रस (काव्य शास्त्र)

रस
(शांत रस से अनुप्रेषित)

श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य में रस कहलाता है। रस के जिस भाव से यह अनुभूति होती है कि वह रस है, स्थायी भाव होता है। रस, छंद और अलंकार - काव्य रचना के आवश्यक अवयव हैं। प्राचीन काव्य-शास्त्रियों के अनुसार रसों की संख्या नौ है। आधुनिक काव्य-शास्त्रियों के अनुसार रसों की संख्या ग्यारह है।

रस का शाब्दिक अर्थ है - आनन्द। काव्य में जो आनन्द आता है, वह ही काव्य का रस है। काव्य में आने वाला आनन्द अर्थात् रस लौकिक न होकर अलौकिक होता है। रस काव्य की आत्मा है। संस्कृत में कहा गया है कि "रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्" अर्थात् रसयुक्त वाक्य ही काव्य है।

रस अन्त:करण की वह शक्ति है, जिसके कारण इन्द्रियाँ अपना कार्य करती हैं, मन कल्पना करता है, स्वप्न की स्मृति रहती है। रस आनंद रूप है और यही आनंद विशाल का, विराट का अनुभव भी है। यही आनंद अन्य सभी अनुभवों का अतिक्रमण भी है। आदमी इन्द्रियों पर संयम करता है, तो विषयों से अपने आप हट जाता है। परंतु उन विषयों के प्रति लगाव नहीं छूटता। रस का प्रयोग सार तत्त्व के अर्थ में चरक, सुश्रुत में मिलता है। दूसरे अर्थ में, अवयव तत्त्व के रूप में मिलता है। सब कुछ नष्ट हो जाय, व्यर्थ हो जाय पर जो भाव रूप तथा वस्तु रूप में बचा रहे, वही रस है। रस के रूप में जिसकी निष्पत्ति होती है, वह भाव ही है। जब रस बन जाता है, तो भाव नहीं रहता। केवल रस रहता है। उसकी भावता अपना रूपांतर कर लेती है। रस अपूर्व की उत्पत्ति है। नाट्य की प्रस्तुति में सब कुछ पहले से दिया रहता है, ज्ञात रहता है, सुना हुआ या देखा हुआ होता है। इसके बावजूद कुछ नया अनुभव मिलता है। वह अनुभव दूसरे अनुभवों को पीछे छोड़ देता है। अकेले एक शिखर पर पहुँचा देता है। रस का यह अपूर्व रूप अप्रमेय और अनिर्वचनीय है।[1]

विभिन्न सन्दर्भों में रस का अर्थ

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एक प्रसिद्ध सूक्त है- रसौ वै स:। अर्थात् वह परमात्मा ही रस रूप आनन्द है। 'कुमारसम्भव' में पानी, तरल और द्रव के अर्थ में रस शब्द का प्रयोग हुआ है। 'मनुस्मृति' मदिरा के लिए रस शब्द का प्रयोग करती है। मात्रा, खुराक और घूंट के अर्थ में रस शब्द प्रयुक्त हुआ है। 'वैशेषिक दर्शन' में चौबीस गुणों में एक गुण का नाम रस है। रस छह माने गए हैं- कटु, अम्ल, मधुर, लवण, तिक्त और कषाय। स्वाद, रूचि और इच्छा के अर्थ में भी कालिदास रस शब्द का प्रयोग करते हैं। प्रेम की अनुभूति के लिए 'कुमारसम्भव' में रस शब्द का प्रयोग हुआ है। 'रघुवंश', आनन्द और प्रसन्नता के अर्थ में रस शब्द काम में लेता है। 'काव्यशास्त्र' में किसी कविता की भावभूमि को रस कहते हैं। रसपूर्ण वाक्य को काव्य कहते हैं।

भर्तृहरि सार, तत्व और सर्वोत्तम भाग के अर्थ में रस शब्द का प्रयोग करते हैं। 'आयुर्वेद' में शरीर के संघटक तत्वों के लिए 'रस' शब्द प्रयुक्त हुआ है। सप्तधातुओं को भी रस कहते हैं। पारे को रसेश्वर अथवा रसराज कहा है। पारसमणि को रसरत्न कहते हैं। मान्यता है कि पारसमणि के स्पर्श से लोहा सोना बन जाता है। रसज्ञाता को रसग्रह कहा गया है। 'उत्तररामचरित' में इसके लिए रसज्ञ शब्द प्रयुक्त हुआ है। भर्तृहरि काव्यमर्मज्ञ को रससिद्ध कहते हैं। 'साहित्यदर्पण' प्रत्यक्षीकरण और गुणागुण विवेचन के अर्थ में रस परीक्षा शब्द का प्रयोग करता है। नाटक के अर्थ में 'रसप्रबन्ध' शब्द प्रयुक्त हुआ है।

रस के प्रकार

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भरतनाट्यम् में शृंगार की अभिव्यक्ति

रस नौ हैं -

क्रमांक रस का प्रकार स्थायी भाव
1. वीभत्स रस घृणा, जुगुप्सा
2. हास्य रस हास
3. करुण रस शोक
4. रौद्र रस क्रोध
5. वीर रस उत्साह
6. भयानक रस भय
7. शृंगार रस रति
8. अद्भुत रस आश्चर्य
9. शांत रस निर्वेद
10. भक्ति रस अनुराग,देव रति

वात्सल्य रस को दसवाँ एवं भक्ति को ग्यारहवाँ रस भी माना गया है। वत्सल या संतान विषयक रति तथा भक्ति या भगवद्-विषयक रति इनके स्थायी भाव हैं।

पारिभाषिक शब्दावली

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नाट्यशास्त्र में भरत मुनि ने रस की व्याख्या करते हुये कहा है -

विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्ररस निष्पत्ति:।

अर्थात विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। सुप्रसिद्ध साहित्य दर्पण में कहा गया है हृदय का स्थायी भाव, जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव का संयोग प्राप्त कर लेता है तो रस रूप में निष्पन्न हो जाता है।

रीतिकाल के प्रमुख कवि देव ने रस की परिभाषा इन शब्दों में की है :

जो विभाव अनुभाव अरू, विभचारिणु करि होई।
थिति की पूरन वासना, सुकवि कहत रस होई॥

इस प्रकार रस के चार अंग हैं - स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव।

स्थायी भाव

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भाव का अर्थ है:-होना

सहृदय के अंत:करण में जो मनोविकार, वासना या संस्कार रूप में सदा विद्यमान रहते हैं तथा जिन्हें कोई भी विरोधी या अविरोधी दबा नहीं सकता हूं , उन्हें स्थायी भाव कहते हैं।

ये मानव मन में बीज रूप में, चिरकाल तक अचंचल होकर निवास करते हैं। ये संस्कार या भावना के द्योतक हैं। ये सभी मनुष्यों में उसी प्रकार छिपे रहते हैं जैसे मिट्टी में गंध अविच्छिन्न रूप में समाई रहती है। ये इतने समर्थ होते हैं कि अन्य भावों को अपने में विलीन कर लेते हैं।

इनकी संख्या 11 है - रति, हास, शोक, उत्साह, क्रोध, भय, जुगुप्सा, विस्मय, निर्वेद, वात्सलता और ईश्वर विषयक प्रेम।

विभाव का अर्थ है कारण। स्थायी भाव के उत्पन्न होने के कारणों को विभाव कहते हैं । ये स्थायी भावों का विभावन/उद्बोधन करते हैं, उन्हें आस्वाद योग्य बनाते हैं। ये रस की उत्पत्ति में आधारभूत माने जाते हैं।

विभाव के दो भेद हैं: आलंबन विभाव और उद्दीपन विभाव।

आलंबन विभाव

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  • जिन पात्रों के द्वारा रस निष्पत्ति सम्भव होती है वें आलंबन विभाव कहलाते हैं। जैसे:- नायक और नायिका।
  • आलंबन के दो भेद होते हैं:आश्रय और विषय
  • जिसमें किसी के प्रति भाव जागृत होते है वह आश्रय कहलाते है और जिसके प्रति भाव जागृत होते है वह विषय, जैसे:- रौद्र रस में परशुराम का लक्ष्मण पर क्रोधित होना। यहाँ परशुराम आश्रय और लक्ष्मण विषय हुए।

उद्दीपन विभाव

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विषय द्वारा कियें क्रियाएं और वह स्थान जो रस निष्पत्ति में सहायक होते है उन्हें उद्दीपन विभाव कहते हैं।

उद्दीपन विभाव को दो भागों में बांट जा सकता है:-

  • आलम्बनगत बाह्य चेष्टा:- विषय द्वारा कियें गयें कार्य आलम्बनगत बाह्य चेष्टा कहलाते हैं। जैसे:- परशुराम का लक्ष्मण पर कुपित होने के बाद लक्ष्मण की व्यंग्योक्तियाँ।
  • बाह्य वातावरण:- रस निष्पत्ति में वातावरण महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है क्योंकि प्रेमी-प्रेमिका अगर शमशान में प्रेम करें और शत्रु बाग-बगीचे में आमने-सामने आए तो रस निष्पत्ति में यह सहायक ना होगा।

रति, हास, शोक आदि स्थायी भावों को प्रकाशित या व्यक्त करने वाली आश्रय की चेष्टाएं अनुभाव कहलाती हैं।

ये चेष्टाएं भाव-जागृति के उपरांत आश्रय में उत्पन्न होती हैं इसलिए इन्हें अनुभाव कहते हैं, अर्थात जो भावों का अनुगमन करे वह अनुभाव कहलाता है।

अनुभाव के दो भेद हैं - इच्छित और अनिच्छित।

आलंबन एवं उद्दीपन के माध्यम से अपने-अपने कारणों द्वारा उत्पन्न, भावों को बाहर प्रकाशित करने वाली सामान्य लोक में जो कार्य चेष्टाएं होती हैं, वे ही काव्य नाटक आदि में निबद्ध अनुभाव कहलाती हैं। उदाहरण स्वरूप विरह-व्याकुल नायक द्वारा सिसकियां भरना, मिलन के भावों में अश्रु, स्वेद, रोमांच, अनुराग सहित देखना, क्रोध जागृत होने पर शस्त्र संचालन, कठोर वाणी, आंखों का लाल हो जाना आदि अनुभाव कहे जाएंगे।

साधारण अनुभाव : अर्थात् (इच्छित अभिनय) के चार भेद हैं। 1.आंगिक 2.वाचिक 3. आहार्य 4. सात्विक। आश्रय की शरीर संबंधी चेष्टाएं आंगिक या कायिक अनुभाव है। रति भाव के जाग्रत होने पर भू-विक्षेप, कटाक्ष आदि प्रयत्न पूर्वक किये गये वाग्व्यापार वाचिक अनुभाव हैं। आरोपित या कृत्रिम वेष-रचना आहार्य अनुभाव है। परंतु, स्थायी भाव के जाग्रत होने पर स्वाभाविक, अकृत्रिम, अयत्नज, अंगविकार को सात्विक अनुभाव कहते हैं। इसके लिए आश्रय को कोई बाह्य चेष्टा नहीं करनी पड़ती। इसलिए ये अयत्नज कहे जाते हैं। ये स्वत: प्रादुर्भूत होते हैं और इन्हें रोका नहीं जा सकता।

सात्विक अनुभाव : अर्थात (अनिच्छित) आठ भेद हैं - स्तंभ, स्वेद, रोमांच, स्वरभंग, वेपथु (कम्प), वैवर्ण्य, अश्रु और प्रलय।

संचारी या व्यभिचारी भाव

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जो भाव केवल थोड़ी देर के लिए स्थायी भाव को पुष्ट करने के निमित्त सहायक रूप में आते हैं और तुरंत लुप्त हो जाते हैं, वे संचारी भाव हैं।

संचारी शब्द का अर्थ है, साथ-साथ चलना अर्थात संचरणशील होना, संचारी भाव स्थायी भाव के साथ संचरित होते हैं, इनमें इतना सार्मथ्य होता है कि ये प्रत्येक स्थायी भाव के साथ उसके अनुकूल बनकर चल सकते हैं। इसलिए इन्हें व्यभिचारी भाव भी कहा जाता है।

संचारी या व्यभिचारी भावों की संख्या ३३ मानी गयी है - निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूया, मद, श्रम, आलस्य, दीनता, चिंता, मोह, स्मृति, धृति, व्रीड़ा, चापल्य, हर्ष, आवेग, जड़ता, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार (मिर्गी), स्वप्न, प्रबोध, अमर्ष (असहनशीलता), अवहित्था (भाव का छिपाना), उग्रता, मति, व्याधि, उन्माद, मरण, त्रास और वितर्क।

भरतमुनि (2-3 शती ई.) ने काव्य के आवश्यक तत्व के रूप में रस की प्रतिष्ठा करते हुए शृंगार, हास्य, रौद्र, करुण, वीर, अद्भुत, बीभत्स तथा भयानक नाम से उसके आठ भेदों का स्पष्ट उल्लेख किया है तथा कतिपय पंक्तियों के आधार पर विद्वानों की कल्पना है कि उन्होंने शांत नामक नवें रस को भी स्वीकृति दी है। इन्हीं नौ रसों की संज्ञा है नवरस। विभावानुभाव-संचारीभाव के संयोग से इन रसों की निष्पत्ति होती है। प्रत्येक रस का स्थायीभाव अलग-अलग निश्चित है। उसी की विभावादि संयोग से परिपूर्ण होनेवाली निर्विघ्न-प्रतीति-ग्राह्य अवस्था रस कहलाती है। शृंगार का स्थायी रति, हास्य का हास, रौद्र का क्रोध, करुण का शोक, वीर का उत्साह, अद्भुत का विस्मय, बीभत्स का जुगुप्सा, भयानक का भय तथा शांत का स्थायी शम या निर्वेद कहलाता है। भरत ने आठ रसों के देवता क्रमश: विष्णु, प्रमथ, रुद्र, यमराज, इंद्र, ब्रह्मा, महाकाल तथा कालदेव को माना है। शांत रस के देवता नारायण और उसका वर्ण कुंदेटु बताया जाता है। प्रथम आठ रसों के क्रमश: श्याम, सित, रक्त, कपोत, गौर, पीत, नील तथा कृष्ण वर्ण माने गए हैं।

काव्य के प्रथम आठ रसों में शृंगार, रौद्र, वीर तथा वीभत्स को प्रधान मानकर क्रमश: हास्य, करुण, अद्भुत तथा भयानक रस की उत्पत्ति मानी है। शृंगार की अनुकृति से हास्य, रौद्र तथा वीर कर्म के परिणामस्वरूप करुण तथा अद्भुत एवं वीभत्स दर्शन से भयानक उत्पन्न होता है। अनुकृति का अर्थ, अभिनवगुप्त (11वीं शती) के शब्दों में आभास है, अत: किसी भी रस का आभास हास्य का उत्पादक हो सकता है। विकृत वेशालंकारादि भी हास्योत्पादक होते हैं। रौद्र का कार्य विनाश होता है, अत: उससे करुण की तथा वीरकर्म का कर्ता प्राय: अशक्य कार्यों को भी करते देखा जाता है, अत: उससे अद्भुत की उत्पत्ति स्वाभाविक लगती है। इसी प्रकार बीभत्सदर्शन से भयानक की उत्पत्ति भी संभव है। अकेले स्मशानादि का दर्शन भयोत्पादक होता है। तथापि यह उत्पत्ति सिद्धांत आत्यंतिक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि परपक्ष का रौद्र या वीर रस स्वपक्ष के लिए भयानक की सृष्टि भी कर सकता है और बीभत्सदर्शन से शांत की उत्पत्ति भी संभव है। रौद्र से भयानक, शृंगार से अद्भुत और वीर तथा भयानक से करुण की उत्पत्ति भी संभव है। वस्तुत: भरत का अभिमत स्पष्ट नहीं है। उनके पश्चात् धनंजय (10वीं शती) ने चित्त की विकास, विस्तार, विक्षोभ तथा विक्षेप नामक चार अवस्थाएँ मानकर शृंगार तथा हास्य को विकास, वीर तथा अद्भुत को विस्तार, बीभत्स तथा भयानक को विक्षोभ और रौद्र तथा करुण को विक्षेपावस्था से संबंधित माना है। किंतु जो विद्वान् केवल द्रुति, विस्तार तथा विकास नामक तीन ही अवस्थाएँ मानते हैं उनका इस वर्गीकरण से समाधान न होगा। इसी प्रकार यदि शृंगार में चित्त की द्रवित स्थिति, हास्य तथा अद्भुत में उसका विस्तार, वीर तथा रौद्र में उसकी दीप्ति तथा बीभत्स और भयानक में उसका संकोच मान लें तो भी भरत का क्रम ठीक नहीं बैठता। एक स्थिति के साथ दूसरी स्थिति की उपस्थिति भी असंभव नहीं है। अद्भुत और वीर में विस्तार के साथ दीप्ति तथा करुण में द्रुति और संकोच दोनों हैं। फिर भी भरतकृत संबंध स्थापन से इतना संकेत अवश्य मिलता है कि कथित रसों में परस्पर उपकारकर्ता विद्यमान है और वे एक दूसरे के मित्र तथा सहचारी हैं।

रसों का परस्पर विरोध

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मित्रता के समान ही इन रसों की प्रयोगस्थिति के अनुसार इनके विरोध की कल्पना भी की गई है। किस रसविशेष के साथ किन अन्य रसों का तुरंत वर्णन आस्वाद में बाधक होगा, यह विरोधभावना इसी विचार पर आधारित है। करुण, बीभत्स, रौद्र, वीर और भयानक से शृंगार का; भयानक और करुण से हास्य का; हास्य और शृंगार से करुण का; हास्य, शृंगार और भयानक से रौद्र का; शृंगार, वीर, रौद्र, हास्य और शांत से भयानक का; भयानक और शांत से वीर का; वीर, शृंगार, रौद्र, हास्य और भयानक से शांत का विरोध माना गया है। यह विरोध आश्रय ऐक्य, आलंबन ऐक्य अथवा नैरंतर्य के कारण उपस्थित होता है। प्रबंध काव्य में ही इस विरोध की संभावना रहती है। मुक्तक में प्रसंग की छंद के साथ ही समाप्ति हो जाने से इसका भय नहीं रहता है। लेखक को विरोधी रसों का आश्रय तथा आलंबनों को पृथक-पृथक रखकर अथवा दो विरोधी रसों के बीच दोनों के मित्र रस को उपस्थित करके या प्रधान रस की अपेक्षा अंगरस का संचारीवत् उपस्थित करके इस विरोध से उत्पन्न आस्वाद-व्याघात को उपस्थित होने से बचा लेना चाहिए।

रस की आस्वादनीयता

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रस की आस्वादनीयता का विचार करते हुए उसे ब्रह्मानंद सहोदर, स्वप्रकाशानंद, विलक्षण आदि बताया जाता है और इस आधार पर सभी रसों को आनंदात्मक माना गया है। भट्टनायक (१०वीं शती ई.) ने सत्वोद्रैक के कारण ममत्व-परत्व-हीन दशा, अभिनवगुप्त (११वीं शती ई.) ने निर्विघ्न प्रतीति तथा आनंदवर्धन (९ श. उत्तर) ने करुण में माधुर्य तथा आर्द्रता की अवस्थित बताते हुए शृंगार, विप्रलंभ तथा करुण को उत्तरोत्तर प्रकर्षमय बताकर सभी रसों की आनंदस्वरूपता की ओर ही संकेत किया है। किंतु अनुकूलवेदनीयता तथा प्रतिकूलवेदनीयता के आधार पर भावों का विवेचन करके रुद्रभट्ट (९ से ११वीं शती ई. बीच) रामचंद्र गुणचंद्र (१२वीं श.ई.), हरिपाल, तथा धनंजय ने और हिंदी में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रसों का सुखात्मक तथा दु:खात्मक अनुभूतिवाला माना है। अभिनवगुप्त ने इन सबसे पहले ही "अभिनवभारती" में "सुखदु:खस्वभावों रस:" सिद्धान्त को प्रस्तुत कर दिया था। सुखात्मक रसों में शृंगार, वीर, हास्य, अद्भुत तथा शांत की और दु:खात्मक में करुण, रौद्र, बीभत्स तथा भयानक की गणना की गई। "पानकरस" का उदाहरण देकर जैसे यह सिद्ध किया गया कि गुड़ मिरिच आदि को मिश्रित करके बनाए जानेवाले पानक रस में अलग-अलग वस्तुओं का खट्टा मीठापन न मालूम होकर एक विचित्र प्रकार का आस्वाद मिलता है, उसी प्रकार यह भी कहा गया कि उस वैचित्र्य में भी आनुपातिक ढंग से कभी खट्टा, कभी तिक्त और इसी प्रकार अन्य प्रकार का स्वाद आ ही जाता है। मधुसूदन सरस्वती का कथन है कि रज अथवा तम की अपेक्षा सत्व को प्रधान मान लेने पर भी यह तो मानना ही चाहिए कि अंशत: उनका भी आस्वाद बना रहता है। आचार्य शुक्ल का मत है कि हमें अनुभूति तो वर्णित भाव की ही होती है और भाव सुखात्मक दु:खात्मक आदि प्रकार के हैं, अतएव रस भी दोनों प्रकार का होगा। दूसरी ओर रसों को आनंदात्मक मानने के पक्षपाती सहृदयों को ही इसका प्रमण मानते हैं और तर्क का सहारा लेते हैं कि दु:खदायी वस्तु भी यदि अपनी प्रिय है तो सुखदायी ही प्रतीत होती है। जैसे, रतिकेलि के समय स्त्री का नखक्षतादि से यों तो शरीर पीड़ा ही अनुभव होती है, किंतु उस समय वह उसे सुख ही मानती है। भोज (११वीं शती ई.) तथा विश्वनाथ (१४वीं शती ई.) की इस धारणा के अतिरिक्त स्वयं मधुसूदन सरस्वती रसों को लौकिक भावों की अनुभूति से भिन्न और विलक्षण मानकर इनकी आनंदात्मकता का समर्थन करते है और अभिनवगुप्त वीतविघ्नप्रतीत वताकर इस धारणा को स्पष्ट करते हैं कि उसी भाव का अनुभव भी यदि बिना विचलित हुए और किसी बाहरी अथवा अंतरोद्भूत अंतराय के बिना किया जाता है तो वह सह्य होने के कारण आनंदात्मक ही कहलाता है। यदि दु:खात्मक ही मानें तो फिर शृंगार के विप्रलंभ भेद को भी दु:खात्मक ही मानें तो फिर शृंगार के विप्रलंभ भेद को भी दु:खात्मक ही क्यों न माना जाए? इस प्रकार के अनेक तर्क देकर रसों की आनंदरूपता सिद्ध की जाती है। अंग्रेजी में ट्रैजेडी से मिलनेवाले आनंद का भी अनेक प्रकार से समाधान किया गया है और मराठी लेखकों ने भी रसों की आनंदरूपता के संबंध में पर्याप्त भिन्न धारणाएँ प्रस्तुत की हैं।

रसों का राजा कौन है?

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प्राय: रसों के विभिन्न नामों की औपाधिक या औपचारिक सत्ता मानकर पारमार्थिक रूप में रस को एक ही मानने की धारणा प्रचलित रही है। भरत ने "न हि रसादृते कश्चिदप्यर्थ : प्रवर्तत" पंक्ति में "रस" शब्द का एकवचन में प्रयोग किया है और अभिनवगुप्त ने उपरिलिखित धारणा व्यक्त की है। भोज ने शृंगार को ही एकमात्र रस मानकर उसकी सर्वथैव भिन्न व्याख्या की है, विश्वनाथ की अनुसार नारायण पंडित चमत्कारकारी अद्भुत को ही एकमात्र रस मानते हैं, क्योंकि चमत्कार ही रसरूप होता है। भवभूति (८वीं शती ई.) ने करुण को ही एकमात्र रस मानकर उसी से सबकी उत्पत्ति बताई है और भरत के "स्वं स्वं निमित्तमासाद्य शांताद्भाव: प्रवर्तते, पुनर्निमित्तापाये च शांत एवोपलीयते" - (नाट्यशास्त्र ६/१०८) वक्तव्य के आधार पर शांत को ही एकमात्र रस माना जा सकता है। इसी प्रकार उत्साह तथा विस्मय की सर्वरससंचारी स्थिति के आधार पर उन्हें भी अन्य सब रसों के मूल में माना जा सकता है। रस आस्वाद और आनंद के रूप में एक अखंड अनुभूति मात्र हैं, यह एक पक्ष है और एक ही रस से अन्य रसों का उद्भव हुआ है यह दूसरा पक्ष है।

रसाप्राधान्य के विचार में रसराजता की समस्या उत्पन्न की है। भरत समस्त शुचि, उज्वल, मेध्य और दलनीय को शृंगार मानते हैं, "अग्निपुराण" (११वीं शती) शृंगार को ही एकमात्र रस बताकर अन्य सबको उसी के भेद मानता है, भोज शृंगार को ही मूल और एकमात्र रस मानते हैं, परंतु उपलब्ध लिखित प्रमाण के आधार पर "रसराज" शब्द का प्रयोग "उज्ज्वलनीलमणि" में भक्तिरस के लिए ही दिखाई देता है। हिंदी में केशवदास (१६वीं शती ई.) शृंगार को रसनायक और देव कवि (१८वीं शती ई.) सब रसों का मूल मानते हैं। "रसराज" संज्ञा का शृंगार के लिए प्रयोग मतिराम (१८वीं शती ई.) द्वारा ही किया गया मिलता है। दूसरी ओर बनारसीदास (१७वीं शती ई.) "समयसार" नाटक में "नवमों सांत रसनि को नायक" की घोषणा करते हैं। रसराजता की स्वीकृति व्यापकता, उत्कट आस्वाद्यता, अन्य रसों को अंतर्भूत करने की क्षमता सभी संचारियों तथा सात्विकों को अंत:सात् करने की शक्ति सर्वप्राणिसुलभत्व तथा शीघ्रग्राह्यता आदि पर निर्भर है। ये सभी बातें जितनी अधिक और प्रबल शृंगार में पाई जाती हैं, उतनी अन्य रसों में नहीं। अतः रसों का राजा श्रृंगार रस को माना जाता है।

शृंगार रस

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विचारको ने रौद्र तथा करुण को छोड़कर शेष रसों का भी वर्णन किया है। इनमें सबसे विस्तृत वर्णन शृंगार का ही ठहरता है। श्रृंगार रस मुख्यत: संयोग तथा विप्रलंभ या वियोग के नाम से दो भागों में विभाजित किया जाता है, किंतु धनंजय आदि कुछ विद्वान् विप्रलंभ के पूर्वानुराग भेद को संयोग-विप्रलंभ-विरहित पूर्वावस्था मानकर अयोग की संज्ञा देते हैं तथा शेष विप्रयोग तथा संभोग नाम से दो भेद और करते हैं। [2]संयोग की अनेक परिस्थितियों के आधार पर उसे अगणेय मानकर उसे केवल आश्रय भेद से नायकारब्ध, नायिकारब्ध अथवा उभयारब्ध, प्रकाशन के विचार से प्रच्छन्न तथा प्रकाश या स्पष्ट और गुप्त तथा प्रकाशनप्रकार के विचार से संक्षिप्त, संकीर्ण, संपन्नतर तथा समृद्धिमान नामक भेद किए जाते हैं तथा विप्रलंभ के पूर्वानुराग या अभिलाषहेतुक, मान या ईश्र्याहेतुक, प्रवास, विरह तथा करुण प्रिलंभ नामक भेद किए गए हैं। "काव्यप्रकाश" का विरहहेतुक नया है और शापहेतुक भेद प्रवास के ही अंतर्गत गृहीत हो सकता है, "साहित्यदर्पण" में करुण विप्रलंभ की कल्पना की गई है। पूर्वानुराग कारण की दृष्टि से गुणश्रवण, प्रत्यक्षदर्शन, चित्रदर्शन, स्वप्न तथा इंद्रजाल-दर्शन-जन्य एवं राग स्थिरता और चमक के आधार पर नीली, कुसुंभ तथा मंजिष्ठा नामक भेदों में बाँटा जाता है। "अलंकारकौस्तुभ" में शीघ्र नष्ट होनेवाले तथा शोभित न होनेवाले राग को "हारिद्र" नाम से चौथा बताया है, जिसे उनका टीकाकार "श्यामाराग" भी कहता है। पूर्वानुराग का दश कामदशाएँ - अभिलाष, चिंता, अनुस्मृति, गुणकीर्तन, उद्वेग, विलाप, व्याधि, जड़ता तथा मरण (या अप्रदश्र्य होने के कारण उसके स्थान पर मूच्र्छा) - मानी गई हैं, जिनके स्थान पर कहीं अपने तथा कहीं दूसरे के मत के रूप में विष्णुधर्मोत्तरपुराण, दशरूपक की अवलोक टीका, साहित्यदर्पण, प्रतापरुद्रीय तथा सरस्वतीकंठाभरण तथा काव्यदर्पण में किंचित् परिवर्तन के साथ चक्षुप्रीति, मन:संग, स्मरण, निद्राभंग, तनुता, व्यावृत्ति, लज्जानाश, उन्माद, मूच्र्छा तथा मरण का उल्लेख किया गया है। शारदातनय (१३वीं शती) ने इच्छा तथा उत्कंठा को जोड़कर तथा विद्यानाथ (१४वीं शती पूर्वार्ध) ने स्मरण के स्थान पर संकल्प लाकर और प्रलाप तथा संज्वर को बढ़ाकर इनकी संख्या १२ मानी है। यह युक्तियुक्त नहीं है और इनका अंतर्भाव हो सकता है। मान-विप्रलंभ प्रणय तथा ईष्र्या के विचार से दो प्रकार का तथा मान की स्थिरता तथा अपराध की गंभीरता के विचार से लघु, मध्यम तथा गुरु नाम से तीन प्रकार का, प्रवासविप्रलंभ कार्यज, शापज, सँभ्रमज नाम से तीन प्रकार का और कार्यज के यस्यत्प्रवास या भविष्यत् गच्छत्प्रवास या वर्तमान तथा गतप्रवास या भविष्यत् गच्छत्प्रवास या वर्तमान तथा गतप्रवास या भूतप्रवास, शापज के ताद्रूप्य तथा वैरूप्य, तथा संभ्रमज के उत्पात, वात, दिव्य, मानुष तथा परचक्रादि भेद के कारण कई प्रकार का होता है। विरह गुरुजनादि की समीपता के कारण पास रहकर भी नायिका तथा नायक के संयोग के होने का तथा करुण विप्रलंभ मृत्यु के अनंतर भी पुनर्जीवन द्वारा मिलन की आशा बनी रहनेवाले वियोग को कहते हैं। शृंगार रस के अंतर्गत नायिकालंकार, ऋतु तथा प्रकृति का भी वर्णन किया जाता है।[3] एक उदाहरण है-

राम को रूप निहारति जानकी कंगन के नग की परछाही।
याते सबे सुधि भूलि गइ ,करटेकि रही पल टारत नाही।। तुलसीदास कृत रामचरित मानस के -बालकांड-17

इसी प्रकार संयोग तथा विप्रलंभ या वियोग के नाम से दो भागों में विभाजित शृंगार रस का उदाहरण-

संयोग शृंगार

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बतरस लालच लाल की, मुरली धरि लुकाये।
सौंह करे, भौंहनि हँसै, दैन कहै, नटि जाये। -बिहारीलाल

राम को रूप निहारती जानकी कंकन के नग के परछाही, याति सब शुध भूल गयी पेर टेक रही कर टारत नही।।

वियोग या विप्रलंभ शृंगार

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विप्रलंभ श्रंगार की 10 कामदषाएँ मानी गयीं हैं।

निसिदिन बरसत नयन हमारे,
सदा रहति पावस ऋतु हम पै जब ते स्याम सिधारे॥ -सूरदास

हास्यरस के विभावभेद से आत्मस्थ तथा परस्थ एवं हास्य के विकासविचार से स्मित, हसित, विहसित, उपहसित, अपहसित तथा अतिहसित भेद करके उनके भी उत्तम, मध्यम तथा अधम प्रकृति भेद से तीन भेद करते हुए उनके अंतर्गत पूर्वोक्त क्रमश: दो-दो भेदों को रखा गया है। हिंदी में केशवदास तथा एकाध अन्य लेखक ने केवल मंदहास, कलहास, अतिहास तथा परिहास नामक चार ही भेद किए हैं। अंग्रेजी के आधार पर हास्य के अन्य अनेक नाम भी प्रचलित हो गए हैं।

उदाहरण -

सीस पर गंगा हँसे, भुजनि भुजंगा हँसैं,
हास ही को दंगा भयो, नंगा के विवाह में। पद्माकर
तंबूरा ले मंच पर बैठे प्रेमप्रताप,
साज मिले पंद्रह मिनट घंटा भर आलाप।
घंटा भर आलाप, राग में मारा गोता,
धीरे-धीरे खिसक चुके थे सारे श्रोता॥ (काका हाथरसी)

नया उदाहरण-

मैं ऐसा महावीर हूं,
पापड़ तोड़ सकता हूँ।
अगर गुस्सा आ जाए,
तो कागज को मरोड़ सकता हूँ।।
  • शांत रस का उल्लेख यहाँ कुछ दृष्टि और शांत स्वभाव आवश्यक है। इसके स्थायीभाव के संबंध में ऐकमत्य नहीं है। कोई शम को और कोई निर्वेद को स्थायी मानता है। रुद्रट (9 ई.) ने "सम्यक् ज्ञान" को, आनंदवर्धन ने "तृष्णाक्षयसुख" को, तथा अन्यों ने "सर्वचित्तवृत्तिप्रशम", निर्विशेषचित्तवृत्ति, "घृति" या "उत्साह" को स्थायीभाव माना। अभिनवगुप्त ने "तत्वज्ञान" को स्थायी माना है। शांत रस का नाट्य में प्रयोग करने के संबंध में भी वैमत्य है। विरोधी पक्ष इसे विक्रियाहीन तथा प्रदर्शन में कठिन मानकर विरोध करता है तो समर्थक दल का कथन है कि चेष्टाओं का उपराम प्रदर्शित करना शांत रस का उद्देश्य नहीं है, वह तो पर्यंतभूमि है। अतएव पात्र की स्वभावगत शांति एवं लौकिक दु:ख सुख के प्रति विराग के प्रदर्शन से ही काम चल सकता है। नट भी इन बातों को और इनकी प्राप्ति के लिए किए गए प्रयत्नों को दिखा सकता है और इस दशा में संचारियों के ग्रहण करने में भी बाधा नहीं होगी। सर्वेंद्रिय उपराम न होने पर संचारी आदि हो ही सकते हैं। इसी प्रकार यदि शांत शम अवस्थावाला है तो रौद्र, भयानक तथा वीभत्स आदि कुछ रस भी ऐसे हैं जिनके स्थायीभाव प्रबुद्ध अवस्था में प्रबलता दिखाकर शीघ्र ही शांत होने लगते हैं। अतएव जैसे उनका प्रदर्शन प्रभावपूर्ण रूप में किया जाता है, वैसे ही इसका भी हो सकता है। जैसे मरण जैसी दशाओं का प्रदर्शन अन्य स्थानों पर निषिद्ध है वैसे ही उपराम की पराकाष्ठा के प्रदर्शन से यहाँ भी बचा जा सकता है।

शांत का कोई भेद नहीं है। केवल रुद्रभट्ट ने अवश्य वैराग्य, दोषनिग्रह, संतोष तथा तत्वसाक्षात्कार नाम से इसके चार भेद दिए हैं जो साधन मात्र के नाम है और इनकी संख्या बढ़ाई भी जा सकती है।[4]

उदाहरण -

कबहुँक हों यही रहनि रहोंगे।
श्री रघुनाथ कृपाल कृपा तें संत सुभाव गहओंगो ॥ (तुलसीदास)
मन रे तन कागद का पुतला।
लागै बूँद बिनसि जाय छिन में, गरब करै क्या इतना॥ (कबीर)

भरतमुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ में प्रतिपादित आठ नाट्यरसों में शृंगार और हास्य के अनन्तर तथा रौद्र से पूर्व करुण रस की गणना की गई । ‘रौद्रात्तु करुणो रस:’ कहकर 'करुण रस' की उत्पत्ति 'रौद्र रस' से मानी गई है और उसकी उत्पत्ति शापजन्य क्लेश विनिपात, इष्टजन-विप्रयोग, विभव नाश, वध, बन्धन, विद्रव अर्थात पलायन, अपघात, व्यसन अर्थात आपत्ति आदि विभावों के संयोग से स्वीकार की है। साथ ही निर्वेद, ग्लानि, चिन्ता, औत्सुक्य, आवेग, मोह, श्रम, भय, विषाद, दैन्य, व्याधि, जड़ता, उन्माद, अपस्मार, त्रास, आलस्य, मरण, स्तम्भ, वेपथु, वेवर्ण्य, अश्रु, स्वरभेद आदि की व्यभिचारी या संचारी भाव के रूप में परिगणित किया है। [5][6]उदाहरण -

मुख मुखाहि लोचन स्रवहि सोक न हृदय समाइ।
मनहूँ करुन रस कटकई उत्तरी अवध बजाइ॥ (तुलसीदास)[7]
करुणे, क्यों रोती है? उत्तर में और अधिक तू रोई।
मेरी विभूति है जो, उसको भवभूति क्यों कहे कोई? (मैथिलीशरण गुप्त)[8]

काव्यगत रसों में रौद्र रस का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भरत ने ‘नाट्यशास्त्र’ में शृंगार, रौद्र, वीर तथा वीभत्स, इन चार रसों को ही प्रधान माना है, अत: इन्हीं से अन्य रसों की उत्पत्ति बतायी है, यथा-‘तेषामुत्पत्तिहेतवच्क्षत्वारो रसा: शृंगारो रौद्रो वीरो वीभत्स इति’। रौद्र से करुण रस की उत्पत्ति बताते हुए भरत कहते हैं कि ‘रौद्रस्यैव च यत्कर्म स शेय: करुणो रस:’। रौद्र रस का कर्म ही करुण रस का जनक होता है। रौद्र रस का 'स्थायी भाव' 'क्रोध' है तथा इसका वर्ण रक्त एवं देवता रुद्र है। [9][10] केशवदास की ‘रामचन्द्रिका’ से रौद्र रस का उदाहरण पहले ही अंकित किया जा चुका है। भूषण की रचनाओं में भी रौद्र रस के उदाहरण मिल जाते हैं। वर्तमान काल में श्यामनारायण पाण्डेय तथा ‘दिनकर’ की रचनाओं में रौद्र रस की प्रभावकारी व्यंजना हुई है। संस्कृत के ग्रन्थों में ‘महाभारत’ तथा ‘वीरचरित’, ‘वेणीसंहार’ इत्यादि नाटकों में रौद्र रस की प्रभूत अभिव्यक्ति हुई है। [11] उदाहरण -

बोरौ सवै रघुवंश कुठार की धार में बारन बाजि सरत्थहि।
बान की वायु उड़ाइ कै लच्छन लक्ष्य करौ अरिहा समरत्थहिं।
रामहिं बाम समेत पठै बन कोप के भार में भूजौ भरत्थहिं।
जो धनु हाथ धरै रघुनाथ तो आजु अनाथ करौ दसरत्थहि।( केशवदास की ‘रामचन्द्रिका’ से।)
श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्षोभ से जलने लगे।
सब शील अपना भूल कर करतल युगल मलने लगे॥
संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े।
करते हुए यह घोषणा वे हो गए उठ कर खड़े॥ (मैथिलीशरण गुप्त)

शृंगार, रौद्र तथा वीभत्स के साथ वीररस को भी भरत मुनि ने मूल रसों में परिगणित किया है। वीर रस से ही अदभुत रस की उत्पत्ति बतलाई गई है। वीर रस का 'वर्ण' 'स्वर्ण' अथवा 'गौर' तथा देवता इन्द्र कहे गये हैं। यह उत्तम प्रकृति वालो से सम्बद्ध है तथा इसका स्थायी भाव ‘उत्साह’ है।[12] वीर रस के केवल युद्धवीर, धर्मवीर, दयावीर तथा दानवीर भेद स्वीकार किए जाते हैं। उत्साह को आधार मानकर पंडितराज (17वीं शती मध्य) आदि ने अन्य अनेक भेद भी किए हैं।

उदाहरण -

"वह खून कहो किस मतलब का जिसमें
उबल कर नाम न हो"
"वह खून कहो किस मतलब जो देश के
काम ना हो"[13]
वीर तुम बढ़े चलो, धीर तुम बढ़े चलो।
सामने पहाड़ हो कि सिंह की दहाड़ हो।
तुम कभी रुको नहीं, तुम कभी झुको नहीं॥ (द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

अद्भुत रस

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अद्भुत रस के भरतमुनि ने दो भेद इए हैं- दिव्य तथा आनन्दज । वैष्णव आचार्य इसके दृष्ट, श्रुत, संकीर्तित तथा अनुमित नामक भेद करते हैं। उदाहरण :

अखिल भुवन चर-अचर सब, हरि मुख में लिख मातु।
चकित भई गद्गद बचना, विकसित दृग पुलकातु।।

वीभत्स रस

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बीभत्स भरत तथा धनञ्जय के अनुसार शुद्ध, क्षोभन तथा उद्वेगी नाम से तीन प्रकार का होता है। उदाहरण :

सिर पर बैठ्यो काग आँख दोउ खात निकारत।
खींचत जीभहिं प्यार अतिहि आनंद उर धारत।
गीध जाँघि को खोदि-खोदि कै मांस उपारत।
स्वान अंगुरिन काटि-काटि कै खात विदारत।

भयानक कारणभेद से व्याजजन्य या भ्रमजनित, अपराधजन्य या काल्पनिक तथा वित्रासितक या वास्तविक नाम से तीन प्रकार का और स्वनिष्ठ परनिष्ठ भेद से दो प्रकार का माना जाता है। उदाहरण ::: कर्तव्य अपना इस समय होता न मुझको ज्ञात है। कुरुराज चिंताग्रस्त मेरा जल रहा सब गात हैं।।

भरत ने नाट्यशास्त्र में मूलतः नौ रसों को ही मान्यता दी। भक्ति को भाव माना जाय या रस इस पर काव्यशास्त्रियों ने किंचित् विवेचन किया। मम्मट ने सर्वप्रथम "काव्य-प्रकाश" में भगवद्-विषयक रति को स्वतंत्र भाव की संज्ञा दी। आगे चलकर पंडितराज जगन्नाथ ने "रस गंगाधर" में इस मान्यता पर प्रश्नचिह्न लगाया। हालाँकि परवर्ती साहित्य परंपरा में वात्सल्य रस और भक्ति रस को नौ-रसों के विस्तार के रूप में स्वीकृत कर लिया गया।[14]भक्ति रस का स्थायी भाव 'भक्ति' या 'भगवद्-विषयक रति' को माना गया है।[15]

रसों का अन्तर्भाव

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स्थायीभावों के किसी विशेष लक्षण अथवा रसों के किसी भाव की समानता के आधार पर प्राय: रसों का एक दूसरे में अंतर्भाव करने, किसी स्थायीभाव का तिरस्कार करके नवीन स्थायी मानने की प्रवृत्ति भी यदा-कदा दिखाई पड़ी है। यथा, शांत रस और दयावीर तथा वीभत्स में से दयावीर का शांत में अंतर्भाव तथा बीभत्स स्थायी जुगुप्सा को शांत का स्थायी माना गया है। "नागानंद" नाटक को कोई शांत का और कोई दयावीर रस का नाटक मानता है। किंतु यदि शांत के तत्वज्ञानमूलक विराम और दयावीर के करुणाजनित उत्साह पर ध्यान दिया जाए तो दोनों में भिन्नता दिखाई देगी। इसी प्रकार जुगुप्सा में जो विकर्षण है वह शांत में नहीं रहता। शांत राग-द्वेष दोनों से परे समावस्था और तत्वज्ञानसंमिलित रस है जिसमें जुगुप्सा संचारी मात्र बन सकती है। ठीक ऐसे जैसे करुण में भी सहानुभूति का संचार रहता है और दयावीर में भी, किंतु करुण में शोक की स्थिति है और दयावीर में सहानुभूतिप्रेरित आत्मशक्तिसंभूत आनंदरूप उत्साह की। अथवा, जैसे रौद्र और युद्धवीर दोनों का आलंबन शत्रु है, अत: दोनों में क्रोध की मात्रा रहती है, परंतु रौद्र में रहनेवाली प्रमोदप्रतिकूल तीक्ष्णता और अविवेक और युद्धवीर में उत्सह की उत्फुल्लता और विवेक रहता है। क्रोध में शत्रुविनाश में प्रतिशोध की भावना रहती है और वीर में धैर्य और उदारता। अतएव इनका परस्पर अंतर्भाव संभव नहीं। इसी प्रकार "अंमर्ष" को वीर का स्थायी मानना भी उचित नहीं, क्योंकि अमर्ष निंदा, अपमान या आक्षेपादि के कारण चित्त के अभिनिवेश या स्वाभिमानावबोध के रूप में प्रकट होता है, किंतु वीररस के दयावीर, दानवीर, तथा धर्मवीर नामक भेदों में इस प्रकार की भावना नहीं रहती।

  1. http://www.brandbihar.com/hindi/literature/amit_sharma/rash_ka_sidhant_1.html[मृत कड़ियाँ]
  2. सरस्वती कण्ठाभरण, 5:45
  3. रसतरंगिणी, 6
  4. साहित्यदर्पण 1:179
  5. नाट्यशास्त्र 6।61, भरतमुनि
  6. साहित्य दर्पण: 3।222,विश्वनाथ
  7. रामचरितमानस: 2।56
  8. ‘साकेत’, 9
  9. 6:38 नाट्य शास्त्र भरतमुनि
  10. 6:39-41नाट्य शास्त्र भरतमुनि
  11. धीरेंद्र वर्मा,हिन्दी साहित्यकोश, भाग-1, मई 2007 (हिन्दी), वाराणसी: ज्ञानमण्डल प्रकाशन, पृष्ठ संख्या-581।
  12. नाट्यशास्त्र, 6:66 ग
  13. Asati, Kartik (2019,12,21). "Veer ras". Janapriya Journal of Interdisciplinary Studies. 2: 110–121. आइ॰एस॰एस॰एन॰ 2362-1516. डीओआइ:10.3126/jjis.v2i1.18074. |date= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)
  14. विनयमोहन, शर्मा (1958). धीरेन्द्र वर्मा (संपा॰). हिन्दी साहित्य कोश भाग - 1 (2015 संस्करण). वाराणसी: ज्ञानमण्डल लिमिटेड. पृ॰ 443.
  15. रमाशंकर, तिवारी (1958). धीरेन्द्र वर्मा (संपा॰). हिन्दी साहित्य कोश भाग - 1 (2015 संस्करण). वाराणसी: ज्ञानमण्डल लिमिटेड. पृ॰ 444.

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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