हिन्दू-अरबी अंक पद्धति का इतिहास

भारतीय अंक प्रणाली ( या हिन्दू-अरबी अंक प्रणाली) दश स्थानीय मान वाली संख्या-पद्धति है। शून्य का उपयोग इसकी सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है, जैसे २०५ (= दो सौ पाँच) में।

भारतीय अंक प्रणाली ८वीं-९वीं शताब्दी के पहले ही अपने पूर्ण स्वरूप को प्राप्त कर चुकी थी। ये अंक ब्राह्मी अंकों से व्युत्पन्न हैं। भारत के बाहर अरब जगत में इस प्रणाली का उल्लेख और वर्णन सबसे पहले अल ख्वारिज्मी की पुस्तक "क़िताब अल-हिसाब अल-हिन्दी" (= 'हिन्दू गणना सम्बन्धी ग्रन्थ' , ८२५ ई० में रचित) में मिलता है। अरब जगत से यह ज्ञान १२वीं-१३वीं शताब्दी में यूरोप पहुँचा।

यूरोप में बारहवीं शताब्दी तक रोमन अंकों का प्रयोग होता था। रोमन अंक प्रणाली में केवल सात अंक हैं, जो अक्षरों द्वारा व्यक्त किए जाते हैं। ये अक्षरांक हैं- I (एक), V (पांच), L (पचास), C (सौ), D (पांच सौ) तथा M (एक हज़ार)। इन्हीं अंको के जोड़ने-घटाने से कोई भी संख्या लिखी जाती है। उदाहरण के लिए अगर 'तीन' लिखना है तो एक का चिह्न तीन बार (III) लिख दिया। आठ लिखना है तो पांच के दायीं तरफ तीन एक-एक के चिन्ह लिखकर जोड़ दिए और VIII (आठ) हो गया। यह प्रणाली इतनी कठिन और उलझी हुई है कि जब बारहवीं शताब्दी में यूरोप का भारतीय अंक प्रणाली से परिचय हुआ तो उसने उसे स्वीकार ही नहीं किया, अपितु एकदम अपना लिया। यूरोप में कुछ शताब्दियों बाद जो वैज्ञानिक औद्योगिक क्रान्ति हुई, उसके मूल में भारतीय अंक गणना का ही योगदान है।

 
बख्शाली पाण्डुलिपि में शून्य का प्रयोग। यहाँ शून्य को एक बड़े बिन्दु के रूप में लिखा गया है।
 
ग्वालियर दुर्ग में दो संख्याओं ( ५० और २७०) को लिखने में शून्य क उपयोग किया गया है। यह शिलालेख ९वीं शताब्दी का है।
  • १५०० ईसापूर्व से ५०० ईसापूर्व : वैदिक काल में ही उत्तर भारत में संख्याओं का उपयोग एवं उन पर गणितीय ऑपरेशन किया जाने लगा था। बड़ी-बड़ी संख्याओं का उपयोग होने लगा था। उदाहरण के लिए ललितविस्तर में महात्मा बुद्ध द्वारा एक ऐसी संख्या का उल्लेख किया गया है जो वर्तमान समय में १०53 के बराबर है। उसी काल में दश, शत (सौ), सहस्र (हजार), अयुत, नियुत, प्रयुत, अर्बुद, न्यर्बुद, समुद्र, मध्य, अन्त, परार्ध आदि का उपयोग संख्याओं के मान के लिये उपयोग किये जाने लगे थे।
  • तीसरी शताब्दी ईसापूर्व : ब्राह्मी अंको का भारत के विभिन्न भागों में प्रचलन हो गया था। दशमलव स्थानीय मान वाली संख्या-प्राणाली का विकास कुछ बाद में हुआ हो सकता है।
  • ४९९ ई० में रचित आर्यभटीय में आर्यभट ने स्थानीय मान वाली दाशमिक संख्या पद्धति का वर्णन किया है जिसमें संस्कृत के व्यंजनों को छोटी संख्याओं के लिये तथा स्वरों को १० पर घात के लिये उपयोग किया गया है।
  • ६६२ ई० : भारतीय अंक प्रणाली पश्चिम की ओर गमन करते हुए सिरिया पहुँची । सीरिया के विद्वान सेवेरस सेबोख्त ने भारतीय अंकों की महत्ता को स्वीकारा है और कहा है कि हिन्दुओं का विज्ञान इतना विकसित इसलिये है क्योंकि वे ये सरी गणनाएँ नौ अंको के द्वारा करते हैं।
  • ८२५ ई० : फारस के गणितज्ञ अल ख्वारिज्मी ने 'क़िताब अल-हिसाब अल-हिन्दी' लिखा जिससे भारतीय अंको का अरब जगत में बहुत प्रसार हुआ। इसी पुस्तक के लैटिन भाषा में अनुवाद के माध्यम से भारतीय अंक यूरोप पहुँचे।

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