स्थानाङ्ग सूत्र (प्राकृत : ठाणाङ्गसुत्त ; ईसापूर्व तीसरी-चौथी शताब्दी में रचित) जैन ग्रंथ है जो प्रथम ग्यारह आगमों में से एक है। इसमें प्रयुक्त भाषा अर्धमागधी है। इसके मूल सूत्रों को टीका के बिना समझना बहुत कठिन है। इसलिये ११वीं शताब्दी में अभयदेवसूरि जी ने स्थानांग सूत्र पर संस्कृत में एक पारिभाषिक ग्रन्थ की रचना की। यह ग्रन्थ जैन तत्वमीमांसा का 'अंग-ग्रन्थ' है। किन्तु इसमें गणित के बहुत से विषय, विधियाँ और संक्रियाएँ दी गयी हैं।

'स्थानांग' सूत्र ११ अंगों में तीसरा अंग है जिसे जैन संस्कृति का 'विश्वकोष' कह सकते हैं। इसमें एक से लेकर दश संख्याओं में आगम, दर्शन, इतिहास, खगोल आदि की विविध जानकारियों को वर्गीकृत किया गया है। संख्या के क्रम से तत्त्वों के नामों का संकलन करने की सुन्दर शैली में लिखा गया यह एक अद्भुत ग्रन्थ है जो संभवत: स्मरण-शक्ति की वृद्धि के लिये निर्मित हुआ होगा।

स्थानांग सूत्र में १० 'अध्ययन' हैं। द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ अध्ययन के चार-चार उद्देशक है, पंचम अध्ययन के तीन उद्देशक हैं और शेष छ: अध्ययनों के एक-एक उद्देशक हैं। इस प्रकार स्थानांग सूत्र १० अध्ययनों और २१ उद्देशकों में विभक्त है। जैनागमों का विषय-विभाग की दृष्टि से जब वर्गीकरण किया जाता है तब बड़े प्रकरण को अध्ययन और छोटे प्रकरण को उद्देशक कहा जाता है। बड़े प्रकरण के लिये अध्ययन शब्द का प्रयोग केवल जैनागमों में ही प्रयुक्त हुआ है।

स्थानाङ्ग सूत्र निम्नलिखित सूत्र से आरम्भ होता है-

सुयं मे आउसं! तेणं भगवता एवमक्खायं–
एगे आया।
( हे आयुष्मन्‌ शिष्य ! मैंने सूना है, भगवान महावीर ने इस प्रकार कहा है। )
( आत्मा एक है। )

भारतीय गणित में योगदान

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स्थानांग सूत्र में गणित के उन विषयों की सूची विद्यमान है जो ईसा की दूसरी शताब्दी से भारतीय समाज में अध्ययन की जातीं थी।

स्थानांग सूत्र ७४७ के अनुसार गणित के १० विषय हैं-

(१) परिकर्म (चार आधारभूत संक्रियाएँ)

(२) व्यवहार (subjects of treatment),

(३) रज्जु (ज्यामिति)

(४) राशि (ठोस ज्यामिति)

(५) कलासवर्ण (भिन्न)

(६) यावत्-तावत् (सरल समीकरण)

(७) वर्ग (वर्ग समीकरण)

(८) घन (त्रिघात समीकरण)

(९) वर्गवर्ग (biquadratic equation), तथा

(१) विकल्प (सांयोजिकी या 'permutation and combination') ।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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