सार्वजनिक हित सामूहिक रूप से जनता के हित को कह सकते हैं। इसकी अवधारणा लोकनीति, प्रजातन्त्र, सरकार के स्वरूप, राजनीति, नीतिगत बहस, जनकल्याण, सरकारी नियोजन, न्याय के लिये आवश्यक है। सभी लोग जनहित की बात करते हैं, लेकिन सामान्यतः इसपर सर्वसम्मति नहीं हो पाती कि किसे जनहित कहा जाए।

अवधारणा की अस्पष्टता

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सैद्धांतिक रूप से सार्वजनिक हित उसे कह सकते हैं जिसमें या तो प्रत्येक व्यक्ति लाभान्वित हो या फिर जिसमें लोगों के एक वर्ग को लाभ हो और दूसरों को कोई नुकसान न हो। हालाँकि, यथार्थ में, सार्वजनिक हित के मामलों का उप‍‍र्युक्त के अलावा भी कई परिणाम होते हैं और जहाँ एक वर्ग को लाभ होता है वहाँ दूसरे को नुकसान भी होता है। सार्वजनिक हित या जनता के हित को अक्सर निजी या व्यक्तिगत हित से अलग करके देखते हैं, क्योंकि, जो समाज के लिए अच्छा हो वह एक व्यक्ति विशेष के लिये अच्छा नहीं भी हो सकता है, या फिर इसके विपरीत भी। हालाँकि, समाज व्यक्तियों का है और सार्वजनिक हित की गणना अपने सदस्यों के हितों के परिप्रेक्ष्य में की जानी चाहिये। यह व्यापक बहस का मुद्दा है कि सार्वजनिक हित मानवाधिकारों को पोषित या नष्ट करता है, किस सीमा तक, सामाजिक हित अपने व्यक्तिगत सदस्यों के हितों के समान है और किस सीमा तक जनता के हित के खिलाफ व्यक्तिगत अभिलाषाओं की पूर्ती की जा सकती है। राजनीतिक दर्शन में जनता का हित एक महत्वपूर्ण, किन्तु, कु-परिभाषित अवधारणा है। यह भी कहा जा सकता है कि, कुछ मामलों में संभव है, सिर्फ जनता के हित को बढाने से कुछ निजी हितों को चोट पहुँचेगी। उदाहरण के लिये, लोकतंत्र में बहुमत का अल्पसंख्यकों प‍र अत्याचार का जोखिम। दूसरी ओर, अल्पसंख्यकता कई तरह की हो सकती है। इस प्रकार, अल्पसंख्यकों के अधिकारों के संरक्षण भी सार्वजनिक हित का हिस्सा बन जाता है।

इन्हें भी देखें

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राष्ट्रीय हित