मदुरै की रथ उत्सव

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इस महोत्सव को प्रचलित रूप से "चिथिरै तिरुविला" (तमिल: சித்திரை திருவிழா) भी बोला जाता है और ये बड़ी बात से मदुरै की शहर (तमिलनाडु का दक्षिण मार्ग पर) मनाया जाता है अप्रैल की महीने में। इस हिन्दु उत्सव, तमिल केलिन्डर की "चिथिरै" माह पर पड़ जाती है और मदुरै की प्रसिद्धि मिनाक्षी अम्मन मंदिर से संबंधित है। इससे ही देवी मीनाक्षी, (पारवती की एक रूप) और उसकी पति, सुंदरेश्वर (शिव की एक रूप) की शुभ विवाह प्रत्येक वर्ष होती है और बड़ी उत्साह से संचलन किया जाता है।

इस उत्सव एक पूरे महीने तक चलता है। पहला पंद्रह दिन मीनाक्षी (जिसकी मूर्ति को रथ में) दिव्य शासक के रूप में उसकी महानता और शक्ति के लिए मनाया जाता है और उसकी और सुंदरेश्व की विवाह को निरिक्षण करने के लिए लोग आते हैं। अगले पंद्रह दिन अलगर या कल्ललगर (विष्णु की एक अवतार) को शोभयात्रा के लिए निकलते हैं जो उसकी मंडप (जो अलगारकोविल में है) से मीनाक्षी अम्मन मंदिर आता है। अलगर की मूर्ति को पूरे मदुरै के अंदर लेकर वैगई नदी में डूबा जाता है। इसमें रंग-बिरंगे कपड़े का छत्र, फूल आदि, तथा उस पर बंधे लकड़ी के घोड़े, तथा जुलूस में देवताओं को ले जाती रथ, देखने लायक दृश्य है।

इतिहासिक दिव्य चरित्र
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ये उत्सव बहुत ही ज़माने के पहले से मनाया जाता था और पंड्या राज्य में इसका शुरुआत हुआ था।। इस महोत्सव का यह पुराने कथा है कि मीनाक्षी, राजा मलयध्वजा पांड्यन और रानी कंचना मलाई की पुत्री थी। इस राजसी जोड़ी को लम्बे समय तक पुत्र नहीं था। इसिलिए राजा मलयध्वजा ने कई पूजाओं की और प्रार्थनाएँ अर्पित किया एक पुत्रक मिलने के लिए। ऐसे ही एक पूजा के माध्यम से एक छोटी लड़की आग से बाहर निकलकर उस राजा की गोद पर बैठी। उस समय में एक पवित्र आवाज़ सुनने को आया जिसने कहा की उस बच्ची पार्वती का अवतार है जो विश्व की भलाई के लिए जन्म ले लिया है और बाद में शिव भी उसको आकर ले जाएगा। मीनाक्षी को युद्ध में प्रशिक्षित किया गया था और उसको पंड्या राज्य की रानी भी बनाया उसकी पिता की मृत्यु के बाद। मीनाक्षी, अपनी असाधारण कौशल से दुनिया विजय प्राप्त की और उसके बाद, कैलाश (शिव का निवास) को प्राप्त करने के लिए जायी। पर वो युद्ध में शिव को देखकर, मीनाक्षी को प्यार हुई और उसको ये भी समझ आयी की वो पार्वती का एक अवतार है। शिव वादा करता है की वो मदुरै आकर उसको विवाह करेगा। शिव सुंदरेश्वर का रूप लेता है और मदुरै पहुंचकर, मीनक्षी को शादी करता है जिसके बाद वो अपनी पत्नी के साथ मदुरै को नियम करता है।

अलगर को मानाने का संबध वैष्णव कल्ललगर मंडप से है। इसके पीछे दो कथाएं भी हैं। एक बार, मण्डुका ऋषि अलगर पहाड़ों की पवित्र जलों में नहा रहा था और उसने एक क्रोधी ऋषि (जिसका नाम दुर्वासा था) को नहीं देखा। दुर्वासा ने अपमान करके उसे श्राप दिया कि वे वैगई नदी में एक मेंढक जैसा रह जाये। अभिशाप से मुक्ति प्राप्त करने के लिए मण्डुका को अलगर की आराधना करना था। इससे अलगर ही वैगई नदी पर जाके मण्डुका को अपनी दस अवतारें दिखाके आशीर्वाद की।

मीनाक्षी और सुंदरेश्वर की विवाह पर अलगर जो मीनक्षी की भाई था भी आने वाला था। वो २० किलोमीटर यात्रा शुरू की उसके निवास (अलगर पहाड़ों) से मदुरै पहुँच जानने के लिए। अलगर खुद को डाकू के रूप में प्रच्छन्न करना पड़ा जिससे वो और उसके सामान सुरक्षित रहें। कुछ समय में सैनिकों से बचना पड़ा और उस पहाड़ों के घने वन उसके यात्रा को ओर देर बढ़ाया। ये सुंदरेश्वर का उद्देश्यपूर्ण कार्य था क्योंकि विष्णु, अलगर के रूप में कन्यादान( मीनाक्षी की हाथ को देना) करने वाला था। पर सुंदरेश्वर ने ऐसा कर्म किया जो साबित करता है कि शिव और विष्णु एक ही शक्ति है। जब अलगर वैगई नदी को पार किया, उसको पता चला कि उसकी बहन की शादी ख़त्म हुई। इससे वो क्रोध पड़ा और मीनाक्षी तथा सुंदरेश्वर को वैगई नदी के सामने उफारें दिया और वापस लौट गया, और मदुरै की अंदर पैर भी नहीं रखा।

ये उत्सव अनेक संस्कृतियों को जोड़ती है और उसकी मुक्ति से मदुरै की आशीर्वाद होती है।

ग्रंथ सूची
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