रसानुभव का स्रोत- नाट्यशास्त्र संपादित करें

भारत की सारी शास्त्रीय कलाओं का मूल भरत मुनी द्वारा लिखित नाट्यशास्त्र है। यह एक ग्रन्थ है जिसमे भारत की ६२ ललित कलाओं का वर्णन दिया गया है। इस में सब के प्रदर्शन और रचना के नियमों को लिखा गया है और उनको भारत के सारे कलाकार पालन करते है। नाट्यशास्त्र में दिये संस्कृत नाटक और शास्त्रीय नृत्य का विवरण आज तक भारत की प्रदर्शन कला में उपयोग किया जाता है। [1]

नाट्यशास्त्र में प्रेक्शकों का मूल्य संपादित करें

इस नाट्यशास्त्र में लिखी रसानुभव का सिद्धांत नृत्य और नाटक का सबसे श्रेष्ट अंग है। यह बताता है की रसानुभव ही एक कला प्रदर्शान का लक्ष्य है और उसके बिना प्रदर्शन का कोई अर्थ या मूल्य नही। कलाकार दर्शकों केलिए कला का निर्माण करते हैं और अती उत्साह से उनको दिखाते हैं। प्रदर्शन अगर बुरा भी हुआ, तो दर्शकों की वाह-वाही सुनकर कलाकार संतुष्ट हो जाते है। इसका यहीं अर्थ है की कला श्रोतागण की रुची के हिसाब से उनको मोहित करने केलिए बनाया जाता है। दर्शक ही कला का अंत और आरंभ है, और वहीं गंतव्य है। अगर उन तक कला नहीं पहुंची या अगर उनको कला का विचार समझ नही आया तो यह कला और कलाकर, दोनों की असफलता है। यह विचार भारत में ही नही, अम्रिका, लंदन जैसे विदेशी संस्कृतियों के नाटकों में भी लागू होता है। [2]

 
प्रेक्शक का मूल्य

अभिनवभारती में रसानुभव संपादित करें

नाट्यशास्त्र के बाद अभिनवगुप्त ने अपने अभिनवभारती में नाट्यशास्त्र के ऊपर व्याख्यात्मक निबंध लिखा है। इस में अभिनवगुप्त ने, नाट्यशास्त्र से बुनियादी विचारों को लेकर, अपनी अनुभूती को जोड कर, रस सिद्धांत के बारे में विस्तार से लिखा है।[3] इन साहित्यों से हमें यह जानकारी मिलती है कि नाटक कला के प्रतिभागियों को तीन विभाजनों में बांटा गया है- एक अभिनेता, दूसरा पात्र और तीसरा दर्शक। पात्र भाव महसूस करता है। केवल पात्र अपनी निज भावना को पहचान कर उसे महसूस करता है। बाकी दोनो निज भावनाओं को स्पर्श नहीं कर पाते।[4] पात्र के इस भाव को अभिनेता समझ कर अपनी अभिनय के मूलक पेश करता है। इसलिए अभिनेता भाव को महसूस नहीं करता पर सिर्फ उस की नकल करता है। यहाँ तकनीक (जैसे की आंखों से आँसू, कंपन, हंसी, आवाज़ का उतार-चढाव आदी) की भावुकता से ज़्यादा महत्व है।[5]

 
पात्र और अभिनेता

भारत और पस्चिमी कलाओं का अंतर संपादित करें

अभिनवगुप्त के बताये रसानुभव के तदनुसार तकनीक और भावुक्ता का यह परिप्रेक्श्य ही भारत और पश्चिम की नाटक शैली का अंतर है। पश्चिम में अभिनेता और पात्र के बीच अंतर नहीं।[6] स्टानिस लाव्स्की का विधी अभिनय (मेथड आँंक्टिंग) में ६२ अभिनय पद्धतियों को लिखा गया है। इसमे एक पद्धती यह है की अभिनेती अपनी यादों से कोई ऐसी घटना याद करे जो उसकी आँखों में आँसू लाये, और इसका वह अपनी नाटक में उपयोग करे।[7] इस कारण कभी कभी अभिनेता पात्र के भाव में अटक कर मानसिक समस्याओं से गुज़रता है। और भारत के इस प्रणाली के कारण अभिनेता एक पात्र से दूसरे पात्र को आसानी से बदल सकता है। इसी कारण भारत की नाटक शैली की दुनिया भर में प्रशंसा हुई है और होती है।

निष्कर्ष संपादित करें

 
पात्र और अभिनेता

अभिनेता के इस माया में लुप्त हो कर दर्शक रस का अनुभव करते है। यह रस निज भाव नहीं बल्की उसका एक प्रतिरूप है, भावना का एक स्वाद है। नाट्यशास्त्र में आठ भाव है जो पात्र महसूस करता है और उनके आठ रस है जो दर्शक महसूस करते है। अभिनवगुप्ता ने अपनी पुस्तक में शांत रस का आठ रसों के साथ संयोग किया है।[8] वह कहते है की शांत रस सबसे अत्युत्तम रस है और कला प्रदर्शन का आखरी चरण है। दोनों लेखकों ने, और आगे आने वाले लेखकों ने भी यहीं कहा है की रसानुभव का होना आसान नहीं। पर जब अनेक नियमों और विनियमों का पालन कर अभिनेता दर्शक को रसानुभव कराता है, तो इस से बढकर प्रेक्शक केलिये कुछ और नहीं। रसानुभव वास्तविक जीवन में घटने वाली अनुभूती नहीं है। सिर्फ कला प्रदर्शन के समय इसका अनुभव होता है। यह अनुभव सबसे प्रचंड माना गया है।

आश्रय संपादित करें

  1. https://en.wikipedia.org/wiki/Natya_Shastra
  2. https://www.forcedentertainment.com/notebook-entry/what-is-the-audiences-role-in-a-performance/
  3. http://creative.sulekha.com/abhinavabharati-an-interpre%20tation-of-bharata-s-natyasastra_354869_blog
  4. https://en.wikipedia.org/wiki/Rasa_(aesthetics)
  5. http://factsanddetails.com/india/Arts_Culture_Media_Sports/sub7_5e/entry-4259.html
  6. https://www.slideshare.net/m_b2011/comparative-aesthetics
  7. https://www.thoughtco.com/stanislavsky-system-acting-method-2712987
  8. https://en.wikipedia.org/wiki/Indian_aesthetics