इस्लाम के पांच मूल स्तंभ

इस्लाम के पांच मूल स्तंभ ||`(अरकान ए इस्लाम أركان الإسلام ; और अरकान ए दीन أركان الدين") मूल रूप से मुसलमानों के विश्वास के अनुसार इस्लाम धर्म के पाँच मूल स्तंभ या फ़र्ज माना जाता है, जो हर मुस्लमान को अपनी ज़िंदगी का मूल विचार माना जाता है।[1] यह बाते मशहूर हदीस "हदीस ए जिब्रील" में बताया गया है।[2][3][4][5]

पाँच स्तंभ संपादित करें

 
इस्लाम के पांच मूल स्तंभ को दर्शाती एक कलाक्रुती

Abdullah Ahmad

कुछ विस्तार से संपादित करें

सुन्नी इस्लाम समूह के ५ स्तंभ हैं तो शिया इस्लाम समूह के अनुसार ६ हैं।

  • साक्षी होना (शहादा)- इस का शाब्दिक अर्थ है गवाही देना। इस्लाम में इसका अर्थ में इस अरबी घोषणा से हैः

अरबी:لا اله الا الله محمد رسول الله लिप्यांतर : ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मद रसूल अल्लाह हिन्दी: अल्लाह् के सिवा और कोई परमेश्वर नहीं है और मुहम्मद अल्लाह के रसूल (प्रेषित) हैं। इस घोषणा से हर मुसलमान ईश्वर की एकेश्वरवादिता और मुहम्मद के रसूल होने के अपने विश्वास की गवाही देता है। यह इस्लाम का सबसे प्रमुख सिद्धांत है। हर मुसलमान के लिये अनिवार्य है कि वह इसे स्वीकारे। एक गैर-मुस्लिम को धर्म-परिवर्तन कर इस्लाम स्वीकार करने के लिये एक इस्लामी धार्मिक न्यायाधीश के सम्मुख इसे स्वीकार कर लेना पर्याप्त है।

  • उपासना (प्रार्थना) (सलात / नमाज़)- इसे फ़ारसी में नमाज़ भी कहते हैं। यह एक प्रकार की प्रार्थना है जो अरबी भाषा में एक विशेष नियम से पढ़ी जाती है। इस्लाम के अनुसार नमाज़ ईश्वर के प्रति मनुष्य की कृतज्ञता दर्शाती है। यह मक्का की ओर मुँह कर के पढ़ी जाती है। हर मुसलमान के लिये दिन में ५ बार नमाज़ पढ़ना अनिवार्य है। विवशता और बीमारी की हालत में इसे नहीं टाला जा सकता है।
  • उपवास - व्रत (रमज़ान के महीने में सौम या रोज़ा रखना)- इस के अनुसार इस्लामी कैलेंडर के नवें महीने में सभी सक्षम मुसलमानों के लिये (फरज)

सूर्योदय से (म.गरिब) सूर्यास्त तक व्रत रखना अनिवार्य है। इस व्रत को रोज़ा भी कहते हैं। रोज़े में हर प्रकार का खाना-पीना वर्जित है। अन्य व्यर्थ कर्मों से भी अपनेआप को दूर रखा जाता है। यौन गतिविधियाँ भी वर्जित हैं। विवशता में रोज़ा रखना आवश्यक नहीं होता। रोज़ा रखने के कई उद्देश्य हैं जिन में से दो प्रमुख उद्देश्य यह हैं कि दुनिया के बाकी आकर्षणों से ध्यान हटा कर ईश्वर से निकटता अनुभव की जाए और दूसरा यह कि निर्धनों, भिखारियों और भूखों की समस्याओं और परेशानियों का ज्ञान हो।

  • दान (ज़कात)- यह एक वार्षिक दान है जो कि हर आर्थिक रूप से सक्षम मुसलमान को निर्धन मेसलमानों में बांटना अनिवार्य है। अधिकतर मुसलमान अपनी वार्षिक आय का २.५% दान में देते हैं। यह एक धार्मिक कर्तव्य इस लिये है क्योंकि इस्लाम के अनुसार मनुष्य की पून्जी वास्तव में ईश्वर की देन है। और दान देने से जान और माल कि सुरक्षा होती है।
  • तीर्थ यात्रा (हज)- हज उस धार्मिक तीर्थ यात्रा का नाम है जो इस्लामी कैलेण्डर के १२वें महीने में मक्का में जाकर की जाती है। हर समर्पित मुसलमान (जो हज का खर्च‍‍ उठा सकता हो और विवश न हो) के लिये जीवन में एक बार इसे करना अनिवार्य है।

सन्दर्भ संपादित करें

  1. "हज से पहले काबा में होती थी कई ईश्वरों की पूजा". मूल से 19 अगस्त 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 19 अगस्त 2018.
  2. "Pillars of Islam". Encyclopædia Britannica Online. मूल से 29 अप्रैल 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2007-05-02.
  3. "Pillars of Islam". Oxford Centre for Islamic Studies. United Kingdom: Oxford University. मूल से 5 मई 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2010-11-17.
  4. "Five Pillars". United Kingdom: Public Broadcasting Service (PBS). मूल से 29 मई 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2010-11-17.
  5. "The Five Pillars of Islam". Canada: University of Calgary. मूल से 7 जून 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2010-11-17.

इस्लाम के 5 बुनियादी सिद्धांत