संचार सूचना के संप्रेषण की क्रिया है। इस संसार का प्रत्येक प्राणी, अपने चारों ओर के संसार के अन्य प्राणियों से लगभग निरंतर ही सूचनाओं के आदान-प्रदान की आवश्यकता का अनुभव करता है। किसी सफल संचार के लिए यह आवश्यक है कि प्रेषक एवं ग्राही दोनों ही किसी सर्वसामान्य भाषा को समझते हों । मानव निरंतर ही यह प्रयत्न करता रहा है कि उसका मानव जाति से संचार गुणता में उन्नत हो। मानव प्रागैतिहासिक काल से आधुनिक काल तक, संचार में उपयोग होने वाली नयी-नयी भाषाओं एवं विधियों की खोज करने के लिए प्रयत्नशील रहा है , ताकि संचार की गति एवं जटिलताओं के पदों में बढती आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। संचार प्रणाली के विकास को प्रोन्नत करने वाली घटनाओं एवं उपलब्धियों के विषय में जानकारी होना लाभप्रद है। आधुनिक संचार की जड़ें 19 वी तथा 20 वीं शताब्दियों में सर जगदीश चन्द्र बोस, सेम्युल एफ.बी. मोर्स, जी मार्कोंनी तथा अलेक्जेंडर ग्राह्म बेल के कार्य द्वारा डाली गई। 20 वी शताब्दी के पहले पचास वर्षों के पश्चात इस क्षेत्र में विकास की गति नाटकीय रूप से बढी प्रतीत होती है। आगामी दशकों में हम बहुत सी अन्य महत्वपूर्ण उपलब्धियों देख सकते है।[1]

संचार व्यवस्था के अवयव

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संचार प्रणाली

संचार सभी सजीव वस्तुओं के जीवन के प्रत्येक चरण में व्याप्त है। चाहे संचार की कोई भी प्रकृति हो , प्रत्येक संचार व्यवस्था के तीन आवश्यक तत्व होते है-प्रेषित्र, माध्यम/चैनल तथा अभिग्राही। किसी संचार व्यवस्था में प्रेषित्र किसी एक स्थान पर अवस्थित होता है। अभिग्राही किसी अन्य स्थान पर (पास अथवा दूर) अवस्थित होता है तथा चैनल एक ऐसा भौतिक माध्यम है जो इन्हें एक दूसरे से संयोजित करता है। चैनल का प्रकार संचार व्यवस्था के प्रकार पर निर्भर करता है। यह प्रेषित्र तथा अभिग्राही को संयोजित करने वाले एक तार अथवा केबल के रूप में हो सकता है अथवा वह बेतार (वायरलैस) भी हो सकता है। प्रेषित्र का उद्देश्य सूचना स्रोत द्वारा उत्पन्न संदेश सिग्नल को चैनल द्वारा प्रेषण के लिए उपयुक्त रूप में परिवर्तित करना है। यदि किसी सूचना स्रोत का निर्गत वाक् सिग्नल की भाँति अविद्युतीय हो तो कोई ट्रांसड्यूसर, इस संदेश को प्रेषित्र में देने से पूर्व विद्युत,सिग्नल में रूपांतरित कर देता है। जब कोई प्रेषित सिग्नल चैनल के अनुदिश संचारित होता है तो यह चैनल में अपूर्णता के कारण विरूपित हो सकता है। इसके अतिरिक्त प्रेषित सिग्नल में नॉयज मिल जाता है, फलस्वरूप अभिग्राही प्रेषित सिग्नल का विकृत रूप प्राप्त करता है। अभिग्राही का कार्य प्राप्त सिग्नल को प्रचालित करना होता है। यह इस सूचना-सिग्नल की पुन: संरचना करके इसे मूल संदेश-सिग्नल को पहचान सकने योग्य रूप में लाता है ताकि संदेश प्राप्तकर्ता को पहुंचाया जा सके। संचार के दो मूल ढंग है: बिंदु से बिंदु तक संचार, तथा प्रसारण। बिंदु से बिंदु तक संचार विधि में एक एकल प्रेषित्र तथा एक अभिग्राही के बीच के संयोजन से होकर संचार होता है। इस विधि के संचार का एक उदाहरण टेलीफोन व्यवस्था है। इसके विपरीत , प्रसारण विधि में किसी एकल प्रेषित्र के तदनुरूपी बहुत से अभिग्राही होते है। प्रसारण विधि द्वारा संचार के उदाहरण रेडियों तथा टेलीविजन है।[2]

इलेक्ट्रोनिक संचार व्यवस्थाओं में उपयोग होने वाली मूल शब्दावली

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हम निम्नलिखित मूल शब्दावली से परिचित हो जाएँ तो हमें किसी भी संचार व्यवस्था को समझना आसान हो जाएगा।

ट्रांसड्यूसर

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पीजोइलेक्ट्रिक क्रिस्टल ट्रांसड्यूसर

कोई युक्ति जो ऊर्जा के एक रूप को किसी दूसरे रूप में परिवर्तित कर देती है उसे ट्रांसड्यूसर कहते हैँ। इलेक्ट्रोनिक संचार व्यवस्थाओं में हमें प्राय: ऐसी युक्तियों से व्यवहार करना होता है जिनका या तो निवेश अथवा निर्गत विद्युतीय रूप में होता है। किसी विद्युतीय ट्रांसड्यूसर को इस प्रकार परिभाषित किया जाता है- ऐसी युक्ति जो कुछ भौतिक चरों (दाब ,विस्थापन, बल, ताप आदि) को अपने निर्गत पर तदनुरूपी विद्युतीय सिग्नल के चरों में रूपांतरित कर देते हैँ।

प्रेषण के लिए उपयुक्त वैद्युत रूप में रूपांतरित सूचना को सिग्नल या संकेत कहते हैँ। सिग्नल या तो अनुरूप अथवा अंकीय हो सकते हैँ। अनुरूप सिग्नल वोल्टता अथवा धारा के सतत् विचरण होते हैँ। ये अनिवार्यत: समय के एकल मान वाले फलन होते हैँ। ज्या तरंग एक मूल अनुरूप सिग्नल होती हैँ। सभी अन्य अनुरूप सिग्नलों को इनके ज्या तरंग अवयवों के पदों में पूर्णतः समझा जा सकता हैँ। टेलीविजन के ध्वनि तथा दृश्य सिग्नल प्रकृति में अनुरूप सिग्नल होते हैँ। अंकीय सिग्नल वे होते हैँ जो क्रमवार विविक्त मान प्राप्त कर सकते हैँ। अंकीय इलेवट्रॉनिकी में विस्तृत रूप में उपयोग होने वाली द्विआधारी पद्धति में किसी सिग्नल के केवल दो स्तर होते हैँ। ‘०’ निम्न वोल्टता धारा स्तर के तदनुरूपी है तो ‘१’ उच्च वोल्टता-धारा स्तर के तदनुरूपी होता हैँ। अंकीय संचार के लिए उपयोगी बहुत सी कोडन पद्धतियाँ हैँ। इनमें संख्या प्रणालियों के उपयुक्त संयोजनों जैसे द्विआधारी कोडित दशमलव का उपयोग किया जाता हैँ। संख्याओं, अक्षरों तथा निश्चित लक्षणों को निरूपित करने वाला सार्वजनिक रूप से लोकप्रिय अंकीय कोड "American standard code for information interchange”(आस्की )है।

रव से हमारा तात्पर्य उन अवांछनीय सिग्नलों से है जो किसी संचार व्यवस्था में संदेश सिग्नलों के प्रेषण तथा संसाधन में विक्षोभ का प्रयास करते हैँ। रव उत्पन्न करने का स्रोत व्यवस्था के बाहर अथवा भीतर स्थित हो सकता हैँ।

प्रेषित्र

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रेडियो ट्रांसमीटर

प्रेषित्र(ट्रांसमीटर) प्रवेशी संदेश सिग्नल को संसाधित करके चैनल से होकर प्रेषण तथा इसके पश्चात अभिग्रहण के लिए उपयुक्त बनाता हैँ।

अभिग्राही

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रेडियो रिसीवर

कोई अभिग्राही चैनल के निर्गत पर प्राप्त सिग्नल से वांछनीय संदेश सिग्नलों को प्राप्त करता हैँ।

माध्यम से संचरण के समय सिग्नल की प्रबलता में क्षति को क्षीणता कहते हैँ।

प्रवर्धन

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यह किसी इलेक्ट्रोनिक परिपथ जिसे प्रवर्धक कहते हैं, के उपयोग से सिग्नल आयाम (और फलस्वरूप उसकी तीव्रता) में वृद्धि करने की प्रक्रिया हैँ। संचार व्यवस्था में क्षीणता के कारण होने वाले क्षय की क्षतिपूर्ति के लिए प्रवर्धन आवश्यक हैँ। अतिरिक्त सिग्नल प्रबलता के लिए आवश्यक ऊर्जा DC विद्युत, स्त्रोत से प्राप्त सिग्नल हैँ। प्रवर्धन, स्त्रोत तथा लक्ष्य के बीच उस स्थान यर किया जाता है जहाँ सिग्नल की प्रबलता, अपेक्षित प्रबलता से दुर्बल हो जाती हैँ।

यह स्रोत तथा लक्ष्य के बीच की वह अधिकतम दूरी है जहाँ तक सिग्नल को उसकी पर्याप्त प्रबलता सै प्राप्त किया जाता है।

बैड चौड़ार्ह

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बैड चौडई से हमारा तात्पर्यं उस आवृत्ति परास से है जिस पर कोई उपकरण प्रचालित होता है अथवा स्पेक्ट्रम के उस भाग से होता है जिसमें सिग्नल की सभी आवृत्तियाँ विद्यमान है। [3]

 
आवृति का उतार - चढ़ाव



 
आयाम अधिमिश्रण(AM)



आवृत्ति के मूल सिग्नलों (संदेशों / सूचनाओं) को अधिक दूरियों तक प्रेषित नहीं किया जा सकता। इसीलिए प्रेषित्र पर, निम्न आवृत्ति के संदेश सिग्नलों की सूचनाओं को किसी उच्च आवृत्ति की तरंग पर अध्यारोपित कराया जाता है जो सूचना के वाहक की भाँति व्यवहार करती है। इस प्रक्रिया को मॉडुलन कहते हैं। मॉडुलन कई प्रकार के होते हैं जिन्हें संक्षेप में AM , FM तथा PM कहते है।[4]

विमॉडुलन

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इस प्रक्रिया को जिसमें अभिग्राही द्वारा वाहक तरंग से सूचना की पुन: प्राप्ति की जाती है,विमॉडुलन कहते है। यह मॉडुलन के विपरीत प्रक्रिया है।

पुनरावर्तक

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पुनरावर्तक अभिग्राही तथा प्रेषित्र का संयोजन होता है। पुनरावर्तक प्रेषित्र से सिग्नल चयन करता है, उसे प्रवर्धित करता है तथा उसे अभिग्राही को पुन: प्रेषित कर देता है। कभी-कभी तो वाहक तरंगो की आवृत्ति में परिवर्तन भी कर देता है। पुनरावर्तकों का उपयोग किसी संचार व्यवस्था का परास विस्तारित करने के लिए किया जाता है। कोई संचार उपग्रह वास्तव में अंतरिक्ष में एक पुनरावर्तक स्टेशन ही है।