रसविद्या, मध्यकालीन भारत की किमियागारी (alchemy) की विद्या है जो दर्शाती है कि भारत भौतिक संस्कृति में भी अग्रणी था। भारत में केमिस्ट्री (chemistry) के लिये "रसायन शास्त्र", रसविद्या, रसतन्त्र, रसशास्त्र और रसक्रिया आदि नाम प्रयोग में आते थे। जहाँ रसविद्या से सम्बन्धित क्रियाकलाप किये जाते थे उसे रसशाला कहते थे। इस विद्या के मर्मज्ञों को रसवादिन् कहा जाता था।

रसविद्या का बड़ा महत्व माना गया है। रसचण्डाशुः नामक ग्रन्थ में कहा गया है-

शताश्वमेधेन कृतेन पुण्यं गोकोटिभि: स्वर्णसहस्रदानात।
नृणां भवेत् सूतकदर्शनेन यत्सर्वतीर्थेषु कृताभिषेकात्॥6॥
अर्थात सौ अश्वमेध यज्ञ करने के बाद, एक करोड़ गाय दान देने के बाद या स्वर्ण की एक हजार मुद्राएँ दान देने के पश्चात् तथा सभी तीर्थों के जल से अभिषेक (स्नान) करने के फलस्वरूप जो जो पुण्य प्राप्त होता है, वही पुण्य केवल पारद के दर्शन मात्र से होता है। [1]

इसी तरह-

मूर्च्छित्वा हरितं रुजं बन्धनमनुभूय मुक्तिदो भवति।
अमरीकरोति हि मृतः कोऽन्यः करुणाकर: सूतात्॥7॥
जो मूर्छित होकर रोगों का नाश करता है, बद्ध होकर मनुष्य को मुक्ति प्रदान करता है, और मृत होकर मनुष्य को अमर करता है, ऐसा दयालु पारद के अतिरिक्त अन्य कौन हो सकता है? अर्थात कोई नहीं। [2]

रसों का वर्गीकरण

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रसशास्त्र में प्रयुक्त पदार्थ कई श्रेणियों में रखे गये हैं। इसमें सबसे प्रमुख पारद है। रसों के प्रकार निम्नलिखित हैं-

  • महारास - इसमें आठ पदार्थ हैं। (अभ्रक, माक्षिक (पाइराइट), विमल (लौह पाइराइट), वैक्रान्त (Tourmaline ), शिलाजीत, सस्यक (Copper Sulphate), चपल (बिस्मथ), रसक (Calamine या जस्ता)
  • उपरस - गन्धक, गैरिक (Ochre), कासीस (Green Vitriol), फिटकरी ( कांक्षी ), हरताल (Orpiment), मनःशिला (Realgar), अंजन (Collyrium), कंकुष्ठ (Ruhbarb)
  • साधारण रस - कम्पिल्लक (Kamila), गौरीपाषाण (Arsenic), नौसादर, कपर्द ( कौड़ी ), अग्निजार ( Ambergris), गिरिसिन्दूर (Red Oxide of Mercury), हिंगुल (Cinnabar), मृददारश्रृंग (Litharge)
  • उपरत्न - वैक्रान्त ( Tourmaline), सूर्यकान्त (Sun stone), चन्द्रकान्त ( Moon Stone), राजवर्त ( Lapis lazuli), पिरोजक (Turquise), स्फटिकमणि ( Quartz), तृणकान्त (Amber), पलङ्क (Onyx), पुत्तिका (Peridote)
  • विष - सर्पविष, बिच्छू का विष आदि
  • उपविष - धतूरा और कुछल आदि के विष

रसविद्या के प्रमुख ग्रन्थ

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इस विद्या के संस्कृत में बहुत से ग्रन्थ हैं।

प्रमुख रसवादिन्

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  • नागार्जुन - रसरत्नाकर, कक्षपुटतंत्र, आरोग्य मंजरी, योग सार, योगाष्टक
  • वाग्भट्ट – रसरत्नसमुच्चय
  • गोविन्दाचार्य – रसार्णव
  • यशोधर – रसप्रकाशसुधाकर
  • रामचन्द्र – रसेन्द्रचिन्तामणि
  • सोमदेव - रसेन्द्रचूड़ामणि

रस संस्कार

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पारद (रस) के कुल सोलह संस्कार संपन्न किये जाते हैं जिनमे पहले आठ संस्कार रोग मुक्ति हेतु , औषधि निर्माण, रसायन और धातुवाद के लिए आवश्यक हैं जबकि शेष आठ संस्कार खेचरी सिद्धि , धातु परिवर्तन , सिद्ध सूत और स्वर्ण बनाने में प्रयुक्त होते हैं।

आचार्यो ने जो १८ संस्कार बताए हैं वे निम्नलिखित हैं -

कुछ आचार्यो ने दो और संस्कार माने हे जिन्हें वैध और भक्षण कहा गया है।

प्रमुख यन्त्र

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रसरत्नसमुच्चय के अध्याय ७ में रसशाला यानी प्रयोगशाला का विस्तार से वर्णन भी है। इसमें ३२ से अधिक यंत्रों का उपयोग किया जाता था, जिनमें मुख्य हैं-

(१) दोल यंत्र (२) स्वेदनी यंत्र (३) पाटन यंत्र (४) अधस्पदन यंत्र (५) ढेकी यंत्र (६) बालुक यंत्र
(७) तिर्यक्‌ पाटन यंत्र (८) विद्याधर यंत्र (९) धूप यंत्र (१०) कोष्ठि यंत्र (११) कच्छप यंत्र (१२) डमरू यंत्र।

रसेन्द्रमंगल में निम्नलिखित यन्त्रों का उल्लेख है- शिलायन्त्र, पाषाण यन्त्र, भूधर यन्त्र, बंश यन्त्र, नलिका यन्त्र, गजदन्त यन्त्र, डोला यन्त्र, अधस्पातन यन्त्र, भूवस्पातन यन्त्र, पातन यन्त्र, नियामक यन्त्र, गमन यन्त्र, तुला यन्त्र, कच्छप यन्त्र, चाकी यन्त्र, वलुक यन्त्र, अग्निसोम यन्त्र, गन्धक त्राहिक यन्त्र, मूषा यन्त्र, हण्डिका कम्भाजन यन्त्र, घोण यन्त्र, गुदाभ्रक यन्त्र, नारायण यन्त्र, जलिका यन्त्र, चरण यन्त्र।[3]

इन यन्त्रों का विस्तृत विवरण बाद के ग्रन्थों (जैसे रसार्णव और रसरत्नसमुच्चय ) में मिलता है।

आधुनिक युग में रसशास्त्र का उद्धार

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रसशास्त्र पर कम से कम सत्तर या अस्सी प्राथमिक संस्कृत ग्रन्थ हैं। इनमें से लगभग पांचवां हिस्सा मुद्रित हो चुका है, कुछ गंभीर रूप से संपादित किए गए हैं और कोई भी पूरी तरह से अनूदित नहीं है। रसशास्त्र की विस्तृत जानकारी के लिए अभी भी मुख्य और लगभग एकमात्र व्यापक माध्यमिक स्रोत प्रफुल्ल चन्द्र राय द्वारा २०वीं शताब्दी के प्रथम दशक में दो खण्दों में रचित हिन्दू रसायन शास्त्र का इतिहास है। इस ग्रन्थ को आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र राय के शिष्य पी. राय ने संशोधित किया था और यही ग्रन्थ आज आमतौर पर प्राचीन और माध्यमिक भारत में रसायन विज्ञान के इतिहास के रूप में पढ़ा जाता है। रसशास्त्र से सम्बन्धित कुछ अप्रकाशित शोध प्रबन्ध अधिक मूलभूत हैं। आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र राय ने हमारे लिए इस विषय को उल्लेखनीय रूप से पूरी तरह से लिपिबद्ध किया जिसके लिए भारत उनका ऋणी रहेगा।

१८६७ में मथुरा के क्षेमराज कृष्णदास ने हिन्दी में रसरत्नाकर का अनुवाद प्रकाशित किया था।

भूदेव मुखोपाध्याय ने १९२६ में चार भागों में रसजलनिधि का अंग्रेजी में अनुवाद प्रकाशित किया।

स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती ने १९६० में हिन्दी में प्राचीन भारत में रसायन का विकास की रचना की।

  1. "रसचण्डाशुः, पृष्ठ २" (PDF). मूल (PDF) से 11 नवंबर 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 10 मार्च 2017.
  2. "रसचण्डाशुः, पृष्ठ २" (PDF). मूल (PDF) से 11 नवंबर 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 10 मार्च 2017.
  3. "A brif history of Indian alchemy" (PDF). मूल (PDF) से 17 सितंबर 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 17 सितंबर 2018.

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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