मीर कचहरी इमामबाड़ा संपादित करें

इसे मीर साहेब ने बनवाया था | संपादित करें

तीन सौ वर्ष पुरानी इमामबाड़ा और दुर्गा मंदिर हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतीक बना हुआ है। संपादित करें

फारबिसगंज के इस प्रसिद्ध इमामबाड़े का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व है।

जानकार बताते है कि इमाम हुसैन की शहदत के प्रतीक के रूप में इस ईमामबाड़ा को देखा जाता है। यहां सभी समुदायों का मिलन होता है और हर मुराद व मन्नतें पूरी होती है। यहां चांद रात से लेकर दसवीं तक मातम मनाया जाता है। दर्जनों गांवों व अखाड़ों का मिलन होता है और करतब दिखाए जाते हैं। करतबो में झड़नी का विशेष महत्व होता है। बताया जाता है कि झड़नी गीत के माध्यम से इमाम हुसैन की शहादत को बयां किया जाता है। संपादित करें

यूं तो मीर साहेब इरान से आए थे और जोहरी का काम करते थे, जहां से वे धीरे धीरे मीर कचहरी में वादों के निष्पादन करने लगे।

यहां उन्होंने दोनों समुदाय के 12 प्रजातियों को बसाया और इमामबाड़ा तथा दुर्गा मंदिर की स्थापना की। सबसे पहले ताजिया जुलूस मीर कचहरी के जंगियों द्वारा निकाला जाता है।

कालान्तर में मीर कचहरी का ताज़िया 52 हाथ का होता था मगर समय के साथ ताजिये का आकार छोटा होता चला गया और अभी भी ताजिये में चांदी का प्रतीक चिन्ह होता है।