परिचय : नाथ संप्रदाय सिद्ध संप्रदाय का ही विकसित रूप है जिसमें बौद्धों की वज्रयान परंपरा के साथ-साथ जैव मत के विचारों को भी अपनाया गया है। गोरखनाथ इस संप्रदाय के प्रवर्तक माने जाते हैं। सिद्ध संप्रदाय में बढ़ते भोग-विलास की मनोवृत्ति के प्रतिक्रिया स्वरुप नाथ संप्रदाय का जन्म होता है। सिद्धों ने जिस 'पंचमकार साधना' पद्धति को अपना रखा था, उसमें ऐसी कई विकृतियाँ आ चुकी थी जिसके कारण वह अपने लक्ष्य से दूर होती चली गई। उन्हीं विकृतियों के विरुद्ध नाथ संप्रदाय का विकास होता है।

           नाथों की कुल संख्या 9 मानी जाती है। इनका कार्य क्षेत्र देश के पश्चिमी भागों राजपूताने और पंजाब में था। इनका समय 9-13 वीं शताब्दी के बीच माना जाता है।

नाथों ने एक विशेष प्रकार की साधना पद्ध‌ति पर बल दिया जिसे हठयोग कहते हैं। इसका अर्थ है योग साधना के माध्यम से 'ह' अर्थात सूर्य व 'ठ' अर्थात चंद्रमा का मिलन करा देना । यानि इन्द्रियों के स्वाभाव को पलट देना, या फिर यह कि इंदियाँ स्वाभाव से बहिर्मुखी होती है, उस स्वाभाव को हठ‌पूर्वक अंतस्साधना के माध्यम से अन्तर्मुखी बनाने की प्रक्रिया हठयोग है।