सिद्ध (जैन धर्म)
सिद्ध शब्द का प्रयोग जैन धर्म में भगवान के लिए किया जाता हैं। सिद्ध पद को प्राप्त कर चुकी आत्मा संसार (जीवन मरण के चक्र) से मुक्त होती है। अपने सभी कर्मों का क्षय कर चुके, सिद्ध भगवान अष्टग़ुणो से युक्त होते है।[1] वह सिद्धशिला जो लोक के सबसे ऊपर है, वहाँ विराजते है।
पंच परमेष्ठीसंपादित करें
पंच परमेष्ठी दर्शन
जैन दर्शन के अनुसार पाँच पद स्थित जीव पूजनिय हैं। इन्हें पंच परमेष्ठी कहते हैं। सिद्ध इसमें अरिहंतों के बाद आते है।
आठ मूल गुणसंपादित करें
जैन दर्शन के अनुसार सिद्धों के अनन्त गुण होते हैं जिसमें निम्नलिखित आठ गुण प्रधान होते हैं-[2]
- क्षायिक समयक्त्व
- केवलज्ञान
- केवलदर्शन
- अनन्तवीर्य
- अवगाहनत्व
- सूक्ष्मत्व
- अगुरुलघुत्व
- अव्यबाधत्व
इन्हें भी देखेंसंपादित करें
सन्दर्भसंपादित करें
- ↑ प्रमाणसागर २००८, पृ॰ १४८.
- ↑ प्रमाणसागर २००८, पृ॰ ३५९.
सन्दर्भ सूचीसंपादित करें
- प्रमाणसागर, मुनि (२००८), जैन तत्त्वविद्या, भारतीय ज्ञानपीठ, आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-263-1480-5, मूल से 6 मार्च 2016 को पुरालेखित, अभिगमन तिथि 28 फ़रवरी 2016