दर्शन और विज्ञान 
    सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक सर जेम्स जीन अपनी 'पदरथ विज्ञान और दर्शन' नामक पुस्तक की भूमिका में लिखते है - "दर्शन और विज्ञान की सीमा रेखा जो एक प्रकार से निरर्थक हो चुकी थी ; वैचारिक पदार्थ विज्ञान के निकट भूत में होने वाले विकास के कारग्ा वही सीमा रेखा महत्वपूर्ण और आकर्षक बन गई है ।"
    दर्शन और विज्ञान जो अब तक विपरीत दशाओं के पथिक माने जा रहे थे , वह यु समाप्त हो गया है । वस्तुस्थिति यह है की दर्शन भी मानव मस्तिष्क में आये 'कि तत्वम्' का समाधान है और विज्ञान का लक्ष भी सत्य क्या है ? यथार्थता क्या है ? इसे समझ लेना है । दर्शन के शब्द में जीवन की व्यापकता समाहित होती है । विश्व क्या है ? मैं क्या हूँ ?इन स्थितियों को समझ लेने और तदनुरूप अपनी मंज़िल की ओर आगे बढ़ना दर्शन का एक पूर्ण स्वरूप बन जाता है । इसीलिए तत्वज्ञों ने कहा-दुख जिहासा और सुख लिपसा जीवन का लक्ष्य है । विचार क्षेत्र में ज्ञान और शिया ने दो रूप ले लिए हैं , यह भी बहुजन सम्मत तथ्य है । यहा तक तत्व क्या है ? इस प्रश्न का समाधान है वह दर्शन है और वह जान लेने के पश्चात् विश्व का स्वरूप यह है , उसमें आत्मा की स्थिति यह है और इन प्रयत्नों व साधनों से आत्मा अपने चरम लक्ष मोक्ष को प्राप्त कर लेती है , इस तरह आचरण करना धर्म है । आत्मा की मुक्ति में दर्शन और धर्म दोनों का समान महत्व है । इसीलिए कहा गया है -"ज्ञान ऋियाभयां मोक्ष:"
    जहाँ हम विज्ञान के लक्ष्य और परिभाषा की चर्चा करते हैं वहाँ केवल जान लेने मात्र का आग्रह मिलता है । सृष्टि के रहस्यों को खोलते जाओ व सत्य को पाते जाओ इसके आगे वहाँ कुछ भी नहीं मिलता ।
    
    दर्शन को बहुत सारे लोग सही रूप से नहीं जान पाए हैं । उनकी दृष्टि में विभिन्न व्यक्तियों द्वारा चलाए गए विभिन्न धर्म ही विभिन्न दर्शन है । इसलिए वे सोचते है दर्शन युक्ति-प्रधान है । पर स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है । दर्शन का जन्म ही तर्क की भूमिका पर हुआ है । दर्शन युग से पहले श्रद्धा युग था । महावीर बुद्ध कपिल आदि महापुरुषों ने जो कुछ कहा वो इसी प्रमाण से सत्य माना जाता था की यह महावीर ने कहा है और यह बुद्ध या कपिल ने कहा है जिस पुरूष में जिसकी श्रद्धा थी उस पुरूष के वचन ही उस के लिएन शास्त्र थे । तर्क का युग आया ।  मनुष्य सोचने लगा - उस पुरूष ने कहा है इस लिए हम सत्य माने एसा क्यों ? सत्य का मानदण्ड तर्क , युक्ति वह प्रमाण होना चाहिए । यही से दर्शन का उद्गम हुआ । इस लिए यह मानकर चलना अज्ञान है कि दर्शन तर्क प्रदान न होकर केवल श्रद्धा प्रदान है । 
    विज्ञान का इतिहास दर्शन से बहुत कुछ भिन्न है । विज्ञान की आधार भूमिका पर किसी परम पुरूष की प्रमाणिकता नहीं मानी गई है । लगता है- विज्ञान का चिन्तन का चिन्तन धर्म और दर्शनों के विवादास्पद निर्णयों से उबरकर एक स्वतंत्र धारा के रूप में चला है । हमारा सत्य सदा असन्दिग्ध और एक रूप रहे इसलिए वैज्ञानिकों ने प्रयोग और अन्वेषणों को ही अपना प्रमाण माना । विज्ञान की परिभाषा में सत्य वही माना गया जिस पर प्रयोगशालाओं और वेधशालाओं की छाप लग गई हो ; किन्तु सत्य को पा लेना इतना सहज नहीं था , जितना कि उन्होंने समझा था । विज्ञान का इतिहास उठाकर यदि हम एक तटस्थ अध्ययन  करते है तो प्रति पृष्ठ पर वहाँ बदलते हुए निर्णय पाए जाते है । गति सहायक ईथर के विषय में न्यूनतम प्रभृति प्राकतन वैज्ञानिकों ने क्या कुछ माना , अब तक कितने प्रयोगों के आधार पर कितने नए निर्णय आए और आज प्रो़ . आलबरट आईंसटीन ने किस प्रकार इसे अस्तित्व शून्य-सा कर दिया है । परमाणु के विषय मे डेमोकरेट्स से लेकर अणु बम व उदजन बम तक के इस युग में कितने नवीननिर्णयों की श्रूृृक्हृला बनी है । परमाणु का इतिहास केवल ॠमित विकास का ही ध्योतक नहीं है ; विभिन्न निर्णयों के उथल पुथल की वह एक ग्रंथिमाला भी है । उसे यदि हम श्रमित विकास का प्रतीक भी माने तो भी यह प्रश्न तो हमेशा ही सामने रहेगा-कल का सत्य यदा आज बदल गया तो आज का सत्य क्या कल तक ठहर सकेगा ? सूर्य , चन्द्र , पृथ्वी तथा अन्य ग्रह गणों की गति , स्थिती और स्वरूप के विषय में टोलमीके युग की बात कोपरनिकस के युग में नहीं रही और कोपरनिकस के निर्णयों पर आईंसटीन का सापेक्षवाद एक नया रूप लेकर आ धमकता  है । क्या हम सोचें इस संबंध में आईंसटीन के निर्णय अंतिम हैं ?