न्यायपालिका की स्वतंत्रता

न्यायपालिका की आज़ादी, प्रजातांत्रिक शासन की बुनियादी ज़रूरत है। 'किसी भी देश का कानून कितना ही अच्छा क्यों न हो, एक स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका के बगैर निष्प्राण है'। स्वतंत्रत न्यायपालिका का आशय यह है कि, न्यायधीशों को कानून की व्याख्या करने में और न्याय प्रदान करने में अपने विवेक का प्रयोग करना चाहिए औऱ उन्हें अपने कर्तव्य पालन में किसी से अनुचित तौर पर प्रभावित नहीं होना चाहिए।

          एक योग्य न्यायधीश को पारदर्शी, विद्वान, निष्पक्ष, सच्चरित्र, और तेज़ दिमाग वाला होना चाहिए। आत्मबल औऱ नैतिक चरित्र के साथ साथ स्वतंत्र और निष्पक्ष विचार वाले न्यायधीश ही, न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा करने में समर्थ होते हैं।
                                          एक न्यायधीश को उसकी स्थिति औऱ प्रतिष्ठा के अनुरूप वेतन मिलना चाहिए जिससे वे निश्चिंत होकर अपने कर्तव्यों का पालन कर सकें।
                                            न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए न्यायधीशों की नियुक्ति, न्यायिक योग्यता वाले व्यक्तियों के परामर्श के आधार पर कार्यपालिका द्वारा की जानी चाहिए।
                   कोई भी न्यायधीश अवकाश ग्रहण करने की उम्र तक अपने पद पर बना रहे बशर्ते कि वह सदाचार और सद्व्यवहार युक्त हो।
      किसी भी न्यायधीश की बर्खास्तगी, किसी व्यक्ति के इच्छानुसार मनमाने ढंग से नहीं होनी चाहिए।
           न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए ये भी ज़रूरी है कि, कार्यपालिका उसके कार्यों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप न करे। भारतीय सविधान के नीति निर्देशक तत्वों में, कार्यपालिका औऱ न्यायपालिका को एक दूसरे से अलग रखने की बात कही गई है।
                                            न्यायधीश को अवकाश प्राप्ति के बाद किसी पद पर नौकरी या वकालत करने के लिए निषेध होना चाहिए। भारत में यह व्यवस्था है कि, अवकाश प्राप्ति के बाद न्यायधीश वकालत नहीं कर सकते हैं।

(प्रस्तुत लेख राजनीति विज्ञान से प्रेरित है।)

लेखक : हसीब उल नवाज़ संबलपुर, कांकेर, छत्तीसगढ़