कनक चम्पा
कनक चंपा (वैज्ञानिक नाम : Pterospermum acerifolium) माध्यम ऊँचाई का एक वृक्ष है जो भारतीय उपमहाद्वीप में पाया जता है।
कनक चम्पा Pterospermum acerifolium | |
---|---|
वैज्ञानिक वर्गीकरण | |
जगत: | Plantae |
विभाग: | Tracheophyta |
वर्ग: | Magnoliopsida |
गण: | Malvales |
कुल: | Malvaceae |
वंश: | Pterospermum |
जाति: | Pterospermum acerifolium |
द्विपद नाम | |
Pterospermum acerifolium (L.) Willd. | |
पर्यायवाची | |
Pterospermadendron acerifolium Kuntze |
मुख्यतः यह भारत और म्यांमार (बर्मा) में पाया जाता है। हिंदी में ही इसके कई नाम हैं - कनक चंपा, मुचकुंद तथा पद्म पुष्प। बंगाली में 'रोसु कुंडा' तथा सिक्किम में इसे 'हाथीपैला' कहते हैं। इसकी लकड़ी लाल रंग की होती है और इसके तख्ते बनते हैं। कनक चम्पा के वृक्ष को खुशबू के साथ-साथ खाने की थाली के पेड़ के रूप में जाना जाता है। इसके पत्ते ४० से.मी. तक लम्बे होते हैं। तथा दुगनी चौड़ाई के होते हैं। यह वृक्ष ५० से ७० फिट की ऊँचाई तक बढ़ सकता है। भारत के कुछ भागों में इसके पत्ती का प्रयोग बर्तन की जगह किया जाता है। फूल कलियों के अन्दर बन्द होते हैं। कलियाँ पाँच खण्डों में बटी होती हैं। छिले केले की तरह दिखाई देती हैं। प्रत्येक फूल केवल एक रात तक रहता है। मधुर और सुगन्धित होने के कारण चमगादड़ इन फूलों की तरफ आकर्षित होते हैं। पत्ते, छाल चेचक और खुजली की दवा बनाने में इस्तेमाल होते हैं। इसके वृक्ष की लकड़ी से तख्त बनाये जाते हैं। यह वृक्ष पश्चिमी घाट और भारत के पर्णपाती जगलों में पाया जाता है। समुद्री खारा पानी इसके लिए अत्यन्त उपयुक्त होता है।[1]
कर्णिकार
संपादित करेंकर्णिकार पुष्पित होने पर वनश्री की शोभा बढ़ाता है और जिसके पुष्पों एवं मंजरियों को महिलाएँ कर्णाभरण के रूप में प्राचीन काल से उपयोग करती रही हैं। संस्कृत साहित्य में 'कर्णिकार' का बहुत उल्लेख हुआ है। किन्तु मतैक्य नहीं है कि कर्णिकार ठीक-ठीक कौन सा वृक्ष है। कालिदास ने अपने काव्य में अशोक के साथ अनगिन स्थानों पर कर्णिकार का उल्लेख किया है।
- कर्णिकारलताः फुल्लकुसुमाकुलषट्पदाः।
- सकज्जलशिखा रेजुर्दीपमाला इवोज्ज्वलाः॥ (विक्रमोर्वशीयम्)
ब्रांडिस (Brandis) अशोक और अमलतास दोनों को एक ही जाति (Cassia) का सिद्ध करते हैं। प्रसिद्ध है कि यदि कर्णिकार वृक्ष के आगे स्त्रियाँ नृत्य करें तो प्रमुदित होकर वह पुष्पित हो उठता है।
आयुर्वेदीय संहिताओं में कर्णिकार का नाम नहीं मिलता, परंतु निघंटुओं में यह प्राय: आरग्वध (अमलतास) का एक भेद अथवा पर्याय माना गया है। अमरकोष के टीकाकारों ने इसकी लोकसंज्ञा 'कंठचंपा' बतलाई है, जो मुकचंद अथवा कचनार दोनों ही हो सकता है। भावप्रकाश के रचयिता 'पांगारा इति लोके प्रसिद्ध:' कहकर पारिभद्र (फरहद) को कर्णिकार मानते हैं। इस प्रकार विभिन्न मतों के अनुसार चार वृक्ष जातयों-अमलतास, कचनार, मुकचंद और फरहद-को कर्णिकार माना जा सकता है।
काव्य में कर्णिकार के जिस रूपरंग की ओर संकेत किया गया है उससे ज्ञात होता है कि इसके पुष्पों को 'हेमद्युति' अर्थात् स्वर्णवत् पीतवर्ण होना चाहिए। अमलतास की मंजरियों में पीतवर्ण के सुकोमल पुष्प रहते हैं, जिन्हें कर्णाभरण के रूप में पहन भी सकते हैं। कचनार, पारिभद्र और मुचकंद के पुष्प भी कर्णफूल के सदृश प्रयुक्त होते रहे हैं। संभव है, उपयोगसादृश्य के कारण उन्हें भी 'कर्णिकार' कह दिया गया हो, क्योंकि कहीं-कहीं इसे 'हुतहुताशनदीप्ति' भी कहा गया है। कचनार तथा पारिभद्र के पुष्पों को यह विशेषण दिया जा सकता है।
बाहरी कड़ियाँ
संपादित करेंसन्दर्भ
संपादित करें- ↑ www.abhivyakti-hindi.org/prakriti/2013/champa/champa.htm