केरल की विशिष्ट नाट्य शैली कथकली
KATHAKALI 2

कथकली केरल के नट्यकर्म की उच्चतर विशिष्ट शैली है। संगीत,साहित्य,नृत्य,नाट्य,वाद्य आदि ललित कालओं का सम्मिश्रण इसमें पाया जाता है।तत्कालीन ग्रामिण कलाओं तथा संस्कृत नाट्य परंपराओं का संपूर्ण सम्मिलन ही कथकली की विशेषता है। इस नाट्य शैली पर कुटियाट्टम ,कूतु,अष्टपदियाट्टम,मोहिनीअट्टम,पटयणी,कोलमतुल्ल,शास्त्रकली, तैयम,तिरा,आदि कलाओं का प्रभाव है। कथकली की उत्पत्ति से जुडी एक किंवदंती प्रचलित है कि कोषिक्कोटु के सामूतिरि की रियासत में कृष्णनाट्टम नामक नृत्य रुप प्रचलित था। कोट्टारक्कार के तंपुरान ने यह चाहा कि कृष्णनाट्टम की प्रस्तुति उनके अपने महल में हो। आज प्रचलित कथकली कृष्णनाट्टम और रामनाट्ट्म की सुधरी हुई शैली है। इस प्रकार के सुधर अनेक महान व्यक्तियों द्वारा किए गए,जिनमें वेट्टत्तु राजा,कोट्टयम राजा,कल्लटिक्कोट्टु चात्तु पणिक्कर कप्लिंगाट्ट न्ंपूतिरि आदि प्रमुख हैं। रामनाट्टम के कलाकार श्रृंगार के लिए अपने चेहरे पर हल्दि चूर्ण और काला रंग लगाने लगे। वाद्य के रुप में चेण्डा का इस्तेमाल कियाजाने लगा। वेट्टत्तु राजा के निर्देशानुसार मंच पर पात्रों का संवाद बंद कर दिया गया। श्रृंगार तथा वेश-भूषा आदि में कप्लिंगाट्ट नंपूतिरि द्वारा हरा,छुरी,काला, नाजुक, और दाढी आदि में परिवर्तन किए गए। चात्तुप्पणिक्कर द्वारा पात्रों के अभिनय में बदलाव लाए गए। कोट्टयम के राजा ने कथकली पद्म में स्ंगीतात्मकता,वेश-भूषा की विभिन्नता आदि के लिए प्रयत्न किया।

यह नृत्य नाट्य कला उन्नीसवीं सदी तक चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई थी,लेकिन बीसवीं सदी के प्रारंभ से कथकली का पतन शुरू हो गया। अंग्रेजी शिक्षा-दीक्षा,सिनेमा,नाटक आदि का प्रचार-प्रसार इसके मुख्य कारण थे। महाकवि वल्लतोल नारायण मेनन ने कथकली को उच्च स्थान देने के लिए प्रयत्न किया। उनके परिश्रम के फलस्वरुप कथकली का स्थान महत्वपूर्ण बन गया था। महाकवि और राजा मुकुंद के फलस्वरूप केरल कलामंडलम की स्थापना की गई। वल्लतोल के प्रयत्न और सुधारात्मक चिंतन प्रवृत्तियों के परिणामस्वरूप आज कथकली देश-विदेश में अपनी पहचान बना चुका है। कथकली के शीर्षस्थ गुरूजन, कलाकार तथा अन्य संघों ने इस विकास यात्रा में बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया।

कथकली के शुरुआत सायंकाल के समय 'केलिकोट्टु' से होती है। इससे लोगों तक यह सूचना पहुँचाई जाती है कि कथकली का मंचन प्रारंभ होने वाला है। केलिकोट्टु में कथकली के सभी वाद्योपकरणों का इस्तेमाल किया जता है। केलिकोट्टु के बाद इष्ट-देवता की स्तुति में 'तोडयम' अनुष्ठानिक नृत्य प्रस्तुत किया जाता है। तत्पश्चात स्त्री-पुरुष पात्रों के मंच पर आने से 'पुरप्पादु'आरंभ हो जाता है। उसके बाद 'मेलप्पदम' का गायन होता है। गीत के अनुसार मुद्राभिनय होता है। कथकली का अंतिम कार्यक्रम 'धनशि'है। इसमें भी नृत्याभिनय के साथ मंगल श्लोकों का गायन होता है। कथकली पात्रों की वेश-भूषा और श्रृंगार उनके आचरण के अनुसार होता है। कथकली का अंतिम कार्यक्रम 'धनाशि' है। इसमें भी नृत्याभिनय के साथ मंगल श्लोकों का गायन होता है।

Kathakali performance

कथकली पात्रों की वेश-भूषा और श्रृंगार उनके आचरण के अनुसार होता है। चेहरे पर लगाए जाने वाले रंग और वेशभूषा आदि में अंतर सात्विक,राजसिक और तामसिक गुणों की अवधारणा के आधार पर प्रकट होता है। श्रृंगार और भूमिका के आधार पर पात्रों के पाँच समूह-पच्च,कत्ती,करी,ताटी और मिनुक्कु होते हैं। चरित्रवान,धीरोदात्त और पौराणिक पात्र-कृष्ण,अर्जुन,नल,र्धम पुत्र,आदि पच्चा वेश समूह के होते हैं। राक्षस राजा,राजसी ठाठ-बाठ और बुराइ का समावेश वाले पात्र-रावण,कंस आदि कत्ती सूमह के,क्रूर,असुर और शिकारी पात्र पुरुष-करी-समूह्न और शूर्पणखा,पूतना आदि स्त्रि-करी-समूह के होते है। ताटी समूह के तीन भेद हैं-लाल, सफेद और काला। राक्षस,नीच या दृष्ट पात्र-दुशासन,बकासुर आदि को लाल ताटी समूह में,सात्विक गुणों से संपन्न पात्र हनुमान,आदि को सफेद ताटी समूह में व 'नालाचरित्र'जैसे नाट्य अभिनय में काली को काला ताटी समूह में रखा जाता है।

कथकली नाट्य अभिनय एक अम्यंत संपन्न कला है। नाट्य शास्त्र में वर्णित अभिनय की चारों रीतियों-आंगिक,वाचिक,आहार्य और सात्विक का सम्मिलन इसमें है। शरीर की गति,हस्त मुद्रएं और इशारे इसमें होते हैं। वाचिक में कलाकर व्दारा मंच पर जो भी उच्चारण किया जाता है वह सब वाचिक रिति होती हैं।कथकली की एक अन्य विशेषता यह है कि उस पर ताल और वाद्य का प्रभाव होता है। इसमें ताल की अहम भूमिका होती है। वाद्यों के भिन्न भेद होते हैं-तृत्ताला,तिच्चूर,पोन्नानी,पालक्कटु आदि।

आट्टक्कथाओं का मलयालम भाषा में महत्वपूर्ण योगदान राह है। उण्णयि वारियर,कार्तिका तिरुनाल,कोच्ची के वीर केरल वर्मा, आदि प्रतिभा संपन्न महान व्यक्तियों ने आट्टक्कथा साहित्य को सम्पन्न बनाया है। इनमें कोट्टक्कथा कथाओं की अहम भूमिका रही है, क्योंकि इनकी संगीतात्मकता, कवित्व आदि कोटि का है। कथकली के इन सुधारों से नैई शैलियों का भी जन्म हुआ। प्रांतीयता के आधार पर विकसित इन शैलियों के दो भेद हैं। पहला दक्षिणी शैली और दूसरा उत्तरी शैली। कोट्टारक्करा तंपुरान द्वारा किए गाया।यह प्रथम प्रयास था।