आर्यभटीय
आर्यभटीय प्राचीन भारतीय गणित का एक प्रसिद्ध ग्रंथ है जिसकी रचना आर्यभट प्रथम (४७६-५५०) ने की थी।[1] यह संस्कृत भाषा में आर्या छन्द में काव्यरूप में रचित गणित तथा खगोलशास्त्र का ग्रंथ है। इसकी रचनापद्धति बहुत ही वैज्ञानिक और भाषा बहुत ही संक्षिप्त तथा मंजी हुई है। इसमें चार अध्यायों में १२३ श्लोक हैं। आर्यभटीय, दशगीतिका पाद से आरम्भ होती है।
इसके चार अध्याय इस प्रकार हैं :-
1. दशगीतिका-पाद - सबसे छोटा अध्याय, केवल 13 श्लोकों का है, परन्तु इसमें बहुत सी सामग्री भर दी गई है।
2. गणित-पाद - खगोलीय अचर (astronomical constants) तथा ज्या-सारणी (sine table) ; गणनाओं के लिये आवश्यक गणित
3. काल-क्रिया-पाद - समय-विभाजन तथा ग्रहों की स्थिति की गणना के लिये नियम
4. गोल-पाद - त्रिकोणमितीय समस्याओं के हल के लिये नियम; ग्रहण की गणना
गीतिकापाद
संपादित करेंगीतिकापाद सबसे छोटा, केवल 13 श्लोकों का है, परन्तु इसमें बहुत सी सामग्री भर दी गई है। इसके लिए इन्होंने अक्षरो द्वारा संक्षेप में संख्या लिखने की स्वनिर्मित एक अनोखी रीति का व्यवहार किया है, जिसमें व्यजंनो से सरल संख्याएं और स्वरों से शून्य की गिनती सूचित की जाती थी। उदाहरणत:
ख्युघृ = 43,20,000 में 2 के लिए ख् लिखा गया है और 30 के लिए य्। दोनों अक्षर मिलाकर लिखे गए हैं और उनमें उ की मात्रा लगी है, जो 10,000 के समान है; इसलिए ख्यु का अर्थ हुआ 3,20,000; घृ के घ् का अर्थ है 4 और ऋ (मात्रा) का 10,00,000, इसलिए घृ का अर्थ हुआ 40,00,000. इस तरह ख्युघृ का उपर्युक्त मान (43,20,000) हुआ। (देखें, आर्यभट्ट की संख्यापद्धति)
संख्या लिखने की इस रीति में सबसे बड़ा दोष यह है कि यदि अक्षरों में थोड़ा सा भी हेर फेर हो जाय तो बड़ी भारी भूल हो सकती है। दूसरा दोष यह है कि ल् में ऋ की मात्रा लगाई जाय तो इसका रूप वही होता है जो लृ स्वर का, परंतु दोनों के अर्थों में बड़ा अंतर पड़ता है। इन दोषों के होते हुए भी इस प्रणाली के लिए आर्यभट की प्रतिभा की प्रशंसा करनी ही पड़ती है। इसमें उन्होंने थोड़े से श्लोकों में बहुत सी बातें लिख डाली हैं; सचमुच, गागर में सागर भर दिया है।
आर्यभटीय के प्रथम श्लोक में ब्रह्म और परब्रह्म की वंदना है एवं दूसरे में संख्याओं को अक्षरों से सूचित करने का ढंग। इन दो श्लोकों में कोई क्रमसंख्या नहीं है, क्योंकि ये प्रस्तावना के रूप में हैं। इसके बाद के श्लोक की क्रमसंख्या 1 है जिसमें सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी, शनि, गुरु, मंगल, शुक्र और बुध के महायुगीय भगणों की संख्याएं बताई गई हैं। यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि आर्यभट ने एक महायुग में पृथ्वी के घूर्णन की संख्या भी दी है, क्योंकि उन्होंने पृथ्वी का दैनिक घूर्णन माना है। इस बात के लिए परवर्ती आचार्य ब्रह्मगुप्त ने इनकी निंदा की है। अगले श्लोक में ग्रहों के उच्च और पात के महायुगीय भगणों की संख्या बताई गई है। तीसरे श्लोक में बताया गया है कि ब्रह्मा के एक दिन (अर्थात एक कल्प) में कितने मन्वंतर और युग होते हैं और वर्तमान कल्प के आरंभ से लेकर महाभारत युद्ध की समाप्तिवाले दिन तक कितने युग और युगपाद बीत चुके थे। आगे के सात श्लोकों में राशि, अंश, कला आदि का संबंध, आकाशकक्षा का विस्तार, पृथ्वी के व्यास तथा सूर्य, चंद्रमा और ग्रहों के बिंबों के व्यास के परिमाण, ग्रहों की क्रांति और विक्षेप, उनके पातों और मंदोच्चों के स्थान, उनकी मंदपरिधियों और शीघ्रपरिधियों के परिमाण तथा 3 अंश 45 कलाओं के अंतर पर ज्याखंडों के मानों की सारणी (sine table) है। अंतिम श्लोक में पहले कही हुई बातों के जानने का फल बताया गया है। इस प्रकार प्रकट है कि आर्यभट ने अपनी नवीन संख्या-लेखन-पद्धति से ज्योतिष और त्रिकोणमिति की कितनी ही बातें 13 श्लोकों में भर दी हैं।
गणितपाद
संपादित करेंगणितपाद में 33 श्लोक हैं, जिनमें आर्यभट ने अंकगणित, बीजगणित और रेखागणित संबंधी कुछ सूत्रों का समावेश किया है। पहले श्लोक में अपना नाम बताया है और लिखा है कि जिस ग्रंथ पर उनका ग्रंथ आधारित है वह (गुप्तसाम्राज्य की राजधानी) कुसुमपुर में मान्य था। दूसरे श्लोक में संख्या लिखने की दशमलवपद्धति की इकाइयों के नाम हैं। इसके आगे के श्लोकों में वर्गक्षेत्र, घन, वर्गमूल, घनमूल, त्रिभुज का क्षेत्रफल, त्रिभुजाकार शंकु का घनफल, वृत्त का क्षेत्रफल, गोले का घनफल, समलंब चतुर्भुज क्षेत्र के कर्णों के संपात से समान्तर भुजाओं की दूरी और क्षेत्रफल तथा सब प्रकार के क्षेत्रों की मध्यम लंबाई और चौड़ाई जानकर क्षेत्रफल बताने के साधारण नियम दिए गए हैं। एक जगह बताया गया है कि परिधि का छठा भाग उसकी त्रिज्या के समान होती है। श्लोक में बताया गया है कि यदि वृत्त का व्यास 20,000 हो तो उसकी परिधि 62,832 होती है। इससे परिधि और व्यास का संबंध चौथे दशमलव स्थान तक शुद्ध आ जाता है। दो श्लोकों में ज्याखंडों के जानने की विधि बताई गई है, जिससे ज्ञात होता है कि ज्याखंडों की सारणी (टेबुल ऑव साइनडिफ़रेंसेज़) आर्यभट ने कैसे बनाई थी। आगे वृत्त, त्रिभुज और चतुर्भुज खींचने की रीति, समतल धरातल के परखने की रीति, ऊर्ध्वाधर के परखने की रीत, शंकु और छाया से छायाकर्ण जानने की रीति, किसी ऊँचे स्थान पर रखे हुए दीपक के प्रकाश के कारण बनी हुई शकु की छाया की लंबाई जानने की रीति, एक ही रेखा पर स्थित दीपक और दो शंकुओं के संबंध के प्रश्न की गणना करने की रीति, समकोण त्रिभुज के कर्ण और अन्य दो भुजाओं के वर्गों का संबंध (जिसे पाइथागोरस का नियम कहते हैं, परंतु जो शुल्वसूत्र में पाइथागोरस से बहुत पहले लिखा गया था), वृत्त की जीवा और शरों का संबंध, दो श्लोकों में श्रेणी गणित के कई नियम, एक श्लोक में एक-एक बढती हुई संख्याओं के वर्गों और घनों का योगफल जानने का नियम, (क + ख)2 - (क2 + ख2) = 2 क ख ; दो राशियों का गुणनफल और अंतर जानकर राशियों को अलग-अलग करने की रीति, ब्याज की दर जानने का एक नियम जो वर्गसमीकरण का उदाहरण है, वज्र गुणन का नियम, भिन्नों को एकहर करने की रीति, बीजगणित के सरल समीकरण और एक विशेष प्रकार के युगपत् समीकरणों पर आधारित प्रश्नों को हल करने के नियम, दो ग्रहों का युतिकाल जानने का नियम और कुट्टक नियम (सोल्यूशन ऑव इनडिटर्मिनेट इक्वेशन ऑव द फ़स्ट डिग्री) बताए गए हैं।
जितनी बातें तैंतीस श्लोकों में बताई गई हैं उनकों यदि आजकल की परिपाटी के अनुसार विस्तारपूर्वक लिखा जाए तो एक बड़ी भारी पुस्तक बन सकती है।
कालक्रियापाद
संपादित करेंइस अध्याय में 25 श्लोक हैं और यह कालविभाग और काल के आधार पर की गई ज्योतिष संबंधी गणना से संबंध रखता है। पहले दो श्लोकों में काल और कोण की इकाइयों का संबंध बताया गया है। आगे के छह श्लोकों में योग, व्यतीपात, केंद्रभगण और बार्हस्पत्य वर्षों की परिभाषा दी गई है तथा अनेक प्रकार के मासों, वर्षों और युगों का संबंध बताया गया है। नवें श्लोक में बताया गया है कि युग का प्रथमार्ध उत्सर्पिणी और उत्तरार्ध अवसर्पिणी काल है और इनका विचार चंद्रोच्च से किया जाता है। परंतु इसका अर्थ समझ में नहीं आता। किसी टीकाकार ने इसकी संताषजनक व्याख्या नहीं की है। 10वें श्लोक की चर्चा पहले ही आ चुकी है, जिसमें आर्यभट ने अपने जन्म का समय बताया है। इसके आगे बताया है कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से युग, वर्ष, मास और दिवस की गणना आरंभ होती है। आगे के 20 श्लोकों में ग्रहों की मध्यम और स्पष्ट गति संबंधी नियम हैं।
गोलपाद
संपादित करेंयह आर्यभटीय का अंतिम अध्याय है। इसमें 50 श्लोक हैं। पहले श्लोक से प्रकट होता है कि क्रांतिवृत्त के जिस बिंदु को आर्यभट ने मेषादि माना है वह वसंत-संपात-बिंदु था, क्योंकि वह कहते हैं, मेष के आदि से कन्या के अंत तक अपमंडल (क्रांतिवृत्त) उत्तर की ओर हटा रहता है और तुला के आदि से मीन के अंत तक दक्षिण की ओर। आगे के दो श्लोकों में बताया गया हे कि ग्रहों के पात और पृथ्वी की छाया का भ्रमण क्रांतिवृत्त पर होता है। चौथे श्लोक में बताया है कि सूर्य से कितने अंतर पर चंद्रमा, मंगल, बुध आदि दृश्य होते हैं। पाँचवाँ श्लोक बताता है कि पृथ्वी, ग्रहों और नक्षत्रों का आधा गोला अपनी ही छाया से प्रकाशित है और आधा सूर्य के संमुख होने से प्रकाशित है। नक्षत्रों के संबंध में यह बात ठीक नहीं है। श्लोक छह सात में पृथ्वी की स्थिति, बनावट और आकार का निर्देश किया गया है। आठवें श्लोक में यह विचित्र बात बताई गई है कि ब्रह्मा के दिन में पृथ्वी की त्रिज्या एक योजन बढ़ जाती है और ब्रह्मा की रात्रि में एक योजन घट जाती है। श्लोक नौ में बताया गया है कि जैसे चलती हुई नाव पर बैठा हुआ मनुष्य किनारे के स्थिर पेड़ों को विपरीत दिशा में चलता हुआ देखता है वैसे ही लंका (पृथ्वी की विषुवत् देखा पर एक कल्पित स्थान) से स्थिर तारे पश्चिम की ओर घूमते हुए दिखाई पड़ते हैं। परंतु 10वें श्लोक में बताया गया है कि ऐसा प्रतीत होता है, मानो उदय और अस्त करने के बहाने ग्रहयुक्त संपूर्ण नक्षत्रचक्र, प्रवह वायु से प्रेरित होकर, पश्चिम की ओर चल रहा हो। श्लोक 11 में सुमेरु पर्वत (उत्तरी ध्रुव पर स्थित पर्वत) का आकार और श्लोक 12 में सुमेरु और बड़वामुख (दक्षिण ध्रुव) की स्थिति बताई गई है। श्लोक 13 में विषुवत् रेखा पर 90-90 अंश की दूरी पर स्थित चार नगरियों का वर्णन है। श्लोक 14 में लंका से उज्जैन का अंतर बताया गया है। श्लोक 15 में बताया गया है कि भूगोल की मोटाई के कारण खगोल आधे भाग से कितना कम दिखाई पड़ता है। 16वें श्लोक में बताया गया है कि देवताओं और असुरों को खगोल कैसे घूमता हुआ दिखाई पड़ता है। श्लोक 17 में देवताओं, असुरों, पितरों और मनुष्यों के दिन रात का परिमाण है। श्लोक 18 से 23 तक खगोल का वर्णन है। श्लोक 24-33 में त्रिप्रश्नाधिकार के प्रधान सूत्रों का कथन है, जिनसे लग्न, काल आदि जाने जाते हैं। श्लोक 34 में लंबन, 35 में आक्षनदृक्कर्म और 36 में आयनदृक्कर्म का वर्णन है। श्लोक 37 से 47 तक सूर्य और चंद्रमा के ग्रहणों की गणना करने की रीति है। श्लोक 48 में बताया गया है कि पृथ्वी और सूर्य के योग से सूर्य के, सूर्य और चंद्रमा के योग से चंद्रमा तथा ग्रहों के योग से सब ग्रहों के मूलांक जाने गए हैं। श्लोक 49 और 50 में आर्यभटीय की प्रशंसा की गई है।
आर्यभटीय का प्रचार
संपादित करेंआर्यभटीय का प्रचार दक्षिण भारत में विशेष रूप से हुआ। इस ग्रंथ का पठन-पाठन 16वीं 17वीं शताब्दी तक होता रहा, जो इस पर लिखी गई टीकाओं से स्पष्ट है। इस ग्रन्थ की रचना के बाद से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक इसके लगभग १२ भाष्य लिखे गये। लगभग सभी प्रमुख गणितज्ञों ने इस पर भाष्य लिखे जिसमें भास्कर प्रथम का आर्यभटतन्त्रभाष्य (या, आर्यभटीयभाष्य) और ब्रह्मगुप्त का भाष्य सम्मिलित है। दक्षिण भारत में इसी के आधार पर बने हुए पंचांग आज भी वैष्णव धर्मवालों को मान्य होते हैं।
संस्कृत में इसकी चार टीकाएँ हैं - भास्कर प्रथम, सूर्यदेव यज्वा, परमेश्वर (या, परमादीश्वर) और नीलकण्ठ की टीकाएं। परमादीश्वर की टीका का नाम 'भटदीपिका' है। सूर्यदेव यज्वा की संस्कृत टीका का नाम 'आर्यभटप्रकाश' है। यह टीका भटदीपिका से बहुत अच्छी है। अंग्रेजी में आर्यभटीय की एक टीका डाक्टर कर्न (Kern) ने भटदीपिका के साथ सन् १८७४ ई० में हालैण्ड से छपायी थी। सन १९०६ में उदयनारायण सिंह ने इसे पुनः प्रिन्ट किया और इसमें आर्यभटीय का हिन्दी अनुवाद भी सम्मिलित किया।[2] अंग्रेजी में आर्यभटीय के दो अनुवाद हैं, एक श्री प्रबोधचंद्र सेनगुप्त (1927 ई.) का और दूसरा श्री डब्ल्यू.ई. क्लार्क का (1930 ई.)।
आर्यभट के दूसरे ग्रंथ का प्रचार उत्तर भारत में विशेष रूप से हुआ, जो इस बात से स्पष्ट है कि आर्यभट के तीव्र आलोचक ब्रह्मगुप्त को वृद्धावस्था में अपने ग्रंथ खंडखाद्यक में आर्यभट के ग्रंथ का अनुकरण करना पड़ा। परन्तु अब खण्डखाद्यक के व्यापक प्रचार के सामने आर्यभट के ग्रंथ का पठन-पाठन कम हो गया और धीरे-धीरे लुप्त हो गया।
याकूब इब्न तारीक की पुस्तक तरकीब अल-अफ्लाक में धरती का व्यास २१०० फारसख दिया गया है जो आर्यभट द्वारा दिए गये मान (१०५० योजन) से लिया गया लगता है। अल-ख्वारिज्मी ने ८२० ई के आसपास आर्यभटीय का अरबी में अनुवाद किया।
सन्दर्भ
संपादित करें- ↑ "अंतरिक्ष विज्ञान में भारत के योगदान को समर्पित है बिहार की यह जगह". मूल से 28 जुलाई 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 25 जुलाई 2017.
- ↑ Aryabhatiya with English commentary by Prof. K. S. Shukla
इन्हें भी देखें
संपादित करेंबाहरी कड़ियाँ
संपादित करें- आर्यभटीय का मूलपाठ (देवनागरी में)
- आर्यभटकृतम् आर्यभटीयम् भास्कर-विरचित-भाष्योपेतम् (आर्यभटीय, भास्कर विरचित भाष्य सहित)
- आर्यभटीयम् (परमेश्वर कृत संस्कृत टीका तथा उदयनारायण सिंह द्वारा कृत हिन्दी अनुवाद (१९०६ ई) सहित
- Aryabhatheeya with commentary of Bhaskar and Someshwar (कृपाशंकर शुक्ल, लखनऊ विश्वविद्यालय)
- The Aryabhatiya Of Aryabhata (1930) - Author: Walter Eugene Clark (Internet Archieve) : आर्यभटीय के श्लोकों का अंग्रेजी में अर्थ
- आर्यभटीय और गणित (भाग-1), भाग २ (हिन्दी ब्लॉग, चर्चा)
- आर्यभटीय का मूल पाठ (क्योटो इनकोडिंग में)
- आर्यभटीय का मूल पाठ
- The Aryabhatiya: Foundations of Indian Mathematics
- The Àryabhatiya of Àryabhata: The oldest exact astronomical constant?
- Aryabhata and his commentators
- आर्यभट का सापेक्षवाद
- RSA Conference 2006