कंगीलु उडुपी का एक प्रसिद्ध नृत्य कला है। यह मंगलूर मै भी प्रचलित है। मुंडल एवं गौडा समुदाय इस न्रत्य कला के मूल कलाकार माने जाते हैं। इस न्रत्य को पूर्णचंद्र के रात्रि को किया जाता है। कंगीलु उडुपी के हर क्शेत्र मे प्रबल नही है, केवल कुछ ही जगहों में। यह कला धार्मिक है जिसके कारण केवल स्थानीय लोग ही इसका अत्योत्तम तरीके से प्रदर्शन एव्ं प्रशंसा कर सकते हैं।[1]

कोरगज्जा/कंगीलु पोशाक

कई और भारतीय नृत्य कलाओं के समान, कंगीलु भी प्रशिक्शित लोगों द्वारा रंगमंच पर दर्शाया जाता है। इसका प्रारंभ हमेशा दुर्गा माता की आरधना के साथ ही किया जाता है। कलाकारों का मानना है कि जब वे देवी माता के सामने हाथ जोडकर प्रार्थना करते हैं, तब उनमे एक अस्पष्टीकृत ऊर्जा और शक्ति बहती है। यह पूजा बहुत ही परंपरागत एव्ं यथाक्रम ढंग से पुजारियों द्वारा संचालित किया जाता है। इस नृत्य को समूहों में किया जाता है। हर एक समूह में पाँच से लेकर बारह नृत्यकार अनुमित हैं। समूह का प्रत्येक कलाकार एक जैसा वेश-भूषा[2] पहनते हैं क्योंकि सभी सदस्य एक ही पात्र की भूमिका निभाते हैं। वे भारी, रंग-बिरंगे पोशाक ही नही, बल्कि अपने चहरे पर आकर्शक रंग चढा़ते भी हैं, जिसके कारण इनके नृत्य का सौंदर्य दस गुना ज़्यादा बन जाता है। इस देवता नृत्य में विश्वास रखने वाले लोग इस कला में इतनी आस्था रखते है कि उनका मानना है कि भगवान के नाम पर इसे दर्शाने से रोग, दुष्ट शक्ति जैसे बुरी ताकतें दूर रह जाती हैं।

आटी कालंजे

नृत्य प्रदर्शन के बाद लोगों के घरों के बाहर नारियल और चावल का भोजन तैयार किया जाता है और उसे मारी देवी के नाम पर चढाया जाता है। हर साल इतने ही उत्साह एव्ं आमोद-प्रमोद के साथ यह कंगीलु नृत्य प्रदर्शन का उत्सव मनाया जाता है। लोगों का यह भी राय है कि इस नृत्य का सठीक तरीके से आयोजित और प्रबंधित न करने पर, पूरे गाँव क नाश संभव है। इसीलिये इस धर्म को पालन करने वाले कंगीलु को कला ही नही, बल्कि समाज के संरक्शण का साधन के रूप मे भी देखते हैं, जो उनके परिवारों को भी विनाशकारी सनोबल से सुरक्शित रखता है।

कंगीलु नृत्य के समय परंपरागत संगीत बजाया और सुरीले स्वरों मे गाया जाता है। नृत्य के प्रारंभ मे और नृत्य के दौरान "करुंगीलो" नामक एक गाना गाया जाता है, और अंत मे "आटी कालंजे" गाने का प्रदर्शन किया जाता है। आटी कालंजे, वास्तव मे, कर्नातक के तुलुनाडु का एक प्राछीन सांस्कृतिक कलारूप है जो तुलु पंचांगानुसार महीना "आटी" मे प्रदर्शित किया जाता है। यह महीना जुलै और अगस्त के समय होता है। आटी कालंजे क कलाकार घर-घर जाकर लकड़ी का कोयला, हल्दी पाउडर, इमली और पानी के मिश्रण को लोगों पर छिडकता है, ताकि अशुभ शक्तियाँ दूर हो जाएँ। [3]

कंगीलु को केवल धार्मिक द्रष्टिकोन से ही नही, बल्कि शांति, एकता, एवं सामंजस्य के वातावरण को स्थापित करने का माध्यम की ओर से भी देखना ज़रूरी है। लेकिन यह अति अफ्सोस की बात है कि आजकल के आधुनिकता से प्रव्रत्त ज़माने मे नई पीढी कंगीलु जैसे समृद्ध संस्कृति में भीगे हुए विरासतों का महत्त्व अल्प होता जा रहा है। हमारा कर्तव्य है कि हम इस रत्न के समक्शक कला को कर्नाटक के सीमाओं के पार भी प्रसिद्ध बनाएँ।

  1. http://www.udupilive.in/city-guide/kangilu-dance-form-of-udupi
  2. https://www.youtube.com/watch?v=_KX3AEKNn7g
  3. http://www.nammabhoomi.com/kangilu-kunitha/