आयुर्वेद में रस का दो अर्थों में उपयोग होता है-

मुँह में डाले हुए पदार्थों का रसना या जीभ के द्वारा जो अनुभव होता है, उसे रस कहते हैं ।

वैद्यक में मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त और कषाय ये छह रस माने गए है और इसकी उत्पत्ति भूमि, आकाश, वायु और अग्नि आदि के संयोग से जल में मानी गई है । जैसे—पृथ्वी ओर जल के गुण की अधिकता से मधुर रस, पृथ्वी और अग्नि के गुण की अधिकता से अम्ल रस, जल और अग्नि के गुण की अधिकता से तिक्त रस और पृथ्वी तथा वायु की अधिकता से कषाय रस उत्पन्न होता है । इन छहों रसों के मिश्रण से और छत्तीस प्रकार के रस उत्पन्न होते है । जैसे,—मधुराम्ल, मधुरतिक्त, अम्ललवण, अम्लकटु, लवणकटु, लवणतिक्त, कटुतिक्त, तिक्तकषाय आदि । भिन्न भिन्न रसों के भिन्न भिन्न गुण कहे गए हैं । जैसें,—मधुर रस के सेवन से रक्त, मांस, मेद, अस्थि और शुक्र आदि की वृद्धि होती है; अम्ल रस जारक और पाचक माना गया है; लवण रस पाचक और संशोधक माना गया है; कटु रस पाचक, रेचक, अग्नि दीपक और संशोधक माना गया है; तिक्त रस रूचिकर और दिप्तिवर्धक माना गया है; ओर कपाय रस संग्राहक और मल, मूत्र तथा श्लेष्मा आदि को रोकनेवाला माना गया है।

न्यायदर्शन के अनुसार रस नित्य और अनित्य दो प्रकार का होता है । परमाणु रूप रस नित्य और रसना द्वारा गृहीत होनेवाला रस अनित्य कहा गया है ।

वैद्यक के अनुसार शरीर के अन्दर की सात धातुओं में से रस पहली धातु है।

सुश्रुत के अनुसार मनुष्य जो पदार्थ खाता है, उससे पहले द्रव स्वरूप एक सूक्ष्म सार बनता है, जो रस कहलाता है । इसका स्थान ह्वदय कहा गया है । यहाँ से यह घमनियों द्वारा सारे शरीर में फैलता है । यही रस तेज के साथ मिलकर पहले रक्त का रूप धारण करता है और तब उससे मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र आदि शेष धातुएँ बनती है। रस के दूषित होने से अरूचि, ज्वर शरीर का भारीपन, कृशता, शिथिलता, दृष्टिहीनता आदि अनेक विकार उत्पन्न होती है ।

इन्हें भी देखें

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