की जर्जर संस्कारी छप्पर से उकताई पीढी को कैसे कहें हम अबारा ! सूर्यरथी घोड़ों ने जन्में हैं खच्चर धर्मी विधिष्ठिर का रथ क्या खींचेंगे आँगे दुशासन के पाले, अधोगामी अकेला चिंतन विदुर का अंधी सभा में सियारों के जत्थे हैं उधमी बिन पगहा कैसे सम्हाले, बकरी बयानों की लफलफाई भट्ठी में जलते पितामह सुनहरे वनों का अक्षय शेर बकरों सा हारा ! पर्वत पहाड़ों को काट काट बहती हैं शदियों से नदियाँ जब तब बदलती हैं धारा छोड़ कर किनारा ! दमघोंटू उबाऊ व्यवस्था की जर्जर संस्कारी छप्पर से उकताई पीढी को कैसे कहें हम अबारा ! गाँव शहर कस्वों के चौंरे चबुतरे भी मुर्दा से लगने लगे हैं रोज जन्म लेते हैं तक्षकों के बेटे, किस्से कहानियों के मड़राते प्रेतों की शक्ल नहीं देखी देखें हैं अवसादी चेहरे पीड़ा लपेटे, आँखों के कौले निगाहों के तौले कौड़ियों के मोल बिके बैताली बाबा गुनियों ने गुलशन उजारा ! पर्वत पहाड़ों को काट काट बहती हैं शदियों से नदियाँ जब तब बदलती हैं धारा छोड़ कर किनारा ! दमघोंटू उबाऊ व्यवस्था की जर्जर संस्कारी छप्पर से उकताई पीढी को कैसे कहें हम अबारा !


भोलानाथ

मेरे अपने सभी सुधि पाठक ,सुधि श्रोता और नवोदित, वरिष्ठ,तथा मेरे समय साथ के सभी गीतकार,नवगीतकार और साहित्यिक मित्रों को समर्पित आज का यह नया नवगीत विद्रूप यथार्थ की धरातल पर सामाजिक व्यवस्था और प्रबंधन की चरमराती लचर तानाशाही के कुरूप चहरे की मुक्म्मल बदलाव की जरूत महसूस करता हुआ नवगीत ! साहित्यिक संध्या की सुन्दरतम की पूर्व बेला में निवेदित कर रहा हूँ !आपकी प्रतिक्रियाएं ही इस चर्चा और पहल को सार्थक दिशाओं का सहित्यिक बिम्ब दिखाने में सक्षम होंगी !

और आवाहन करता हूँ "हिंदी साहित्य के केंद्रमें नवगीत" के सवर्धन और सशक्तिकरण के विविध आयामों से जुड़ने और सहभागिता निर्वहन हेतु !आपने लेख /और नवगीत पढ़ा मुझे बहुत खुश हो रही है मेरे युवा मित्रों की सुन्दर सोच /भाव बोध /और दृष्टि मेरे भारत माँ की आँचल की ठंडी ठंडी छाँव और सोंधी सोंधी मिटटी की खुशबु अपने गुमराह होते पुत्रों को सचेत करती हुई माँ भारती ममता का स्नेह व दुलार निछावर करने हेतु भाव बिह्वल माँ की करूँणा समझ पा रहे हैं और शनै शैने अपने कर्म पथ पर वापसी के लिए अपने क़दमों को गति देने को तत्...

कच्ची चमेली चोला वंदन मलियागिर की तिलक सी मौतें पगड़ी बाँध घरों से नंगे पाँव निकलना ! चापलूस चंडाल चौकड़ी छिपकिलियाँ भी डार के डेरे सीख रही है घर मकड़ों के जीवित गाय निगलना ! धुआं देख छानी के ऊपर गिरगिट भाँपें आगी चूल्हों की, लूट रही बारात नखों से आँख का काजल पलकें दूल्हों की, बर्फ रजाई हरी घाटियाँ धूप सेकते भूल गई हैं प्यासा पोखर सूखी नदिया ताही कंठ पिघलना ! कच्ची चमेली चोला वंदन मलियागिर की तिलक सी मौतें पगड़ी बाँध घरों से नंगे पाँव निकलना ! चापलूस चंडाल चौकड़ी छिपकिलियाँ भी डार के डेरे सीख रही है घर मकड़ों के जीवित गाय निगलना ! उजले दिवस नहीं हैं मैले सुर्ख बारूदी धोबिन धोये आग से, फुनगी बैठे बाज चील को नहीं है फुर्सत भरी जवानी फाग से, होम की वेदी हवन नहीं हंसी आग है खड़ी होलिका गोद में लेकर वंश पूत को चाह रही है छलना ! कच्ची चमेली चोला वंदन मलियागिर की तिलक सी मौतें पगड़ी बाँध घरों से नंगे पाँव निकलना ! चापलूस चंडाल चौकड़ी छिपकिलियाँ भी डार के डेरे सीख रही है घर मकड़ों के जीवित गाय निगलना ! ॠषियों की तपोभूमि में चूर हुई हैं दुर्योधन की जांघें, सत्य नियोगी थका नहीं है औंधी पाँव पड़ी हैं फूटी घाघें. बिजली घर की चकाचौंध में देख रहे हैं जंग लगी कंदीलों का जगह जगह से खूंटी पर ही गलना ! कच्ची चमेली चोला वंदन मलियागिर की तिलक सी मौतें पगड़ी बाँध घरों से नंगे पाँव निकलना ! चापलूस चंडाल चौकड़ी छिपकिलियाँ भी डार के डेरे सीख रही है घर मकड़ों के जीवित गाय निगलना !


भोलानाथ मेरे अपने सभी सुधि पाठक ,सुधि श्रोता और नवोदित, वरिष्ठ,तथा मेरे समय साथ के सभी गीतकार,नवगीतकार और साहित्यिक मित्रों को समर्पित आज का यह नया नवगीत विद्रूप यथार्थ की धरातल पर सामाजिक व्यवस्था और प्रबंधन की चरमराती लचर तानाशाही के कुरूप चहरे की मुक्म्मल बदलाव की जरूत महसूस करता हुआ नवगीत ! साहित्यिक संध्या की सुन्दरतम नवरात्रि की पूर्व बेला में निवेदित कर रहा हूँ !आपकी प्रतिक्रियाएं ही इस चर्चा और पहल को सार्थक दिशाओं का सहित्यिक बिम्ब दिखाने में सक्षम होंगी !

और आवाहन करता हूँ "हिंदी साहित्य के केंद्रमें नवगीत" के सवर्धन और सशक्तिकरण के विविध आयामों से जुड़ने और सहभागिता निर्वहन हेतु !आपने लेख /और नवगीत पढ़ा मुझे बहुत खुश हो रही है मेरे युवा मित्रों की सुन्दर सोच /भाव बोध /और दृष्टि मेरे भारत माँ की आँचल की ठंडी ठंडी छाँव और सोंधी सोंधी मिटटी की खुशबु अपने गुमराह होते पुत्रों को सचेत करती हुई माँ भारती ममता का स्नेह व दुलार निछावर करने हेतु भाव बिह्वल माँ की करूँणा समझ पा रहे हैं और शनै शैने अपने कर्म पथ पर वापसी के लिए अपने क़दमों को गति देने को तत्...

चींटियों के बिल में हाँथ डार खोज रहे मरुथल वनों का हाथी हिराया ! गोबर गौशाला में धूनी धुंआँ पलक मलते रहे खेत इल्लियों ने खाया ! मुनमुनाती रही बहरे कानों में बगदर पिघलता रहा शीशा रह रह भट्ठी के भीतर, उबलता रहा लहू लोहित शिराओं का तनते रहे आँख आँगन में परदेशी तीतर, शरहद के शेरों के बंधे पंजे खोले ना बन्दर सोया है बरगद की छाया ! चींटियों के बिल में हाँथ डार खोज रहे मरुथल वनों का हाथी हिराया ! गोबर गौशाला में धूनी धुंआँ पलक मलते रहे खेत इल्लियों ने खाया ! चिपकाये छाती से छौंना ललछर मुँह बंदरिया कूद रही फुनगियों की मोटी डरैया, नई उलहन की गोफरी में खीटा सीका में आँख धरे टेय रही मूंछें बिलैया, सहे पीठ हौदों की चाबुक पहाड़ों के आगे ऊँटों ने मूँड न उठाया ! चींटियों के बिल में हाँथ डार खोज रहे मरुथल वनों का हाथी हिराया ! गोबर गौशाला में धूनी धुंआँ पलक मलते रहे खेत इल्लियों ने खाया ! मृत्यु बोध मजबूरी तोड़ेगी ओंठों की फेफरी पानी की जलती चिनगी मछलियाँ, हाँथ की मशालें लाँघेंगी संशय शिखर खोजेंगी बुर्जों में पनघट की गलियाँ, चन्दन की माला खूंटी ने लीली जाने न हठ धर्मी रानी शनीचर की माया ! चींटियों के बिल में हाँथ डार खोज रहे मरुथल वनों का हाथी हिराया ! गोबर गौशाला में धूनी धुंआँ पलक मलते रहे खेत इल्लियों ने खाया !

भोलानाथ मेरे अपने सभी सुधि पाठक ,सुधि श्रोता और नवोदित, वरिष्ठ,तथा मेरे समय साथ के सभी गीतकार,नवगीतकार और साहित्यिक मित्रों को समर्पित आज का यह नया नवगीत विद्रूप यथार्थ की धरातल पर सामाजिक व्यवस्था और प्रबंधन की चरमराती लचर तानाशाही के कुरूप चहरे की मुक्म्मल बदलाव की जरूत महसूस करता हुआ नवगीत ! साहित्यिक संध्या की सुन्दरतम नवरात्रि की पूर्व बेला में निवेदित कर रहा हूँ !आपकी प्रतिक्रियाएं ही इस चर्चा और पहल को सार्थक दिशाओं का सहित्यिक बिम्ब दिखाने में सक्षम होंगी !

और आवाहन करता हूँ "हिंदी साहित्य के केंद्रमें नवगीत" के सवर्धन और सशक्तिकरण के विविध आयामों से जुड़ने और सहभागिता निर्वहन हेतु !आपने लेख /और नवगीत पढ़ा मुझे बहुत खुश हो रही है मेरे युवा मित्रों की सुन्दर सोच /भाव बोध /और दृष्टि मेरे भारत माँ की आँचल की ठंडी ठंडी छाँव और सोंधी सोंधी मिटटी की खुशबु अपने गुमराह होते पुत्रों को सचेत करती हुई माँ भारती ममता का स्नेह व दुलार निछावर करने हेतु भाव बिह्वल माँ की करूँणा समझ पा रहे हैं और शनै शैने अपने कर्म पथ पर वापसी के लिए अपने क़दमों को गति देने को तत्...

अखबारों के बड़े हादसे शोर सराबा दहशत गर्दी पाल रही है बांह में वर्दी आने वाली सुबह की छाती होंगे बड़े बड़े विस्फोट ! महानगर की महा सभा के दरबारी हैं चोर उच्चके सभापति बीहड़ के पाले लील रहे दुधमुँही चेतना प्रतिबंधों की नातेदारी ओट ! नदिया किनारे बूढ़े कहुओं की पीठों से सधी कुल्हारी छील रही है ताज़ा ताज़ा छाल, बड़ी बड़ी नाँदों के भीतर पकेगी सड सड चमर ठिकाने धीरे धीरे मरी गाय की खाल, कई कई जन्मों की कल्पी अथक साधना चित्र केतु की समझ न आई चरर मरर कंठों भर सिसकी कदम कदम पर झेले पनही पानी पाथर चोट ! अखबारों के बड़े हादसे शोर सराबा दहशत गर्दी पाल रही है बांह में वर्दी आने वाली सुबह की छाती होंगे बड़े बड़े विस्फोट ! महानगर की महा सभा के दरबारी हैं चोर उच्चके सभापति बीहड़ के पाले लील रहे दुधमुँही चेतना प्रतिबंधों की नातेदारी ओट ! गांजा भांग धतूर अफीमी मदहोशी की गोली सी जहन भरी है जनम जनम की जहर गुलामी, दिनचर्या में देह खपी है देहरी देहरी तरुआ घिस गए कमर झुकी है टूटे हाथ सलामी, सूत्रधार चाणक्य चोटैया उगली आग बोर कर मिसरी सावन मास की अंधी आँखें कैसे जानें तपन जेठ की मरुथल मृग छलना की खोट ! अखबारों के बड़े हादसे शोर सराबा दहशत गर्दी पाल रही है बांह में वर्दी आने वाली सुबह की छाती होंगे बड़े बड़े विस्फोट ! महानगर की महा सभा के दरबारी हैं चोर उच्चके सभापति बीहड़ के पाले लील रहे दुधमुँही चेतना प्रतिबंधों की नातेदारी ओट ! मठाधीश हो गए कसाई आनन फानन छोड़ मढुलिया भैरों नाचें क्षेत्र पाल के द्वारे, भूत प्रेत बैताल के बंधुआ पंडे रहा कौन जो कला बताये देवी फिरें विपत के मारे, छद्मीं उत्सव गाजे बाजे यज्ञ आहूती सन्यासी को चली लुभाने बहुरूपियों की फ़ौज ले ध्वजा नारियल लाल लंगोटी चिलम खेत की रोट ! अखबारों के बड़े हादसे शोर सराबा दहशत गर्दी पाल रही है बांह में वर्दी आने वाली सुबह की छाती होंगे बड़े बड़े विस्फोट ! महानगर की महा सभा के दरबारी हैं चोर उच्चके सभापति बीहड़ के पाले लील रहे दुधमुँही चेतना प्रतिबंधों की नातेदारी ओट !

भोलानाथ मेरे अपने सभी सुधि पाठक ,सुधि श्रोता और नवोदित, वरिष्ठ,तथा मेरे समय साथ के सभी गीतकार,नवगीतकार और साहित्यिक मित्रों को समर्पित आज का यह नया नवगीत विद्रूप यथार्थ की धरातल पर सामाजिक व्यवस्था और प्रबंधन की चरमराती लचर तानाशाही के कुरूप चहरे की मुक्म्मल बदलाव की जरूत महसूस करता हुआ नवगीत ! साहित्यिक संध्या की सुन्दरतम बेला में निवेदित कर रहा हूँ !आपकी प्रतिक्रियाएं ही इस चर्चा और पहल को सार्थक दिशाओं का सहित्यिक बिम्ब दिखाने में सक्षम होंगी !

और आवाहन करता हूँ "हिंदी साहित्य के केंद्रमें नवगीत" के सवर्धन और सशक्ती करण के विविध आयामों से जुड़ने और सहभागिता निर्वहन हेतु !आपने लेख /और नवगीत पढ़ा मुझे बहुत खुशी हो रही है मेरे युवा मित्रों की सुन्दर सोच /भाव बोध /और दृष्टि मेरे भारत माँ की आँचल की ठंडी ठंडी छाँव और सोंधी सोंधी मिटटी की खुशबु अपने गुमराह होते पुत्रों को सचेत करती हुई माँ भारती ममता का स्नेह व दुलार निछावर करने हेतु भाव बिह्वल माँ की करूँणा समझ पा रहे हैं और शनै शैने अपने कर्म पथ पर वापसी के लिए अपने क़दमों को गति देने को तत्पर हैं .

एक अरसे से अपनी उनंगों के साथ जिये बेले की गंध सी महकती आशायें ! काँटों के वन की बेपनही यात्रायें छेदती रहीं पांव अर्जित सुविधायें ! अपनी जरूरत पर मंदिर की मूरत पर चड़ावे का चलन चला ऐसा, अपना कहा करू हुआ उनका कल्पतरु हुआ गंगा मैया के जैसा, ओंठों पर छद्मी मुस्कानों के छंद लिये बोलते रहे मढते रहे घोषणाएँ ! एक अरसे से अपनी उनंगों के साथ जिये बेले की गंध सी महकती आशायें ! काँटों के वन की बेपनही यात्रायें छेदती रहीं पांव अर्जित सुविधायें ! हम लिखते रहे गीत ग़ज़ल गाते रहे करूणायें दिवस दुविधा में बीता, साँझ ढली रात में दिखे नहीं आँख में घिनौची घड़ा रीता, ठाठों में बाँध रहीं मकड़ियाँ लार लिये बुनती हैं जाले खींच कर सिरायें ! एक अरसे से अपनी उनंगों के साथ जिये बेले की गंध सी महकती आशायें ! काँटों के वन की बेपनही यात्रायें छेदती रहीं पांव अर्जित सुविधायें ! घायल हैं पनघट चोटिल पनहारियाँ कुंठित है भींगा आँचल, घूँघट की मृग्छ्लना आँखों चौकड़ियाँ धोती हैं काजल, आंशू हैं अपनी आँखों की शाख लिये भीतर की लाज सी सिकुड़ती व्यथायें ! एक अरसे से अपनी उनंगों के साथ जिये बेले की गंध सी महकती आशायें ! काँटों के वन की बेपनही यात्रायें छेदती रहीं पांव अर्जित सुविधायें !

भोलानाथ मेरे अपने सभी सुधि पाठक ,सुधि श्रोता और नवोदित, वरिष्ठ,तथा मेरे समय साथ के सभी गीतकार,नवगीतकार और साहित्यिक मित्रों को समर्पित आज का यह श्रंगारिक नवगीत साहित्यिक संध्या की सुन्दरतम बेला में निवेदित कर रहा हूँ !आपकी प्रतिक्रियाएं ही इस चर्चा और पहल को सार्थक दिशाओं का सहित्यिक बिम्ब दिखाने में सक्षम होंगी !

और आवाहन करता हूँ "हिंदी साहित्य के केंद्रमें नवगीत" के सवर्धन और सशक्तिकरण के विविध आयामों से जुड़ने और सहभागिता निर्वहन हेतु !आपने लेख /और नवगीत पढ़ा मुझे बहुत खुश हो रही है मेरे युवा मित्रों की सुन्दर सोच /भाव बोध /और दृष्टि मेरे भारत माँ की आँचल की ठंडी ठंडी छाँव और सोंधी सोंधी मिटटी की खुशबु अपने गुमराह होते पुत्रों को सचेत करती हुई माँ भारती ममता का स्नेह व दुलार निछावर करने हेतु भाव बिह्वल माँ की करूँणा समझ पा रहे हैं और शनै शैने अपने कर्म पथ पर वापसी के लिए अपने क़दमों को गति देने को तत्..

यादों की खंडहर हवेली में रहने को कोई तो आये ! लीप पोत आँगन तुलसी के चौंरे में स्वस्तिका रचाये ! भीतर के फूले पलाशों की ]छाँव तले अनछुए प्रसंगों के कोरे प्रस्तावों पर रंगों से नाम लिखे, दूध धुली ओंठों का गूंगा आमंत्रण पलकों की भाषा नैनों की इतर गंध फूलों से प्रणय सिखे, चिर परचित रागिनी रसीली जुही गंध सी सांस में समाये ! यादों की खंडहर हवेली में रहने को कोई तो आये ! लीप पोत आँगन तुलसी के चौंरे में स्वस्तिका रचाये ! होली के रंग सी धुल गई ओंठ की लिपस्टिक बिन पूँछे आँखों का पिया प्यार फूला है भीतर गुलाब सा, बरसों की सूखी तलैया भी देख रही ख़बरों में मानसून दरारों में लहराएगा पानी तालाब सा, हरी भरी घाटियों के पके बाल लगते हैं धूप के नहाये ! यादों की खंडहर हवेली में रहने को कोई तो आये ! लीप पोत आँगन तुलसी के चौंरे में स्वस्तिका रचाये ! मेड़ो के मंदिर में झूम रहे बरगद में बाँधी थी हमने कांपती उँगलियों से मौली फूली डरैया, मेलों के शतरंगी सामियाने उजड़ गये और बदल गये चेहरे दिखते नहीं ठेलों में मूमफली लैया, पतरोई सी उड़ती आँधियों की आगी आँख में समाये ! यादों की खंडहर हवेली में रहने को कोई तो आये ! लीप पोत आँगन तुलसी के चौंरे में स्वस्तिका रचाये !

भोलानाथ मेरे अपने सभी सुधि पाठक ,सुधि श्रोता और नवोदित, वरिष्ठ,तथा मेरे समय साथ के सभी गीतकार,नवगीतकार और साहित्यिक मित्रों को समर्पित आज का यह व्यवस्था का नवगीत साहित्यिक संध्या की सुन्दरतम बेला में निवेदित कर रहा हूँ !आपकी प्रतिक्रियाएं ही इस चर्चा और पहल को सार्थक दिशाओं का सहित्यिक बिम्ब दिखाने में सक्षम होंगी !

और आवाहन करता हूँ "हिंदी साहित्य के केंद्रमें नवगीत" के सवर्धन और सशक्तिकरण के विविध आयामों से जुड़ने और सहभागिता निर्वहन हेतु !आपने लेख /और नवगीत पढ़ा मुझे बहुत खुश हो रही है मेरे युवा मित्रों की सुन्दर सोच /भाव बोध /और दृष्टि मेरे भारत माँ की आँचल की ठंडी ठंडी छाँव और सोंधी सोंधी मिटटी की खुशबु अपने गुमराह होते पुत्रों को सचेत करती हुई माँ भारती ममता का स्नेह व दुलार निछावर करने हेतु भाव बिह्वल माँ की करूँणा समझ पा रहे हैं और शनै शैने अपने कर्म पथ पर वापसी के लिए अपने क़दमों को गति देने को तत्........

ले कर परिवर्तन की नई नई ख्वाहिशें आईं बहुत मरुथल में वेगवती आंधियां ! बोले नहीं कुछ बदले नहीं पाले रहे आँस्तीनों में जन्मों की व्याधियां ! फूंकते रहे पुतले शीश कटे पौरुष के पर्व में दशहरों के मूठों के मारे, रूढ़ियों के लंगड़े अपाहिज पुरखों की अर्जित थातियाँ हाथ शकुनियों के हारे, नई नई जूतियों ने जरबों में पाँव धर उगाई हैं आँख भर केवल रतौधियाँ ! ले कर परिवर्तन की नई नई ख्वाहिशें आईं बहुत मरुथल में वेगवती आंधियां ! बोले नहीं कुछ बदले नहीं पाले रहे आँस्तीनों में जन्मों की व्याधियां ! बीज बरगद का चिंतन में डूबा भाँप भाँप कैक्टस की पीर भरी अंतर ख़ामोशी, घोड़ों ने खेत चरे लबरों ने लेबों में भेजी है जांच को लेंड़ी खरगोशी, अंधी छलनाओं ने सूरज को खूब छला बाबा वशिष्ठ की पाकर के मानक उपाधियाँ ! ले कर परिवर्तन की नई नई ख्वाहिशें आईं बहुत मरुथल में वेगवती आंधियां ! बोले नहीं कुछ बदले नहीं पाले रहे आँस्तीनों में जन्मों की व्याधियां !


भोलानाथ