किसी जीव द्वारा अपने ही भागों को अपने होने की पहचान करने में विफल होने को स्वरोगक्षमता या स्वप्रतिरक्षा (autoimmunity) कहते हैं, जिसके फलस्वरूप उसकी अपनी कोशिकाओं और ऊतकों के प्रति एक प्रतिरक्षी प्रतिक्रिया होती है। ऐसी पदभ्रमित प्रतिरक्षी प्रतिक्रिया के काऱण होने वाले किसी भी रोग को स्वप्रतिरक्षी रोग कहते हैं। स्वप्रतिरक्षा अकसर लक्ष्यित पिंड में जीवनपदार्थ के विकास को अभाव के कारण होती है और इस तरह प्रतिरक्षी प्रतिक्रिया उसकी अपनी कोशिकाओं और ऊतकों के विरूद्ध कार्य करती है (फ्लावर्स 2009). इसके उल्लेखनीय उदाहरणों में शामिल हैं, सीलियाक रोग, मधुमेह प्रकार 1 (आईडीडीएम (IDDM)), प्रणालिक लूपस एरिथीमेटोसस (एसएलई (SLE)), जोग्रेन का रोगसमूह, चुर्ग-स्ट्रॉस रोगसमूह, हशिमोटो का अवटुशोथ, ग्रेव्ज़ रोग, ईडियोपैथिक थ्राम्बोसाइटोपीनिक परपुरा और गठियारूप संधिशोथ (आरए (RA)). देखें, स्वतःप्रतिरक्षक रोगों की सूची.

Autoimmunity
वर्गीकरण एवं बाह्य साधन
आईसीडी- 279.4
ओएमआईएम 109100
डिज़ीज़-डीबी 28805
एम.ईएसएच D001327

यह गलतफहमी नई नहीं है कि व्यक्ति का प्रतिरक्षक तंत्र अपनी स्वयं की प्रतिजनों को पहचानने में संपूर्ण रूप से अक्षम होता है। बीसवीं सदी के प्रारंभ में पॉल एह्रलिच ने हॉरर आटोटॉक्सिकस का सिद्धांत प्रस्तुत किया, जिसके अनुसार ‘सामान्य’ शरीर अपने स्वयं के ऊतकों के विरूद्ध प्रतिरक्षी प्रतिक्रिया शुरू नहीं करता है। इस तरह किसी भी स्वप्रतिरक्षी प्रतिक्रिया को असामान्य माना जाता था और मानव रोग से संबंधित समझा जाता था। अब यह स्वीकार कर लिया गया है कि स्वप्रतिरक्षी प्रतिक्रियाएं पृष्ठवंशी प्रतिरक्षक प्रणालियों (जिन्हें कभी-कभी ‘प्राकृतिक स्वप्रतिरक्षा’ कहते हैं) का एक अटूट हिस्सा होती हैं, जिन्हें सामान्यतः रोग उत्पन्न करने से स्वतः-प्रतिजनों के प्रति प्रतिरक्षात्मक सहिष्णुता की क्रिया द्वारा रोका जाता है। स्वप्रतिरक्षा को कभी भिन्न-प्रतिरक्षकता नहीं समझना चाहिये.

कम-स्तरीय स्वप्रतिरक्षा

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स्वप्रतिरक्षा का उच्च स्तर जहां अस्वास्थ्यकर होता है, वहीं इसका कम स्तर वास्तव में लाभकारी हो सकता है। सर्वप्रथम, कम-स्तरीय स्वप्रतिरक्षा सीडी8+ टी कोशिकाओं द्वारा नवोत्पादित कोशिकाओं की पहचान करने में सहायता करती है और इस तरह कैंसर की घटनाओं को कम करती है।

दूसरे, स्वप्रतिरक्षा की संक्रमण की प्रारंभिक अवस्थाओं में तेज प्रतिरक्षी प्रतिक्रिया होने देने में भूमिका हो सकती है, जिस समय विदेशी प्रतिजनों की उपलब्धि प्रतिक्रिया को सीमित करती है (अर्थात् जब कुछ ही प्रतिजनें मौजूद रहती हैं). स्टेफानोवा और अन्य (2002) ने अपने अध्ययन में, सीडी4+ टी कोशिका-एमएचसी (MSC) अंतर्क्रिया को अस्थायी रूप से रोकने के लिये एमएचसी (MSC) वर्ग II अणु (H-2b) के एकल प्रकार को व्यक्त करने वाले एक प्रति-एमएचसी (HMC) वर्ग II प्रतिपिंड का इंजेक्शन चूहों को दिया. प्रति-एमएचसी देने के 36 घंटों बाद इन चूहों से प्राप्त अनुभवहीन सीडी4+ टी कोशिकाओं में प्रतिजन कबूतर के साइटोक्रोम सी पेप्टाइड के प्रति प्रतिक्रिया में कमी देखी गई, जिसका निश्चय ज़ैप-70 फास्फोरिलीकरण, प्रफलन और इंटरल्यूकिन-2 के उत्पादन से किया गया था। इस तरह स्टेफानोवा और अन्य (20020 ने दर्शाया कि स्व-एमएचसी बोध (जो अधिक शक्तिशाली होने पर स्वप्रतिरक्षी रोग उत्पन्न कर सकता है) विदेशी प्रतिजनों की अनुपस्थिति में सीडी4+ टी कोशिकाओं की प्रतिक्रियात्मकता बनाए रखता है।[1] स्वप्रतिरक्षा का यह विचार सैद्धांतिक रूप से लड़ाई के खेल जैसा है। शेर के बच्चों (टीसीआर (TCR) और स्वतःएमएचसी (MHC)) के लड़ाई के खेल से हल्की सी खरोंचें या चोट के निशान (कम-स्तरीय स्वप्रतिरक्षा) हो सकते हैं, लेकिन लंबे अर्से में यह फायदेमंद साबित होता है, क्यौंकि यह शेर के बच्चे को भविष्य में अच्छी तरह से लड़ने के लिये तैयार करता है।

प्रतिरक्षक सहिष्णुता

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नोयल रोज़ और विटेब्स्की द्वारा न्यूयार्क में और रौयट और दोनियाक द्वारा युनिवर्सिटी कालेज लंदन में किये गए पथप्रदर्शक कार्य से स्पष्ट सबूत मिले कि कम से कम प्रतिपिंड-उत्पादक बी लसीकाकोशिकाओं की हद तक गठियारूप वात और अवटु-विषाक्तता का संबंध प्रतिरक्षक सहिष्णुता के अभाव से है, जो किसी व्यक्ति की 'गैर-स्वयं' के प्रति प्रतिक्रिया करते हुए 'स्वयं' को ठुकराने की क्षमता होती है। इस टूट-फूट के कारण प्रतिरक्षी तंत्र द्वारा स्वनिर्णायकों के विरूद्ध एक प्रभावशाली और विशिष्ट प्रतिरक्षी प्रतिक्रिया प्रारंभ होती है। प्रतिरक्षी सहिष्णुता की सही उत्पत्ति अभी तक ज्ञात नहीं है, लेकिन इसके मूल का वर्णन करने के लिये मध्य-बीसवीं सदी से कई सिद्दांत प्रस्तुत किये गए हैं।

प्रतिरक्षीवैज्ञानिकों का ध्यान तीन परिकल्पनाओं ने व्यापक रूप से खींचा है:

  • क्लोनल डिलीशन सिद्धांत, बर्नेट द्वारा प्रस्तुत, जिसके अनुसार स्वतःप्रतिक्रियात्मक लसीकाभ कोशिकाएं व्यक्ति में प्रतिरक्षी तंत्र के विकास के समय नष्ट हो जाती है। फ्रैंक एम. बर्नेट और पीटर बी. मेदावार को उनके इस कार्य और अर्जित प्रतिरक्षक सहिष्णुता की खोज के लिये 1960 का शरीरक्रियाविज्ञान या चिकित्साशास्त्र में नोबल पुरस्कार दिया गया.
  • क्लोनल एनर्जी सिद्धांत, नोस्साल द्वारा प्रस्तुत, जिसमें स्वप्रतिक्रियात्मक टी- या बी- कोशिकाएं सामान्य व्यक्ति में निष्क्रिय हो जाती हैं और प्रतिरक्षी प्रतिक्रिया को बढ़ा नहीं सकती हैं।[2]
  • ईडियोटाइप नेटवर्क सिद्दांत, जर्ने द्वारा प्रस्तुत, जहां स्वप्रतिरक्षी प्रतिपिंडों को निष्क्रिय करने में सक्षम प्रतिपिंडों का एक जाल प्राकृतिक रूप से शरीर में मौजूद होता है।[3]

इनके अलावा दो अन्य सिद्दांतों का गहन अध्ययन जारी है:

  • "क्लोनल अज्ञानता" सिद्धांत, जिसके अनुसार मेजबान प्रतिरक्षी प्रतिक्रियाओं को स्व-प्रतिजनों पर ध्यान न देने का निर्देश दिया जाता है।[4]
  • "दमनकारी आबादी" या "नियामक टी कोशिका" सिद्धांत, जिनमें नियामक टी-लसीका कोशिका (सामान्यतया सीडी4+ फाक्सपी3+ कोशिकाएं) प्रतिरक्षी प्रणाली में स्वआक्रामक प्रतिरक्षी प्रतिक्रियाओं की रोकथाम, अवनियंत्रण, या सीमित करने का कार्य करती हैं।

सहिष्णुता को, उपर्लिखित जांच की विधियों के केंद्रीय लसीकाभ अवयवों (थाइमस और अस्थि मज्जा) या परिधिक लसीकाभ अवयवों (लसीका पर्व, प्लीहा आदि जहां स्व-प्रतिक्रियात्मक बी-कोशिकाओं को नष्ट किया जा सकता है) में कार्य करने या न करने के आधार पर ‘केंद्रीय’ और ‘परिधिक’ सहिष्णुताओं में विभाजित भी किया जा सकता है। इस बात पर जोर देना चाहिये कि ये सिद्दांत परस्पर अनन्य नहीं हैं और इस बात के अधिकाधिक संकेत मिल रहे हैं कि ये सभी प्रक्रियाएं पृष्ठवंशी प्रतिरक्षक सहिष्णुता में सक्रिय रूप से भाग ले सकती हैं।

स्वैच्छिक मानव स्वप्रतिरक्षकता में सहिष्णुता का लोप हो जाना एक उलझनभरा विशेष गुण है, जो लगभग पूरी तरह से बी लसीकाकोशिकाओं द्वारा उत्पन्न स्वप्रतिपिंड प्रतिक्रियाओं तक ही सीमित होता है। टी कोशिकाओं में सहिष्णुता के लोप को दर्शाना अत्यंत ही कठिन है और जहां कहीं भी असामान्य टी कोशिका प्रतिक्रिया का सबूत उपलब्ध है, वह सामान्यतया स्वप्रतिपिंडों द्वारा पहचाने गए प्रतिजनों के प्रति नहीं होती है। इस तरह, गठियारूप वात में आईजीजी (IgG) एफसी (Fc) के प्रति स्वप्रतिपिंड पाए जाते हैं, लेकिन उससे संबंधित टी कोशिका प्रतिक्रिया होती प्रतीत नहीं होती. प्रणालिक लूपस में डीएनए (DNA) के प्रति स्वप्रतिपिंड होते हैं, जो टी कोशिका प्रतिक्रिया उत्पन्न नहीं कर सकते और टी कोशिकाओं की प्रतिक्रियाओं का सीमित सबूत न्यूक्लियोप्रोटीन प्रतिजनों को दोषी पाता है। सीलियाक रोग में ऊतक ट्रांसग्लूटामिनेज़ के प्रति स्वप्रतिपिंड होते हैं, लेकिन टी कोशिका प्रतिक्रिया विदेशी प्रतिजन ग्लयाडिन के प्रति होती है। इस असमानता के कारण यह विचार आया है कि मानव स्वप्रतिरक्षी रोग अधिकांश मामलों में (टाइप 1 मधुमेह सहित कुछ संभावित अपवादों को छोड़कर) बी कोशिका सहिष्णुता के लोप होने पर आधारित है, जो विदेशी प्रतिजनों के विरूद्ध सामान्य टी कोशिका प्रतिक्रियाओं का प्रयोग विविध प्रकार के पथभ्रष्ट तरीकों से करते हैं।[5]

जननिक कारक

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कुछ लोगों में स्वप्रतिरक्षी रोग होने की जननिक रूप से अतिसंवेदनशीलता होती है। यह अतिसंवेदनशीलता कई जीनों और अन्य जोखम कारकों से संबंध रखती है। जननिक रूप से संवेदनशील लोगों में स्वप्रतिरक्षी रोग सदैव ही विकसित नहीं होते हैं।

कई स्वप्रतिरक्षी रोगों में जीनों के तीन मुख्य सेट होने का संदेह है। ये जीनें निम्न से संबंधित हैं:

  • इम्यूनोग्लॉबुलिन
  • टी-कोशिका ग्राहक
  • मुख्य ऊतकअनुकूलता समूह (एमएचसी (MHC))

पहले दो, जो प्रतिजनों की पहचान में भाग लेते हैं, सहज रूप से परिवर्तनशील और पुनर्संयोजन के प्रति संवेदनशील होते हैं। ये परिवर्तन प्रतिरक्षी तंत्र को अत्यंत विविध प्रकार के आक्रामकों के प्रति प्रतिक्रिया करने की क्षमता प्रदान करते हैं, किंतु साथ ही स्व-प्रतिक्रिया करने की क्षमता वाली लसीकाकोशिकाएं भी उत्पन्न कर सकते हैं।

एच. मैकडीविट, जी. नेपोम, जे. बेल और जे. टॉड जैसे वैज्ञानिकों ने यह जताने के लिये मजबूत सबूत उपलब्ध कराए हैं कि कतिपय एमएचसी वर्ग II ऐलोवर्ग निम्न से बलपूर्वक संबंधित हैं

  • एचएलए डीआर2 जोरदार सकारात्मक रूप से प्रणालिक लूपस एरिथिमेटोसस, नार्कोलेप्सी[6] और बहुलक स्क्लीरोसिस से और नकारात्मक रूप से मधुमेह प्रकार 1 से संबंधित है।
  • एचएलए डीआर3 शक्तिशाली रूप से जोग्रेन रोगसमूह, मयेस्थीनिया ग्रैविस, एसएलई (SLE) और मधुमेह प्रकार 1 से संबंधित है।
  • एचएलए डीआर4 गठियारूप संधिवात, मधुमेह मेलिटस प्रकार 1 और पेम्फिगस वल्गैरिस की उत्पत्ति से संबंध रखता है।

एमएचसी (MHC) वर्ग 1 अणुओं के साथ कम ही संबंध पाए जाते हैं। सबसे उल्लेखनीय और सतत संबंध एचएलए बी27 और अचलताकारक कशेरूकाशोथ के बीच है। वर्ग II एमएचसी (MHC) प्रोत्साहकों की बहुरूपताओं और स्वप्रतिरक्षी रोग के बीच संबंध हो सकते हैं।

एमएचसी समूह के बाहर जीनों का योगदान रोग के पशु माडलों (एनओडी (NOD) मूषक में मधुमेह पर लिंडा विकर के विस्तृत जननिक अध्ययन) और रोगियों (ब्रियन कॉटज़िन का एसएलई (SLE) के प्रति अतिसंवेदनशीलता का कड़ी विश्लेषण) में शोध का विषय है।

स्वप्रतिरक्षी रोगों की मादा/नर में घटना
का अनुपात
हशिमोटो का अवटुशोथ 10/1[7]
ग्रेव्ज़ का रोग 7/1[7]
मल्टीपल स्क्लेरोसिस (एमएस (MS)) 2/1[7]
मयेस्थीनिया ग्रैविस 2/1[7]
प्रणालिक लूपस एरिथिमेटोसस (एसएलई (SLE)) 9/1[7]
गठियारूप संधिशोथ 5/2[7]

किसी भी व्यक्ति के लिंग की भी स्वप्रतिरक्षकता के विकास में कुछ भूमिका होती है, जिसके अनुसार अधिकांश स्वप्रतिरक्षी रोगों को लिंग-संबंधी रोगों के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। स्वप्रतिरक्षी रोगों से ग्रस्त 23.5 मिलियन से अधिक अमरीकियों का 75 प्रतिशत[7] स्त्रियां हैं, हालांकि यह कम लोगों को पता है कि लाखों पुरूष भी इन रोगों से ग्रस्त हैं। अमेरिकन आटोइम्यून रिलेटेड डिसीज़ेज़ एसोसियेशन (एएआरडीए (AARDA)) के अनुसार पुरूषों में होने वाले स्वप्रतिरक्षी रोग अधिक तीव्र होते हैं। ऐसे कुछ स्वप्रतिरक्षी रोगों, जिनके पुरूषों में होने की स्त्रियों के बराबर या अधिक संभावना होती है, में शामिल हैं –अचलताकारक कशेरूकाशोथ, प्रकार 1 मधुमेह, वेजेनर की ग्रेनुलोमेटोसिस, क्रान का रोग और अपरस.

स्वप्रतिरक्षकता में लिंग की भूमिका के कारण अस्पष्ट हैं। स्त्रियों में सामान्यतया प्रतिरक्षी तंत्रों के प्रोत्साहित होने पर पुरूषों की अपेक्षा अधिक बड़ी शोथजनक प्रतिक्रियाएं उत्पन्न होती प्रतीत होती हैं।[7] सेक्स स्टीरायडों के लिप्त होने के संकेत इस बात से मिलते हैं कि कई स्वप्रतिरक्षी रोगों में हारमोन परिवर्तनों के साथ-साथ उतार-चढ़ाव होते हैं, जैसे, गर्भावस्था में, मासिक चक्र के समय, या मौखिक गर्भनिरोधकों का प्रयोग करने पर.[7] गर्भधारण का इतिहास भी स्वप्रतिरक्षी रोग के सतत अधिक जोखम छोड़ता प्रतीत होता है।[7] यह सुझाव दिया गया है कि गर्भावस्था में माताओं और उनके बच्चों के बीच जरा सा भी कोशिकाओं का विनिमय स्वप्रतिरक्षकता उत्पन्न कर सकता है।[8] उससे लिंग-संतुलन मादा की दिशा में झुक जाता है।

एक अन्य सिद्धांत के अनुसार मादा को स्वप्रतिरक्षकता से ग्रस्त होने की अधिक संभावना एक असंतुलित एक्स क्रोमोसोम की निष्क्रियता के कारण होती है।[9] प्रिंसटन युनिवर्सिटी के जेफ स्टीवर्ट द्वारा प्रस्तुत एक्स-निष्क्रियता के तिरछे सिद्धांत की हाल ही में स्क्लेरोडर्मा और स्वप्रतिरक्षी अवटुशोथ में प्रायोगिक रूप से पुष्टि की गई है।[10] अन्य जटिल एक्स-संबंधित जननिक संवेदनशीलता प्रक्रियाएं प्रस्तुत की गई हैं और अध्ययनाधीन हैं।[7]

पर्यावरणीय कारक

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संक्रामक रोगों और स्वप्रतिरक्षी रोगों के बीच एक रूचिपूर्ण विलोम संबंध मौजूद होता है। जिन क्षेत्रों में अनेक संक्रामक रोग स्थानिक होते हैं, वहां स्वप्रतिरक्षी रोग काफी कम होते हैं। कुछ हद तक इसका उल्टा भी सत्य होता लगता है। शुभ्रता परिकल्पना में इन संबंधों को रोगाणुओं द्वारा प्रतिरक्षकता को परिवर्तित करने की युद्धनीतियों से जोड़ा गया है। हालांकि इस विचार को मिथ्या और अप्रभावशाली करार दिया गया है, फिर भी कुछ अध्ययनों के अनुसार परजीवी संक्रमण के साथ स्वप्रतिरक्षी रोगों की गतिविधि कम होती पाई गई है।[11][12][13]

प्रख्यात प्रक्रिया के अनुसार परजीवी अपनी रक्षा करने के लिये मेजबान की प्रतिरक्षी प्रतिक्रिया को कम कर देता है। इससे स्वप्रतिरक्षी रोग से ग्रस्त मेजबान को सौभाग्यवश लाभ मिल सकता है। परजीवी प्रतिरक्षी प्रतिक्रिया के परिवर्तन के विवरण अभी तक ज्ञात नहीं हैं, लेकिन इनमें शोथविरोधी कारकों का स्राव या मेजबान के प्रतिरक्षी संकेतन शामिल हो सकते हैं।

एक विरोधाभासात्मक समीक्षा में कतिपय सूक्ष्मजीवों का स्वप्रतिरक्षी रोगों के साथ शक्तिशाली संबंध देखा गया है। उदाहरण के लिये, क्लेबसियेला निमोनिये और काक्ससैकीवाइरस बी का शक्तिशाली संबंध क्रमशः अचलताकारक कशेरूकाशोथ और मधुमेह प्रकार 1 के साथ पाया गया है। इसे संक्रामक जीवाणु की ऐसे महा-प्रतिजन उत्पन्न करने की प्रवृति के आधार पर समझाया गया है, जो बी-लसीकाकोशिकाओं का बहुक्लोनीय सक्रियीकरण करने और विभिन्न विशिष्टतों वाले प्रतिपिंडों की बड़ी मात्राएं पैदा करने की क्षमता रखते हैं, जिनमें से कुछ स्व-प्रतिक्रियाशील हो सकते हैं (नीचे देखें).

कुछ रसायनिक कारक और औषधियां भी स्वप्रतिरक्षी रोगों, या स्वप्रतिरक्षी रोगों के समान दिखने वाले रोगों की उत्पत्ति से संबंधित हो सकती हैं। इनमें से सबसे उल्लेखनीय है, औषधि-उत्प्रेरित लूपस एरिथिमेटोसस. साधारणतया, आक्रामक औषधि को रोक देने पर रोगी के लक्षण कम हो जाते हैं।

धूम्रपान अब गठियारूप संधिशोथ की घटना और तीव्रता के मुख्य जोखम कारक के रूप में स्थापित हो चुका है।[उद्धरण चाहिए] इसका संबंध प्रोटीनों के असामान्य सिट्रूलीकरण से हो सकता है, क्यौंकि धूम्रपान के प्रभावों का संबंध सिट्रूलिकृत पेप्टाइडों के प्रति प्रतिपिंडों की उपस्थिति से पाया गया है।[उद्धरण चाहिए]

स्वप्रतिरक्षकता का रोगजनविज्ञान

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स्वप्रतिरक्षी रोगों के रोगजननविज्ञान में, जननिक संवेदनशीलता और पर्यावरणीय परिवर्तन की पृष्ठभूमि में कई प्रक्रियाओं के कार्य करने का अनुमान लगाया गया है। इन प्रक्रियाओं में से प्रत्येक के बारे में लिखना इस लेख के दायरे के बाहर है लेकिन कुछ महत्वपूर्ण प्रक्रियाओं का सारांश यहां प्रस्तुत किया जा रहा है:

  • टी-कोशिका उपमार्गीकरण – सामान्य प्रतिरक्षी प्रणाली को बी-कोशिकाओं के बड़ी मात्राओं में प्रतिपिंडों का उतपादन करने के पहले उनका टी-कोशिकाओं द्वारा सक्रियीकरण किये जाने की आवश्यकता होती है। टी-कोशिका की यह जरूरत कुछ विरल अवस्थाओं में टाल दी जाती है, जैसे, महा-प्रतिजन पैदा करने वाले जीवाणुओं द्वारा संक्रमण, जो गैर-विशिष्ट तरीके से टी-कोशिका ग्राहकों की बीटा-उपइकाई से सीधे जुड़कर बी-कोशिकाओं या टी-कोशिकाओं का बहुक्लोनीय सक्रियीकरण करने की क्षमता रखते हैं।
  • टी-कोशिका-बी-कोशिका विभिन्नता – सामान्य प्रतिरक्षी प्रतिक्रिया में, यह जानते हुए भी कि बी कोशिकाएं और टी कोशिकाएं बहुत भिन्न प्रकार की वस्तुओं को पहचानती हैं – बी कोशिकाओं की सतह पर मौजूद प्रारूपों और टी कोशिकाओं के लिये प्रोटीनों के पूर्व-तैयार पेप्टाइड अंश - बी और टी कोशिकाओं को एक ही प्रतिजन के प्रति प्रतिक्रिया करते माना जाता है। फिर भी, जहां तक हमें ज्ञात है, इसकी कोई आवश्यकता नहीं पड़ती. केवल इतना आवश्यक होता है कि प्रतिजन एक्स को पहचानने वाली बी कोशिका का अंतर्कोशिकीकरण हो जाता है और वह एक प्रोटीन वाई (सामान्यतया=एक्स) तैयार करके उसे टी कोशिका को प्रदान कर देती है। रूस्नेक और लैंज़ावेकिया ने दिखाया कि प्रतिरक्षी समूह के भाग के रूप में आईजीजीएफसी (IgGFc) को पहचानने वाली बी कोशिकाएं बी कोशिका द्वारा आईजीजी (IgG) के साथ सह-अंतर्कोशिकीकृत प्रतिजन के प्रति प्रतिक्रिया करने वाली किसी भी टी कोशिका से मदद ले सकती है। सीलियाक रोग में यह संभव है कि ऊतक ट्रांसग्लूटेमीन को पहचानने वाली बी कोशिकाओं की मदद ग्लयाडिन को पहचानने वाली टी कोशिकाओं द्वारा की जाती है।
  • पथभ्रष्ट बी कोशिका ग्राहक-मध्यस्थीकृत प्रत्यार्पण – मानव स्वप्रतिरक्षी रोग का एक विशेष गुण यह है कि यह प्रतिजनों के एक छोटे से समूह तक ही सीमित होता है, जिनमें से कई की प्रतिरक्षी प्रतिक्रिया में ज्ञात संकेतक भूमिकाएं होती है (डीएनए (DNA), सी1क्यू (C1q), आईजीजीएफसी (IgGFC), आरओ (Ro), कॉन. एक ग्राहक, पीनट एग्लूटेनिन ग्राहक (पीएनएआर (PNAR))). इस तथ्य से इस बात का विचार आता है कि स्वैच्छिक स्वप्रतिरक्षकता तब उत्पन्न हो सकती है जब कुछ प्रतिजनों से प्रतिपिंड के जुड़ने के कारण पथभ्रष्ट संकेत झिल्लियों से बंधे लाइगैंडों के जरिये पैतृक बी कोशिकाओं को वापस भेज दिये जाते हैं। इन लाइगैंडों में बी कोशिका ग्राहक (प्रतिजन के लिये), आईजीजी एफसी (IgGFC) ग्राहक, सीडी21, जो काम्प्लीमेंट सी3डी से संयुक्त होता है, पथकर-सदृश ग्राहक 9 और ७ (जो डीएनए (DNA) और न्यूक्लियोप्रोटीनों को संयुक्त कर सकते हैं और पीएनएआर (PNAR) शामिल हैं। अधिक अप्रत्यक्ष पथभ्रष्ट बी कोशिका सक्रियीकरण एसिटाइलकोलीन ग्राहक (थायमिक मयाइड कोशिकाओं पर) और हारमोन तथा हारमोन बंधक प्रोटीनों के प्रति स्वप्रतिपिंडों के साथ देखा जा सकता है। टी-कोशिका-बी-कोशिका विभिन्नता के सिद्धांत के साथ यह विचार स्वतःस्थिरकारक स्वप्रतिक्रियात्मक बी कोशिकाओं की परिकल्पना का आधार है।[14] स्वैच्छिक स्वप्रतिरक्षकता में स्वप्रतिक्रियात्मक बी कोशिकाएं टी कोशिका सहायता पथमार्ग और बी कोशिका ग्राहक के जरिये प्रत्यार्पण संकेत दोनों के विनाश के कारण, जिससे टी कोशिका की स्व-सहिष्णुता के लोप हुए बिना बी कोशिका स्व-सहिष्णुता के लिये जिम्मेदार नकारात्मक संकेतों को काबू में करके, बच जाती हैं।
  • आण्विक नकल - बाह्यजनिक प्रतिजन में कुछ मेजबान प्रतिजनों जैसी रचनात्मक समानताएं हो सकती हैं; इस तरह, इस प्रतिजन के विरूद्द उत्पन्न कोई भी प्रतिपिंड, सिद्दांतरूप से, मेजबान प्रतिजनों से भी बंध सकता है और प्रतिरक्षी प्रतिक्रिया को बढ़ा सकता है। आण्विक नकल का विचार रूमेटिक ज्वर के संदर्भ में उत्पन्न हुआ, जो समूह ए बीटा-हीमोलिटिक स्ट्रेप्टोकोकाई के संक्रमण के बाद होता है। हालांकि रूमेटिक ज्वर को आधी शताब्दी से आण्विक नकल से जोड़ा जा रहा है, कोई भी प्रतिजन औपचारिक रूप से पहचाना नहीं गया है (हां कईयों का नाम जरूर लिया गया है). इसके अलावा, रोग का जटिल ऊतक विस्तार (हृदय, जोड़, त्वचा, बेसल गैंग्लिया) हृदय-विशिष्ट प्रतिजन के विरूद्ध तर्क प्रस्तुत करता है। यह नितांत संभव है कि यह रोग उदा. प्रतिरक्षी समूहों, काम्प्लीमेंट अंशों और अंतर्कला के बीच किसी असामान्य अंतर्क्रिया के कारण होता है।
  • ईडियोटाइप प्रतिकूल-प्रतिक्रिया – ईडियोटाइप इम्यूनोग्लॉब्युलिन अणु के प्रतिजन-बंधक भाग (फैब) में पाए जाने वाले प्रतिजनिक एपिटोप हैं। प्लॉट्ज़ और ओल्डस्टोन ने सबूत प्रस्तुत किये कि स्वप्रतिरक्षकता वाइरस-विरोधी प्रतिपिंड पर स्थित ईडियोटाइप और प्रश्नाधीन वाइरस के लिये मेजबान कोशिका ग्राहक के मध्य प्रतिकूल-प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप होती है। इस मामले में, मेजबान-कोशिका ग्राहक को वाइरस की आंतरिक छवि के रूप में देखा जाता है और ईडियोटाइप प्रतिपिंड मेजबान कोशिकाओं के साथ प्रतिक्रिया कर सकते हैं।
  • साइटोकाइन कुनियमन – साइटोकाइनों को हाल में उनके द्वारा समर्थित कार्य करने वाली कोशिकाओं की संख्या के अनुसार दो समूहों में विभाजित किया गया है – सहायक टी-कोशिकाएं प्रकार 1 या प्रकार 2. साइटोकाइनों के दूसरे वर्ग, जिसमें आएल-4, आईएल-10 और टीजीएफ-बीटा (TGF-β) शामिल हैं, की भूमिका शोथसमर्थक प्रतिरक्षी प्रतिक्रियाओं को बढ़ने से रोकने में होती है।
  • डेन्ड्राइटिक कोशिका स्वतःहनन – डेन्ड्राइटिक कोशिका नामक प्रतिरक्षी तंत्र कोशिकाएं सक्रिय कोशिकाओं के सम्मुख प्रतिजनों को प्रस्तुत करती हैं। स्वतःहनन में विकृत डेंड्राइटिक कोशिकाओं के कारण अनुचित प्रणालिक लसीकाकोशिका सक्रियीकरण और उसके बाद स्व-सहिष्णुता में कमी होती है।[15]
  • एपीटोप का फैलाव या एपीटोप संवहन – जब प्रतिरक्षी प्रतिक्रिया प्राथमिक एपीटोप को निशाना बनाने से अन्य एपीटोपों को भी निशाना बनाने में परिवर्तित हो जाती है।[16] आण्विक नकल की तरह, अन्य एपीटोपों का रचनात्मक रूप से प्राथमिक एपीटोप के समान होना जरूरी नहीं होता.

विशेषज्ञ प्रतिरक्षानियामक कोशिका प्रकारों, जैसे नियामक टी कोशिकाओं, एनकेटी कोशिकाओं (NKT cells), गामाडेल्टा टी कोशिकाओं (γδ T-cells) की स्वप्रतिरक्षी रोग में भूमिकाएं अध्ययनाधीन हैं।

वर्गीकरण

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स्वप्रतिरक्षी रोगों को प्रत्येक रोग के मुख्य चिकित्सकीय-रोगजनक विशेष गुणों के आधार पर मोटे तौर पर प्रणालिक और अवयव-विशिष्ट या स्थानिक स्वप्रतिरक्षी विकारों में विभाजित किया जा सकता है।

  • प्रणालिक स्वप्रतिरक्षी रोगों में शामिल हैं, एसएलई (SLE), जोग्रेन रोगसमूह, स्क्लेरोडर्मा, गठियारूप संधिवात और डर्मेटोमयोसीइटिस. ये रोग ऐसे प्रतिजनों के प्रति उत्पन्न प्रतिपिंडों से संबंधित होते हैं जो ऊतक-विशिष्ट नहीं होते. इस तरह हालांकि पॉलिमयोसाइटिस प्रस्तुति में कमोबेश ऊतक-विशिष्ट होता है, इसे इस समूह में शामिल किया जा सकता है, क्यौंकि इसके स्वप्रतिजन अकसर सर्वव्याप्त टी-आरएनए सिंथटेज़ होते हैं।
  • स्थानीय रोगसमूह जो किसी विशिष्ट अंग या ऊतक को प्रभावित करते हैं:
    • अंतर्स्रावग्रंथिकीय- मधुमेह प्रकार 1, हशिमोटो का अवटुशोथ, एडीसन का रोग
    • आमाशयांत्रीय - सीलियाक रोग, पर्नीशियस रक्ताल्पता
    • त्वचाव्याधिक – पेम्फीगस वल्गैरिस, प्राथमिक श्वित्र
    • रक्तव्याधिक – स्वप्रतिरक्षी हीमोलाइटिक रक्ताल्पता, ईडियोपैथिक थ्राम्बोसाइटोपीनिक परपुरा
    • नाड़ीरोगसंबंधी – मयेस्थीनिया ग्रैवि

पारम्परिक "अवयव विशिष्ट" और "गैर-अवयव विशिष्ट" वर्गीकरण योजना का प्रयोग करके, अनेक रोगों को स्वप्रतिरक्षी रोग छत्रछाया के अधीन एकत्रित कर दिया गया है। लेकिन कई दीर्घकालिक शोथकारी मानव विकारों में बी और टी कोशिका द्वारा संचालित प्रतिरक्षीरोगजन्यता का स्पष्ट संबंध नहीं पाया जाता. पिछले दशक में यह भली प्रकार स्थापित कर दिया गया है कि ऊतक का "स्वयं के विरूद्ध शोथ" आवश्यक रूप से असामान्य टी और बी कोशिका प्रतिक्रियाओं पर निर्भर नहीं होता.

इससे इस बात का प्रस्ताव हाल में सामने आया है कि स्वप्रतिरक्षकता के वर्ण-पट को प्रतिरक्षकता रोग कंटीन्युअम के साथ देखा जाना चाहिये, जिसमें आदर्श स्वप्रतिरक्षी रोग एक सिरे पर और आंतरिक प्रतिरक्षी तंत्र द्वारा संचालित रोग दूसरे सिरे पर होते हैं। इस योजना में, स्वप्रतिरक्षकता का पूर्ण वर्ण-पट शामिल किया जा सकता है। इस नई योजना का प्रयोग करके कई आम मानव स्वप्रतिरक्षी रोगों में काफी आंतरिक प्रतिरक्षा द्वारा मध्यस्थ की गई प्रतिरक्षारोगजन्यता देखी जा सकती है। इस नई वर्गीकरण योजना का उपयोग रोग की प्रक्रियाओं को समझने और उपचार के विकास में हो सकता है। (देखिये पीएलओएस मेडिसिन लेख, http://www.plosmedicine.org/article/info:doi/10.1371/journal.pmed.0030297 Archived 2011-09-27 at the वेबैक मशीन).

स्वप्रतिरक्षी विकारों का निदान सटीक इतिहास और रोगी के शारीरिक परीक्षा, तथा नियमित प्रयोगशाला परीक्षणों में कतिपय असामान्यताओं (उदा.बढ़ा हुआ सी-रिएक्टिव प्रोटीन) की पृष्ठभूमि में संदेह के उच्च सूचक पर निर्भर होता है। कई प्रणालिक विकारों में, विशिष्ट स्वप्रतिपिंडों को पहचानने वाले सीरोवैज्ञानिक परीक्षणों का प्रयोग किया जा सकता है। स्थानिक विकारों का सबसे अच्छा निदान बयाप्सी नमूनों के इम्यूनोफ्लोरेसेंस द्वारा किया जा सकता है। स्वप्रतिपिंडों का प्रयोग कई स्वप्रतिरक्षी रोगों के निदान के लिये किया जाता है। स्वप्रतिपिंडों के स्तरों को रोग के विकास को निश्चित करने के लिये मापा जाता है।

स्वप्रतिरक्षी रोग के उपचार पारम्परिक रूप से प्रतिरक्षाशामक, शोथविरोधी, या सांत्वनात्मक रहे हैं।[4] गैरप्रतिरक्षी उपचार, जैसे हशिमोटो के शायरायडशोथ या प्रकार 1 मधुमेह में हारमोन विस्थापन स्वतःआक्रामक प्रतिक्रिया के परिणाम का उपचार करते हैं, इसलिये ये सांत्वनात्मक उपचार हैं। आहार का परिवर्तन सीलियाक रोग की तीव्रता को सीमित करता है। स्टीरॉयड या एनएसएआईडी (NSAID) उपचार कई रोगों के शोथकारी लक्षणों को सीमित करता है। आईवीआईजी का प्रयोग सीआईडीपी और जीबीएस के लिये किया जाता है। विशिष्ट प्रतिरक्षापरिवर्तक उपचार जैसे टीएनएफ अल्फा विरोधी (उदा.एटानर्सेप्ट), बी कोशिका को कम करने वाला कारक रिटुक्सिमैब, आईएल-6 ग्राहक विरोधी टोसिलीज़ुमैब और सहप्रोत्साहन अवरोधी एबेटासेप्ट को आरए के उपचार के लिये उपयोगी दर्शाया गया है। इनमें से कुछ प्रतिरक्षीउपचारों का संबंध दुष्प्रभावों के बढ़े हुए जोखम के साथ हो सकता है, जैसे संक्रमण की संभावना.

हेल्मिंथिक उपचार एक प्रायोगिक तरीका है जिसमें रोगी को विशिष्ट परजीवी आंत्र निमाटोड (हेल्मिंथ) दिये जाते हैं। आजकल दो करीब से संबंधित उपचार उपलब्ध हैं, निकेटर अमेरिकैनस, जिसे आम तौर पर हुकवर्म कहा जाता है या त्रिचुरिस सुइस के अंडे, जिन्हें आम तौर पर पिग व्हिपवर्म अंडे कहा जाता है।[17][17][18][19][20][21]

टी कोशिका टीकाकरण का भी स्वप्रतिरक्षी विकारों के संभावित भविष्य के उपचार के रूप में अध्ययन किया जा रहा है।

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इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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साँचा:Immune system साँचा:Hypersensitivity and autoimmune diseases [[श्रेणी:स्व-प्रतिरक्षित रोग]]