शारदा देवी

हिंदू धार्मिक व्यक्ति और रामकृष्ण परमहंस की आध्यात्मिक सहधर्मिणी (1853-1920)
(सारदा देवी से अनुप्रेषित)

सारदा देवी (बांग्ला : সারদা দেবী) भारत के सुप्रसिद्ध संत स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस की आध्यात्मिक सहधर्मिणी थीं। रामकृष्ण संघ में वे 'श्रीमाँ' के नाम से परिचित हैं।

सारदा देवी
সারদা দেবী

सारदा देवी
जन्म सारदामणि मुखोपाध्धाय
22 दिसम्बर 1853
जयरामबाटी, बंगाल
मृत्यु 20 जुलाई 1920(1920-07-20) (उम्र 66 वर्ष)
कोलकाता
गुरु/शिक्षक रामकृष्ण परमहंस
धर्म हिन्दू

जन्म और परिवार

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जयरामबाटी में शारदा देवी का निवास

सारदा देवी का जन्म 22 दिसम्वर 1853 को बंगाल प्रान्त स्थित जयरामबाटी नामक ग्राम के एक गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनके पिता रामचन्द्र मुखोपाध्याय और माता श्यामासुन्दरी देवी कठोर परिश्रमी, सत्यनिष्ठ एवं भगवद् परायण थे।

केवल 5 वर्ष की उम्र में इनका विवाह श्री रामकृष्ण से कर दिया गया था। जब रामकृष्ण के साथ विवाह हेतु कोई योग्य कन्या नहीं मिल रही थी तब ठाकुर ने सामने से जयरामबाटी में पता लगाने के लिये कहा था और कहा था कि इस कन्या का जन्म मेरे लिये ही हुआ है। सामान्यत: विवाह संतानोत्पत्ति के लिये किया जाता है किन्तु शारदा देवी और रामकृष्ण का विवाह संबंध अलौकिक था। रामकृष्ण देव हमेशा शारदा देवी को माँ के रूप में ही देखते थे। एक दिन रामकृष्ण देव की मन:स्थिति जानने हेतु माँ शारदा ने उनसे पूछा: 'बताईये तो मैं आपकी कौन हूँ?' रामकृष्ण ने बिना विलंब उत्तर दिया कि, 'जो माँ काली मूर्ति में विराजमान है वहीं माँ आपके रूप में मेरी सेवा कर रही हैं।'[1] उनके विवाह संबंध में विषय वासना को कोई स्थान नहीं था। उनके भक्तों का मानने है कि माँ शारदा और रामकृष्ण देव कई जन्मों से एक दूसरे के सहचारी थे।

दक्षिणेश्वर में

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दक्षिणेश्वर स्थित नहबत का दक्षिणी भाग, सारदा देवी यहाँ एक छोटे से कमरे में रहती थीं

अठारह वर्ष की उम्र में वे अपने पति रामकृष्ण से मिलने दक्षिणेश्वर पहुँची। रामकृष्ण इस समय कठिन आध्यात्मिक साधना में बारह बर्ष से ज्यादा समय व्यतीत कर चुके थे और आत्मसाक्षात्कार के सर्बोच्च स्तर को प्राप्त कर लिया था। उन्होने बड़े प्यार से सारदा देवी का स्वागत कर उन्हे सहज रूप से ग्रहण किया और गृहस्थी के साथ साथ आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करने की शिक्षा भी दी। सारदा देवी पवित्र जीवन व्यतीत करते हुए एवं रामकृष्ण की शिष्या की तरह आध्यात्मिक शिक्षा ग्रहण करते हुए अपने दैनिक दायित्व का निर्वाह करने लगीं। रामकृष्ण सारदा को जगन्माता के रूप में देखते थे। 1872 ई. के फलाहारिणी काली पूजा की रात को उन्होंने सारदा की जगन्माता के रूप में पूजा की। दक्षिणेश्वर में आनेवाले शिष्य भक्तों को सारदा देवी अपने बच्चों के रूप में देखती थीं और उनकी बच्चों के समान देखभाल करती थीं।

सारदा देवी का दिन प्रातः ३:०० बजे शुरू होता था। गंगास्नान के बाद वे जप और ध्यान करती थीं। रामकृष्ण ने उन्हें दिव्य मंत्र सिखाये थे और लोगों को दीक्षा देने और उन्हें आध्यात्मिक जीवन में मार्गदर्शन देने हेतु ज़रूरी सूचनाएँ भी दी थी। सारदा देवी को श्री रामकृष्ण की प्रथम शिष्या के रूप में देखा जाता है। अपने ध्यान में दिए समय के अलावा वे बाकी समय रामकृष्ण और भक्तों (जिनकी संख्या बढ़ती जा रही थी ) के लिए भोजन बनाने में व्यतीत करती थीं।

संघ माता के रूप में

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1886 ई. में रामकृष्ण के देहान्त के बाद सारदा देवी तीर्थ दर्शन करने चली गयीं। वहाँ से लौटने के बाद वे कामारपुकुर में रहने आ गयीं। पर वहाँ पर उनकी उचित व्यवस्था न हो पाने के कारण भक्तों के अत्यन्त आग्रह पर वे कामारपुकुर छोड़कर कलकत्ता आ गयीं। कलकत्ता आने के बाद सभी भक्तों के बीच संघ माता के रूप में प्रतिष्ठित होकर उन्होंने सभी को माँ रूप में संरक्षण एवं अभय प्रदान किया। अनेक भक्तों को दीक्षा देकर उन्हें आध्यात्मिक मार्ग में प्रशस्त किया। प्रारंभिक वर्षों में स्वामी योगानन्द ने उनकी सेवा का दायित्व लिया। स्वामी सारदानन्द ने उनके रहने के लिए कलकत्ता में उद्वोधन भवन का निर्माण करवाया।

अन्तिम जीवन

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सारदा देवी उद्वोधन भवन के पूजाघर में

कठिन परिश्रम एवं बारबार मलेरिया के संक्रमण के कारण उनका स्वास्थ्य बिगड़ता गया। 20 जुलाई 1920 को श्री माँ सारदा देवी ने नश्वर शरीर का त्याग किया। बेलूर मठ में उनके समाधि स्थल पर एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया है।

उपदेश और वाणी

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सारदा देवी ने कोई किताब नहीं लिखी उनके बोल स्वामी निखिलानंद और स्वामी तपस्यानंद ने रिकॉर्ड किये थे। सारदा देवी का आध्यात्मिक ज्ञान बहुत उच्च कोटि का था।

उनके कुछ उपदेश।:

  • ध्यान करो इससे तुम्हारा मन शांत और स्थिर होगा और बाद में तुम ध्यान किए बिना रह नहीं पाओगे।
  • चित्त ही सबकुछ है। मन को ही पवित्रता और अपवित्रता का आभास होता है। एक मनुष्य को पहले अपने मन को दोषी बनाना पड़ता है ताकि वह दूसरे मनुष्य के दोष देख सके।
  • "मैं तुम्हें एक बात बताती हूँ, अगर तुम्हें मन की शांति चाहिए तो दूसरों के दोष मत देखो। अपने दोष देखो। सबको अपना समझो। मेरे बच्चे कोई पराया नहीं है , पूरी दुनिया तुम्हारी अपनी है।
  • इंसान को अपने गुरु के प्रति भक्ति होनी चाहिए। गुरु का चाहे जो भी स्वभाव हो शिष्य को मुक्ति अपने गुरु पर अटूट विश्वास से ही मिलती हैं।

आगे अध्ययन के लिए

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  1. "रामकृष्ण परमहंस क्यों कहते थे अपनी पत्नी को मां?". राजस्थान पत्रिका. राजस्थान पत्रिका. अभिगमन तिथि 13 जून 2017.[मृत कड़ियाँ]

बाह्य सुत्र

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