संस्कृत भाषा में रचित बौद्धों का चरितप्रधान साहित्य अवदान साहित्य कहलाता है। "अवदान" (प्राकृत अपदान) का अमरकोश के अनुसार अर्थ है - प्राचीन चरित, पुरातन वृत्त (अवदानं कर्मवृत्तंस्यात्)। "अवदान" से तात्पर्य उन प्राचीन कथाओं से है जिनके द्वारा किसी व्यक्ति की गुणगरिमा तथा श्लाघनीय चरित्र का परिचय मिलता है। कालिदास ने इसी अर्थ में "अवदान" शब्द का प्रयोग किया है (रघुवंश, 11. 21)। बौद्ध साहित्य में "जातक" शब्द भी बहुशः इसी अर्थ में प्रचलित है, परन्तु अवदान जातक से कतिपय विषयों में भिन्न है। "जातक" भगवान बुद्ध की पूर्वजन्म की कथाओं से सर्वथा सम्बद्ध होते हैं जिनमें बुद्ध ही पूर्वजन्म में प्रधान पात्र के रूप में चित्रित किए गए रहते हैं। "अवदान" में यह बात नहीं पाई जाती। अवदान प्रायः बुद्धोपासक व्यक्तिविशेष आदर्श चरित होता है। बौद्धों ने जनसाधारण में अपने धर्म के तत्वों के प्रचार के निमित्त सुबोध संस्कृत गद्य-पद्य में इस सुन्दर साहित्य की रचना की है।

अवदान शतक

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इस साहित्य का प्रख्यात ग्रंथ "अवदानशतक" है जो दस वर्गों में विभक्त है तथा प्रत्येक वर्ग में दस-दस कथाएँ हैं। इन कथाओं का रूप थेरवादी (हीनयानी) है। महायान धर्म के विशिष्ट लक्षणों का यहाँ विशेष अभाव दृष्टिगोचर होता है। यहाँ बोधिसत्व संप्रदाय की बातें बहुत कम हैं। बुद्ध की उपासना पर आग्रह करना ही इन कथाओं का उद्देश्य है। इन कथाओं का वर्गीकरण एक सिद्धान्त के आधार पर किया गया है। प्रथम वर्ग की कथाओं में बुद्ध की उपासना करने से विभिन्न दशा के मनुष्यों (जैसे ब्राह्मण, व्यापारी, राजकन्या, सेठ आदि) के जीवन में चमत्कार उत्पन्न होता है तथा वे अगले जन्म में बुद्धत्व पाते हैं। अवदानशतक का चीनी भाषा में अनुवाद तृतीय शताब्दी के पूर्वार्ध में हुआ था। फलतः इसका समय द्वितीय शताब्दी माना जाता है।

दिव्यावदान

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महायानी सिद्धांतों पर आश्रित कथानकों का रोचक वर्णन इस लोकप्रिय ग्रंथ का प्रधान उद्देश्य है। इसका 34वाँ प्रकरण "महायानसूत्र" के नाम से अभिहित किया गया है। यह उल्लेख ग्रंथ के मौलिक सिद्धांतों की दिशा प्रदर्शित करने में उपयोगी माना जा सकता है। दिव्यावदान, अवदानशतक के कथानक तथा काव्यशैली से विशेषतः प्रभावित हुआ है। इसकी आधी कथाएँ विनयपिटक से और बाकी सूत्रालंकार से संगृहीत की गई हैं। समग्र ग्रंथ का तो नहीं, परन्तु कतिपय कथाओं का अनुवाद चीनी भाषा में तृतीय शतक में किया गया था। शुंग वंश के राजा पुष्यमित्र (178 ई.पू.) तक का उल्लेख यहाँ उपलब्ध होता है। फलतः इसके कतिपय अंशों का रचनाकाल द्वितीय शताब्दी मानना उचित होगा, परन्तु समग्र ग्रंथ का भी निर्माणकाल तृतीय शताब्दी के बाद नहीं है।

अशोकावदान

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दिव्यावदान के ही कतिपय अवदान (26-29 अवदान) महाराज प्रियदर्शी अशोक से संबद्ध होने के कारण "अशोकावदान" के नाम से पुकारे जाते हैं। इन कथाओं का, जो ऐतिहासिक दृष्टि से नितांत महत्वपूर्ण हैं, केन्द्रबिन्दु प्रियदर्शी अशोक ही हैं जिनके व्यक्तिगत घरेलू जीवन, धार्मिक निष्ठा तथा धर्मप्रचार के अदम्य उत्साह की जानकारी के लिए ये कथाएँ अभिप्रेत हैं। इस अवदान में दो कथाएँ अपनी रोचकता के कारण विशेष महत्त्व रखती हैं। अशोक के पुत्र कुणाल की करुण कथा बौद्धयुग की रोमांचक कथाओं में बड़ी प्रख्यात है। बुद्ध का रूप धारण कर मार का आचार्य उपगुप्त से शिक्षा के लिए प्रार्थना करना भी बड़ा ही रोचक आख्यान है, नाटक के समान हृदयावर्जक है।

कालान्तर में अवदानशतक की कथाओं का ही श्लोकबद्ध संक्षिप्त रूप अनेक ग्रंथों में मिलता है। "अवदानशतक" के ऊपर आश्रित ग्रंथों में कल्पद्रुमावदानमाला प्राचीनतम प्रतीत होत है। इसकी प्रथम तथा अवदानशतक की अंतिम कथा एक ही है। आचार्य उपगुप्त ने इन कथाओं को अशोक के उपदेश के लिए कहा है। यहाँ अवदानशतक के प्रत्येक वर्ग की प्रथम तथा द्वितीय कथाओं का ही शब्दान्तर से वर्णन है। रत्नावदानमाला में इसी प्रकार प्रत्येक वर्ग की तीसरी और चौथी कथाओं का संक्षेप है। अशोकावदानमाला, द्वाविंशत्यवदान, भद्रकल्पावदान, व्रतावदानमाला, विचित्रकर्णिकावदान तथा सुमोगधावदान इस साहित्य के अन्य ग्रंथ हैं। कश्मीरी कवि क्षेमेंद्र (11वीं शताब्दी) रचित तथा उनके पुत्र सोमेंद्र द्वारा सम्पूरित अवदानकल्पलता यह साहित्य एक बहुमूल्य रत्न है जिसकी आभा तिब्बती अनुवाद में भी किसी प्रकार फीकी नहीं होने पाई है।

बाहरी कड़ियाँ

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