सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्। उज्ज्यिन्यां महाकालमोंकारे परमेश्वरम्।। केदारं हिमवत्पृष्ठे डाकिन्या भीमशंकरम्। वाराणस्यां च विश्ववेशं त्र्यम्बकं गौमतीतटे।। वेद्यनाथं चिताभूमौ नागेशं दारूकावने। सेतुबन्धे च रामेशं घुश्मेशं तु शिवालये।। द्वादशैतानि नामानि प्रातरूत्थाय यः पठेत्। सर्वपापैर्विनिर्मुक्तं सर्वसि(िफलं लभेत्।

सौराष्ट्र में सोमनाथ, श्रीशैल पर मल्लिकार्जुन, उज्जैनी में महाकाल, ओंकारतीर्थ में परमेश्वरम्, हिमालय के शिखर पर केदारनाथ, डाकिनि में भीमाशंकर, वाराणमी में विश्वनाथ, गोदावरी के तट पर त्र्यम्बकम्, चिताभूमि में वैद्यनाथ, दारूकावन में नागेश्वर, सेतुबन्ध में रामेश्वर तथा शिवालय में घुश्मेश्वर का स्मरण करें। जो प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर इन 12 नामों का पठन करता है वह सब पापों से मुक्त हो सम्पूर्ण सि(ियों का फल प्राप्त कर लेता है।


भगवान शिव के १२ ज्योतिर्लिंग निम्न हे श्री सोमनाथ ज्योतिर्लिंग सौराष्ट्र, (गुजरात) में विराजमान है। श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग उज्जैन (मध्यप्रदेश) में क्षिप्रा नदी के तटपर विराजमान है। श्रीॐकारेश्वर ज्योतिर्लिंग नर्मदा नदी के बीच मालवा क्षेत्र में स्थित है। श्री केदारनाथ ज्योतिर्लिंग हिमालय के केदारनाथ (उत्तरांचल राज्य ) में स्थित हैं। श्री भीमशङ्कर ज्योतिर्लिंग नासिक (महाराष्ट्र)के पास सह्याद्रि पर्वत के एक शिखर पर स्थितहै। श्री विश्वनाथजी ज्योतिर्लिंग वाराणसी (उत्तर प्रदेश) गंगा तट पर स्थित काशी है। श्री त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग नासिक (महाराष्ट्र) में गोदावरी के किनारे है। श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिङ्ग चिताभूमि जसीडीह स्टेशन (झारखंड) पर स्थित है। श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग दारुकावन, द्वारका गुजरात में विराजमान है। श्री रामेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग रामेश्वरम् तमिलनाडु में स्थित है। श्री घुश्मेश्वर (गिरीश्नेश्वर) ज्योतिर्लिंग दौलताबाद निकट एल्लोरा, औरंगाबाद (महाराष्ट्र) में स्थित है।

सोमनाथ: यह ज्योर्तिलिंग गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र में समुद्र के किनारे स्थित है। प्रजापति दक्ष ने अपनी 27 कन्याओं का विवाह चन्द्रमा के साथ किया था। उन सभी पत्नियों में रोहिणी नाम की पत्नी चन्द्रमा को सबसे अधिक प्रिय थी। इस पर दूसरी पत्नियों को बड़ा दुःख हुआ और उन्होंने अपना दुःख अपने पिता को निवेदन किया। इस पर दक्ष भी दुःखी हो गये तथा उन्होंने अपने दामाद चन्द्रमा को प्रार्थना की कि सभी के प्रति समान व्यवहार करें। चन्द्रमा ने प्रबल भावी से विवश होकर उनकी बात नहीं मानी तथा वे रोहिणी में इनते आसक्त हो गये कि दूसरी किसी पत्नी का आदर नहीं करते थे। चन्द्रमा के इस बर्ताव से दुःखी होकर दक्ष प्रजापति ने उन्हें क्षय रोग होने का श्राप दे दिया। इस पर सब और महान् हाहाकार मच गया। इन्द्र आदि देवता तथा विशिष्ठ आदि {षि ब्रह्मा जी की शरण में गये। इस पर ब्रह्मा जी ने कहा कि चन्द्रमा देवताओं के साथ प्रभास नामक शुभ क्षेत्र में जाएँ और वहाँ मृत्युन्जयमंत्र का विधि पूर्वक अनुष्ठान करते हुए भगवान शिव की आराधना करें। इससे शिव प्रसन्न होकर उन्हें क्षय रहित कर देगें। ब्रह्मा जी आज्ञानुसार चन्द्रमा ने वहाँ 6 माह तक निरन्तर तपस्या की, मृत्युन्जयमंत्र से भगवान वृषभज्वज का पूजन किया। चन्द्रमा की तपस्या से भगवान शंकर प्रसन्न होकर उनके सामने प्रकट हो गये और अभीष्ट वर मांगने को कहा। इस पर चन्द्रमा ने क्षय रोग के निवारण के लिये निवेदन किया। इस पर भगवान शिव ने कहा कि एक पक्ष में तुम्हारी कला क्षीण होगी और दूसरे पक्ष में वह निरन्तर बढ़ती रहेगी। भगवान शिव प्रसन्न हो उस क्षेत्र का माहात्म्य को बढ़ाने तथा चन्द्रमा के यश के विस्तार हेतु लिंग रूप में वहीं स्थित हो उन्हीं के नाम पर सोमेॉर कहलाये। सोमनाथ का पूजन करने से उपासक के क्षय तथा कोढ़ आदि रोगों का निवारण हो जाता है।

मल्लिकार्जुन: यह ज्योर्तिलिंग आन्ध्रप्रदेश में कृष्णा नद के तट पर स्थित है। इसे दक्षिण का कैलाश भी कहते है। इसमे पार्वती और शिव दोनों की ज्योतियाँ प्रतिष्ठित है। ‘मल्लिका’ का अर्थ पार्वती तथा ‘अर्जुन’ शब्द शिव का वाचक है। जब महाबली शिवपुत्र कुमार कार्तिकेय सारी पृथ्वी की परिक्रमा करके कैलाश पर्वत पर आये और गणेश के विवाह की बात सुनकर कौच पर्वत पर चले गये। पार्वती और शिव के अनुरोध करने पर भी नहीं लौटे तथा वहां से भी 12 कोष दूर चले गये। तब शिव और पार्वती ज्योर्तिमय स्वरूप धारण कर वहाँ प्रतिष्ठित हो गये। अमावस्या के दिन भगवान शंकर स्वयं वहां जाते है और पूर्णमासी के दिन पार्वती जी निश्चय ही वहां पदार्पण करती है। मल्लिकार्जुन का दर्शन समस्त पापों से मुक्त कराता है एवं अभीष्ट फल प्राप्त होता है।

महाकालेश्वर: यह ज्योर्तिलिंग मध्यप्रदेश में क्षिप्रा नदी के तट पर उज्जैन में स्थित है। जब दूषण नामक एक असुर ने ब्रह्मा जी से वर पाकर अपनी सेना लेकर उज्जैन-अवन्ति के ब्राह्मणों पर चढ़ाई कर दी। नगर के ब्राह्मण बहुत घबरा गये तो वे सब शिवलिंग का पूजन करके भगवान शिव का ध्यान करने लगे। उस दुष्टात्मा देत्य ने ज्यों ही ब्राह्मणों को मारने की ईच्छा की त्यों ही उनके द्वारा पूजित पार्थिव शिवलिंग के स्थान में बड़ी भारी आवाज के साथ एक गढ्ढ़ा प्रकट हो गया। उस गढ्ढे से तत्काल विकट रूपधारी भगवान शिव प्रकट हो गये। भगवान शंकर ने सेना सहित दूषण को अपनी हुंकार मात्र से तत्काल भस्म कर दिया। भगवान शिव ने प्रसन्न होकर ब्रह्माणों से वर मांगने को कहा। जिस पर ब्राह्मणों ने भगवान शिव को जन साधारण की रक्षा के लिए सदा उसी स्थान पर रहकर दर्शन करने वाले मनुष्यों का उ(ार करने का वर मांगा। भगवान शिव अपने भक्तों की रक्षा के लिए उस परम सुन्दर गढ्ढे में स्थित हो गये और वे ब्राह्मण मोक्ष पा गये तथा वहां चारों और की एक-एक कोस भूमि लिंग रूपी भगवान शिव का स्थल बन गयी। यह ज्योर्तिलिंग महाकालेॉर के नाम से विख्यात है। इसका दर्शन करने से स्वप्न में भी कोई दुःख नहीं होता। इसकी उपासना करने वाले को उसका मनोरथ प्राप्त होता है तथा परलोक में भी मोक्ष मिल जाता है।

परमेश्वरम्: यह ज्योर्तिलिंग मध्य प्रदेश में इन्दौर के निकट नर्मदा नदी के तट पर स्थित है। जब नारद मुनि द्वारा कुछ कहने पर विंध्याचल मन ही मन संतृप्त हो उठा तो उन्होनें भगवान विश्वनाथ की आराधना करने का निश्चय कर भगवान शंकर की शरण में गये। जहां साक्षात आंेकार की स्थिति है वहां विध्यांचल ने शिव की पार्थिव मुर्ति बनाई और 6 मास तक बिना हिले-डूले भगवान शिव की आराधना की। विंध्याचल की ऐसी तपस्या देखकर पार्वती पति प्रसन्न हो गये और उन्होने विंध्याचल को अपना वह रूप दिखाया जो योगियों के लिये भी दुर्लभ है। भगवान शिव ने प्रसन्न होकर विंध्याचल को वर मांगने को कहा। उसी समय देवता तथा निर्मल अन्तःकरण वाले )षि वहां आये और शंकर जी पूजा करके बोले प्रभो! आप यहां स्थिर रूप से निवास करें। भगवान शिव प्रसन्न हो लोगों को सुख देने के लियेे सहर्ष वैसा ही किया। वहां जो एक ही ओंकार लिंग था वह दो स्वरूपों में विभक्त हो गया। प्रणव में जो सदाशिव थे वे ओंकार के नाम से विख्यात हुए और पार्थिव मुर्ती में जो शिव ज्योति प्रतिष्ठित हुई वह परमेॉर कहलाया परमेश्वरम् को अमलेश्वर भी कहते हैं।द्ध आंेकार और परमेॉर यह दोनों शिवलिंग भक्तों को अभीष्ठ फल देने वाले हैं। तथा इसके पूजन से वह माता के गर्भ में फिर नहीं आता।

केदारनाथ: सतयुग में भगवान् विष्णु के नर-नारायण नामक दो अवतार हुए। उन्होनें बद्रीकाश्रम में पार्थिव शिवलिंग बनाकर भगवान् शम्भू से प्रार्थना की। भगवान् भक्तों के अधीन होने के कारण प्रतिदिन उनके बनाये हुए पार्थिव लिंग में पूजित होने के लिए आया करते थे। जब उन दोनो के पार्थिव पूजन करते बहुत दिन बीत गये तब परमेश्वर शिव ने प्रसन्न होकर उनसे वर मांगने को कहा। उनके ऐसा कहने पर नर और नारायण ने लोगों के हित की कामना के लिए भगवान् शिव से वहीं स्थित होने को कहा। उन दोनों बन्धुओं के इस प्रकार अनुरोध करने पर कल्याणकारी महेश्वर हिमालय के उस केदार तीर्थ में स्वयं ज्योर्तिलिंग के रूप में स्थित हो गये। जो भगवान शिव का प्रिय भक्त वहां शिवलिंग के निकट शिव के रूप में अंकित वलय-कंकण या कड़ा चढ़ाता है वह उस वलययुक्त स्वरूप का दर्शन करके समस्त पापों से मुक्त हो जाता है, साथ ही जीवन मुक्त भी हो जाता है। नर और नारायण के तथा केदारेश्वर शिव के रूप के दर्शन करके मनुष्य मोक्ष का भागी होता है। जो पुरूष वहां की यात्रा आरम्भ करके पहुंचने से पहले मार्ग में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते है वे भी मोक्ष पा जाते हैं।

भीमाशंकर: भीम नामक महापराक्रमी राक्षस जो सदा धर्म विध्वंस करता और समस्त प्राणियों को दुःख देता था। वह महाबली राक्षस कुम्भकरण के वीर्य से कर्कटी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। कर्कटी ने भीम को बताया कि मेरे माता-पिता को अगस्त्य मुनि के शिष्य सुतीक्षण ने भस्म कर डाला तब से मैं अकेली होकर पर्वत पर निवास करने लगी। इसी समय महान पराक्रमी राक्षस कुम्भकरण ने बलात् समागम किया और मुझे छोड़कर लंका चले गये तत्पश्चात तुम्हारा जन्म हुआ। इस पर भीम कुपित होकर भगवान् विष्णु ;श्री हरिद्ध से बदला लेने के लिए ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए एक हजार वर्षों तक तपस्या की। इस पर ब्रह्मा जी ने प्रसन्न हो वर मांगने को कहा। इस पर भीम ने कहा कि मुझे ऐसा बल दीजिए जिसकी किसी से तुलना न हो। ब्रह्मा जी उसे अभीष्ट वर दे अपने धाम को चले गये। अतुल्नीय बल पाकर भीम ने पहले इन्द्र आदि देवताओं को जीता तथा श्री हरि को भी यु( में हराया। फिर उसने पृथ्वी को जीतना प्रारम्भ किया सर्वप्रथम उसने कामरूप देश के भगवान् शिवभक्त धर्मात्मा राजा सुदिक्षण को यु( में परास्त कर दिया और उसका सर्वस्व अपने अधिकार में कर उन्हें बन्दी बना लिया। कैदखाने में राजा सुदिक्षण ने शिव की पार्थिव मूर्ती बनाकर उनका भजन पूजन शुरू कर दिया। सभी देवताओं तथा )षि भी महाकोषी के तट पर शिव का आराधना तथा सत्वन करने लगे। भगवान् शिव ने प्रसन्न होकर वर मांगने को कहा। देवताओं ने भीम का नाश करने को कहा। भगवान् शिव अपने गणों सहित लोकहित की कामना से गुप्तरूप से राजा सुदिक्षण जहां पार्थिव शिव की पूजा कर रहे थे वहाँ ठहर गये। भीम को समाचार मिलने पर उसने पार्थिवलिंग पर तलवार चलाई वह तलवार उस पार्थिवलिंग का स्पर्श भी नहीं कर पाई कि वहाँ साक्षात भगवान् शिव प्रकट हो गये और बोले मैं भीमेश्वर हूँ और अपने भक्त की रक्षा के लिए प्रकट हुआ हूँ। भीम का शंकरजी के साथ घोर यु( हुआ। तथा भगवान् शम्भू ने हुंकार मात्र से समस्त राक्षसों को भस्म कर डाला। देवताओं और मुनियों की प्रार्थना पर भगवान् शंकर वहाँ लिंग रूप में स्थित हो गये। यह ज्योर्तिलिंग भीमाशंकर के नाम से विख्यात हुआ तथा यह लिंग सम्पूर्ण मनोरथों की सि(ि तथा समस्त आपत्तियों का निवारण करने वाला है।

विश्वनाथ:< भगवान् शिव सृष्टि रचने के लिए दो रूपों में प्रकट हुए। उनमें एक पुरूष जिसका नाम शिव हुआ तथा एक स्त्री जो शक्ति कहलायी। शिव और शक्ति ने अदृश्य रहकर स्वभाव से ही दो चेतनों -प्रकृति और पुरूष की सृष्टि की। प्रकृति और पुरूष माता-पिता को सामने न पाकर महान संसय में पड़ गये। उस समय निर्गुण परमात्मा का आकाशवाणी हुई कि तुम तपस्या करो फिर तुमसे उत्तम सृष्टि का विस्तार होगा। प्रकृति और पुरूष द्वारा तपस्या का स्थान पूछने पर निर्गुण शिव ने पांच कोस लम्बे-चौड़े शुभ एवं सुन्दर नगर का निर्माण किया जो उनका ही स्वरूप था। वह नगर आकाश में पुरूष के समीप स्थित हो गया तब पुरूष ने सृष्टि की कामना से शिव का ध्यान करते हुए बहुत वर्षों तक तप किया। उनके परिश्रम से श्वेत जल की अनेक धाराऐ प्रकट हुई जिससे सारा शून्य आकाश व्याप्त हो गया। उसे देख भगवान विष्णु मन ही मन बोल उठे ये कैसी अद्भुत वस्तु है। इस आश्चर्य पर उन्होनंे अपना सिर हिलाया जिससे उनके एक कान की मणि गिर पड़ी जिस स्थान पर मणि गिरी वह मणिकर्णिका महान् तीर्थ हो गया। जब पूर्वोक्त जल राशि में वह सारी पंचक्रोशी में डूबने और बहने लगी तब निर्गुण शिव ने उसे अपने त्रिशूल पर धारण कर लिया। विष्णु अपनी पत्नी प्रकृति के साथ वहीं सोये तब उनकी नाभि से कमल प्रकट हुआ जिससे ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए। शिव की आज्ञा पाकर उन्होनें अद्भुत सृष्टि आरम्भ की। फिर भगवान् शिव ने सोचा कि ब्रह्माण्ड के भीतर कर्मपाश से बंधे हुए प्राणी मुझे कैसे प्राप्त करेगें। यह सोचकर उन्होनें मुक्ति यादिनी पंचकोशी को इस जगत में छोड़ दिया। यह पंचकोशी काशी लोक में कल्याणदायिनी, कर्म बन्धन का नाश करने वाली ज्ञानदात्री तथा मोक्ष प्रदान करने वाली मानी गयी है। यहाँ स्वयं परमात्मा ने अविमुक्त लिंग की स्थापना की। ऐसा कहकर भगवान् शिव ने काशीपुरी को अपने त्रिशूल से उतारकर मृत्युलोक के जगत में छोड़ दिया। ब्रह्मा जी का एक दिन पूरा होेने पर जब सारे जगत का प्रलय हो जाता है तब भगवान् शिव काशीपुरी को अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हे तथा जब ब्रह्मा जी द्वारा नई सृष्टि की रचना की जाती है तब इसे वे फिर से भूतल पर स्थापित कर देते हैं। कर्मों का कर्षण होने से ही इसे काशी कहा जाता है। काशी में अविमुक्तेश्वर लिंग सदा विराजमान रहता है। यह महापातकी पुरूषों को भी मोक्ष प्रदान करने वाला है। कैलाशपति जो भीतर से सत्वगुणी और बाहर से तमोगुणी कहे गये हैं, कालाग्नि रूद्र के नाम से विख्यात है। वे निर्गुण होते हुए भी सगुण रूप से प्रकट हुए शिव हैं। उन्होनें निर्गुण शिव से लोकहित की कामना के लिए इसी स्थान पर रहने की प्रार्थना की। तथा मन और इन्द्रियों को बस में रखने वाले अविमुक्त ने भी काशी को अपनी राजधानी स्वीकार करने की प्रार्थना की।नाम से विख्यात है। वे निर्गुण होते हुए भी सगुण रूप से प्रकट हुए शिव हैं। उन्होनें निर्गुण शिव से लोकहित की कामना के लिए इसी स्थान पर रहने की प्रार्थना की। तथा मन और इन्द्रियों को बस में रखने वाले अविमुक्त ने भी काशी को अपनी राजधानी स्वीकार करने की प्रार्थना की। इस पर सर्वेश्वर शिव समस्त लोकों का उपकार करने के लिए वहां विराजमान हो गये। उसी दिन से काशी सर्वश्रेष्ठपुरी हो गई।